Friday, December 27, 2019

पंचकोश साधना

5 आनंदमय कोश

गायत्री का पांचवां मुख आनंदमय कोश है। जिस आवरण में पहुँचने पर आत्मा को आनंद मिलता है, जहां उसे शांति, सुविधा, स्थिरता, निश्चिन्तता एवं अनुकूलता की स्थिति प्राप्त होती है, वही आनंदमय कोष है गीता के दूसरे अध्याय में स्थितप्रज्ञ की जो परिभाषाएं की गयी हैं और समाधिस्थ के जो लक्षण बताये गए हैं , वे ही गुण कर्म स्वभाव आनंदमयी स्थिति में हो जाते हैं। आत्मिक परमार्थों की साधना में मनोयोग पूर्वक संलग्न होने के कारण सांसारिक आवश्यकताएं बहुत सिमित रह जाती हैं उनकी पूर्ती में इसलिये बाधा नहीं आती कि साधक अपनी शारीरिक और मानसिक स्वस्थता के द्वारा जीवनोपयोगी वस्तुओं को उचित मात्रा में आसानी से कमा सकता है
प्रकृति के परिवर्तन, विश्वव्यापि उतार चढाव, कर्मों की गहन गति, प्रारब्ध भोग, वस्तुओं की नश्वरता, वैभव की चंचल चपलता, आदि कारणों से जो उलझन भरी परिस्थितियां सामने आकर परेशान किया करते हैं उन्हें देखकर वह हंस देता है। सोचता है प्रभु ने इस संसार में कैसी धुप छाँह का, आँख मिचौनी का खेल खड़ा कर दिया है। अभी ख़ुशी तो अभी रंज, अभी वैभव तो अभी निर्धनता, अभी जवानी तो अभी अभी बुढ़ापा, अभी जन्म तो अभी मृत्यु, अभी नमकीन तो अभी मिठाई, यह दुरंगी दुनिया कैसी विलक्षण है। दिन निकलते देर नहीं हुई कि रात की तयारी होने लगी। रात को आये जरा सी देर हुई कि नवप्रभात का आयोजन होने लगा वह तो यहाँ का आदि खेल है, बादल की छाया की तरह पल पल में धुप छाँह आती है मैं इन तितलियों के पीछे कहाँ दौड़ूं। मैं इन क्षण क्षण पर उठने वाली लहरों को कहाँ तक गिनुं, पल में रोने पल में हंसने की बाल क्रीड़ा मैं क्यों करूँ।
आनंदमय कोश में पहुंचा हुआ जीव अपने पिछले सारे चार शरीरों अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय कोश को भली प्रकार समझ लेता है, उनकी अपूर्णता और संसार की परिवर्तनशीलता दोनों के मिलने से ही एक विषैली गैस बन जाती है जो जीवों को पाप तापों के काले धुएं से कलुषित कर देती है यदि इन दोनों पक्षों के गुण दोषों को समझकर उन्हें अलग अलग रखा जाये, बारूद और अग्नि को इकठ्ठा होने दिया जाये, तो विस्फोट की कोई सम्भावना नहीं है यह समझकर वह अपने दृष्टिकोण में दार्शनिकता, तात्विकता, वास्तविकता, सूक्ष्मदर्शिता को प्रधानता देता है तदनुसार उसे सांसारिक समस्याएँ बहुत हलकी और महत्वहीन मालूम पड़ती हैं। जिन बातों को लेकर साधारण मनुष्य बेतरह दुखी रहते हैं , उन स्थितियों को वह हलके विनोद की तरह समझकर उपेक्षा में उड़ा देता है और आत्म भूमिका में अपना दृढ स्थान बनाकर संतोष और शांति का अनुभव करता है।

गीता के दूसरे अध्याय में भगवन श्रीकृष्ण ने बताया है कि स्थितप्रज्ञ मनुष्य अपने भीतर की आत्म स्थिति में रमण करता है। सुख दुःख में समान रहता है, प्रिय से राग करता है, अप्रिय से द्वेष करता है। इन्द्रियों को ईन्द्रियों तक ही सिमित रहने देता है, उसका प्रभाव


आत्मा पर नहीं होने देता, कछुआ जैसे अपने अंगों को समेटकर अपने भीतर कर लेता है , वैसे ही वह अपनी कामनाओं और लालसाओं को संसार में फैलाकर अपनी अंतः भूमिका में ही समेट लेता है, जिसकी मानसिक स्थित ऐसी होती है उसे योगी, ब्रह्मभूत, जीवन मुक्त, या समाधिस्थ कहते हैं
आनन्दमय कोश की स्थिति पञ्ज भूमिका है। इसे समाधि अवस्था भी कहते हैं। समाधि अनेक प्रकार की हैं। काष्ठ या जड़- समाधि, भाव-समाधि, ध्यान-समाधि, प्राण-समाधि, सहज- समाधि आदि २७ समाधियाँ बताई गई हैं। मूर्छा, नशा एवं क्लोरोफॉर्म आदि सूंघने से आई हुई समाधि को काष्ठ-समाधि कहते हैं। किसी भावना का इतना अतिरेक हो कि मनुष्य की शारीरिक चेष्टा संज्ञाशून्य हो जायें उसे भाव-समाधि कहते है। ध्यान में इतनी तन्मयता जाय कि उसे अदृश्य एवं निराकार सत्ता साकार दिखाई पड़ने लगे, उन्हें ध्यान समाधि कहते हैं, इष्ट देव के दर्शन जिन्हें होते हैं, ध्यान-समाधि की अवस्था में ऐसी चेतना जाती है कि वह अन्तर उन्हें विदित होने पाता है कि हम दिव्य नेत्रों से ध्यान कर रहे हैं या आँखों से स्पष्ट रूप से अमुक प्रतिमा को देख रहे हैं। प्राण-समाधि ब्रह्मरन्ध्र में प्राणों को एकत्रित करके की जाती है। हठयोगी इसी समाधि द्वारा शरीर को बहुत समय तक मृत बनाकर भी जीवित रहते हैं। अपने आपको ब्रह्म में लीन होने का जिस अवस्था में बोध होता है उसे ब्रह्म समाधि कहते हैं।
इस प्रकार २७ समाधियों में से वर्तमान देशकाल पात्र की स्थिति में सहज समाधि सुलभ और सुख साध्य है। महात्मा कबीर ने सहज समाधि पर बड़ा बल दिया है। अपने अनुभव से उन्हें सहज समाधि को सर्व सुलभ देखकर अपने अनुयायियों को इसी साधना के लिए प्रेरित किया है।
महात्मा कबीर का वचन है-
साधो ! सहज समाधि भली।
गुरु प्रताप भयो जा दिन ते सुरति अनत चली
आँख मूँदूँ कान रूँदूँ काया कष्ट धारूँ।
खुले नयन से हँस- हँस देखूँ सुन्दर रूप निहारूँ
कहूँ सोईनाम, सुनूँ सोई सुमिरन खाऊँ सोई पूजा।
गृह उद्यान एक सम लेखूँ भाव मिटाऊँ दूजा
जहाँ- जहाँ जाऊँ सोई परिक्रमा जो कुछ करूँ सो सेवा।
जब सोऊँ तब करूँ दण्डवत पूँजू और देवा
शब्द निरन्तर मनुआ राता मलिन वासना त्यागी।
बैठत उठत कबहूँ ना विसरें, ऐसी ताड़ी लागी
कहैं ‘कबीर वह अन्मनि रहती सोई प्रकट कर गाई।
दुख सुख के एक परे परम सुख, तेहि सुख रहा समाई

उपरोक्त पद में सदगुरु कबीर ने सहज की समाधि की स्थिति का स्पष्टीकरण किया है। यह समाधि सहज है, सर्व सुलभ है, सर्व साधारण की साधना शक्ति के भीतर है इसलिए उसे सहज समाधि का नाम दिया गया है। हठ-साधनायें कठिन हैं। उनका अभ्यास करते हुए समाधि की स्थिति तक पहुँचना असाधारण कष्ट-साध्य है। चिरकालीन तपश्चर्या षट्कर्मो की श्रम- साध्य साधना सब किसी के लिए सुलभ नहीं है। अनुभवी गुरु के सम्मुख रहकर विशेष सावधानी के साथ वे क्रियायें साधनी हैं, फिर यदि उनकी साधना खण्डित हो जाती है तो संकट भी सामने सकते हैं। जो योग-भ्रष्ट लोगों के समान कभी भयंकर रूप से खड़े होते हैं। कबीरजी सहज् योग को प्रधानता देते हैं, सहज योग का तात्पर्य है, सिद्धान्तमय जीवन कर्त्तव्यपूर्ण कार्यक्रम। क्योंकि इन्द्रिय भोगों, पाशविक वृत्तियों एवं काम, क्रोध, लोभ, मोह की तुच्छ इच्छाओं से प्रेरित होकर आमतौर से लोग अपना कार्यक्रम निर्धारित करते हैं और इसी कारण भाँति- भाँति के कष्टों का अनुभव करते हैं।

 सहज समाधि असंख्य प्रकार की योग-साधनाओं में से एक है। इसकी विशेषता यह है कि साधारण रीति के सांसारिक कार्य करते हुए भी साधना- क्रम चलता है। इसी बात को ही यों कहना चाहिए कि ऐसा व्यक्ति जीवन के सामान्य सांसारिक कार्य, कर्त्तव्य, यज्ञ, कर्म, ईश्वरीय आज्ञा-पालन की दृष्टि से करता है। भोजन करने में उसकी भावना रहती है कि प्रभु की एक पवित्र धरोहर शरीर को यथावत रखने के लिए भोजन किया जा रहा है। खाद्य पदार्थो का चुनाव करते समय शरीर की स्वस्थता उसका ध्येय रहती है। स्वादों के चटोरेपन के बारे में वह सोचता तक नहीं, कुटुम्ब का पालन-पोषण करते समय वह परमात्मा की एक सुरम्य वाटिका के माली की भाँति सिंचन, सम्वर्धन का ध्यान रखता है, ईश्वरप्रदत्त आवश्यकताओं की पूर्ति का एक पुनीत साधनामात्र समझता है। अमीर बनने के लिए जैसे भी बने वैसे धन-संग्रह करने की तृष्णा उसे नहीं होती हैं। बातचीत करना, फिरना, खाना- पीना, सोना- जागना, जीविकोपार्जन, प्रेम, द्वेष आदि सभी कार्यों को करने से पूर्व परमार्थ को, कर्तव्य को, प्रधानता देते हुए करने से वे समस्त साधारण काम-काज भी यज्ञ-रूप हो जाते हैं।
जब हर काम के मूल में कर्तव्य भावना की प्रधानता रहेगी तो उन कार्यों में पुण्य प्रमुख रहेगा। सद्बुद्धि से सद्भाव से किये हुए कार्यों द्वारा अपने आपको और दूसरों को सुख-शान्ति ही प्राप्त होती है। ऐसे सत्कार्य मुक्तिप्रद होते हैं, बन्धन नहीं करते। सात्विकता, सद्भावना और लोक-सेवा की पवित्र आकांक्षा के साथ जीवन-संचालन करने पर कुछ दिन में वह नीति एवं कार्य-प्रणाली पूर्णतया अभ्यस्त हो जाती है और जो चीज अभ्यास में आती है, वह प्रिय लगने लगती है, उसमें रस आने लगता है। बुरे स्वाद की, खर्चीली, प्रत्यज्ञ हानिकारक, दुष्पाच्य, नशीली चीजें, मदिरा, अफीम, तम्बाकू आदि जब कुछ दिन के बाद प्रिय लगने लगती हैं, और उन्हें बहुत कष्ट उठाते हुए भी छोड़ने नहीं बनता, जब तामसी तत्व कालान्तर के अभ्यास से इतने प्राणप्रिय हो जाते हैं, तो कोई कारण नहीं कि सात्विक तत्व उससे अधिक प्रिय हो सकें।
सात्विक सिद्धान्त को जीवन-आधार बना लेने से उन्हीं के अनुरूप सार-विचार और कार्य करने से आत्मा को सत्-तत्व में रमण करने का अभ्यास पड़ जाता है यह अभ्यास जैसे-जैसे परिपक्व होता है, वैसे-वैसे सह- योग का रसास्वादन होने लगता है, उसमें आनन्द आने लगता है। जब अधिक दृढ़ता, श्रद्धा, विश्वास, उत्साह एवं साहस के साथ सत्परायणता में, सिद्धान्त संचालित जीवन में, संलग्न रहता है तो वह उसकी स्थायी वृत्ति बन जाती है। उसे उसी में तन्मयता रहती है, एक दिव्य आवेश सा छाया रहता है, उसकी मस्ती, प्रसन्नता, सन्तुष्टि असाधारण होती है। इस स्थिति को सहज-योग की समाधि या “सहज समाधि कहा जाता है।
कबीर ने उसी समाधि का उपरोक्त पद में उल्लेख किया है, कहते हैं- हे साधुओं ! सहज समाधि श्रेष्ठ है जिस दिन से गुरु की कृपा और वह स्थिति प्राप्त हुई है, उस दिन से सूरतु दूसरी जगह नहीं गई, चित्त डावाँडोल नहीं हुआ, मैं आँख मूँदकर, कान मूँदकर कोई हठयोगी की तरह काया में कष्टदायिनी साधना नहीं करता। मैं तो आँख खोले रहता हूँ और हँस- हँसकर परमात्मा की पुनीत कृति का सुन्दर रूप देखता हूँ। जो कहता हूँ सो नाम जप है, जो सुनाता हूँ सो सुमिरन है, जो खाता-पीता हूँ सो पूजा है। घर और जंगल एक -सा देखता और अद्वैत का अभाव मिटाता हूँ जहाँ- जहाँ जाता हूँ सोई परिक्रमा है, जो कुछ करता हूँ सोई- सोई सेवा है। जब सोता हूँ तो वह मेरी दण्डवत् है। मैं एक को छोड़कर अन्य देव को नहीं पूजता। मन की मलिन वासना छोड़कर निरन्तर शब्द में, अन्तःकरण की ईश्वरीय वाणी सुनने में रत रहता हूँ। ऐसी ताली लगी है, निष्ठा जमी है कि उठते- उठते वह कभी नहीं बिसरती। कबीर कहते हैं कि “मेरी यह उनमनि- हर्ष शोक से रहित स्थिति है, जिसे प्रकट करके गाया है। दुख-सुख से परे जो एक परम सुख है, मैं उसी में समाया रहता हूँ।


यह सहज समाधि उन्हें प्राप्त होती है ‘जो शब्द में रत रहते हैं। भोग एवं तृष्णा की क्षुद्र वृत्तियों का परित्याग करके जो अन्तःकरण में प्रतिक्षिण ध्वनित होने वाले ईश्वरीय शब्दों को सुनते हैं, सत् की दिशा में चलने की ओर दैवी संकेतों को देखते हैं और उन्हीं को जीवन- नीति बनाते हैं वे ‘शब्द रत सहसज योगी उस परम आनन्द की सहज समाधि में सुख को प्राप्त होते हैं। चूँकि उनका उद्देश्य ऊँचा रहता है, दैवी प्रेरणा पर निर्भर रहता है, इसलिए उनके समस्त कार्य पुण्य रूप बन जाते हैं।

जैसे खाँड़ से बने खिलौने आकृति में कैसे ही क्यों हों, होंगे मीठे ही, इसी प्रकार सद्भावना और उद्देश्य परायणता के साथ किए हुए काम बाह्य आकृति में कैसे ही क्यों दिखाई देते हों, होंगे वे यज्ञ रूप ही, इसी प्रकार पुण्यमय ही। सत्य परायण व्यक्तियों के सम्पूर्ण कार्य, छोटे से छोटे कार्य, जहाँ तक कि चलना सोना, देखना तक ईश्वर-आराधना बन जाते हैं।

स्वल्प प्रयास में समाधि का शाश्वत सुख उपलब्ध करने की इच्छा रखने वाले अध्यात्म मार्ग के पथिकों को चाहिए कि वे जीव का दृष्टिकोण उच्च उद्देश्यों पर अवलम्बित करें, दैनिक कार्यक्रम का सैद्धान्तिक दृष्टि से निर्णय करें। भोग से उठकर योग में आस्था का आरोपण करें। इस दिशा में जो जितनी प्रगति करेगा, उसे उतने ही अंशों में समाधि के लोकोत्तर सुख का रसास्वादन होता चलेगा।

आनन्दमय कोश की साधना में आनन्द का रसास्वादन होता है। इस प्रकार की आनन्दमयी साधनाओं में से कुछ प्रमुख साधनाऐं नीचे दी जाती हैं। सहज समाधि की भाँति यह कुछ महासाधनाऐं भी बड़ी महत्वपूर्ण हैं, साथ ही उनकी सुगमता भी असंदिग्ध है।
नाद साधना
शब्द को ब्रह्मा कहा है क्योंकि ईश्वर और जीव को एक श्रृंखला में बाँधने का काम शब्द के द्वारा ही होता है। सृष्टि की उत्पत्ति का प्रारम्भ भी शब्द से हुआ है। पंच तत्वों में सबसे पहले आकाश बना, आकाश की तन्मात्रा शब्द है। अन्य समस्त पदार्थों की भाँति शब्द भी दो प्रकार का है, सूक्ष्म और स्थूल। सूक्ष्म शब्द को विचार कहते हैं और स्थूल शब्द को नाद।
ब्रह्म लोक से हमारे लिए ईश्वरीय शब्द प्रवाह सदैव प्रवाहित होता है। ईश्वर हमारे साथ वार्तालाप करना चाहता है, पर हममें से बहुत कम लोग ऐसे हैं, जो उसे सुनना चाहते हैं या सुनने की इच्छा करते हैं, ईश्वरीय शब्द निरन्तर एक ऐसी विचारधारा प्रेरित करते हैं जो हमारे लिए अतीव कल्याणकारी होती हैं, उसको यदि सुना और समझा जा सके तथा उसके अनुसार मार्ग निर्धारित किया जा सके तो निस्सन्देह जीवनोद्देश्य की ओर द्रुत गति से अग्रसर हुआ जा सकता है। यह विचारधारा हमारी आत्मा से टकराती है।
हमारा अन्तःकरण एक रेडियो है, जिसकी ओर यदि अभिमुख हुआ जाय, अपनी-वृत्तियों को अन्तर्मुख बनाकर आत्मा में प्रस्फुटित होने वाली दिव्य विचार-लहरियों को सुना जाय, तो ईश्वरीय वाणी हमें प्रत्यक्ष में सुनाई पड़ सकती हैं, इसी को आकाशवाणी कहते हैं। हमें क्या करना चाहिए, क्या नहीं ? हमारे लिए क्या उचित है, क्या अनुचित ? इसका प्रत्यक्ष सन्देश ईश्वर की ओर से प्राप्त होता है। अन्तःकरण की पुकार, आत्मा का आदेश, ईश्वरीय सन्देश, आकाशवाणी विज्ञान आदि नामों से इसी विचारधारा को पुकारते हैं। अपनी आत्मा के यन्त्र को स्वच्छ करके जो इस दिव्य सन्देश को सुनने में सफलता प्राप्त कर लेते हैं, वे आत्मदर्शी एवं ईश्वर-परायण कहलाते हैं।
ईश्वर उनके लिए बिलकुल समीप होता है, जो ईश्वर की बातें सुनते हैं और अपनी उससे कहते हैं। इस दिव्य मिलन के लिए हाड़-माँस के स्थूल नेत्र या कानों का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। आत्मा की समीपता में बैठा हुआ अन्तःकरण अपनी दिव्य इन्द्रियों की सहायता से इस कार्य को आसानी से पूरा कर लेता है। यह अत्यन्त सूक्ष्म ब्रह्म शब्द, विचार तब तक धुँधले रूप में दिखाई पड़ता है, जब तक कषायकल्मष आत्मा में बने रहते हैं। जितनी आन्तरिक पवित्रता बढ़ती जाती है, उतने ही दिव्य सन्देश बिलकुल स्पष्ट रूप से सामने आते हैं। आरम्भ में अपने लिए कर्तव्य का बोध होता है, पाप- पुण्य का संकेत होता है, बुरा कर्म करते समय अन्तर में भय, घृणा, लज्जा, संकोच आदि का होना तथा उत्तम कार्य करते समय आत्मःसन्तोष, प्रसन्नता, उत्साह होना इसी स्थिति का बोधक है।

यह दिव्य सन्देश आगे चलकर भूत, भविष्य, वर्तमान की सभी घटनाओं को प्रकट करता है। किसके लिए क्या मन्तव्य बन रहा है और भविष्य में किसके लिए क्या घटना घटित होने वाली है ? यह सब कुछ उससे प्रकट हो जाता है और ॐची स्थिति पर पहुँचने पर उसके लिए सृष्टि के सब रहस्य खुल जाते हैं, कोई ऐसी बात नहीं है, जो उससे छिपी हो, परन्तु जैसे ही इतना बड़ा ज्ञान उसे मिलता है, वैसे ही वह उसका उपयोग करने में अत्यन्त सावधान हो जाता है। बाल-बुद्धि के लोगों के हाथों में यह दिव्य ज्ञान पड़ जाय, तो वे उसे बाजीगरी के खिलवाड़ करने में ही नष्ट कर दें, पर अधिकारी पुरुष अपनी इस शक्ति का किसी को परिचय तक नहीं होने देते और उसे भौतिक बखेड़ों से पूर्णतया बचाकर अपनी तथा दूसरों की आत्मोन्नति में लगाते हैं।

शब्द-ब्रह्म का दूसरा रूप जो विचार सन्देश की अपेक्षा कुछ सूक्ष्म है, वह नाद है। प्रकृति के अन्तराल में एक ध्वनि प्रतिक्षण उठती रहती है, जिसकी प्रेरणा से आघातों द्वारा परमाणुओं में गति उत्पन्न हुई है और सृष्टि का समस्त क्रिया-कलाप चलता है। यह प्रारम्भिक शब्द ‘ॐ है, यह ‘ॐ ध्वनि जैसे-जैसे अन्य तत्वों के क्षेत्र में होकर गुजरती है, वैसे ही वैसे उसकी ध्वनि में अन्तर आता है। बंशी के छिद्रों में हवा फेंकते हैं, तो उसमें एक ध्वनि उत्पन्न होती है। पर आगे के छिद्रों में से जिस छिद्र से जितनी हवा निकाली जाती है, उसी के अनुसार भिन्न-भिन्न स्वरों की ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं। इसी प्रकार ध्वनि भी विभिन्न तत्वों के सम्पर्क में आकर विविध प्रकार की स्वर लहरियों में परिणत हो जाती हैं। इन स्वर लहरियों का सुनना ही नाद योग है।
पञ्च- तत्वों की प्रतिध्वनित हुई ॐकार की, स्वर लहरियों को सुनने की, नाद-योग साधना कई दृष्टियों से बड़ी महत्त्वपूर्ण है। प्रथम तो इस दिव्य संगीत के सुनने में इतना आनन्द आता है, जितना किसी मधुर से मधुर वाद्य या गायन सुनने में नहीं आता। दूसरे इस नाद श्रवण से मानसिक तन्तुओं का प्रस्फुटन होता है। सर्प जब संगीत सुनता है, तो उसकी नाड़ी में एक विद्युत लहर प्रवाहित हो उठती है, मृग का मस्तिष्क मधुर संगीत सुनकर इतना उत्साहित हो जाता है कि उसे तन बदन का होश नहीं रहता। योरोप में गायें दुहते समय मधुर बाजे बजाये जाते हैं, जिससे उनका स्नायु समूह उत्तेजित होकर अधिक मात्रा में दूध उत्पन्न करता है। नाम का दिव्य संगीत सुनकर मानव-मस्तिष्क में भी ऐसी स्फुरणा होती है, जिसके कारण अनेक गुप्त मानसिक शक्तियाँ विकसित होती हैं, इस प्रकार भौतिक और आत्मिक दोनों ही दिशाओं में गति होती है।
तीसरा लाभ एकाग्रता है। एक वस्तु पर, नाद पर ध्यान एकाग्र होने से मन की बिखरी हुई शक्तियाँ एकत्रित होती हैं और इस प्रकार मन को वश में करने तथा निश्चित कार्य पर उसे पूरी तरह लगा देने की साधना सफल हो जाती है। यह सफलता कितनी शानदार है, इसे प्रत्येक अध्यात्म मार्ग का जिज्ञासु भली प्रकार जानता है। आतिशी काँच द्वारा एक दो इन्च जगह की सूर्य- किरणें एक बिन्दु पर एकत्रित कर देने से अग्नि उत्पन्न ही जाती है। मानव- प्राणी अपने सुविस्तृत शरीर में बिखरी हुई अनन्त दिव्य शक्तियों का एकीकरण कर ऐसी महान् शक्ति उत्पन्न कर सकता है, जिसके द्वारा इस संसार को हिलाया जा सकता है और अपने लिए आकाश में मार्ग बनाया जा सकता है।

नाद की स्वर लहरियों को पकड़ते-पकड़ते साधक ऊँची रस्सी को पकड़ता हुआ उस उद्गम ब्रह्म तक पहुँच जाता है, जो आत्मा का अभीष्ट स्थान है। ब्रह्मलोक की प्राप्ति, दूसरे शब्दों में मुक्ति, निर्वाण परमपद आदि नामों से पुकारी जाती है। नाद के आधार पर मनोलय करता हुआ साधक योग की अन्तिम सीढ़ी तक पहुँचता है,और अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। नाद का अभ्यास किस प्रकार करना
चाहिए अब इस पर कुछ प्रकाश डालते हैं-

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