Thursday, August 6, 2020

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कुण्डलिनी जागरण शक्तिपात (Kundalini Shaktipaat 

अगर आप साधना के जरिये अपनी कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत करना चाहते है तो उसके लिएय आपको योग के मार्ग का अनुसरण करते हुये कर्मयोग, भक्तियोग, हठयोग और गुरुकृपायोग को साधना पड़ता है. साथ ही आपको प्राणायाम, यौगिक क्रियाओं और ब्रह्मचर्य का पालन भी करना होता है. इन सब नियमों के पालन के अलावा आपमें अनुशासन, धैर्य और सहनशीलता का होना भी अति आवश्यक है.

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कुण्डलिनी जागरण | Kundalini Jagran in Hindi

कुंडलिनी जागरण (Kundalini Jagran) के आध्यात्मिक लाभ की अभिव्यक्ति शब्दो में तो नहीं की जा सकती, हाँ, इतना अवशय कहा जा सकता है की कुण्डलिनी शक्ति जागरण (Kundalini Shakti Jagran) के पश्चात एक पूर्ण आनंद की स्थिति होती है ! इस स्थिति को प्राप्त करने के बाद कुछ पाना शेष नही रह जाता ! मन में पूर्ण संतोष, पूर्णशांति व परमसुख होता है ! ऐसे साधक के पास बैठने से दूसरे व्यक्ति को भी शांति अनुभूति होती है ! ऐसे योगी पुरुष के पास बैठने से दूसरे विकासी पुरुष के भी विकार शांत होने लगते है तथा योग व भगवान के प्रति स्रद्धा भाव बढ़ते है

कुण्डलिनी जागरण के लक्षण (Kundalini Awakening Symptoms)

इसके अतिरिक कुण्डलिनी शक्ति (Kundalini Shakti) जिसकी जाग्रत हो जाती है , उसके मुख पर एक दिव्य आभा, ओज, तेज व कान्ति बढ़ने लगती है ! शरीर पर भी लावण्य आने लगता है, मुख पर प्रसन्ता व समता का भाव होता है,दृष्टि में समता, करुणा व दिव्य प्रेम होते है ! विचारो में महानता व पूर्ण सात्विकता होती हे ! संक्षेप में हम कह सकते हे की जीवन का प्रतियक पहलु पूर्ण पवित्र उदात्त व महानता को छूता हुआ होता है |
इस पूरी प्रक्रिया के जहाँ spiritual लाभ है, वही एक लाभ अत्यधिक महत्वपूर्ण यह भी है की ऐसी योगिक प्रक्रिया करनेवाले व्यक्ति को जीवन में कोई रोग नहीं हो सकता है तथा कैंसर से लेकर हदयरोग, diabetes , मोटापा , पेट के समस्त रोग वात, पित, व कफ की समस्त विषमताएं स्वत: समाप्त हो जाती है ! व्यक्ति पूर्ण निरोगी हो जाता है ! आज के स्वार्थी व्यक्ति के लिए क्या यह कम उपलबधि है की बिना किसी दवा के सभी रोग मिटाये जा सकते है और जिंदगी भर निरोग, स्वस्थ, ओजस्वी, मनस्वी, तपस्वी बना जा सकता है |
ब्रह्म को जहाँ सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और निर्विकार कहा जाता है वहाँ उसे मूढ़ भी कहा जाता है। मूढ़ का अर्थ है अज्ञानी गुम-सुम बैठा रहने वाला। उसकी न कोई इच्छा है न आकांक्षा ऐसा ब्रह्म विश्व के सृजन और पालन का उत्तरदायित्व भला कैसे पूरा कर सकता था। इसलिये उस जागृत करने की आवश्यकता पड़ी। इस आवश्यकता की पूर्ति उसकी शक्ति  ने की। यह शक्ति या शिव तत्व और कुछ नहीं कुण्डलिनी ही है, वहीं ब्रह्म को क्रियाशील बनाती है। इस शास्त्रीय विवेचन की पुष्टि के लिये शरीरगत कुण्डलिनी तत्व का अध्ययन करना चाहिए।
मेरुदण्ड के भीतर सूक्ष्म प्रवाह और चैतन्य लोकों के निर्माण और उनके क्रिया कलाप का अध्ययन केवल भारतीय योगी ही कर सके हैं। इन सूक्ष्म लोकों का महत्व सर्वाधिक है। उनकी जानकारी से ही विश्व रहस्यों का उद्घाटन होता है। अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त होती है, मनुष्य जीवन का वास्तविक अर्थ समझ में आता है और स्वर्ग, मुक्ति या परम पद प्राप्ति का द्वार खुलता है।
गुदा क्षेत्र में सोई हुई कुण्डलिनी दो धाराओं इड़ा और पिंगला (यह नाड़ियाँ ऋण विद्युत् और धन विद्युत् गत विद्युत् के आणविक स्वरूप में अन्तर है) में होकर ऊपर को उठती है और मस्तिष्क में जाकर मूढ़ ब्रह्म की चेतना को झकझोरती है। कुण्डलिनी यदि जागृत नहीं है तो इड़ा और पिंगला अपने सामान्य परिवेश में ही काम करती है, उसी प्रकार मस्तिष्क भी सामान्य ढीले-पोले काम करता रहता है पर जागृत कुण्डलिनी के आवेश को संभालना तो मस्तिष्क के लिये भी कठिन हो जाता है।
फिर वह बैठा नहीं रह सकता। कुछ न कुछ उछल-कूद तोड़-फोड़ बनाव शृंगार उसे करना ही पड़ता हैं। जिस व्यक्ति की कुण्डलिनी जाग जाती है वह जागृत अवस्था की तहत गम्भीर निद्रावस्था में भी उतना ही सचेतन रहता है। उसकी स्वप्न और जागृति में कोई अन्तर नहीं आता। जिस तरह जागृत अवस्था में वह किसी से बातचीत करता, सुनता, सोचता, विचारता, प्रेरणा देता, सहायता, सहयोग देता रहता है उसी प्रकार स्वप्नावस्था में भी उसकी गतिविधियाँ चला करती हैं।
उस अवस्था में वह किसी का भला भी कर सकता है और नई-नई जानकारियों के लिये अन्य ब्रह्माण्डों में सैर के लिये भी जा सकता है। अन्य ब्रह्माण्डों का अर्थ विद्धि रूप से सूर्य, चन्द्र, बृहस्पति, शुक्र, हर्शल, प्लूटो आदि से है। यह आश्चर्य लगने वाली बात उसके लिये बिल्कुल साधारण और सामान्य होती है। साधना में तीन व्यक्तियों को कभी कभी रात में ऐसे कुछ स्वप्न हो जाते हैं जिसमें उन्हें किसी भविष्य की घटना का पूर्वाभास मिल जाता है या किसी गोपनीय रहस्य का पता चल जाता है। वह कुण्डलिनी की ही शक्ति होती है।
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हमारी धरती गोलाकार है उसके केन्द्र में अति गर्मी है जिससे वहाँ की सब वस्तुएँ और धातुएँ गली हुई तरल स्थिति में होती हैं। मूलाधार की वह गाँठ, जहाँ मेरुदण्ड समाप्त होता है और जिसे अनेक नाड़ी गुच्छकों ने बाँध रखा है, का भेदन किया जाय तो वहाँ अत्यन्त तेजस्वी और उष्ण शक्ति मिलती है, यही कुण्डलिनी है। वह स्फुरणा वाली शक्ति है इसलिये यहाँ नाड़ी गुच्छक भी स्फुरित से है चारों ओर को उत्तेजित से बने रहते हैं। यहाँ की अग्नि पृथ्वी में पाई जाने वाली अग्नि से बहुत कुछ मिलती जुलती होती है।
विज्ञान का एक नियम है कि एक पदार्थ के सभी अणुओं की चेष्टाएँ मूल पदार्थ जैसी ही होती हैं। उदाहरणार्थ लोहे में जो गुण और चेष्टा होगी वही उसके परमाणु में भी होगी। नमक में जो गुण और तत्व होंगे उसके परमाणु में भी वही होंगे। गुदा पार्थिव पदार्थों से बना हुआ होने के कारण उसके गुण, अहंकार और वासनायें भी पार्थिव होती हैं इसलिये शक्ति की दृष्टि से भी वह कुण्डलिनी की तरह ही महत्त्वपूर्ण होता है अर्थात् कुण्डलिनी का एक उपयोग केवल पार्थिव काम वासना-जन्य सुखों के लिये भी किया जा सकता है पर उस स्थिति में शक्ति अधोगामी होने से उसका पतन शीघ्र हो जाता है और ऐसे मनुष्य की वासनायें मृत्यु तक भी शान्त नहीं होती इसलिये उसे उनकी पूर्ति के लिये पुनः जीवन धारण करना पड़ता है।
लेकिन जब कुण्डलिनी जागृत हो जाती है और इड़ा, पिंगला समान गति से ऊर्ध्वगामी हो जाती हैं तो एक तीसरी धारा सुषुम्ना का आविर्भाव होता है। उससे ऊर्ध्वमुखी लोकों की अनुभूति और गमन का सुख मिलता है यह सुख संभोग सुख जैसा होता है पर संभोग का सुख क्षणिक होता है और ऊर्ध्वमुखी आध्यात्मिक सुख का रसास्वादन निरन्तर किया जा सकता है। पर उसके लिये कुण्डलिनी को जगाना आवश्यक हो जाता है।
कुण्डलिनी जगाने का अर्थ भीतर गोलों (7 chakra) की कुण्डलिनी को क्रियावान् करना है। पवित्रता के बिना इस कार्य में बड़ा जोखिम है। इसलिये उसे गुप्त रखा गया। कुण्डलिनी के दो उत्पत्ति स्थान माने गये हैं, एक सूर्य केन्द्र में निवास करने वाली पुरुषरूपी और दूसरी स्त्री रूप में पृथ्वी केन्द्र में। पृथ्वी केन्द्र में कुण्डलिनी को प्राणधारियों की जीवन सत्ता का केन्द्र कह सकते हैं। यह दरअसल सूर्य कुण्डलिनी का ही बीज है।
कहा जाता है कि संसार जो कुछ भी है वह सब बीज रूप से देह में विद्यमान् है सूर्य भी कुण्डलिनी के रूप में शरीर में बैठा हुआ है। शारीरिक मूलाधार में ग्रन्थि का जब विकास होता है तब उसमें सूर्य जैसी होती है। अर्थात् उसमें मनुष्य की शक्ति सूर्य की जितनी शक्ति वाली, सर्वव्यापी, सर्व-समर्थ हो जाती है फिर उस शक्ति का नियन्त्रण करना कठिन हो जाता है। कमजोर मन और शरीर वाले उस शक्ति (kundalini power) को धारण नहीं कर सकते।
गायत्री का देवता “सविता” है और कुण्डलिनी की प्रतिनिधि शक्ति भी सूर्य ही है इसलिये गायत्री उपासना का सीधा प्रभाव मेरुदण्ड से होकर इस गुदा क्षेत्र में ही होता है। ऊपर से उतरने वाला प्राण प्रवाह पहले यहीं पहुँचता है और फिर गुच्छकों के द्वारा सारे शरीर में संचित होता रहता है। जितना अधिक साधन का विकास होता है उतना ही प्राणशक्ति का अभिवर्द्धन और उसी अनुपात से कुण्डलिनी जागृत होती चलती है। यह प्रकाश धीरे-धीरे नेत्र, वाणी, मुख और ललाट आदि सम्पूर्ण शरीर में चमकने लगता है।
त्वचा में यही कोमलता और बुद्धि में सात्विकता एवं पवित्रता की अभिवृद्धि करता है। यह क्रिया धीरे-धीरे होती है इसलिये हानि की भी आशंका नहीं रहती उपासक अपने आत्म-कल्याण भर के संकेत प्राप्त करता हुआ जो वास्तविक लक्ष्य है वह जीवन -मुक्ति भी प्राप्त कर लेता हैं।
सविता लोक से आने वाले प्राणकण यद्यपि बहुत छोटे होते हैं किन्तु इतने प्रकाशमय होते है कि बिना दिव्य-दृष्टि के भी उन्हें देखा जा सकता है। आसमान की ओर देखने पर वायु में छोटे-छोटे प्रकाश के कण अति शीघ्रता से चारों ओर उछलते हुए दिख पड़ते हैं ये प्राणकण ही हैं। यह कण सात ईश्वर कणों से विनिर्मित होता है। यह प्राण कण सफेद होता है पर ईश्वर के सातों अणु सात रंगों के बने होते हैं। सूर्य भी सात रंगों का प्रकाश है।
नाभि चक्र में घुसने पर यह रंग अलग-अलग होकर अपने क्रिया क्षेत्रों में बँट जाते हैं नीला और लाल रंग मिली हुई हल्की बैगनी (वायलेट) और नीली किरणें कंठ में चली जाती हैं और हल्की नीली कण्ठ चक्र में। यह दोनों गले को शुद्ध रखती हैं और वाणी को मधुर बनाती हैं। कासनी और गहरा नीला मस्तिष्क में चले जाते हैं उससे विचार, भक्ति और वैराग्य के गुणों का आविर्भाव होता है। गहरा नीला मगज के निचले और मध्य भाग तथा नीला रंग सहस्रार का पोषण करता है।
पीली किरणें हृदय में प्रवेश करती है उससे रक्तकणों की शक्ति और स्निग्धता बढ़ती है। शरीर सुन्दर बनता है। यही किरणें बाद में मस्तिष्क को चली जाती हैं जिससे विचार और भावनाओं का समन्वय होता है। हरी किरणें पेट की अन्तड़ियों में कार्य करती हैं इससे पाचन क्रिया सशक्त बनती है। गुलाबी किरणें ज्ञान तन्तुओं के साथ सारे शरीर में फैलती है आरोग्य की दृष्टि से इन किरणों का बड़ा भारी महत्व है ऐसी की बहुतायत वाला व्यक्ति किसी को भी हाथ रखकर स्वस्थ कर सकता है।
देवदारु और यूकेलिप्टस वृक्षों में इन किरणों की ही बहुतायत होती है जिससे उनकी छाया भी बहुत आरोग्यवर्धक होती हैं। नारंगी लाल किरणें जननेन्द्रियों तक पहुँचकर गुदा वाले रोग ठीक कर देती हैं और शरीर की गर्मी में सन्तुलन रखती हैं। हलकी बैंगनी किरणें भी यहाँ आकर इस क्रिया में हाथ बँटाती हैं यदि कामवासना पर नियन्त्रण रखा जा सके तो इन किरणों को ही मस्तिष्क में भेजकर भविष्य ज्ञान, दूर दर्शन, दर श्रवण आदि चमत्कार, प्राप्त किये जा सकते हैं।
शुद्ध पीले रंग से बुद्धि का विकास होता है। गहरा लाल किरमिजी (क्रिमसन) से सर्वात्म भाव और प्रेमभाव का विकास होता है। इन रंगों की सम्मिलित शक्ति से आध्यात्मिकता का विकास होता हैं। इस तरह यह देखने में आता है कि कुण्डलिनी जागरण से आन्तरिक कलेवर का आमूल-चूल परिवर्तन हो जाता है। इस क्रान्ति का माध्यम शरीरस्थ कुण्डलिनी को सूर्य कुण्डलिनी से जोड़ देना ही होता है। यह क्रिया वैसे ही है जैसे किसी बड़े तालाब से छोटी सी नाली लगाकर खेतों तक पानी पहुँचा देते हैं। कुण्डलिनी जागरण की यह साधना समय साध्य तो है पर जोखिम नहीं है।

कुंडलिनी चक्र जागरण में दिखने वाले रंगों का अर्थ | Kundalini 7 Chakra’s Colors 

साधकों को ध्यान के दौरान कुछ एक जैसे एवं कुछ अलग प्रकार के अनुभव होते हैं. अनेक साधकों के ध्यान में होने वाले अनुभव एकत्रित कर यहाँ वर्णन कर रहे हैं ताकि नए साधक अपनी साधना में अपनी साधना में यदि उन अनुभवों को अनुभव करते हों तो वे अपनी साधना की प्रगति, स्थिति व बाधाओं को ठीक प्रकार से जान सकें और स्थिति व परिस्थिति के अनुरूप निर्णय ले सकें.
भौहों के बीच आज्ञा चक्र (Aagya chakra) में ध्यान लगने पर पहले काला और फिर नीला रंग दिखाई देता है. फिर पीले रंग की परिधि वाले नीला रंग भरे हुए गोले एक के अन्दर एक विलीन होते हुए दिखाई देते हैं. एक पीली परिधि वाला नीला गोला घूमता हुआ धीरे-धीरे छोटा होता हुआ अदृश्य हो जाता है और उसकी जगह वैसा ही दूसरा बड़ा गोला दिखाई देने लगता है. इस प्रकार यह क्रम बहुत देर तक चलता रहता है. साधक यह सोचता है इक यह क्या है, इसका अर्थ क्या है ? इस प्रकार दिखने वाला नीला रंग आज्ञा चक्र का एवं जीवात्मा का रंग है. नीले रंग के रूप में जीवात्मा ही दिखाई पड़ती है. पीला रंग आत्मा का प्रकाश है जो जीवात्मा के आत्मा के भीतर होने का संकेत है.
इस प्रकार के गोले दिखना आज्ञा चक्र के जाग्रत होने का लक्षण है. इससे भूत-भविष्य-वर्तमान तीनों प्रत्यक्षा दीखने लगते है और भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं के पूर्वाभास भी होने लगते हैं. साथ ही हमारे मन में पूर्ण आत्मविश्वास जाग्रत होता है जिससे हम असाधारण कार्य भी शीघ्रता से संपन्न कर लेते हैं.

कुण्डलिनी जागरण का अनुभव | kundalini awakening experiences

कुण्डलिनी वह दिव्य शक्ति है जिससे सब जीव जीवन धारण करते हैं, समस्त कार्य करते हैं और फिर परमात्मा में लीन हो जाते हैं. अर्थात यह ईश्वर की साक्षात् शक्ति है. यह कुदालिनी शक्ति सर्प की तरह साढ़े तीन फेरे लेकर शारीर के सबसे नीचे के चक्र मूलाधार चक्र में स्थित होती है. जब तक यह इस प्रकार नीचे रहती है तब तक हम सांसारिक विषयों की ओर भागते रहते हैं. परन्तु जब यह जाग्रत होती है तो उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि कोई सर्पिलाकार तरंग है जिसका एक छोर मूलाधार चक्र पर जुदा हुआ है और दूसरा छोर रीढ़ की हड्डी के चारों तरफ घूमता हुआ ऊपर उठ रहा है. यह बड़ा ही दिव्य अनुभव होता है. यह छोर गति करता हुआ किसी भी चक्र पर रुक सकता है.
जब कुण्डलिनी जाग्रत होने लगती है तो पहले मूलाधार चक्र (Muladhar Chakra) में स्पंदन का अनुभव होने लगता है. यह स्पंदन लगभग वैसा ही होता है जैसे हमारा कोई अंग फड़कता है. फिर वह कुण्डलिनी तेजी से ऊपर उठती है और किसी एक चक्र पर जाकर रुक जाती है. जिस चक्र पर जाकर वह रूकती है उसको व उससे नीचे के चक्रों को वह स्वच्छ कर देती है, यानि उनमें स्थित नकारात्मक उर्जा को नष्ट कर देती है. इस प्रकार कुण्डलिनी जाग्रत होने पर हम सांसारिक विषय भोगों से विरक्त हो जाते हैं और ईश्वर प्राप्ति की ओर हमारा मन लग जाता है. इसके अतिरिक्त हमारी कार्यक्षमता कई गुना बढ जाती है. कठिन कार्य भी हम शीघ्रता से कर लेते हैं.

कुण्डलिनी जागरण के दिव्य लक्षण | Divine symptoms of kundalini awakening

कुण्डलिनी जागरण के सामान्य लक्षण हैं : ध्यान में ईष्ट देव का दिखाई देना या हूं हूं या गर्जना के शब्द करना, गेंद की तरह एक ही स्थान पर फुदकना, गर्दन का भाग ऊंचा उठ जाना, सर में चोटी रखने की जगह यानि सहस्रार चक्र पर चींटियाँ चलने जैसा लगना, कपाल ऊपर की तरफ तेजी से खिंच रहा है ऐसा लगना, मुंह का पूरा खुलना और चेहरे की मांसपेशियों का ऊपर खींचना और ऐसा लगना कि कुछ है जो ऊपर जाने की कोशिश कर रहा है.
एक से अधिक शरीरों का अनुभव होना –
कई बार साधकों को एक से अधिक शरीरों का अनुभव होने लगता है. यानि एक तो यह स्थूल शरीर है और उस शरीर से निकलते हुए २ अन्य शरीर. तब साधक कई बार घबरा जाता है. वह सोचता है कि ये ना जाने क्या है और साधना छोड़ भी देता है. परन्तु घबराने जैसी कोई बात नहीं होती है.
एक तो यह हमारा स्थूल शरीर है. दूसरा शरीर सूक्ष्म शरीर (मनोमय शरीर) कहलाता है तीसरा शरीर कारण शारीर कहलाता है. सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर भी हमारे स्थूल शरीर की तरह ही है यानि यह भी सब कुछ देख सकता है, सूंघ सकता है, खा सकता है, चल सकता है, बोल सकता है आदि. परन्तु इसके लिए कोई दीवार नहीं है यह सब जगह आ जा सकता है क्योंकि मन का संकल्प ही इसका स्वरुप है. तीसरा शरीर कारण शरीर है इसमें शरीर की वासना के बीज विद्यमान होते हैं. मृत्यु के बाद यही कारण शरीर एक स्थान से दुसरे स्थान पर जाता है और इसी के प्रकाश से पुनः मनोमय व स्थूल शरीर की प्राप्ति होती है अर्थात नया जन्म होता है. इसी कारण शरीर से कई सिद्ध योगी परकाय प्रवेश में समर्थ हो जाते हैं.
कुंडलिनी शक्ति को जगाने का सबसे अच्छा तरीका है साधना या शक्तिपात.

कुण्डलिनी जागरण साधना (Kunadlini Yog

अगर आप साधना के जरिये अपनी कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत करना चाहते है तो उसके लिएय आपको योग के मार्ग का अनुसरण करते हुये कर्मयोग, भक्तियोग, हठयोग और गुरुकृपायोग को साधना पड़ता है. साथ ही आपको प्राणायाम, यौगिक क्रियाओं और ब्रह्मचर्य का पालन भी करना होता है. इन सब नियमों के पालन के अलावा आपमें अनुशासन, धैर्य और सहनशीलता का होना भी अति आवश्यक है.

कुण्डलिनी जागरण शक्तिपात (Kundalini Shaktipaat 

ये एक योग है जिसके जरियें आपको एक व्यक्ति के द्वारा दुसरे व्यक्ति को आध्यात्मिक शक्ति दी जाती है. सीधे शब्दों में कहें तो एक गुरु अपने शिष्य को अपनी आध्यात्मिक शक्ति देकर उसकी कुंडलिनी शक्ति के जागरण में सहायक होता है. शक्ति को शिष्य तक पहुँचाने के लिए गुरु कुछ मन्त्रों का या पवित्र शब्दों का इस्तेमाल करता है, इस दौरान वो अपने नेत्रों को बंद रखता है और शिष्य को स्पर्श कर उसके आज्ञाचक्र में अपनी शक्ति को डालता है. इस प्रकार गुरु अपने योग्य शिष्य पर अपनी कृपा दीखता है. गुरु द्वारा दी गई इस शक्ति का प्रयोग कर शिष्य आसानी से अपनी कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत करने में सफल हो पाता है.
कुंडलिनी शक्ति का जागरण मात्र आध्यात्मिक प्रगति से ही संभव है जिसके सरल और सही मार्ग है साधना, आप साधना के जरिये ही अपनी कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत करें, जिसके लिए आप साधना के 6 मूलभूत तत्वों को जरुर ध्यान में रखें. ये 6 तत्व आपके मार्ग को सरल बनाते है. किन्तु जब गुरु द्वारा शक्तिपात किया जाता है तो इससे शिष्य के पास एकदम से अचानक आध्यात्मिक शक्ति आ जाती है और वो इस आनंदमयी अनुभव को जीने लगता है. इसके अलावा अब उसे सिर्फ गुणात्मक और संख्यात्मक स्तर में इजाफा कर उसे कुंडलिनी शक्ति को जागृत करने की दिशा में अग्रसर होना होता है. इससे साधक का विश्वास भी मजबूत होता है.
कहा जाता है कि अगर कोई साधक भक्तिमार्ग के जरिये अपनी कुंडलिनी शक्ति को जागृत करता है तो उसका भाव जागृत होता है और यदि वो ज्ञानमार्ग से कुंडलिनी शक्ति को जागृत करता है तो उससे उसे दिव्या ज्ञान की अनुभूति होती है.

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कुण्डलिनी योग (Kundalin Yoga) के अंतर्गत कुण्डलिनी शक्ति (Kundalini Shakti) का शक्तिपात  कुण्डलिनी चक्र (Kundalini Chakra) जागरण का वर्णन अनेक ग्रंथों में मिलता है । कुण्डलिनी जागरण साधना (Kundalini Awakening) को अनेक स्थानों पर षट्चक्र वेधन की साधना (Kundalini Jagran) भी कहते हैं 
योग दर्शन समाधिपाद का 36 वाँ सूत्र है-  ‘विशोकाया ज्योतिष्मती’ इसमें शोक संतापों का हरण करने वाली ज्योति शक्ति के रूप में कुण्डलिनी शक्ति की ओर संकेत है । इसी तरह योग वशिष्ठ, तेजबिन्दूनिषद्, योग चूड़ामणि, ज्ञान संकलिनी तंत्र, शिव महापुराण, देवी भागवत, शाण्डिपनिषद, मुक्तिकोपनिषद, हठयोग संहिता, कुलार्णव तंत्र, योगनी तंत्र, घेरंड संहिता, कंठ श्रुति ध्यान बिन्दूपनिषद, रुद्र यामल तंत्र, योग कुण्डलिनी उपनिषद्, शारदा तिलक आदि ग्रंथों में इस विद्या के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है ।शंकराचार्य कृत आनन्द लहरी के १७ वें श्लोक में भी ऐसा ही प्रतिपादन है ।
इस समस्त शरीर को-सम्पूर्ण जीवन कोशों को-महाशक्ति की प्राण प्रक्रिया संम्भाले हुए हैं । उस प्रक्रिया के दो ध्रुव-दो खण्ड हैं । एक को चय प्रक्रिया (एनाबॉलिक एक्शन) कहते हैं । इसी को दार्शनिक भाषा में शिव एवं शक्ति भी कहा जाता है । शिव क्षेत्र सहस्रार तथा शक्ति क्षेत्र मूलाधार कहा गया है । इन्हें परस्पर जोड़ने वाली, परिभ्रमणिका शक्ति का नाम कुण्डलिनी है | सहस्रार और मूलाधार का क्षेत्र विभाजन करते हुए मनीषियों ने मूलाधार से लेकर कण्ठ पर्यन्त का क्षेत्र एवं चक्र संस्थान शक्ति भाग बताया है और कण्ठ से ऊपर का स्थान ‘शिव’ देश कहा है ।

मूलाद्धाराद्धि षट्चक्रं शक्तिरथानमूदीरतम् ।
कण्ठादुपरि मूर्द्धान्तं शाम्भव स्थानमुच्यते॥ – वराहश्रुति


हमारे शरीर में सात चक्र है (7 Chakra in Hindi) जिन्हे हम कुण्डलिनी चक्र (Kundalini Chakra) करने है और जिनका नाम –

  1. मूलाधार चक्र
  2. स्वाधिष्ठान चक्र
  3. मणिपुर चक्र
  4. अनाहत चक्र
  5. विशुद्ध चक्र
  6. आज्ञा चक्र
  7. सहस्रदल चक्र 






मूलाधार से सहस्रार तक की, काम बीज से ब्रह्म बीज तक की यात्रा को ही महायात्रा कहते हैं । योगी इसी मार्ग को पूरा करते हुए परम लक्ष्य तक पहुँचते हैं । जीव, सत्ता, प्राण, शक्ति का निवास जननेन्द्रिय मूल में है । प्राण उसी भूमि में रहने वाले रज वीर्य से उत्पन्न होते हैं । ब्रह्म सत्ता का निवास ब्रह्मलाक में-ब्रह्मरन्ध्र में माना गया है । यह द्युलोक देवलोक स्वर्गलोक है आत्मज्ञान का ब्रह्मज्ञान का सूर्य इसी लोक में निवास करता है । कमल पुष्प पर विराजमान ब्रह्म जी-कैलाशवासी शिव और शेषशायी विष्णु का निवास जिस मस्तिष्क मध्य केन्द्र में है-उसी नाभिक (न्यूविलस) को सहस्रार कहते है |
आत्मोत्कर्ष की महायात्रा जिस मार्ग से होती है उसे मेरुदण्ड या सुषुम्ना कहते हैं । उसका एक सिरा मस्तिष्क का-दूसरा काम केन्द्र का स्पर्श करता है । कुण्डलिनी साधना की समस्त गतिविधियाँ प्रायः इसी क्षेत्र को परिष्कृत एवं सरल बनाने के लिए हैं । इड़ा, पिंगला के प्राण प्रवाह इसी क्षेत्र को दुहराने के लिए नियोजित किये जाते हैं ।
साबुन पानी में कपड़े धोये जाते हैं । झाड़ू झाड़न से कमरे की सफाई होती है । इड़ा पिंगला के माध्यम से किये जाने वाले नाड़ी शोधन प्राणायाम मेरुदण्ड का संशोधन करने के लिए है । इन दोनों ऋणात्मक और धनात्मक शक्तियों का उपयोग सृजनात्मक उद्देश्य से भी होता है । इड़ा पिंगला के माध्यम से सुषम्ना क्षेत्र में काम करने वाली प्राण विद्युत का विशिष्ट संचार क्रम प्रस्तुत करके कुण्डलिनी जागरण की साधना सम्पन्न की जाती है ।
मेरुदण्ड को राजमार्ग-महामार्ग कहते हैं । इसे धरती से स्वर्ग पहुँचने का देवयान मार्ग कहा गया है । इस यात्रा के मध्य में सात लोक हैं । हिन्दू धर्म के भूःभुवःस्वःतपःमहःसत्यम् यह सात लोक प्रसिद्ध है । आत्मा और परमात्मा के मध्य इन्हें विराम स्थल माना गया है । इन विराम स्थलों को ‘चक्र ‘ कहा गया है । चक्रों की व्याख्या दो रूपों में होती है, एक अवरोध के रूप में दूसरे अनुदान के रूप में महाभारत में चक्रव्यूह की कथा है । अभिमन्यु उसमें फँस गया था । वेधन कला की समुचित जानकारी न होने से वह मारा गया था । चक्रव्यूह में सात परकोटे होते हैं । इस अलंकारिक प्रसंग को आत्मा का सात चक्रों में फँसा होना कह सकते हैं । भौतिक आकर्षणों की, भ्राँतियों की विकृतियों की चहारदीवारी के रूप में भी चक्रों की गणना होती है । इसलिए उसके वेधन का विधान बताया गया है ।
कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत कर लेना बहुत ही जटिल प्रक्रिया है और यह एक अद्भुत और विचित्र अनुभव है जसकी कुण्डलिनी शक्ति जागृत है या सात चक्र जागृत है, वह साधारण मानव नहीं रह जाता है, वह एक योगिक और अलोकिक व्यक्ति हो जाता है, दुनिया के भौतिक सुखो से पर हो कर ईश्वर की साधन में लीन हो जाता है लेकिन ऐसे व्यक्ति के लिय कुछ भी प्राप्त करना असंभव नहीं रहता है।
चक्रों को अनुदान केन्द्र इसलिए कहा जाता है कि उनके अन्तराल में दिव्य सम्पदाएँ भरी पड़ी हैं । उन्हें ईश्वर ने चक्रों की तिजोरियों में इसलिए बन्द करके छोड़ा है कि प्रौढ़ता, पात्रता की स्थिति आने पर ही उन्हें खोलने उपयोग करने का अवसर मिले कुपात्रता अयोग्यता की स्थिति में बहुमूल्य साधन मिलने पर तो अनर्थ ही होता है । धातुओं की खदानें जमीन की ऊपरी परत पर बिखरी नहीं होती, उन्हें प्राप्त करने के लिए गहरी खुदाई करनी पड़ती है । मोती प्राप्त करने के लिए लिए समुद्र में गहरे गोते लगाने पड़ते हैं । यह अवरोध इसलिए है कि साहसी एवं सुयोग्य सत्पात्रों को ही विभूतियों को वैभव मिल सके ।
मेरुदण्ड में अवस्थित चक्रों को ऐसी सिद्धियों का केन्द्र माना गया है जिनकी भौतिक और आत्मिक प्रगति के लिए नितान्त आवश्यकता रहती है ।इन सभी चक्रो को जागृत करने के लिए श्रद्धा और विश्वास और निरंतरता की आवश्यकता होती है। और किसी कुशल साधक के सरंक्षण में करना चाहिए ,नहीं तो अनिष्ट भी हो सकता है | चक्रवेधन, चक्रशोधन, चक्र परिष्कार, चक्र जागरण आदि नामों से बताये गये विवेचनों एवं विधानों में कहा गया है कि इस प्रयास से अदक्षताओं एवं विकृतियों का निराकरण होता है । जो उपयुक्त है उसकी अभिवृद्धि का पथ प्रशस्त होता है । सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन, दुष्प्रवृत्तियों के दमन में यह चक्रवेधन विधान उपयोगी एवं सहायक है |

कुंडलिनी चक्र जागरण मंत्र – Kundalini Awakening Mantra 

मूलाधार चक्र – “ ॐ लं परम तत्वाय गं ॐ फट “
स्वाधिष्ठान चक्र – “ ॐ वं वं स्वाधिष्ठान जाग्रय जाग्रय वं वं ॐ फट “
मणिपुर चक्र – “ ॐ रं जाग्रनय ह्रीम मणिपुर रं ॐ फट “
अनाहत चक्र – “ ॐ यं अनाहत जाग्रय जाग्रय श्रीं ॐ फट “
विशुद्ध चक्र – “ ॐ ऐं ह्रीं श्रीं विशुद्धय फट “
आज्ञा चक्र – “ ॐ हं क्षं चक्र जगरनाए कलिकाए फट “
सहस्त्रार चक्र – “ ॐ ह्रीं सहस्त्रार चक्र जाग्रय जाग्रय ऐं फट “
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कुंडलिनी चक्र जागरण बीज मंत्र 

मूलाधार – “ लं “
स्वाधिष्ठान– “ वं “
मणिपुर – “ रं “
अनाहत– “ यं “
विशुद्ध – “ हं “
आज्ञा – “ ॐ “
सहस्त्रार – “ ॐ 

मूलाधार चक्र जागरण और बीज मंत्र 

मूलाधार-चक्र वह चक्र है जहाँ पर शरीर का संचालन वाली कुण्डलिनी-शक्ति से युक्त ‘मूल’ आधारित अथवा स्थित है। यह चक्र शरीर के अन्तर्गत गुदा और लिंग मूल के मध्य में स्थित है जो अन्य स्थानों से कुछ उभरा सा महसूस होता है।
root-chakra-muladharशरीर के अन्तर्गत ‘मूल’, शिव-लिंग आकृति का एक मांस पिण्ड होता है, जिसमें शरीर की संचालिका शक्ति रूप कुण्डलिनी-शक्ति साढ़े तीन फेरे में लिपटी हुई शयन-मुद्रा में रहती है। चूँकि यह कुण्डलिनी जो शरीर की संचालिका शक्ति है और वही इस मूल रूपी मांस पिण्ड में साढ़े तीन फेरे में लिपटी रहती है इसी कारण इस मांस-पिण्ड को मूल और जहाँ यह आधारित है, वह मूलाधार-चक्र कहलाता है।

मूलाधार-चक्र अग्नि वर्ण का त्रिभुजाकार एक आकृति होती है जिसके मध्य कुण्डलिनी सहित मूल स्थित रहता है। इस त्रिभुज के तीनों उत्तंग कोनों पर इंगला, पिंगला और सुषुम्ना आकर मिलती है। इसके अन्दर चार अक्षरों से युक्त अग्नि वर्ण की चार पंखुणियाँ नियत हैं। ये पंखुणियाँ अक्षरों से युक्त हैं वे – स, ष, श, व । यहाँ के अभीष्ट देवता के रूप में गणेश जी नियत किए गए हैं।
जो साधक साधना के माध्यम से कुण्डलिनी जागृत कर लेता है अथवा जिस साधक की स्वास-प्रस्वास रूप साधना से जागृत हो जाती है और जागृत अवस्था में उर्ध्वगति में जब तक मूलाधार में रहती है, तब तक वह साधक गणेश जी की शक्ति से युक्त व्यक्ति हो जाता है।
मंत्र : इस चक्र का स्थान मेरु दंड के सबसे निचले  स्थिति होता है ,इसका मूल मंत्र “लं ” है |
व्यक्ति को पहले प्राणायाम कर के मूलाधार चक्र पर अपना ध्यान केंद्रित कर मंत्र का उच्चारण करना चाहिए। धीरे धीरे चक्र जागृत होता है
लाभ: इससे लाभ यह मिलता है की व्यक्ति के जीवन में लालच नाम की चीज खत्म हो जाता है ,और एक आत्मिक ज्ञान प्राप्त होता है व्यक्ति अच्छा ज्ञान प्राप्त करता है और जिंदगी में बड़ी से बड़ी जिम्मेवारी लेने की क्षमता बढ़ जाता है। हौसला मजबूत होता है शारीरिक ऊर्जा बढ़ता है |
हानि : जब साधक-सिद्ध व्यक्ति सिद्धियों के चक्कर अथवा प्रदर्शन में फँस जाता है तो उसकी कुण्डलिनी उर्ध्वमुखी से अधोमुखी होकर पुनः शयन-मुद्रा में चली जाती है जिसका परिणाम यह होता है की वह सिद्ध-साधक सिद्धि का प्रदर्शन अथवा दुरुपयोग करते-करते पुनः सिद्धिहीन हो जाता है। परिणाम यह होता है कि वह उर्ध्वमुखी यानि सिद्ध योगी तो बन नहीं पाता, सामान्य सिद्धि से भी वंचित हो जाता है। परन्तु जो साधक सिद्धि की तरफ ध्यान न देकर निरन्तर मात्र अपनी साधना करता रहता है उसकी कुण्डलिनी उर्ध्वमुखी के कारण ऊपर उठकर स्वास-प्रस्वास रूपी डोरी (रस्सी) के द्वारा मूलाधार से स्वाधिष्ठान-चक्र में पहुँच जाती है।

स्वाधिष्ठान चक्र जागरण और बीज मंत्र 

scaral-chakra-swadhistanमूलाधार चक्र से थोड़ा ऊपर और नाभि से निचे यह चक्र स्थित है। स्वाधिष्ठान-चक्र में चक्र के छः दल हैं, जो पंखुणियाँ कहलाती हैं। यह चक्र सूर्य वर्ण का होता है जिसकी छः पंखुनियों पर स्वर्णिम वर्ण के छः अक्षर होते हैं जैसे- य, र, य, म, भ, ब । इस चक्र के अभीष्ट देवता इन्द्र नियत हैं। जो साधक निरन्तर स्वांस-प्रस्वांस रूपी साधना में लगा रहता है, उसकी कुण्डलिनी ऊर्ध्वमुखी होने के कारण स्वाधिष्ठान में पहुँचकर विश्राम लेती है। तब इस स्थिति में वह साधक इन्द्र की सिद्धि प्राप्त कर लेता है अर्थात सिद्ध हो जाने पर सिद्ध इन्द्र के समान शरीर में इन्द्रियों के अभिमानी देवताओं पर प्रशासन करने लगता है, इतना ही नहीं प्रशासनिक नेता, मन्त्री और राजा लोग भी प्रशासनिक व्यवस्था के सुचारु एवं सुदृढ़ता हेतु आशीर्वचन हेतु आने और निर्देशन में चलने लगते हैं। साथ ही सिद्ध-पुरुष में प्रबल अहंकार रूप में अभिमानी होने लगता है जो उसके लिए बहुत ही खतरनाक होता है।
मंत्र : इसका मूल मंत्र ” वं ” है। यह चक्र जल तत्त्व से सम्बंधित है।
लाभ : इस चक्र के जागृत होने पर शारीरिक समस्या समाप्त हो जाती है। शरीर में कोई भी विकार जल तत्त्व के ठीक न होने से होता है , इसके जाग्रत होने से जल तत्व का पूर्ण ज्ञान होता है , शारीरिक विकार का नाश हो जाता है ,जल सीधी की प्राप्ति हो जाती है |  इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता है ।
हानि : यदि साधना बन्द हो गयी तो आगे का मार्ग तो रुक ही जाएगा, वर्तमान सिद्धि भी समाप्त हो जाएगी |

मणिपुर चक्र जागरण और बीज मंत्र 

नाभि मूल में स्थित रक्त वर्ण का यह चक्र शरीर के अन्तर्गत मणिपूरक नामक तीसरा चक्र है, जो दस दल कमल पंखुनियों से युक्त है जिस पर स्वर्णिम वर्ण के दस अक्षर बराबर कायम रहते हैं। वे अक्षर – फ, प, न, ध, द, थ, त, ण, ढ एवं ड हैं। इस चक्र के अभीष्ट देवता ब्रह्मा जी हैं। जो साधक निरन्तर स्वांस-प्रस्वांस रूप साधना में लगा रहता है उसी की कुण्डलिनी-शक्ति मणिपूरक-चक्र तक पहुँच पाती है आलसियों एवं प्रमादियों की नहीं। मणिपूरक-चक्र एक ऐसा विचित्र-चक्र होता है; जो तेज से युक्त एक ऐसी मणि है, जो शरीर के सभी अंगों-उपांगों के लिए यह एक आपूर्ति-अधिकारी के रूप में कार्य करता रहता है। यही कारण है कि यह मणिपूरक-चक्र कहलाता है।
नाभि कमल पर ही ब्रह्मा का वास है। सहयोगार्थ-समान वायु – मणिपूरक-चक्र पर सभी अंगों और उपांगों की यथोचित पूर्ति का भार होता है। इसके कार्य भार को देखते हुये सहयोगार्थ समान वायु नियत की गयी, ताकि बिना किसी परेशानी और असुविधा के ही अतिसुगमता पूर्वक सर्वत्र पहुँच जाय। यही कारण है कि हर प्रकार की भोग्य वस्तु इन्ही के क्षेत्र के अन्तर्गत पहुँच जाने की व्यवस्था नियत हुई है ताकि काफी सुविधा-पूर्वक आसानी से लक्ष्य पूर्ति होती रहे।
मणिपूरक-चक्र के अभीष्ट देवता ब्रह्मा जी पर ही सृष्टि का भी भार होता है अर्थात गर्भाशय स्थित शरीर रचना करना, उसकी सामग्रियों की पूर्ति तथा साथ ही उस शरीर की सारी व्यवस्था का भार जन्म तक ही इसी चक्र पर रहता है जिसकी पूर्ति ब्रह्मनाल (ब्रह्म-नाड़ी) के माध्यम से होती रहती है। जब शरीर गर्भाशय से बाहर आ जाता है तब इनकी जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है।
मणिपूरक-चक्र ही शरीर का केंद्र बिन्दु होता है। यहीं से शरीर में सब तरफ नाड़ियों का जाल बिछा होता है। समस्त अंगों-उपांगों की आपूर्ति व्यवस्था भी यहीं से होती है। यह सोता रहे तो लिप्सा, कपट, तोड़-फोड़, कुतर्क, चिन्ता, मोह, दम्भ, अविवेक अहंकार से भरा रहेगा । जागरण होने पर यह सब दुर्गुण हट जायेंगे ।
मंत्र : यह नाभि में स्थित होता है और इसके जागृत करने का मूल मंत्र ” रं ” है। इस चक्र को जागृत करने के लिए बहुत ज्यादा साधना की जरूरत होती है।
लाभ : यह चक्र जागृत होते है तब व्यक्ति सर्व शक्ति संपन्न हो जाता है। प्रकृति के बारे में ज्ञान प्राप्त होता है ,जीवो की उत्पत्ति कैसे हुई इसका ज्ञान होता है। यहाँ तक की यह चक्र पूर्व जन्म का ज्ञान भी देता है , भाषा का ज्ञान देता है , अग्नि तत्त्व की सिद्धि देता है।

अनाहत चक्र जागरण और बीज मंत्र 

Anahata-heart-chakraहृदय स्थल में स्थित स्वर्णिम वर्ण का द्वादश दल कमल की पंखुड़ियों से युक्त द्वादश स्वर्णाक्षरों से सुशोभित चक्र ही अनाहत्-चक्र है। जिन द्वादश(१२) अक्षरों की बात काही जा रही है वे – ठ, ट, ञ, झ, ज, छ, च, ड़, घ, ग, ख और क हैं। इस के अभीष्ट देवता श्री विष्णु जी हैं। अनाहत्-चक्र ही वेदान्त आदि में हृदय-गुफा भी कहलाता है, जिसमें ईश्वर स्थित रहते हैं, ऐसा वर्णन मिलता है। ईश्वर ही ब्रह्म और आत्मा भी है।
सबका एक ही – यथार्थ बात यह है कि जो कर्मकांडियों का क्षीर-सागर है, वही वेदान्तियों का हृदय गुफा है और वही ध्यान-साधना वाले साधकों का अनाहत्-चक्र है। जब कुण्डलिनी अनाहत्-चक्र में प्रवेश कर उर्ध्वमुखी रूप में विश्राम लेते हुये जब तक इस चक्र में वास करती है, तब तक साधन-रत सिद्ध-साधक श्री विष्णु जी की सिद्धि को प्राप्त कर के उसी के प्रभाव के समान प्रभावी होने लगता है।
मंत्र : इसका मूल मंत्र ” यं ” है। व्यक्ति को यह चक्र जागृत करने के लिए हृदय पर ध्यान केंद्रित कर के इस मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।
लाभ : अनाहत चक्र जागृत होते ही व्यक्ति को बहुत सारी सिद्धियाँ मिलती है।
 व्यक्ति को ब्रह्माण्डीय ऊर्जा से शक्ति प्राप्त होती है , यहाँ तक की यह चक्र जागृत हो जाये तो व्यक्ति सूक्षम रूप ले सकता है और शरीर त्यागने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। आनद प्राप्त होता है। श्रद्धा प्रेम जागृत होता है।  वायु तत्त्व से सम्बंधित सिद्धियाँ प्राप्त होती है। योग शक्ति प्राप्त होती है।

विशुद्ध चक्र जागरण और बीज मंत्र 

कण्ठ स्थित चन्द्र वर्ण का षोडसाक्षर अः, अं, औ, ओ, ऐ, ए, ऊ, उ, लृ, ऋ, ई, इ, आ, अ वर्णों से युक्त षोडसदल कमल की पंखुड़ियों वाला यह चक्र विशुद्ध-चक्र है, यहाँ के अभीष्ट देवता शंकर जी हैं। कण्ठ में विशुद्धख्य चक्र यह सरस्वती का स्थान है । यहाँ सोलह कलाएँ सोलह विभतियाँ विद्यमान है |
जब कुण्डलिनी-शक्ति विशुद्ध-चक्र में प्रवेश कर विश्राम करने लगती है, तब उस सिद्ध-साधक के अन्दर संसार त्याग का भाव प्रबल होने लगता है और उसके स्थान पर सन्यास भाव अच्छा लगने लगता है। संसार मिथ्या, भ्रम-जाल, स्वप्नवत् आदि के रूप में लगने लगता है। उस सिद्ध व्यक्ति में शंकर जी की शक्ति आ जाती है।
मंत्र : व्यक्ति को कंठ पर अपना ध्यान एकत्रित कर ” हं ” मूल मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।
लाभ : विशुद्ध चक्र बहुत ही महत्वपूर्ण चक्र होता है। यह जागृत होते ही व्यक्ति को वाणी की सिद्धि प्राप्त होता है।
इस चक्र के जागृत होने से आयु वृद्धि होती है , संगीत विद्या की सिद्धि प्राप्त होती है , शब्द का ज्ञान होता है। व्यक्ति विद्वान होता है |

आज्ञा चक्र जागरण और बीज मंत्र 

chakra-ajna-aagyaभू-मध्य स्थित लाल वर्ण दो अक्षरों हं, सः से युक्त दो पंखुड़ियों वाला यह चक्र ही आज्ञा-चक्र है। इसका अभीष्ट प्रधान आत्मा (सः) रूप शब्द-शक्ति अथवा चेतन-शक्ति अथवा ब्रह्म-शक्ति अथवा ईश्वर या नूरे-इलाही या चाँदना अथवा दिव्य-ज्योति अथवा डिवाइन लाइट अथवा भर्गो-ज्योति अथवा सहज-प्रकाश अथवा परमप्रकाश अथवा आत्म ज्योतिर्मय शिव आदि-आदि अनेक नामों वाला परन्तु एक ही रूप वाला ही नियत है।
यह वह चक्र है जिसका सीधा सम्बन्ध आत्मा (सः) रूप चेतन-शक्ति अथवा शब्द-शक्ति से और अप्रत्यक्ष रूप अर्थात् शब्द-शक्ति के माध्यम से शब्द-ब्रह्म रूप परमेश्वर से भी होता है। दूसरे शब्दों में आत्मा का उत्पत्ति स्रोत तो परमेश्वर होता है और गन्तव्य-स्थल आज्ञा-चक्र होता है।
मंत्र : व्यक्ति को इस चक्र को जागृत करने के लिए मूल मंत्र ” ॐ  का उच्चारण करना चाहिए।
लाभ : इसके जागृत होते ही देव शक्ति प्राप्त होती है।
दिव्य दृष्टि की सिद्धि होती है। दूर दृष्टि प्राप्त होता है , त्रिकाल ज्ञान मिलता है। आत्मा ज्ञान मिलता है , देव दर्शन होता है।  व्यक्ति अलोकिक हो जाता है।

सहस्त्र दल चक्र जागरण और बीज मंत्र 

crown-chakra-sahstra-dalयह चक्र मस्तिष्क में स्थित होता है , मस्तिष्क में भी जिसको हम ब्रह्म स्थान बोलते है।
मंत्र : इसका मूल मंत्र ” ॐ “ है |
शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथियों से सम्बन्ध रैटिकुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम का अस्तित्व है । वहाँ से जैवीय विद्युत का स्वयंभू प्रवाह उभरता है । वे धाराएँ मस्तिष्क के अगणित केन्द्रों की ओर दौड़ती हैं । इसमें से छोटी-छोटी चिनगारियाँ तरंगों के रूप में उड़ती रहती हैं । उनकी संख्या की सही गणना तो नहीं हो सकती, पर वे हैं हजारों । इसलिए हजार या हजारों का उद्बोधक ‘सहस्रार’ शब्द प्रयोग में लाया जाता है । सहस्रार चक्र का नामकरण इसी आधार पर हुआ है सहस्र फन वाले शेषनाग की परिकल्पना का यही आधार है ।
लाभ : यह चक्र जागृत होते ही अनंत सिद्धियाँ मिलती है , व्यक्ति इतना सक्षम हो जाता है कि वह अपने आप को एक स्थान से दूसरे स्थान पर सूक्षम रूप से ले जा सकता है। वह अपने इस शरीर से मोक्ष प्राप्त कर सकता है,  यही नहीं उसको अनंत लोक का ज्ञान होता है , वह पूर्ण होता है। वह देव तुल्य होता है।

Kundalini Awakening Benefits – कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत करने के लाभ

कुण्डलिनी  शक्ति जागरण विधा अन्धकार को दूर करने का सशक्त माध्यम है। स्यंव को समझने व् दूसरे को पहचानने व् घर परिवार समाज और ब्रहमांड को समझने का मार्ग है । कुण्डलिनी शक्ति जागरण चारों ओर परम शांति प्रेम और आनंद स्थापना का सच्चा मार्ग है । परमानन्द प्राप्ति के बाद क्या करना चाहिए यही बताने का ज्ञान है ।
अपने शरीर मन बुद्धि व् सब कर्मेन्द्रियों व् ज्ञानेन्द्रियों को विकिसित कर कैसे उनका प्रयोग सम्पूर्णता से सर्जन करने पूर्णता की ओर ले जाने और   अपूर्णता के संहार में लगाना है । कुण्डलिनी शक्ति जैसे जैसे आगे बढती है व् अनेक रंग इन्द्रधनुष की तरह से देखने को मिलते हैं । कभी हम बहुत शांत होते हैं कभी संतुष्ट दिखाई देते हैं । कभी हम दूसरों पर हंस रहे होते हैं|
कुण्डलिनी जागरण की यात्रा तरह तरह के रंगों से भरी हुई है । इस जीवन में कुछ भी एक सा तो रहता नहीं लेकिन कुण्डलिनी जागरण यात्रा को एकरस कहा गया है । इस दुनियां में जब हम कुण्डलिनी जागरण की ओर पग बढाते हैं तो मन और माया रुपी शत्रु हमारे मार्ग में अनेक प्रकार की बाधाएं उत्पन्न करते हैं । इसलिए अनहोनियों से न घबराकर लगन व् निष्ठा पूर्वक हमें अपने मार्ग कीओर अग्रसर रहना चाहिए ।
गुरु के प्रति हमारा प्रेम जितना गहरा होगा उतना ही कुण्डलिनी जागरण के प्रति हमारा प्रयास अधिक होता चला जायेगा । कुण्डलिनी शक्ति साधना दो प्रकार की होती है । एक प्राणायाम और योग वाली जिसमें शक्ति चालिनी मुद्रा उड्या न  बंध तथा कुम्भक प्राणायाम और ओज का महत्व प्रतिपादित किया गया है ।
ऐसी साधना प्रक्रिया अविवाहित विधुर अथवा सन्यासियों के लिए महत्वपूर्ण है । यह साधना उन लोगों  के लिए उपयूक्त नहीं रही जो गृहस्थाश्रम में रहकर साधना करना चाहते हैं ।गृहस्थ बिना स्त्री के नहीं चलता है और संन्यास स्त्री के रहते कभी नहीं चलता है । परन्तु जहाँ तक साधना का प्रश्न है तो क्या गृहस्थ और क्या सन्यासी क्या स्त्री और क्या पुरुष सभी सामान अधिकार रखते हैं ।
ऐसे प्रवृत्तिमार्गी गृहस्थों के लिए स्त्री के साथ ही साधनारत होने का मार्ग भी ऋषियों ने खोज निकाला । निवृत्ति मार्ग में जो कार्य शक्ति चालिनी मुद्रा ने किया वह कार्य प्रवृत्ति मार्ग में सम्भोग मुद्रा से संपन्न किया गया  शेष बंध और कुम्भक समान रहे । सम्भोग मुद्रा को अधिक टिकाऊ बनाने के लिए आचार्यों ने विभिन्न की काम मुद्राएँ बाजीकरण विधियाँ तथा तान्त्रिंक औषधियां खोज डालीं ।
इस प्रकार वीर्य को उर्ध्व गति देने के लिए जहाँ सन्यासी लोग भस्त्रिका प्राणायाम का प्रयोग करते थे वहां प्रवृत्ति मार्ग तांत्रिक दीर्घ सम्भोग का उपयोग करने लगे ।इस प्रकार कुण्डलिनी साधना का दूसरा प्रकार काम मुद्राओं वाला बन गया ।सम्भोग के कारण इस साधना में पुरुष व् स्त्री दोनों का बराबर का योगदान रहा ।रमण एक तकनिकी प्रक्रिया है इस कारण सम्भोग साधना तांत्रिक क्रिया कहलाई । साधक को यम व् नियम का तथा आसन प्राणायाम आदि बहिरंग साधना की उतनी ही तैयारी करनी पड़ती है जितनी निवृति मार्ग अपनाने वाले साधक को करनी पड़ती है।
मनुष्य में कार्य करने के लिए ऊर्जा व् आभा तथा ज्योति का मिश्रण ही काम में लाना पड़ता है । मनुष्य में इन तीनों तत्वों का उदगम है उसका खानपान और उसके विचार । जैसा उसका खानपान होगा वैसी उसके शरीर की ऊर्जा होगी । सात्विक जीवन सात्विक ऊर्जा तथा तामसिक भोजन तो तामसिक ऊर्जा ।अतएव कुण्डलिनी शक्ति जागरण के लिए सात्विक ऊर्जा  अति आवश्यक है । कुण्डलिनी शक्ति जागरण के लिए उत्तम उम्र 25 वर्ष से 45 वर्ष तक मानी गई है ।