Thursday, December 12, 2019

अशांत आदमी

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न्यूयाॅर्क के एक स्कूल में, एक छोटे से बाल मंदिर में, एक बच्चे के सम्बन्ध में वहां के शिक्षक बहुत चिंतित हो गए। बच्चे में कुछ ऐसे लक्षण दिखाई पड़ रहे थे कि चिन्ता स्वाभाविक थी। वैसे लक्षण बूढ़े में दिखाई पड़ें, तो कोई चिंता नहीं करता, क्योंकि वह अब जाने को है। उसके बाबत चिंता की जरूरत नहीं। लेकिन बच्चा तो अभी आने को है जगत में। और वह कुछ बूढ़ों जैसे लक्षण दिखाने लगा था। लक्षण की खबर इसलिए मिली थी कि उस बच्चे में इधर पंद्रह दिनों से देखा गया था कि वह कोई भी चित्र बनाता था, तो काले रंग से बनाता था। फूल बनाता तो काले रंग का, गाय बनाता तो काले रंग की, लड़का बनाता तो काले रंग का। सभी कुछ काले रंग का बनाता था।
उसके शिक्षक को खयाल गया इस बात पर। बात क्या है, काले रंग का इतना आग्रह इसमें क्यों है? काला रंग तो मौत का सबूत है, जिंदगी का नहीं। काले रंग का इतना प्रेम तो उदासी की खबर है, दुख की खबर है, चिंता की खबर है, प्रफुल्लता की तो नहीं, आनंद की तो नहीं।
और एक दिन तो हद हो गई, वह लड़का एक चित्रा बना कर लाया था, जो पूरा का पूरा काला था, जिसमें पहचानना मुश्किल था, क्या बनाया है। उसके शिक्षक ने पूछा कि यह क्या है। उस बच्चे ने कहाः देखते नहीं हैं, यह काला समुद्र है। यह काली नाव, यह काला आदमी बैठा हुआ है। ये काले दरख्त लगे हुए हैं। यह काला सूरज निकला हुआ है, ये काले फूल लगे हुए हैं। देखते नहीं ये काले पहाड़ हैं, काली बदलियां हैं, सब-कुछ काला था। पहचानना बहुत मुश्किल था।
उसके शिक्षक ने सोचा कि यह खबर मनोवैज्ञानिक को कर देनी उचित है। इस बच्चे की जिंदगी के भीतर कुछ गड़बड़ हो गई है। इसका इलाज होना जरूरी है। मनोवैज्ञानिक बुला लिया गया। उस मनोवैज्ञानिक ने पंद्रह दिन खोज-बीन की। पंद्रह दिन की, यही बहुत कम है। हिंदुस्तान का मनोवैज्ञानिक होता और कोई कमीशन बैठता, तो पंद्रह साल करते। फिर पंद्रह दिन थोड़ा ही वक्त लिया, कोई ज्यादा वक्त नहीं लिया। फिर विशेषज्ञ जितना ज्यादा वक्त ले, उतना ही थोड़ा है। बड़े-बड़े ग्रंथों के उद्धरण देकर उसने सिद्ध किया कि बच्चे की क्या-क्या तकलीफें हैं। बच्चे के जन्म से लेकर अब तक का उसने सारा इतिहास लिखा। बच्चे के मां-बाप आपस में लड़ते हैं, इसलिए बच्चा उदास है। उसके परिवार की स्थितियां अच्छी नहीं हैं। आर्थिक स्थितियां बुरी हैं। पड़ोस गंदा है। सारी बातें उसने लिखी। मनोविज्ञान के जितने भी दुख के कारण हो सकते थे, सबका ब्यौरा लिखा। वह रिपोर्ट आई।
रिपोर्ट आई, स्कूल का जो चपरासी था, वह भी हैरान था कि बच्चे की इस इतनी सी बात के लिए इतना बड़ा तूफान किया जा रहा है। इतना अध्ययन किया जा रहा है। उसने उस बच्चे को एकांत में पकड़ा और पूछाः बेटे तुम मुझे तो बताओ कि तुम काले रंग से चित्रा क्यों बनाते हो। उस बच्चे ने कहाः असल बात यह है कि मेरी डब्बी के और सारे रंग खो गए हैं। सिर्फ काला रंग बचा हुआ है। उस बूढ़े चपरासी ने दूसरे रंग लाकर उसे दे दिए। दूसरे दिन से उसने काले चित्र बनाने बंद कर दिए। फिर वह लाल फूल बनाने लगा और पीला सूरज उगाने लगा।
एक बुनियादी बात जो किसी ने भी उससे नहीं पूछी। सब उसके अध्ययन में लग गए। लेकिन उससे किसी ने भी सीधा नहीं पूछा कि बात क्या है।
आदमी की चिकित्सा भी इसी तरह की चल रही है और बहुत बड़े-बड़े विशेषज्ञों के हाथ में आदमियों की जान बड़ी मुश्किल में पड़ गई है। बड़े-बड़े धर्मज्ञों ने, धर्म पुरोहितों ने, धर्म पुरोहितों के भी अलग-अलग संप्रदाय हैं, हिंदू हैं, मुसलमान हैं, जैन हैं, ईसाई हैं और न मालूम कितने तरह के रोग हैं सारी दुनिया में। और उन सबने इतने उपचार उपस्थित कर दिए हैं आदमी के साथ कि यह करो, यह करो! और उनके उद्धरण हैं। उनके ग्रंथ हैं समर्थन में कि यह करने से यह होगा और वह करने से वह होगा। क्या आदमी बहुत विधृत खड़ा होकर रह गया है कि क्या करे और क्या न करे। और शायद कुल जमा बात इतनी है कि मनुष्य के मन को सीधा देखने की बात हम सब में से सभी भूल गए हैं। वह मन सीधा देखा जाना चाहिए कि जिसकी सब दौड़ दुख में ले जाती है। उस मन के साथ अभी कुछ करने का सवाल उतना बड़ा नहीं है, क्योंकि बिना मन को जाने, जो कुछ भी किया जाएगा, उसका परिणाम गलत होना निश्चित है, चाहे दुकान चलाई जाए और चाहे प्रार्थना की जाए।
मन को बिना जाने जो कुछ भी किया जाएगा, उसका परिणाम खतरनाक होने वाला है, क्योंकि मन को बिना जाने, मन को बिना पहचाने किए गए कृत्य समाधान पर ले जाने वाले नहीं हो सकते। लेकिन हम सब यही पूछते फिरते हैं। हम जाकर किसी को पूछते हैं, मन अशांत है, क्या करें? तो वह कहता है, माला जपो। अशांत आदमी अगर माला भी जपेगा, तो अशांत आदमी ही तो माला जपेगा न। और अशांत आदमी की माला जपने का क्या मूल्य हो सकता है। कोई उसे कह देता है, जाकर उपवास करो, वह अशांत आदमी उपवास कर लेता है, वह और अशांत हो जाता है, और क्रोधी हो जाता है। जानते हैं भलीभांति हम धार्मिक लोगों को, उनका क्रोध और बढ़ता चला जाता है। जिस-जिस मात्रा में धर्म बढ़ता है, उस-उस मात्रा में क्रोध बढ़ता है।
हर आदमी, हर घर में हर आदमी पहचानता है कि अगर कोई आदमी धार्मिक हो रहा है, तो उसका बढ़ता क्रोध इसकी खबर देता है कि वह आदमी धार्मिक होता चला जा रहा है। इसने पूजा शुरू कर दी, इसने मंदिर जाना शुरू कर दिया, यह धर्मशास्त्र पढ़ने लगा है। उसका कोई कसूर नहीं है, कसूर है चिकित्सकों का। जो बिना इस बात की फिकर किए कि यह आदमी अशांत हुआ है, तो अशांत होने वाले मन में झांकने के लिए उपाय हो, अशांत आदमी को कहते हैं कि यह करो, वह करो। अशांत आदमी जो भी करेगा उससे अशांति और भी बढ़ जाएगी। सबसे अच्छा तो यह होगा कि अशांत आदमी अगर कुछ भी न करे, कोने में बैठ जाए, तो भी शायद कुछ हो सकता है।

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