Friday, December 27, 2019

पंचकोश साधना NEW PAGE





5 आनंदमय कोश

गायत्री का पांचवां मुख आनंदमय कोश है। जिस आवरण में पहुँचने पर आत्मा को आनंद मिलता है, जहां उसे शांति, सुविधा, स्थिरता, निश्चिन्तता एवं अनुकूलता की स्थिति प्राप्त होती है, वही आनंदमय कोष है । गीता के दूसरे अध्याय में स्थितप्रज्ञ की जो परिभाषाएं की गयी हैं और समाधिस्थ के जो लक्षण बताये गए हैं , वे ही गुण कर्म स्वभाव आनंदमयी स्थिति में हो जाते हैं। आत्मिक परमार्थों की साधना में मनोयोग पूर्वक संलग्न होने के कारण सांसारिक आवश्यकताएं बहुत सिमित रह जाती हैं । उनकी पूर्ती में इसलिये बाधा नहीं आती कि साधक अपनी शारीरिक और मानसिक स्वस्थता के द्वारा जीवनोपयोगी वस्तुओं को उचित मात्रा में आसानी से कमा सकता है ।

प्रकृति के परिवर्तन, विश्वव्यापि उतार चढाव, कर्मों की गहन गति, प्रारब्ध भोग, वस्तुओं की नश्वरता, वैभव की चंचल चपलता, आदि कारणों से जो उलझन भरी परिस्थितियां सामने आकर परेशान किया करते हैं उन्हें देखकर वह हंस देता है। सोचता है प्रभु ने इस संसार में कैसी धुप छाँह का, आँख मिचौनी का खेल खड़ा कर दिया है। अभी ख़ुशी तो अभी रंज, अभी वैभव तो अभी निर्धनता, अभी जवानी तो अभी अभी बुढ़ापा, अभी जन्म तो अभी मृत्यु, अभी नमकीन तो अभी मिठाई, यह दुरंगी दुनिया कैसी विलक्षण है। दिन निकलते देर नहीं हुई कि रात की तयारी होने लगी। रात को आये जरा सी देर हुई कि नवप्रभात का आयोजन होने लगा । वह तो यहाँ का आदि खेल है, बादल की छाया की तरह पल पल में धुप छाँह आती है । मैं इन तितलियों के पीछे कहाँ दौड़ूं। मैं इन क्षण क्षण पर उठने वाली लहरों को कहाँ तक गिनुं, पल में रोने पल में हंसने की बाल क्रीड़ा मैं क्यों करूँ।

आनंदमय कोश में पहुंचा हुआ जीव अपने पिछले सारे चार शरीरों अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय कोश को भली प्रकार समझ लेता है, उनकी अपूर्णता और संसार की परिवर्तनशीलता दोनों के मिलने से ही एक विषैली गैस बन जाती है जो जीवों को पाप तापों के काले धुएं से कलुषित कर देती है । यदि इन दोनों पक्षों के गुण दोषों को समझकर उन्हें अलग अलग रखा जाये, बारूद और अग्नि को इकठ्ठा न होने दिया जाये, तो विस्फोट की कोई सम्भावना नहीं है । यह समझकर वह अपने दृष्टिकोण में दार्शनिकता, तात्विकता, वास्तविकता, सूक्ष्मदर्शिता को प्रधानता देता है । तदनुसार उसे सांसारिक समस्याएँ बहुत हलकी और महत्वहीन मालूम पड़ती हैं। जिन बातों को लेकर साधारण मनुष्य बेतरह दुखी रहते हैं , उन स्थितियों को वह हलके विनोद की तरह समझकर उपेक्षा में उड़ा देता है और आत्म भूमिका में अपना दृढ स्थान बनाकर संतोष और शांति का अनुभव करता है।
गीता के दूसरे अध्याय में भगवन श्रीकृष्ण ने बताया है कि स्थितप्रज्ञ मनुष्य अपने भीतर की आत्म स्थिति में रमण करता है। सुख दुःख में समान रहता है, न प्रिय से राग करता है, न अप्रिय से द्वेष करता है। इन्द्रियों को ईन्द्रियों तक ही सिमित रहने देता है, उसका प्रभाव आत्मा पर नहीं होने देता, कछुआ जैसे अपने अंगों को समेटकर अपने भीतर कर लेता है , वैसे ही वह अपनी कामनाओं और लालसाओं को संसार में न फैलाकर अपनी अंतः भूमिका में ही समेट लेता है, जिसकी मानसिक स्थित ऐसी होती है उसे योगी, ब्रह्मभूत, जीवन मुक्त, या समाधिस्थ कहते हैं ।
आनन्दमय कोश की स्थिति पञ्ज भूमिका है। इसे समाधि अवस्था भी कहते हैं। समाधि अनेक प्रकार की हैं। काष्ठ या जड़- समाधि, भाव-समाधि, ध्यान-समाधि, प्राण-समाधि, सहज- समाधि आदि २७ समाधियाँ बताई गई हैं। मूर्छा, नशा एवं क्लोरोफॉर्म आदि सूंघने से आई हुई समाधि को काष्ठ-समाधि कहते हैं। किसी भावना का इतना अतिरेक हो कि मनुष्य की शारीरिक चेष्टा संज्ञाशून्य हो जायें उसे भाव-समाधि कहते है। ध्यान में इतनी तन्मयता आ जाय कि उसे अदृश्य एवं निराकार सत्ता साकार दिखाई पड़ने लगे, उन्हें ध्यान समाधि कहते हैं, इष्ट देव के दर्शन जिन्हें होते हैं, ध्यान-समाधि की अवस्था में ऐसी चेतना आ जाती है कि वह अन्तर उन्हें विदित होने पाता है कि हम दिव्य नेत्रों से ध्यान कर रहे हैं या आँखों से स्पष्ट रूप से अमुक प्रतिमा को देख रहे हैं। प्राण-समाधि ब्रह्मरन्ध्र में प्राणों को एकत्रित करके की जाती है। हठयोगी इसी समाधि द्वारा शरीर को बहुत समय तक मृत बनाकर भी जीवित रहते हैं। अपने आपको ब्रह्म में लीन होने का जिस अवस्था में बोध होता है उसे ब्रह्म समाधि कहते हैं।

इस प्रकार २७ समाधियों में से वर्तमान देशकाल पात्र की स्थिति में सहज समाधि सुलभ और सुख साध्य है। महात्मा कबीर ने सहज समाधि पर बड़ा बल दिया है। अपने अनुभव से उन्हें सहज समाधि को सर्व सुलभ देखकर अपने अनुयायियों को इसी साधना के लिए प्रेरित किया है।
महात्मा कबीर का वचन है-
साधो ! सहज समाधि भली।
गुरु प्रताप भयो जा दिन ते सुरति न अनत चली ॥
आँख न मूँदूँ कान न रूँदूँ काया कष्ट न धारूँ।
खुले नयन से हँस- हँस देखूँ सुन्दर रूप निहारूँ ॥
कहूँ सोईनाम, सुनूँ सोई सुमिरन खाऊँ सोई पूजा।
गृह उद्यान एक सम लेखूँ भाव मिटाऊँ दूजा ॥
जहाँ- जहाँ जाऊँ सोई परिक्रमा जो कुछ करूँ सो सेवा।
जब सोऊँ तब करूँ दण्डवत पूँजू और न देवा ॥
शब्द निरन्तर मनुआ राता मलिन वासना त्यागी।
बैठत उठत कबहूँ ना विसरें, ऐसी ताड़ी लागी ॥
कहैं ‘कबीर’ वह अन्मनि रहती सोई प्रकट कर गाई।
दुख सुख के एक परे परम सुख, तेहि सुख रहा समाई ॥

उपरोक्त पद में सदगुरु कबीर ने सहज की समाधि की स्थिति का स्पष्टीकरण किया है। यह समाधि सहज है, सर्व सुलभ है, सर्व साधारण की साधना शक्ति के भीतर है इसलिए उसे सहज समाधि का नाम दिया गया है। हठ-साधनायें कठिन हैं। उनका अभ्यास करते हुए समाधि की स्थिति तक पहुँचना असाधारण कष्ट-साध्य है। चिरकालीन तपश्चर्या षट्कर्मो की श्रम- साध्य साधना सब किसी के लिए सुलभ नहीं है। अनुभवी गुरु के सम्मुख रहकर विशेष सावधानी के साथ वे क्रियायें साधनी हैं, फिर यदि उनकी साधना खण्डित हो जाती है तो संकट भी सामने आ सकते हैं। जो योग-भ्रष्ट लोगों के समान कभी भयंकर रूप से आ खड़े होते हैं। कबीरजी सहज् योग को प्रधानता देते हैं, सहज योग का तात्पर्य है, सिद्धान्तमय जीवन कर्त्तव्यपूर्ण कार्यक्रम। क्योंकि इन्द्रिय भोगों, पाशविक वृत्तियों एवं काम, क्रोध, लोभ, मोह की तुच्छ इच्छाओं से प्रेरित होकर आमतौर से लोग अपना कार्यक्रम निर्धारित करते हैं और इसी कारण भाँति- भाँति के कष्टों का अनुभव करते हैं।
सहज समाधि असंख्य प्रकार की योग-साधनाओं में से एक है। इसकी विशेषता यह है कि साधारण रीति के सांसारिक कार्य करते हुए भी साधना- क्रम चलता है। इसी बात को ही यों कहना चाहिए कि ऐसा व्यक्ति जीवन के सामान्य सांसारिक कार्य, कर्त्तव्य, यज्ञ, कर्म, ईश्वरीय आज्ञा-पालन की दृष्टि से करता है। भोजन करने में उसकी भावना रहती है कि प्रभु की एक पवित्र धरोहर शरीर को यथावत रखने के लिए भोजन किया जा रहा है। खाद्य पदार्थो का चुनाव करते समय शरीर की स्वस्थता उसका ध्येय रहती है। स्वादों के चटोरेपन के बारे में वह सोचता तक नहीं, कुटुम्ब का पालन-पोषण करते समय वह परमात्मा की एक सुरम्य वाटिका के माली की भाँति सिंचन, सम्वर्धन का ध्यान रखता है, ईश्वरप्रदत्त आवश्यकताओं की पूर्ति का एक पुनीत साधनामात्र समझता है। अमीर बनने के लिए जैसे भी बने वैसे धन-संग्रह करने की तृष्णा उसे नहीं होती हैं। बातचीत करना, फिरना, खाना- पीना, सोना- जागना, जीविकोपार्जन, प्रेम, द्वेष आदि सभी कार्यों को करने से पूर्व परमार्थ को, कर्तव्य को, प्रधानता देते हुए करने से वे समस्त साधारण काम-काज भी यज्ञ-रूप हो जाते हैं।

जब हर काम के मूल में कर्तव्य भावना की प्रधानता रहेगी तो उन कार्यों में पुण्य प्रमुख रहेगा। सद्बुद्धि से सद्भाव से किये हुए कार्यों द्वारा अपने आपको और दूसरों को सुख-शान्ति ही प्राप्त होती है। ऐसे सत्कार्य मुक्तिप्रद होते हैं, बन्धन नहीं करते। सात्विकता, सद्भावना और लोक-सेवा की पवित्र आकांक्षा के साथ जीवन-संचालन करने पर कुछ दिन में वह नीति एवं कार्य-प्रणाली पूर्णतया अभ्यस्त हो जाती है और जो चीज अभ्यास में आती है, वह प्रिय लगने लगती है, उसमें रस आने लगता है। बुरे स्वाद की, खर्चीली, प्रत्यज्ञ हानिकारक, दुष्पाच्य, नशीली चीजें, मदिरा, अफीम, तम्बाकू आदि जब कुछ दिन के बाद प्रिय लगने लगती हैं, और उन्हें बहुत कष्ट उठाते हुए भी छोड़ने नहीं बनता, जब तामसी तत्व कालान्तर के अभ्यास से इतने प्राणप्रिय हो जाते हैं, तो कोई कारण नहीं कि सात्विक तत्व उससे अधिक प्रिय न हो सकें।
सात्विक सिद्धान्त को जीवन-आधार बना लेने से उन्हीं के अनुरूप सार-विचार और कार्य करने से आत्मा को सत्-तत्व में रमण करने का अभ्यास पड़ जाता है यह अभ्यास जैसे-जैसे परिपक्व होता है, वैसे-वैसे सह- योग का रसास्वादन होने लगता है, उसमें आनन्द आने लगता है। जब अधिक दृढ़ता, श्रद्धा, विश्वास, उत्साह एवं साहस के साथ सत्परायणता में, सिद्धान्त संचालित जीवन में, संलग्न रहता है तो वह उसकी स्थायी वृत्ति बन जाती है। उसे उसी में तन्मयता रहती है, एक दिव्य आवेश सा छाया रहता है, उसकी मस्ती, प्रसन्नता, सन्तुष्टि असाधारण होती है। इस स्थिति को सहज-योग की समाधि या “सहज समाधि” कहा जाता है।

कबीर ने उसी समाधि का उपरोक्त पद में उल्लेख किया है, कहते हैं- हे साधुओं ! सहज समाधि श्रेष्ठ है जिस दिन से गुरु की कृपा और वह स्थिति प्राप्त हुई है, उस दिन से सूरतु दूसरी जगह नहीं गई, चित्त डावाँडोल नहीं हुआ, मैं आँख मूँदकर, कान मूँदकर कोई हठयोगी की तरह काया में कष्टदायिनी साधना नहीं करता। मैं तो आँख खोले रहता हूँ और हँस- हँसकर परमात्मा की पुनीत कृति का सुन्दर रूप देखता हूँ। जो कहता हूँ सो नाम जप है, जो सुनाता हूँ सो सुमिरन है, जो खाता-पीता हूँ सो पूजा है। घर और जंगल एक -सा देखता और अद्वैत का अभाव मिटाता हूँ जहाँ- जहाँ जाता हूँ सोई परिक्रमा है, जो कुछ करता हूँ सोई- सोई सेवा है। जब सोता हूँ तो वह मेरी दण्डवत् है। मैं एक को छोड़कर अन्य देव को नहीं पूजता। मन की मलिन वासना छोड़कर निरन्तर शब्द में, अन्तःकरण की ईश्वरीय वाणी सुनने में रत रहता हूँ। ऐसी ताली लगी है, निष्ठा जमी है कि उठते- उठते वह कभी नहीं बिसरती। कबीर कहते हैं कि “मेरी यह उनमनि- हर्ष शोक से रहित स्थिति है, जिसे प्रकट करके गाया है। दुख-सुख से परे जो एक परम सुख है, मैं उसी में समाया रहता हूँ।”
यह सहज समाधि उन्हें प्राप्त होती है ‘जो शब्द में रत’ रहते हैं। भोग एवं तृष्णा की क्षुद्र वृत्तियों का परित्याग करके जो अन्तःकरण में प्रतिक्षिण ध्वनित होने वाले ईश्वरीय शब्दों को सुनते हैं, सत् की दिशा में चलने की ओर दैवी संकेतों को देखते हैं और उन्हीं को जीवन- नीति बनाते हैं वे ‘शब्द रत’ सहसज योगी उस परम आनन्द की सहज समाधि में सुख को प्राप्त होते हैं। चूँकि उनका उद्देश्य ऊँचा रहता है, दैवी प्रेरणा पर निर्भर रहता है, इसलिए उनके समस्त कार्य पुण्य रूप बन जाते हैं।

जैसे खाँड़ से बने खिलौने आकृति में कैसे ही क्यों न हों, होंगे मीठे ही, इसी प्रकार सद्भावना और उद्देश्य परायणता के साथ किए हुए काम बाह्य आकृति में कैसे ही क्यों न दिखाई देते हों, होंगे वे यज्ञ रूप ही, इसी प्रकार पुण्यमय ही। सत्य परायण व्यक्तियों के सम्पूर्ण कार्य, छोटे से छोटे कार्य, जहाँ तक कि चलना सोना, देखना तक ईश्वर-आराधना बन जाते हैं।
स्वल्प प्रयास में समाधि का शाश्वत सुख उपलब्ध करने की इच्छा रखने वाले अध्यात्म मार्ग के पथिकों को चाहिए कि वे जीव का दृष्टिकोण उच्च उद्देश्यों पर अवलम्बित करें, दैनिक कार्यक्रम का सैद्धान्तिक दृष्टि से निर्णय करें। भोग से उठकर योग में आस्था का आरोपण करें। इस दिशा में जो जितनी प्रगति करेगा, उसे उतने ही अंशों में समाधि के लोकोत्तर सुख का रसास्वादन होता चलेगा।
आनन्दमय कोश की साधना में आनन्द का रसास्वादन होता है। इस प्रकार की आनन्दमयी साधनाओं में से कुछ प्रमुख साधनाऐं नीचे दी जाती हैं। सहज समाधि की भाँति यह कुछ महासाधनाऐं भी बड़ी महत्वपूर्ण हैं, साथ ही उनकी सुगमता भी असंदिग्ध है।

नाद साधना

‘शब्द’ को ब्रह्मा कहा है क्योंकि ईश्वर और जीव को एक श्रृंखला में बाँधने का काम शब्द के द्वारा ही होता है। सृष्टि की उत्पत्ति का प्रारम्भ भी शब्द से हुआ है। पंच तत्वों में सबसे पहले आकाश बना, आकाश की तन्मात्रा शब्द है। अन्य समस्त पदार्थों की भाँति शब्द भी दो प्रकार का है, सूक्ष्म और स्थूल। सूक्ष्म शब्द को विचार कहते हैं और स्थूल शब्द को नाद।
ब्रह्म लोक से हमारे लिए ईश्वरीय शब्द प्रवाह सदैव प्रवाहित होता है। ईश्वर हमारे साथ वार्तालाप करना चाहता है, पर हममें से बहुत कम लोग ऐसे हैं, जो उसे सुनना चाहते हैं या सुनने की इच्छा करते हैं, ईश्वरीय शब्द निरन्तर एक ऐसी विचारधारा प्रेरित करते हैं जो हमारे लिए अतीव कल्याणकारी होती हैं, उसको यदि सुना और समझा जा सके तथा उसके अनुसार मार्ग निर्धारित किया जा सके तो निस्सन्देह जीवनोद्देश्य की ओर द्रुत गति से अग्रसर हुआ जा सकता है। यह विचारधारा हमारी आत्मा से टकराती है।
हमारा अन्तःकरण एक रेडियो है, जिसकी ओर यदि अभिमुख हुआ जाय, अपनी-वृत्तियों को अन्तर्मुख बनाकर आत्मा में प्रस्फुटित होने वाली दिव्य विचार-लहरियों को सुना जाय, तो ईश्वरीय वाणी हमें प्रत्यक्ष में सुनाई पड़ सकती हैं, इसी को आकाशवाणी कहते हैं। हमें क्या करना चाहिए, क्या नहीं ? हमारे लिए क्या उचित है, क्या अनुचित ? इसका प्रत्यक्ष सन्देश ईश्वर की ओर से प्राप्त होता है। अन्तःकरण की पुकार, आत्मा का आदेश, ईश्वरीय सन्देश, आकाशवाणी विज्ञान आदि नामों से इसी विचारधारा को पुकारते हैं। अपनी आत्मा के यन्त्र को स्वच्छ करके जो इस दिव्य सन्देश को सुनने में सफलता प्राप्त कर लेते हैं, वे आत्मदर्शी एवं ईश्वर-परायण कहलाते हैं।
ईश्वर उनके लिए बिलकुल समीप होता है, जो ईश्वर की बातें सुनते हैं और अपनी उससे कहते हैं। इस दिव्य मिलन के लिए हाड़-माँस के स्थूल नेत्र या कानों का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। आत्मा की समीपता में बैठा हुआ अन्तःकरण अपनी दिव्य इन्द्रियों की सहायता से इस कार्य को आसानी से पूरा कर लेता है। यह अत्यन्त सूक्ष्म ब्रह्म शब्द, विचार तब तक धुँधले रूप में दिखाई पड़ता है, जब तक कषायकल्मष आत्मा में बने रहते हैं। जितनी आन्तरिक पवित्रता बढ़ती जाती है, उतने ही दिव्य सन्देश बिलकुल स्पष्ट रूप से सामने आते हैं। आरम्भ में अपने लिए कर्तव्य का बोध होता है, पाप- पुण्य का संकेत होता है, बुरा कर्म करते समय अन्तर में भय, घृणा, लज्जा, संकोच आदि का होना तथा उत्तम कार्य करते समय आत्मःसन्तोष, प्रसन्नता, उत्साह होना इसी स्थिति का बोधक है।

यह दिव्य सन्देश आगे चलकर भूत, भविष्य, वर्तमान की सभी घटनाओं को प्रकट करता है। किसके लिए क्या मन्तव्य बन रहा है और भविष्य में किसके लिए क्या घटना घटित होने वाली है ? यह सब कुछ उससे प्रकट हो जाता है और ॐची स्थिति पर पहुँचने पर उसके लिए सृष्टि के सब रहस्य खुल जाते हैं, कोई ऐसी बात नहीं है, जो उससे छिपी हो, परन्तु जैसे ही इतना बड़ा ज्ञान उसे मिलता है, वैसे ही वह उसका उपयोग करने में अत्यन्त सावधान हो जाता है। बाल-बुद्धि के लोगों के हाथों में यह दिव्य ज्ञान पड़ जाय, तो वे उसे बाजीगरी के खिलवाड़ करने में ही नष्ट कर दें, पर अधिकारी पुरुष अपनी इस शक्ति का किसी को परिचय तक नहीं होने देते और उसे भौतिक बखेड़ों से पूर्णतया बचाकर अपनी तथा दूसरों की आत्मोन्नति में लगाते हैं।

शब्द-ब्रह्म का दूसरा रूप जो विचार सन्देश की अपेक्षा कुछ सूक्ष्म है, वह नाद है। प्रकृति के अन्तराल में एक ध्वनि प्रतिक्षण उठती रहती है, जिसकी प्रेरणा से आघातों द्वारा परमाणुओं में गति उत्पन्न हुई है और सृष्टि का समस्त क्रिया-कलाप चलता है। यह प्रारम्भिक शब्द ‘ॐ’ है, यह ‘ॐ’ ध्वनि जैसे-जैसे अन्य तत्वों के क्षेत्र में होकर गुजरती है, वैसे ही वैसे उसकी ध्वनि में अन्तर आता है। बंशी के छिद्रों में हवा फेंकते हैं, तो उसमें एक ध्वनि उत्पन्न होती है। पर आगे के छिद्रों में से जिस छिद्र से जितनी हवा निकाली जाती है, उसी के अनुसार भिन्न-भिन्न स्वरों की ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं। इसी प्रकार ॐ ध्वनि भी विभिन्न तत्वों के सम्पर्क में आकर विविध प्रकार की स्वर लहरियों में परिणत हो जाती हैं। इन स्वर लहरियों का सुनना ही नाद योग है।
पञ्च- तत्वों की प्रतिध्वनित हुई ॐकार की, स्वर लहरियों को सुनने की, नाद-योग साधना कई दृष्टियों से बड़ी महत्त्वपूर्ण है। प्रथम तो इस दिव्य संगीत के सुनने में इतना आनन्द आता है, जितना किसी मधुर से मधुर वाद्य या गायन सुनने में नहीं आता। दूसरे इस नाद श्रवण से मानसिक तन्तुओं का प्रस्फुटन होता है। सर्प जब संगीत सुनता है, तो उसकी नाड़ी में एक विद्युत लहर प्रवाहित हो उठती है, मृग का मस्तिष्क मधुर संगीत सुनकर इतना उत्साहित हो जाता है कि उसे तन बदन का होश नहीं रहता। योरोप में गायें दुहते समय मधुर बाजे बजाये जाते हैं, जिससे उनका स्नायु समूह उत्तेजित होकर अधिक मात्रा में दूध उत्पन्न करता है। नाम का दिव्य संगीत सुनकर मानव-मस्तिष्क में भी ऐसी स्फुरणा होती है, जिसके कारण अनेक गुप्त मानसिक शक्तियाँ विकसित होती हैं, इस प्रकार भौतिक और आत्मिक दोनों ही दिशाओं में गति होती है।
तीसरा लाभ एकाग्रता है। एक वस्तु पर, नाद पर ध्यान एकाग्र होने से मन की बिखरी हुई शक्तियाँ एकत्रित होती हैं और इस प्रकार मन को वश में करने तथा निश्चित कार्य पर उसे पूरी तरह लगा देने की साधना सफल हो जाती है। यह सफलता कितनी शानदार है, इसे प्रत्येक अध्यात्म मार्ग का जिज्ञासु भली प्रकार जानता है। आतिशी काँच द्वारा एक दो इन्च जगह की सूर्य- किरणें एक बिन्दु पर एकत्रित कर देने से अग्नि उत्पन्न ही जाती है। मानव- प्राणी अपने सुविस्तृत शरीर में बिखरी हुई अनन्त दिव्य शक्तियों का एकीकरण कर ऐसी महान् शक्ति उत्पन्न कर सकता है, जिसके द्वारा इस संसार को हिलाया जा सकता है और अपने लिए आकाश में मार्ग बनाया जा सकता है।

नाद की स्वर लहरियों को पकड़ते-पकड़ते साधक ऊँची रस्सी को पकड़ता हुआ उस उद्गम ब्रह्म तक पहुँच जाता है, जो आत्मा का अभीष्ट स्थान है। ब्रह्मलोक की प्राप्ति, दूसरे शब्दों में मुक्ति, निर्वाण परमपद आदि नामों से पुकारी जाती है। नाद के आधार पर मनोलय करता हुआ साधक योग की अन्तिम सीढ़ी तक पहुँचता है,और अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। नाद का अभ्यास किस प्रकार करना चाहिए अब इस पर कुछ प्रकाश डालते हैं-

नाद साधना विधि : अभ्यास के लिए ऐसा स्थान प्राप्त कीजिए जो एकान्त हो और जहाँ बाहर की अधिक आवाज न आती हो। तीक्ष्ण प्रकाश इस अभ्यास में बाधक है। इसलिए कोई अँधेरी कोठरी ढूँढ़नी चाहिए। एक प्रहर रात हो जाने के बाद से लेकर सूर्योदय से पूर्व तक का समय इसके लिए बहुत ही अच्छा है। यदि इस समय की व्यवस्था न हो सके तो प्रातः ९ बजे से और शाम को दिन छिपे बाद का कोई समय नियत किया जा सकता है। नितय-नियमित समय पर अभ्यास करना चाहिए अपने नियत कमरे में एक आसन या आराम कुर्सी बिछाकर बैठो, आसन पर बैठो तो पीठ पीछे कोई मसन्द या कपड़े की गठरी आदि रख लो, यह भी न हो तो अपना आसन एक कोने में लगाओ। जिस प्रकार शरीर को आराम मिले, उस तरह बैठ जाओ और अपने शरीर को ढीला छोड़ने का प्रयत्न करो।
भावना करो कि मेरा शरीर रुई का ढेर मात्र है और मैं इस समय इसे पूरी तरह स्वतन्त्र छोड़ रहा हूँ। थोड़ी देर में शरीर बिलकुल ढीला हो जायेगा और अपना भार अपने आप न सहकर इधर-उधर को ढुलने लगेगा। आराम कुर्सी, मसन्द या दीवार का सहारा ले लेने से शरीर ठीक प्रकार अपने स्थान पर बना रहेगा। साफ रुई की मुलायम सी दो डाटें बनाकर उन्हें कानों में लगाओ कि बाहर की कोई आवाज भीतर प्रवेश न कर सके। उँगलियों से कान के छेद बन्द करके भी काम चल सकता है। अब बाहर की कोई आवाज तुम्हें सुनाई न पड़ेगी, यदि पड़े भी तो उस ओर से ध्यान हटाकर अपने मूर्धा-स्थान पर ले जाओ और वहाँ जो शब्द हो रहे हैं, उन्हें ध्यानपूर्वक सुनने का प्रयत्न करो।
आरम्भ में शायद कुछ भी सुनाई न पड़े, पर दो-चार दिन प्रयत्न करने के बाद जैसे-जैसे सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय निर्मल होती जायेगी, वैसे ही वैसे शब्दों की स्पष्टता बढ़ती जायेगी। पहले-पहिले कई शब्द सुनाई देते हैं शरीर में जो रक्त प्रवाह हो रहा है, उसकी आवाज रेल की तरह धक्-धक्,  धक्-धक् सुनाई पड़ती है। वायु के आने जाने की आवाज बादल गरजने जैसी होती है, रसों के पकने और उनके आगे की ओर गति करने की आवाज चटकने की सी होती है। यह तीन प्रकार के शब्द शरीर की क्रियाओं द्वारा उत्पन्न होते हैं, इसी प्रकार दो प्रकार के शब्द मानसिक क्रियाओं के हैं। मन में चञ्चलता की लहरें उठती हैं वे मानस-तन्तुओं पर टकराकर ऐसे शब्द करती हैं, मानों टीन के ऊपर मेह बरस रहा हो और जब मस्तिष्क वाह्य ज्ञान को ग्रहण करके अपने में धारण करता है, तो ऐसा मालूम होता है मानो कोई प्राणी साँस ले रहा हो। यह पाँचों शब्द शरीर और मन के हैं। कुछ ही दिन के अभ्यास से साधारणतः  दो तीन सप्ताह के प्रयत्न से यह शब्द स्पष्ट रूप से सुनाई पड़ते हैं। इन शब्दों के सुनने से सूक्ष्म इन्द्रियाँ निर्मल होती जाती हैं और गुप्त शक्तियों को ग्रहण करने की उनकी योग्यता बढ़ती जाती है।
जब नाद श्रवण करने की योग्यता बढ़ जाती है, तो बंशी या सीटी से मिलती-जुलती अनेक प्रकार की शब्दावलियाँ सुनाई पड़ती हैं यह सूक्ष्म लोक में होने वाली क्रियाओं का परिचायक है। बहुत दिनों से बिछुड़े हुए बच्चे को यदि उसकी माता की गोद में पहुँचाया जाता है, तो वह आनन्द से विभोर हो जाता है ऐसा ही आनन्द सुनने वाले को आता है। जिन सूक्ष्म शब्द ध्वनियों को आज वह सुन रहा है, वास्तव में यह उसी तत्व के निकट से आ रही है, जहाँ से कि आत्मा और परमात्मा का विलगाव हुआ है और जहाँ पहुँच कर दोनों फिर एक हो सकते हैं

। धीरे-धीरे यह शब्द स्पष्ट होने लगते हैं और अभ्यासी को उनके सुनने में अद्भुत आनन्द आने लगता है। कभी-कभी तो वह उन शब्दों में मस्त होकर आनन्द से विह्वल हो जाता है और अपने तन-मन की सुध भूल जाता है। अन्तिम शब्द ॐ है, यह बहुत ही सूक्ष्म है। इसकी ध्वनि घण्टा ध्वनि के समान रहती है। घड़ियाल में हथौड़ी मार देने पर जैसे वह कुछ देर तक झनझनाती रहती है, उसी प्रकार ॐ का घण्टा शब्द सुनाई पड़ता है।
ॐ कार ध्वनि जब सुनाई पड़ने लगती है, तो निद्रा तन्द्रा या बेहोशी जैसी दशा उत्पन्न होने लगती है। साधक तन-मन की सुध भूल जाता है और समाधि सुख का, तृतीय अवस्था का आनन्द लेने लगता है। उसी स्थिति के ऊपर बढ़ने वाली आत्मा, परमात्मा में प्रवेश करती जाती है और अन्ततः पूर्णतया परमात्मा अवस्था प्राप्त कर लेती है।

अनहद नाद का शुरू रूप है अनाहत नाद। ‘आहत’ नाद वे होते हैं, जो किसी प्रेरणा या आघात से उत्पन्न होते हैं। वाणी के आकाश तत्व से टकराने अथवा किन्हीं दो वस्तुओं के टकराने वाले शब्द ‘आहत’ कहे जाते हैं, बिना किसी आघात के दिव्य प्रकृति के अन्तराल से जो ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें “अनाहत या अनहद” कहते हैं। वे अनाहत या अनहद शब्द प्रमुखतः दस होते हैं, जिनके नाम १- संहारक, २- पालक, ३- सृजक, ४- सहस्रदल, ५- आनन्द मण्डल, ६- चिदानन्द, ७- सच्चिदानन्द, ८- अखण्ड, ९- अगम, १०- अलख हैं। इनकी ध्वनियाँ क्रमशः पायजेब की झंकार कीं-सी सागर की लहर की, नफीरी की, बुलबुल की-सी होती हैं।
जैसे अनेक रेडियो स्टेशनों से एक ही समय में अनेक प्रोग्राम ब्राडकास्ट होते रहते हैं, वैसे ही अनेक प्रकार के अनाहत शब्द भी प्रस्फुटित होते रहते हैं, उनके कारण, उपयोग और रहस्य अमुक प्रकार के हैं। चौंसठ अनाहत अब तक गिने गये हैं, पर उन्हें सुनना हर किसी के लिए सम्भव नहीं। जिसकी आत्मिक शक्ति जितनी ऊँची होगी, वे उतने ही सूक्ष्म शब्दों को सुनेंगे, पर उपरोक्त दस शब्द सामान्य आत्मबल वाले भी आसानी से सुन सकते हैं।
यह अनहद सूक्ष्म लोगों की दिव्य भावना है। सूक्ष्म जगत में किसी स्थान पर क्या हो रहा है, किसी प्रायोजन के लिए कहाँ क्या आयोजन हो रहा है, इस प्रकार के गुप्त रहस्य इन शब्दों द्वारा जाने जा सकते हैं, कौन साधक किस ध्वनि को अधिक स्पष्ट और किस ध्वनि को मन्द सुनेगा यह उसकी अपनी मनोभूमि की विशेषता पर निर्भर है।
अनहद नाद एक बिना तार की दैवी सन्देश प्रणाली है। साधक इसे जानकर सब कुछ जान सकता है।

बिन्दु साधना

बिन्दु- साधना का एक अर्थ ब्रह्मचर्य भी है। इस बिन्दु का अर्थ ‘वीर्य’ अन्नमय कोश के प्रकरण में किया गया है। आनन्दमय कोश की साधना में बिन्दु का अर्थ होगा, परमाणु। सूक्ष्म से सूक्ष्म जो अणु हैं, वहा तक अपनी गति हो जाने पर भी ब्रह्म की समीपता तक पहुँचा जा सकता है और सामीप्य सुख का अनुभव किया जा सकता है।

किसी को कूटकर यदि चूर्ण बना लें और चूर्ण को खुर्दबीन देखें तो छोटे- छोटे टुकड़ों का एक ढेर दिखाई पड़ेगा, यह टुकड़े कई और टुकड़ों से मिलकर बने होते हैं। इन्हें भी वैज्ञानिक यन्त्रों की सहायता से कूटा जाय तो अन्त में जो न टूटने वाले न कुटने वाले टुकड़े रह जायेंगे, उन्हें परमाणु कहेंगे। इन परमाणुओं की लगभग १०० जातियाँ अब तक पहिचानी जा चुकी हैं, जिन्हें अणुतत्व कहा जाता है।
अणुओं के दो भाग हैं, एक सजीव दूसरे निर्जीव। दोनों ही एक पिण्ड या ग्रह के रूप में मालूम पड़ते हैं, पर वस्तुतः उनके भीतर भी और टुकड़े हैं। प्रत्येक अणु अपनी धुरी पर बड़े वेग से परिभ्रमण करता है। पृथ्वी भी सूर्य की परिक्रमा के लिए प्रति सैकिण्ड १८.५ मील की चाल से चलती है, पर इन १०० परमाणुओं की गति चार हजार मील प्रति सेकेण्ड मानी जाती हैं।



अणु और ब्रम्हाण्ड की समानता का वैज्ञानिक खुलासा
यह परमाणु भी अनेक विद्युत- कणों से मिलकर बने हैं, जिनकी दो जातियाँ हैं, १- ऋण कण, २- धन कण। धन कणों के चारों ओर ऋण-कण प्रति सैकिण्ड एक लाख अस्सी हजार मील की गति से परिभ्रमण करते हैं। उधर धन- कण, ऋण- कण की परिक्रमा के केन्द्र होते हुए भी शान्त नहीं बैठते। जैसे पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा लगाती हैं और सूर्य अपने सौर- मण्डल को लेकर ‘कृतिका’ नक्षत्र की परिक्रमा करता है, वैसे ही धन कण भी परमाणु की अन्तरगति का कारण होते हैं। ऋण- कण जो कि द्रुतगति से निरन्तर परिक्रमा में संलग्न हैं अपनी शक्ति सूर्य से अथवा विश्व- व्यापी अग्नि तत्व से प्राप्त करते हैं।
वैज्ञानिकों का कथन है कि यदि एक परमाणु के अन्दर का शक्ति- पुञ्ज फूट पड़े तो क्षण भर में लन्दन जैसे तीन नगरों को भस्म कर सकता है। इस परमाणु के विस्फोट की विधि मालूम करके ही ‘एटमबम’ का अविष्कार हुआ है। एक परमाणु के फोड़ देने से जो भयंकर विस्फोट होता है, उसका परिचय गत महायुद्ध से मिल चुका है। इसकी और भी भयंकरता का पूर्ण प्रकाश होना अभी बाकी है, जिसके लिए वैज्ञानिक लगे हुए हैं।
यह तो परमाणु की शक्ति की बात रही, अभी उनके अंग ऋण-कण और धन-कणों के सूक्ष्म भागों का पता चला है। वे भी अपने से अनेक गुने सूक्ष्म परमाणुओं से बने हुए हैं, जो ऋण- कणों के भीतर एक लाख, छियासी हजार, तीन सौ तीस मील प्रति सैकिण्ड की गति से परिभ्रमण करते हैं। अभी उनके भी अन्तर्गत कर्षाणुओं की खोज हो रही हैं और विश्वास किया जाता है कि उन कर्षाणुओं के भीतर भी सर्गाणु हैं। परमाणुओं की अपेक्षा ऋण कण तथा धन कणों की गति तथा शक्ति अनेकों गुनी है। उसी अनुपात से इन सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम अणुओं की गति तथा शक्ति होगी। जब परमाणुओं के विस्फोट की शक्ति लन्दन जैसे तीन शहरों को जला देने की है तो सर्गाणु की शक्ति एवं गति की कल्पना करना भी हमारे लिए कठिन होगा। उसके अन्तिम सूक्ष्म केन्द्र को अप्रितम, अप्रमेय अचिन्त्य ही कह सकते हैं।

देखने में पृथ्वी चपटी मालूम पड़ती है पर वस्तुतः वह लट्टू की तरह अपनी धुरी पर घूमती रहती है। चौबीस घण्टे में उसका एक चक्कर पूरा हो जाता है। पृथ्वी की दूसरी चाल भी है वह सूर्य की परिक्रमा करती है। इस चक्कर में उसे एक वर्ष लग जाता है। तीसरी चाल पृथ्वी की यह है कि सूर्य अपने ग्रह- उपग्रहों को साथ लेकर बड़े वेग से अभिजित् नक्षत्र की ओर जा रहा है। अनुमान है वह कृतिका नक्षत्र की परिक्रमा करता है। इसमें पृथ्वी भी साथ है। लट्टू जब अपनी कीली पर घूमता है तो वह इधर-उधर उठता भी रहता है इसे मँडलाने की चाल कहते हैं, जिराका एक चक्कर करीब २६ हजार वर्ष में पूरा होता है। कृतिका नक्षत्र भी सौरमण्डल आदि अपने उपग्रहों को लेकर ध्रुव की परिक्रमा करता है। उस दशा में पृथ्वी की गति पाँचवी हो जाती है।
सूक्ष्म परमाणु के सूक्ष्मतम भाग सर्गाणु अर्थात् फोटान, मेसान, नियान आदि तक भी मानव बुद्धि पहुँच गयी है और बड़े से बड़े महा-अणुओं के रूप में पाँच गति तो पृथ्वी की विदित हुई। आकाश के असंख्य ग्रह-नक्षत्रों का पारस्परिक सम्बन्ध न जाने कितने बड़े महा अणु के रूप में पूरा होता होगा उस महानता की कल्पना भी बुद्धि को थका देती है। उसे भी अप्रतिम, अप्रमेय और अचिन्त्य ही कहा जायेगा।
सूक्ष्म से सूक्ष्म और महत से महत केन्द्रों पर जाकर बुद्धि थक जाती है और उससे छोटे या बड़े की कल्पना नहीं हो सकती, उस केन्द्र को ‘बिन्दु’ कहते हैं। अणु को योग की भाषा में अण्ड भी कहते हैं। वीर्य का एक कण ‘अण्ड’ है। वह इतना छोटा होता है कि बारीक खुर्दबीन से भी मुश्किल से ही दिखाई देता है, पर जब वह विकसित होकर स्थूल रूप में आता है, तो वही बड़ा अण्डा हो जाता है। उस अण्डे के भीतर जो पक्षी रहता है, उसके अनेक अंग-प्रत्यंग विभाग होते हैं, उन विभागों में असंख्य सूक्ष्म विभाग और उनमें भी अगणित कोषांड रहते हैं। इस प्रकार शरीर भी एक अणु है, इसी को अण्ड या पिण्ड कहते हैं। अखिल विश्व-ब्रह्माण्ड में अगणित सौर मण्डल, आकाश- गंगा और ध्रुव-चक्र हैं।
इन ग्रहों की दूरी और विस्तार का कुछ ठिकाना नहीं। पृथ्वी बहुत बड़ा पिण्ड है, पर सूर्य तो पृथ्वी से भी तेरह लाख गुना बड़ा है। सूर्य से भी करोड़ों गुने ग्रह आकाश में मौजूद हैं। इनकी दूरी का अनुमान इससे लगाया जाता है कि प्रकाश की गति प्रति सैकिण्ड पौने दो लाख मील है और उन ग्रहों का प्रकाश पृथ्वी तक आने में ३० लाख वर्ष लगते हैं। यदि कोई ग्रह आज नष्ट हो जाय तो उसका अस्तित्व न रहने पर भी उसकी प्रकाश किरणें आगामी तीस लाख वर्ष तक यहाँ आती रहेंगी। जिस नक्षत्र का प्रकाश पृथ्वी पर आता है, उसके अतिरिक्त ऐसे ग्रह बहुत अधिक हैं जो अत्यधिक दूरी के कारण पृथ्वी पर दुर्वीनों से भी दिखाई नहीं देते। इतने बड़े और दूरस्थ ग्रह जब अपनी परिक्रमा करते होंगे, अपने ग्रहमण्डल को साथ लेकर परिभ्रमण को निकलते होंगे, तो वे अपने कितने अधिक विस्तृत शून्य में घूम जाते होंगे, उस शून्य के विस्तार की कल्पना कर लेना मानव- मस्तिष्क के लिए बहुत कठिन है।
इतना बड़ा ब्रह्माण्ड भी एक अणु या अण्ड है। इसलिए उसे ब्रह्म+अण्ड=ब्रह्माण्ड कहते हैं, पुराणों में वर्णन है कि जो ब्रह्माण्ड हमारी जानकारी में है, उसके अतिरिक्त भी ऐसे ही और अगणित ब्रह्माण्ड हैं और उन सबका समूह एक महा अण्ड है, उस ब्रह्माण्ड की तुलना में पृथ्वी उससे छोटी बैठती है, जितना कि परमाणु की तुलना में सर्गाणु छोटा होता है। इस लघु से लघु और महान से महान अण्ड में जो शक्ति व्यापक हैं, जो इन सबको गतिशील, विकसित, परिवर्तित, चैतन्य रखती है, उस सत्ता को ‘बिन्दु’ कहा गया है। यह बिन्दु ही परमात्मा है। उसी को छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा कहा जाता है। ‘अणोरणीयान् महतो महीयान्’ कहकर उपनिषदों ने उस परब्रह्म का परिचय दिया है।
इस बिन्दु का चिन्तन करने से आनन्दमय कोश की स्थिति जीव की उस परब्रह्म की रूप की कुछ झाँकी होती हैं और उसे प्रतीत होता है कि परब्रह्म की, महा-अण्ड की तुलना में मेरा अस्तित्व, मेरा पिण्ड कितना तुच्छ है। इस तुच्छता का भान होने से अहंकार और गर्व विगलित हो जाते हैं। दूसरी ओर जब सर्गाणु से अपने पिण्ड की, शरीर की तुलना करते हैं, तो प्रतीत होता है कि अटूट शक्ति के अक्षय भण्डार सर्गाणु की इतनी अटूट संख्या और शक्ति जब हमारे भीतर हैं तो हमें अपने को अशक्त समझने का कोई कारण नहीं है। उस शक्ति का उपयोग जान लिया जाय, तो संसार में होने वाली कोई भी बात हमारे लिये असम्भव नहीं हो सकती।
जैसे महा अण्ड की तुलना में हमारा शरीर अत्यन्त क्षुद्र है और हमारी तुलना में उसका विस्तार अनुपमेय है, इसी प्रकार सर्गाणुओं की दृष्टि में हमारा पिण्ड (शरीर) एक महाब्रह्माण्ड जैसा विशाल होगा, इसमें जो स्थिति समझ में आती है, वह प्रकृति के अण्ड से भिन्न एक दिव्य शक्ति के रूप में विदित होती है। लगता है कि मैं मध्य बिन्दु हूँ केन्द्र हूँ सूक्ष्म से सूक्ष्म, स्थूल से स्थूल मेरी व्यापकता है।

लघुता-महत्ता का एकान्त चिन्तन ही बिन्दु साधना कहलाता है। इस साधना के साधक को सांसारिक जीवन की वास्तविकता और तुच्छता का भली प्रकार बोध हो जाता है कि मैं अनन्त का उद्गम होने के कारण इस सृष्टि का महत्त्वपूर्ण केन्द्र हूँ। उसे जापान पर फटा हुआ परमाणु ही ऐतिहासिक ‘एटम बम’ के रूप में चिरस्मरणीय रहेगा, वैसे ही जब अपने शक्ति-पुञ्ज का सदुपयोग किया जाता है तो उसके द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से संसार का भारी परिवर्तन करना असम्भव हो जाता है।
महर्षि विश्वामित्र 
विश्वामित्र ने राजा हरिश्चन्द्र के पिण्ड को एटम बम बनाकर ‘असत्य के सम्राज्य पर इस प्रकार विस्फोट किया था कि लाखों वर्ष बीत जाने पर भी उसकी ऐक्टिव’ किरणें अभी समाप्त नहीं हुई हैं और अपने प्रभाव से असंख्यों को बराबर प्रभावित करती चली आ रही हैं। महात्मा गाँधी ने बचपन में राजा हरिश्चन्द्र का लेख पढ़ा था उन्होंने अपने आत्म-चरित्रों में लिखा है कि मैं उसे पढ़कर इतना प्रभावित हुआ कि स्वयं भी हरिश्चन्द्र बनने की ठान ली अपने संकल्प के द्वारा वे सचमुच हरिश्चन्द्र बने गये। राजा हरिश्चन्द्र आज नहीं हैं पर उनकी आत्मा अब भी उसी प्रकार अपना महान् कार्य कर रही हैं। न जाने कितने अप्रकट गाँधी उसके द्वारा निर्मित होते रहते होंगे, गीताकार आज नहीं हैं, पर आप उसकी गीता कितनों को अमृत पिला रही है ? यह पिण्ड का सूक्ष्म प्रभाव ही है, जो प्रकट या अप्रकट रूप से स्व, पर कल्याण का महान् आयोजन प्रस्तुत करता है।
कार्लमार्क्स के सूक्ष्म शक्ति केन्द्र से प्रस्फुटित हुई चेतना आज आधी दुनिया को कम्युनिस्ट बना चुकी है। पूर्वकाल में महात्मा ईसा, मुहम्मद, बुद्ध, कृष्ण आदि अनेक महापुरुष ऐसे हुए हैं, जिन्होंने संसार पर बड़े महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाले हैं। इन प्रकट महापुरुषों के अतिरिक्त ऐसी अनेक अप्रकट आत्मायें भी है, जिन्होंने संसार की सेवा में, जीवों के कल्याण में गुप्त रूप से बड़ा भारी काम किया है। हमारे देश में योगी अरविन्द, महर्षि रमण, रामकृष्ण परमहंस, समर्थ गुरु रामदास आदि द्वारा जो कार्य हुआ तथा आज भी अनेक महापुरुष जो कार्य कर रहे हैं, उसको स्थूल दृष्टि से नहीं समझा जा सकता है। युग परिवर्तन निकट है, उसके लिए रचनात्मक और ध्वंसात्मक प्रवृत्तियों का सूक्ष्म जगत् में जो महान् आयोजन हो रहा है, उस महाकार्य को हमारे चर्म- चक्षु देख पावें, तो जानें कि कैसा अनुमप एवं अभूतपूर्व परिवर्तन चक्र प्रस्तुत हो रहा है और वह चक्र निकट भविष्य में कैसे-कैसे विलक्षण परिवर्तन करके मानव जाति को एक नये प्रकाश की ओर ले जा रहा है ?
विषयान्तर चर्चा करना हमारा प्रयोजन नहीं है, यहाँ तो हमें यह बताना है कि लघुता और महत्ता के चिन्तन की बिन्दु-साधना से आत्मा का भौतिक अभियान और लोभ विगलित होता है, साथ ही उस आन्तरिक शक्ति का विकास होता है, जो स्व-पर कल्याण के लिए अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है।
बिन्दु- साधक की आत्म-स्थिति उज्ज्वल होती है, उसके विकार मिट जाते हैं। फलस्वरूप उसे उस अनिर्वचनीय आनन्द की प्राप्ति होती है, जिसे प्राप्त करना जीवन- धारण का प्रधान उद्देश्य है।

कला- साधना

सूर्य प्रकाश से प्राप्त विकिरण - जीवन का स्त्रोत 

‘कला का अर्थ है –किरण।’ प्रकाश यों तो अत्यन्त सूक्ष्म हैं, उस पर सूक्ष्मता का ऐसा समूह, जो हमें एक निश्चित प्रकार का अनुभव कराये ‘कला’ कहलाता है। सूर्य से निकलकर अत्यन्त सूक्ष्म प्रकाश तरंगें भूतल पर आती हैं, उनका एक समूह ही इस योग्य बन पाता है कि नेत्रों से उसका अनुभव किया जा सके। सूर्य किरणों के सात रंग प्रसिद्ध हैं, परमाणुओं के अन्तर्गत जो ‘प्रमाणु’ होते हैं उनकी विद्युत तरंगें जब हमारे नेत्रों से टकराती है, तभी किसी रंग रूप का ज्ञान हमें होता है। रूप को प्रकाशवान् बनाकर प्रकट करने का काम कला द्वारा ही होता है।
कलाएँ दो प्रकार की होती हैं। १- आप्ति, २- व्याप्ति। आप्ति किरणें वे हैं, जो प्रकृति के अणुओं से प्रस्फुटित होती हैं। व्याप्ति वे है, जो पुरुष के अन्तराल से आविर्भूत होती हैं, इन्हें ‘तेजस्’ भी कहते हैं। वस्तुएँ पञ्च तत्वों से बनी होती हैं इसलिए परमाणु से निकलने वाली किरणें अपने प्रधान तत्व की विशेषता भी साथ लिए होती हैं, वह विशेषता रंग द्वारा पहचानी जाती हैं। किसी वस्तु का प्राकृतिक रंग देखकर यह बताया जा सकता है कि इन पञ्च-तत्वों में कौन सा तत्व किस मात्रा में विद्यमान है ?

व्याप्ति कला, किसी मनुष्य के ‘तेजस्’ में परिलक्षित होती हैं, यह तेजस् मुख के आस- पास प्रकाश मण्डल की तरह विशेष रूप से फैला होता है, यों तो यह सारे शरीर के आस- पास प्रकाशित रहता है। इसे अँग्रजी में ‘ओरा’ और संस्कृत में तेजोवलय’ कहते हैं। देवताओं के चित्र में उनके मुख के आस-पास एक प्रकाश का गोला सा चित्रित होता है, यह उनकी कला का ही चिन्ह है। अवतारों के सम्बन्ध में उनकी शक्ति का माप उनकी कथित कलाओं से किया जाता है। परशुराम जी में तीन, रामचन्द्र जी में बारह, कृष्ण में सोलह कलाएँ बताई गई हैं। इसका तात्पर्य यह है कि उनमें साधारण मात्र से इतनी गुनी आत्मिक शक्ति थी।
सूक्ष्मदर्शी लोग किसी व्यक्ति या वस्तु की आन्तरिक स्थिति का पता उनके तेजोवलय और रंग, रूप, चमक और चैतन्यता को देखकर मालूम कर लेते हैं। ‘कला’ विद्या की जिसे जानकारी है, वह भूमि के अन्तर्गत छिपे हुए पदार्थो को, वस्तुओं के अन्तर्गत छिपे हुए गुण, प्रभाव एवं महत्वों को आसानी से जान लेता है। किस मनुष्य में कितनी कलाएँ हैं, उसमें क्या-क्या शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विशेषताएँ हैं तथा किन-किन गुण, दोष, योग्यताओं, सामर्थ्यों की उनमें कितनी न्यूनाधिकता है ? यह सहज ही पता चल जाता है। इस जानकारी के होने से किसी व्यक्ति से समुचित सम्बन्ध रखना सरल हो जाता है।

कला-विज्ञान का ज्ञाता अपने शरीर की सात्विक न्यूनाधिकता का पता लगाकर इसे आत्म-बल से ही सुधार सकता है और अपनी कलाओं में समुचित संशोधन- परिमार्जन एवं विकास कर सकता है। कला ही सामर्थ्य है। अपनी आत्मिक सामर्थ्य का, आत्मिक उन्नति का माप कलाओं की परीक्षा करके प्रकट हो जाता है और साधक यह निश्चित कर सकता है कि उन्नति हो रही है या नहीं ? उसे सन्तोषजनक सफलता मिल रही है या नहीं।

सब ओर से चित्त हटाकर नेत्र बन्द करके भृकुटी के मध्य भाग में ध्यान एकत्रित करने से मस्तिष्क में तथा उसके आस-पास रंग-बिरंगी धज्जियाँ, चिन्दियाँ तथा तितलियाँ-सी उड़ती दिखाई पड़ती हैं। इनके रंगों का आधार तत्वों पर निर्भर होता है। पृथ्वी तत्व का रंग पीला, जल का श्वेत, अग्नि का लाल, वायु का हरा, आकाश का नीला होता है। जिस रंग की झिलमिल होती है, उसी के आधार पर यह जाना जा सकता है कि इस समय हममें किन तत्वों की अधिकता और किनकी न्यूनता है।
रंग और चक्रों में परस्पर सम्बन्ध - चिकित्सा के लिए उपयोगी 
प्रत्येक रंग में अपनी-अपनी विशेषता होती है। पीले रंग में क्षमा, गम्भीरता, उत्पादन, स्थिरता, वैभव, मजबूती, संजीदगी, भारीपन। श्वेत रंग में शान्ति, रसिकता, कोमलता, शीघ्र प्रभावित होना, तृप्ति, शीलता, सुन्दरता, बुद्धि, प्रेम। लाल रंग में गर्मी, उष्णता, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष अनिष्ट, शूरता, सामर्थ्य, उत्तेजना, कठोरता, कामुकता, तेज, प्रभावशीलता, चमक, स्फूर्ति। हरे रंग में चंचलता, कल्पना, स्वप्नशीलता, जकड़ना, दर्द, अपहरण धूर्तता, गतिशीलता, विनोद, प्रगतिशीलता, प्राण, पोषण, परिवर्तन। नीले रंग में- विचारशीलता, बुद्धि सूक्ष्मता, विस्तार, सात्विकता, प्रेरणा, व्यापकता, संशोधन, सम्वर्धन, सिंचन, आकर्षण आदि गुण होते हैं।
जड़ या चेतन किसी भी पदार्थ के रंग एवं उससे निकलने वाली सूक्ष्म प्रकाश-ज्योति से यह जाना जा सकता है, कि इस वस्तु या प्राणी का गुण स्वभाव एवं प्रभाव कैसा हो सकता है ? साधारणतः यह पाँच तत्वों की कला हैं, जिनके द्वारा यह कार्य हो सकता है- १- व्यक्तियों तथा पदार्थों की आन्तरिक स्थिति को समझना, २- अपने शारीरिक तथा मानसिक क्षेत्र में असन्तुलित किसी गुण- दोष को सन्तुलित करना, ३- दूसरों के शारीरिक तथा मन की विकृतियों का संशोधन करके सुव्यवस्था स्थापित करना, ४- तत्वों के मूल आधार पर पहुँचकर तत्वों की गति-विधि तथा किया-पद्धति को जानना, ५-तत्वों पर अधिकार करके सांसारिक पदार्थों का निर्माण, पोषण तथा विनाश करना।
यह उपरोक्त पाँच लाभ ऐसे हैं, जिनकी व्यवस्था की जाय तो वे ऋद्धि-सिद्धियों के समान आश्चर्यजनक प्रतीत होंगे। यह पाँच भौतिक कलाएँ हैं, जिनका उपयोग राजयोगी, हठयोगी, मन्त्रयोगी तथा तांत्रिक अपने-अपने ढंग से करते हैं और इस तान्त्रिक शक्ति का अपने-अपने ढंग से सदुपयोग-दुरुपयोग करके भले-बुरे परिणाम उपस्थित करते हैं। कला द्वारा सांसारिक भोग, वैभव भी मिल सकता है, आत्म-कल्याण भी हो सकता है और किसी को शापित, अभिचारिता एवं  दुख शोक सन्तृप्त भी बनाया जा सकता है। पञ्च तत्वों की कलाएँ ऐसी ही प्रभावपूर्ण होती हैं।
आत्मिक कलाएँ तीन होती हैं- सत, रज, तम। तमोगुणी कलाओं का माध्यम केन्द्र शिव है। रावण, हिरण्यकश्यपु, भस्मासुर, कुम्भकरण, मेघनाद आदि असुर इन्हीं तामसिक कलाओं के सिद्ध पुरुष थे। रजोगुणी कलाएँ विष्णु से आती हैं। इन्द्र, कुबेर, वरुण, वृहस्पति, ध्रुव, अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर, कर्ण आदि में इन राजसिक कलाओं की विशेषता थी। सतोगुणी सिद्धियाँ ब्रह्म से आविर्भूत होती हैं। व्यास, वशिष्ठ, अत्रि, बुद्ध, महावीर, ईसा, गाँधी, आदि ने सात्विकता के केन्द्र से ही शक्ति प्राप्त की थी।

आत्मिक कलाओं की साधना गायत्री-योग के अन्तर्गत ग्रन्थि-भेद द्वारा होती है। रुद्र ग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि और ब्रह्म ग्रन्थि के खुलने से इन तीनों ही कलाओं का साक्षात्कार साधक को होता है। पूर्वकाल में लोगों के शरीर में आकाश तत्व अधिक था। इसलिए इन्हें उन्हीं साधनाओं से अत्यधिक आश्चर्यमयी सामर्थ्य प्राप्त हो जाती थी, पर आज के युग में जन-समुदाय के शरीर में पृथ्वी-तत्व प्रधान हैं इसलिए अणिमा, महिमा आदि तो नहीं पर सत्, रज, तम की शक्तियों की अधिकता से अब भी आश्चर्यजनक हित-साधना हो सकता है।

पाँचकलाओं द्वारा तात्विक साधना

पृथ्वी तत्व- इस तत्व का स्थान मूलाधार चक्र अर्थात् गुदा से दो अंगुल अंडकोश की ओर हटकर सीवन में स्थित है। सुषुम्ना का आरम्भ इसी स्थान से होता है। प्रत्येक चक्र का आधार कमल के पुष्प जैसा है। यह ‘भूलोक’ का प्रतिनिधि है। पृथ्वी तत्व का ध्यान इसी मूलाधार चक्र में किया जाता है।
पृथ्वी तत्व- मूलाधार चक्र एवं बीज मंत्र 

पृथ्वी तत्व की आकृति चतुष्कोण, रंग पीला, गुण गन्ध है। इसलिए इसको जानने की इन्द्रिय नासिका तथा कर्मेन्द्रिय गुदा है। शरीर में पीलिया, कमलवाय आदि रोग इसी तत्व की विकृति से पैदा होते हैं। भय आदि मानसिक विकारों में इसकी प्रधानता होती है। इस तत्व के विकार मूलाधार चक्र में ध्यान स्थित करने से अपने आप शान्त हो जाते हैं।
साधन विधि- सबेरे जब एक पहर अँधेरा रहे, तब किसी शान्त स्थान और पवित्र आसन पर दोनों पैरों को पीछे की ओर मोड़कर उन पर बैठें। दोनों हाथ उल्टे करके घुटनों पर इस प्रकार रखी, जिससे उँगलियों के छोर पेट की ओर रहें। फिर नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखते हुए मूलाधार चक्र में ‘ल’ बीज वाली चौकोर पीले रंग की पृथ्वी पर ध्यान करें। इस प्रकार करने से नासिका सुगन्धि से भर जाती है और शरीर उज्ज्वल कान्ति वाला हो जाता है। ध्यान करते समय ऊपर कहे पृथ्वी तत्व के समस्त गुणों को अच्छी तरह ध्यान में लाने का प्रयत्न करना चाहिए और ‘ल’ इस बीज मन्त्र का मन ही मन (शब्द रूप से नहीं, वरन् ध्यान रूप से) जप करते जाना चाहिए।
जल तत्व-स्वाधिष्ठान चक्र एवं बीज मंत्र 
जल तत्व- पेढू के नीचे जननेन्द्रिय के ऊपर मूल भाग में स्वाधिष्ठान चक्र में जल तत्व का स्थान है। यह चक्र ‘भव’ लोक का प्रतिनिधि है, रंग श्वेत, आकृति अर्धचन्द्राकार और गुण रस है। कटु, अम्ल, तिक्त मधुर आदि सब रसों का स्वाद इसी तत्व के कारण आता है। इसकी ज्ञानेन्द्रिय जिह्वा और कर्मेन्द्रिय लिंग है। मोहादि विकार इसी तत्व की विकृति से होते हैं।
साधन विधि- पृथ्वी तत्व का ध्यान करने के लिए बताई हुई विधि से आसन पर बैठकर ‘व’ बीज वाले अर्धचन्द्राकार चन्द्रमा की तरह कान्ति वाले जल तत्व का स्वाधिष्ठान चक्र में स्थान करना चाहिए। इनसे भूख-पास मिटती है और सहन- शक्ति उत्पन्न होती है।

अग्नि तत्व -मणिपूर  चक्र एवं बीज मंत्र 
अग्नि तत्व-नाभि स्थान में स्थिति मणिपूरक चक्र में अग्नि तत्व का निवास है। यह ‘स्व’ लोक का प्रतिनिधि है। इस तत्व की आकृति त्रिकोण, लाल गुण रूप है। ज्ञानेन्द्रिय नेत्र और कर्मेन्द्रिय पाँव हैं। क्रोधादि मानसिक विकार तथा सृजन आदि शारीरिक विकार इस तत्व की गड़बड़ी से होते हैं, इसके सिद्ध हो जाने पर मन्दाग्नि, अजीर्ण आदि पेट के विकार दूर हो जाते हैं और कुण्डलिनी शक्ति के जाग्रत होने में सहायता मिलती है।
साधन विधि- नियत समय पर बैठकर ‘र’ बीज मन्त्र वाले त्रिकोण आकृति के और अग्नि के समान लाल प्रभा वाले अग्नि- तत्व का मणि पूरक चक्र में ध्यान करें। इस तत्व के सिद्ध हो जाने पर सहन करने की शक्ति बढ़ जाती है।





वायु तत्व- यह तत्व हृदय देश में स्थिति अनाहत चक्र में है एवं ‘महलोक’ का प्रतिनिधि है। रंग हरा, आकृति षट्कोण तथा गोल दोनों तरह की है, गुण-स्पर्श, ज्ञानेन्द्रिय-त्वचा और कर्मेन्द्रिय-हाथ हैं। वात-व्याधि, दमा आदि रोग इसी की विकृति से होते हैं।

वायु तत्व - अनाहत चक्र एवं  बीज मन्त्र 
साधन विधि- नियत विधि से स्थित होकर ‘य’ बीज वाले गोलाकर, हरी आभा वाले वायु-तत्व का अनाहत चक्र में ध्यान करें। इससे शरीर और मन में हल्कापन आता है।












आकाश तत्व- शरीर में इसका निवास विशुद्ध चक्र में है। यह चक्र कण्ठ स्थान ‘जनलोक’ का प्रतिनिधि है। इसका रंग नीला, आकृति अण्डे की तरह लम्बी, गोल, गुण शब्द, ज्ञानेन्द्रिय-कान तथा कर्मेन्द्रिय वाणी है।
आकाश तत्व- विशुद्धि चक्र एवं बीज मंत्र 

साधन विधि- पूर्वोक्त आसन पर ‘हं’ बीज मन्त्र का जाप करते हुए चित्र- विचित्र रंग वाले आकाश- तत्व का विशुद्ध चक्र में ध्यान करना चाहिए। इससे तीनों कालों का ज्ञान, ऐश्वर्य तथा अनेक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
नित्य प्रति पाँच तत्वों का छः मास तक अभ्यास करते रहने से तत्व सिद्ध हो जाते हैं, फिर तत्व को पहचानना और उसे घटाना-बढ़ाना सरल हो जाता है। तत्व की सामर्थ्य तथा कलाएँ बढ़ने से साधक कलाधारी बन जाता है। उसकी कलाएँ अपना चमत्कार प्रकट करती रहती हैं।
मन को पूर्णतया संकल्प- रहित कर देने से रिक्त मानस की निर्विषय स्थिति होती है, उसे तुरीयावस्था कहते हैं। जब मन में किसी भी प्रकार का एक भी संकल्प न रहे। ध्यान, भाव, विचार, संकल्प, इच्छा, कामना का पूर्णतया बहिष्कार कर दिया जाय और भाव रहित होकर केवल आत्मा के एक केन्द्र से अपने अन्तःकरण को पूर्णतया समाविष्ट कर दिया जाय, तो साधक तुरीयवस्था में पहुँच जाता है, इस स्थिति में इतना आनन्द आता है कि उस आनन्द के अतिरेक में अपनेपन की सारी सुधि-बुधि छूट जाती हैं और पूर्ण मनोयोग होने से बिखरा हुआ आनन्द एकीभूत होकर साधक को आनन्द से परितृप्त कर देता है, इसी स्थिति को समाधि कहते हैं।
समाधि काल में अपना संकल्प ही एक सजीव एवं अनन्त शक्तिशाली देव बन जाता है और उसकी झाँकी दृश्य जगत् से भी अधिक स्पष्ट होती है। नेत्रों के दोष और चंचलता से कोई वस्तुऐं हमें धुँधली दिखाई पड़ती है और उनकी बारीकियाँ नहीं सूझ पड़ती। परन्तु समाधि अवस्था में परिपूर्ण दिव्य इन्द्रियों और चित्त वृत्तियों का एकीकरण जिस संकल्प पर होता है, वह संकल्प सब प्रकार मूर्तिमान एवं सक्रिय परिलक्षित होता है। जिस किसी को जब कभी भी ईश्वर का मूर्तिमान साक्षात्कार होता है तथा समाधि अवस्था में उसका संकल्प ही मूर्तिमान हुआ होता है।
भावावेश में भी क्षणिक समाधि हो जाती हैं। भूत, प्रेत, आवेश, देवोन्माद, हर्ष, शोक की मूर्छा, नृत्य, वाद्य में लहरा जाना, आवेग में अपनी या दूसरे की हत्या आदि भयंकर कृत्य कर डालना, क्रोध का व्यतिरेक, बिछुड़ों से मिलन का प्रेमावेश, कीर्तन आदि के समय भाव विह्वलता, अश्रुपातः चीत्कार, आर्तनाद करुण- क्रन्दन, हूक आदि में आशिक समाधि होती है। संकल्प में, भावना में आवेश की जितनी अधिक मात्रा होगी, उतनी ही गहरी समाधि होगी और उसका फल भी सुख या दुख के रूप में उतना ही अधिक होगा। भय का व्यतिरेक या आवेश होने पर डर के मारे भावना मात्र से लोगों की मृत्यु तक होती देखी गई है। कई व्यक्ति फाँसी पर चढ़ने से पूर्व ही डर के मारे प्राण त्याग देते हैं।
आवेश की दशा में अन्तरंग शक्तियों और वृत्तियों का एकीकरण हो जाने से एक प्रचण्ड भावोद्वेग होता है। यह उद्वेग भिन्न-भिन्न दशाओं में मूर्छा, उन्माद आवेश आदि नामों से पुकारा जाता है। पर जब वह दिव्य भूमिका में आत्म तन्मयता के साथ होता है तो उसे समाधि कहते हैं। पूर्ण समाधि में पूर्ण तन्मयता के कारण पूर्णानन्द का अनुभव होता है। आरम्भ स्वप्न मात्रा की आंशिक समाधि के साथ होता है। दैवी भावनाओं से एकाग्रता एवं तन्मयतापूर्ण भावावेश जब होता है तो आँखें झपक जाती हैं, सुस्ती तन्द्रा या मूर्छा भी आने लगती है, माता हाथ से छूट जाती है, जप करते- करते जिह्वा रुक जाती है। अपने इष्ट की हल्की सी झाँकी होती है और एक ऐसे आनन्द की क्षणिक अनुभूति होती है, जैसा कि संसार के किसी पदार्थ में नहीं मिलता। यह स्थिति आरम्भ में स्वल्प मात्रा में ही होती है पर धीरे-धीरे उसका विकास होकर परिपूर्ण तुरीयावस्था की ओर चलने लगती है और अन्त में सिद्धि मिल जाती है।
आनन्दमय कोश के चार अंग प्रधान हैं। १- नाद, २- बिन्दु ३- कला और ४- तुरीया। इन साधनों द्वारा साधक अपनी पंचम भूमिका को उत्तीर्ण कर लेता है। गायत्री के इस पाँचवें मुख को खोल देने वाला साधक जब एक- एक करके पाँच मुखों से माता का आशीर्वाद प्राप्त कर लेता है, तो उसे और प्राप्त करना कुछ शेष नहीं रह जाता।

- लेखक - दिव्यज्ञान प्रदाता - भगवान शिव से लेकर युगऋषि पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य तक की अनेकों अवतारी आत्माएँ 



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  1. अति विशिष्ट जानकारी
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