Tuesday, December 17, 2019

संतो मगन भया मन मेरा

संतो मगन भया मन मेरा--(प्रवचन--09)

राम रेगीले के रंग राती—(प्रवचन—नौवां)
दिनांक 20 मई 1979;  श्री रजनीश आश्रम पूना
सूत्र:

गुरु गरवा दादू मिल्यादीरघ दिल दरिया।
तत छन परसन होत हीं भजन भाव भरिया।। 
श्रवण कथा साँची सुणीसंगति सतगुरु की।
दूजा दिल आवै नहिंजब धारी धुर की।।
भरमजाल भव काटियासंका सब तोड़ी।
साँचा सगा जे राम काल्यौ तासूँ जोड़ी।।
भौजल माहीं काढ़िकैजिन जीव जिलाया।
सहज सजीवन कर लिया साँचे संगि लाया।।
जनम सफल तब का भयाचरपौ चित लाया।
रज्जब राम दया करीदादू गुर पाया।।

राम रंगीले के रंग राती।
परम पुरुष संगि प्राण हमारोंमगन गलित मद-माती।। 
लाग्यो नेह नाम निर्मल सूँगिनत न सीली ताती। 
डगमग नहीं अडिग होई बैठीसिर धरि करवत काती।।
सब विधि सुख राम ज्यूँ राखैयहु रसरीति सुहाती।
जन रज्जब धन ध्यान तिहारोबेरबेर बलि जाती।।

वानीहुस्नगमजेअहदपैमां कहकहेनग्मे
रसीले ओंठशर्मीली निगाहेंमरमरी बाहें
यहाँ हर चीज बिकती है,
खरीदारो!
बताओ क्या खरीदोगे?

भरे बाजूगठीले जिस्मचौड़े आहनी सीने
बिलकते पेटरोती गैरतेंसहमी हुई आहें
यहाँ हर चीज बिकती है,
खरीदारो!
बताओ क्या खरीदोगे?

जबानेंदिलइरादेफैसलेजांबाजियाँनारे
यह आए दिन के हंगामेयह रंगारंग तकरीरें
यहाँ हर चीज बिकती है,
खरीदारो!
बताओ क्या खरीदोगे?

सदाकतशायरीतन्कीदइल्पो-फन कुतुबखाने
कलम केमोंजिजेफिक्रो-नजर की शोख तस्वीरें
यहाँ हर चीज बिकती है,
खरीदारो!
बताओ क्या खरीदोगे?

अजानेंशंखहजरेपाठशालेडाढ़ियाँकश्के,
यह लंबी-लंबी तस्वीहेंयह मोटी-मोटी मालाएँ
यहाँ हर चीज बिकती है,
खरीदारो!
बताओ क्या खरीदोगे?

अलल-एलान होते हैंयहाँ सौदे जमीरों के
यह वह बाजार है जिसमें फरिश्ते आके बिक जाएँ
यहाँ हर चीज बिकती है,
खरीदारो!
बताओ क्या खरीदोगे?

संसार एक बाजार है। यहाँ हर चीज बिकती हैखरीदारो! बताओ क्या खरीदोगे?--सिवाय परमात्मा के। परमात्मा-भर बाजार में नहीं है। उसका-भर सौदा नहीं हो सकता। उसे भर खरीदने का कोई उपाय नहीं है। और सब कुछ मिल जाएगा। लेकिन और जो भी मिलेगाजैसा मिला वैसा ही खो भी जाएगा। पानी पर खींची लकीरें हैं। रेत के बनाए महल हैं। बन भी न पाएँगे और मिट जाएँगे। और जो भी पा लोगेमौत छीन ही लेगी।
जिसे मौत छीन लेसमझ लेना वह संसार था। जो मौत में भी बचकर तुम्हारे साथ चला जाएजो चिता की लपटों में भी तुम्हारा साथ न छोड़ेसमझना वही परमात्मा है। मृत्यु जिसे पोंछ देती हैवह परमात्मा नहीं है।
परमात्मा का अर्थ हैः शाश्वत जीवनअनंत जीवनन जिसका कोई ओरन कोई छोरन कोई आदिन कोई अंत। वैसे जीवन को न पाया तो कुछ भी न पाया। वैसे जीवन को न पाया तो सिर्फ गँवाया कौरे गँवाया। वैसे जीवन की आकांक्षा कहाँ जगेकैसे जगेकौन उठाए उस लपट को तुम्हारे भीतरकौन तुम्हें याद दिलाएजिसने पाया होवही याद दिला सकेगा। जिसने चखा होवही तुम्हारे प्राणों में भी चाह उठा सकेगा। जो जागा होवही सोए को जगा सकेगा। उस जागे का नाम गुरु। गुरु का कोई और अर्थ नहीं होता। जो तुम्हें परमात्मा को छोड़कर कुछ और सिखाएवह शिक्षकगुरु नहीं। जो तुम्हें परमात्मा सिखाएवह गुरु।
आज के सूत्र बड़े प्यारे हैं।

"गुरु गरवा दादू मिल्यादीरघ दिल दरिया।'
रज्जब कहते हैं: सागर-जैसे चौड़े दिलवाला गुरु मिल गया। गुरु होगा ही सागर के दिल जैसा विस्तीर्ण। परमात्मा को जानते ही हृदय विस्तीर्ण हो जाता है। परमात्मा को जानते ही जाननेवाला परमात्मामय हो जाता है। जो उसे जानता हैउसके जैसा हो जाता है। इसे याद रखना। तुम जो जानते हो उसके जैसे ही हो जाते हो। तुम जो पाते हो उसके जैसे ही हो जाते हो। जो धन ही इकट्ठा करता है और ठीकरों में ही जीता हैवह ठीकरा होकर ही मरता है। आदमी के चेहरे पर उसकी सारी जिंदगी की कथा लिखी होती है। उसकी ऑंखों में ज़रा झाँको और तुम उसके जीवन की गहराई को पकड़ लोगे। उसकी ऑंखों में तुम्हें तैरते हुए नोट-नोट दिखायी पड़ेंगेकि सोने-चाँदी के ढेर दिखायी पड़ेंगेकि पद-प्रतिष्ठा का अंबार दिखायी पड़ेगा। बस यह आदमी वही हो गया।
जो चाहते होसोचकर चाहना। क्योंकि चाहना तुम्हारी आत्मा बन जाती है। तुम जो चाहते होउसका रंग तुम पर चढ़ जाता है। जो भी तुम माँगते होवही तुम धीरे-धीरे हो जाते हो। क्षुद्र को मत माँगनाअन्यथा क्षुद्र हो जाओगे। माँगना ही हो तो विराट को माँगनाताकि विराट हो सको। चाहना हो तो परमात्मा को चाहना। उसका रंग लगे तो जीवन में गंध आए। उसका रंग लगे तो जीवन में रोशनी उतरे।
लोग अगर कीड़े-मकोड़ों की तरह सरक रहे हैं तो उसका कारण हैउनकी चाह जमीन की है। आकाश की तरफ ऑंखें उठाओ!
परमात्मा की प्रार्थना में हम आकाश की तरफ ऑंखें क्यों उठाते हैंपरमात्मा की प्रार्थना में क्यों हम अपने बाजू आकाश की तरफ फैलाते हैंकिसलिएकोई परमात्मा आकाश में बैठा हैऐसा थोड़े ही है। लेकिन एक इशारा है कि परमात्मा आकाश जैसा विराट है। और जो इस आकाश जैसे विराट को जान लेगास्वभावतः उसी जानने में वह आकाश जैसा विराट हो जाएगा। हम जो जानते हैंवही हो जाते हैं। उपनिषद कहते हैं: जिन्होंने उसे जानावह वही हो गए।
"गुरु गरवा दादू मिल्यादीरघ दिल दरिया।'
सागर जैसा जिसका दिल थाऐसा गुरु मिला। ऐसा भारी गुरु मिला! "गरवा'! भारी का क्या अर्थ? "गुरुशब्द का अर्थ भी "भारीहोता है। गुरु शब्द भी उसी मूल से बना है जिससे गरवा। गुरु का अर्थ हैऐसा भारीकि बैठ जाए गहराइयों से गहराइयों मेंजो अंतिम गहराई में पहुँच जाए। हलके होओगे तो गहराई न जान सकोगे। गहरे होने के लिए तो वजन चाहिए। तो सागर की अतल गहराइयों में उतर पाओगे।
किस बात से वजन आता है जीवन मेंएक ही बात से वजन आता है जीवन में: परमात्मा से जुड़ जाओ तो वजन आता है। नहीं तो लोग सतह पर ही जीते हैंसतह पर ही मर जाते हैं। परमात्मा सतह पर नहीं है। या तो ऊँचाइयों की ऊँचाई है परमात्माया गहराइयों की गहराई है परमात्मा। सतह तो दोनों के मध्य में है--न ऊँचाई है वहाँन गहराई है वहाँ।
और यह भी खयाल रखना कि जीवन के गणित में ऊँचाई और गहराई का एक ही अर्थ होता है। वह एक ही प्रक्रिया के दो पहलू हैं। जो गहरा होता हैवही ऊँचा हो जाता है। जो ऊँचा होता हैवही गहरा हो जाता है। ऐसा ही समझो जैसे वृक्ष। जो वृक्ष जितना ऊँचा उठता है आकाश मेंउसकी जड़ें उतनी ही गहरी चली जाती हैं पाताल में। अनुपात बराबर होता है। तुम ऐसा नहीं कर सकते कि छोटी-छोटी जड़ोंवाले वृक्ष को आकाश को छूने की कला सिखा दो। और तुम यह भी नहीं कर सकते कि पाताल तक जड़ें पहुँचानेवाले वृक्ष को तुम आकाश तक पहुँचने से रोक लो। यह अनुपात बराबर होता है--जितनी ऊँचाई उतनी गहराई।
फेड्रिक नीत्शे का अद्भुत वचन हैः जिन्हें आकाश छूना होउन्हें पाताल छूना ही होगा। . . . तो एक तरफ तो गुरु आकाश जैसा होता है विराट! उसकी उंचाई और दूसरी तरफ गुरु गहरा होता है-- सागरों जैसा! अनंत उसकी गहराई है। मगर ये एक ही घटना के दो हिस्से हैं। इसमें गुरु का कुछ भी नहीं है। परमात्मा के साथ जो भी जुड़ता हैवही ऐसा हो जाता है। यह जादू तो परमात्मा के साथ जुड़ने का हैउसकी समीपता का जादू है।
तुम अपनी जिंदगी को देखो तो कुछ समझ में आए। तुम्हारी जिंदगी में कभी कोई विराटता का क्षण आता है--जब सब द्वार खुल जाते होंसब दीवालें गिर जाती होंजब तुम्हारा छोटा-सा चित्त का ऑंगन छोटा न रह जाता होआकाश-जैसा विराट होता हो।
स्वामी राम कहते थे कि मैंने अपने चित्त के आकाश में चाँदत्तारों को चलते देखा हैसूरज को उगते देखा है। लोग समझते हैं कि पागलपन की बातें हैंया जो इतने कठोर न होतेवे कहते कविताएँ हैं। लेकिन राम जो कह रहे थेन तो पागलपन था और न काव्य था--जीवन का सीधा सत्य था। अहंकार की सीमा टूट जाए तो तुम अपने भीतर चाँदत्तारों को चलते देखोगे हीवे तुम्हारे भीतर चल ही रहे हैं। तुम अपने भीतर ही वसंतों को आते देखोगे। अपने भीतर ही तुम विराट का सारा विस्तार देखोगे। तुम अपने भीतर सब पा लोगे। मगर अहंकार बड़ा संकीर्ण है और तुम्हें खुलने नहीं देता।
अपनी जिंदगी को परखो। तुम्हारी जिंदगी में न कोई ऊँचाई का अनुभव हैन कोई गहराई का अनुभव हैन कोई विशालता का अनुभव है। तुम्हारी जिंदगी का अनुभव सिवाय दुःख के और कुछ भी नहीं है। सिवाय पीड़ा के तुम्हारा कोई स्वाद नहीं है। तुम्हारी ऑंखें अंधेरे से भरी हैं और तुम्हारी ऑंखें धुएँ से तिलमिला रही हैं। और यह धुऑं तुम्हारे ही भीतर तुम्हारे अहंकार से उठ रहा है। और यह अंधेरा भी तुम्हारे भीतर ही जन्म ले रहा है।

मेरे ख्वाबों के शबिस्ताँ में उजाला न करो
कि बहुत दूर सवेरा नजर आता है मुझे
छुप गए हैं मेरी नजरों से खदो-खाले-हयात
हर तरफ अब्र घनेरा नजर आता है मुझे
चाँदत्तारे तो कहाँ अब कोई जुगनू भी नहीं
कितना शफ्फाक अंधेरा नजर आता है मुझे
कोई ताबिंदा किरन यूँ मेरे दिल पर लपकी
जैसे सोए हुए मजलूम पै तलवार उठे
किसी नग्मे की सदा गूँज के यूँ थर्रायी
जैसे टूटी हुई पाजेब से झंकार उठे
मैंने पलकों को उठाया भी तो ऑंसू पाए
मुझसे अब खाक जवानी का कोई बार उठे
तुमने रातों में सितारे तो टटोले होंगे
मैंने रातों में अंधेरे ही अंधेरे देखे
तुमने ख्वाबों के परिस्ताँ तो सजाए होंगे
मैंने माहौल के शबरंग फरेरे देखे
तुमने इकतार की झंकार तो सुनी ही होगी
मैंने गीतों में उदासी के बसेरे देखे
मेरे गमख्वार! मेरे दोस्त! तुम्हें क्या मालूम
जिंदगी मौत की मानिंद गुजारी मैंने
इक बिगड़ी हुई सूरत के सिवा कुछ भी न था
जब भी हालात की तस्वीर उतारी मैंने 
किसी अफलाक-नशीं ने मुझे धत्कार दिया
जब भी रोकी है मुकद्दर की सवारी मैंने
मेरे गमख्वार! मेरे दोस्त! तुम्हें क्या मालूम?
थोड़ा सोचो अपनी जिंदगी को। ऐसा ही तुम पाओगे।
चाँदत्तारे तो कहाँ अब कोई जुगनू भी नहीं

कितना शफ्फाक अंधेरा नजर आता है मुझे
तुम्हारे चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा है। चाँदत्तारे तो दूरजुगनू भी तुम्हारे चित्त के आकाश में तैरते हुए दिखायी नहीं पड़ते।

मैंने पलकों को उठाया भी तो ऑंसू पाए

मुझसे अब खाक जवानी का कोई बार उठे

तुमने रातों में सितारे तो टटोले होंगे

मैंने रातों में अंधेरे ही अंधेरे देखे

तुमने ख्वाबों के परिस्ताँ तो सजाए होंगे

मैंने माहौल के शबरंग फरेरे देखे
--और मेरी जिंदगी में तो सिवाय काले झंडों के और मुझे कुछ भी दिखायी नहीं पड़ा।

मैंने माहौल के शबरंग फरेरे देखे

तुमने इकतार की झंकार तो सुनी ही होगी

मैंने गीतों में उदासी के बसेरे देखे

मेरे गमख्वार! मेरे दोस्त! तुम्हें क्या मालूम

जिंदगी मौत की मानिंद गुजारी है मैंने
लोग ऐसे ही गुजार रहे हैं--मौत की मानिंद। मरे-मरे जी रहे हैं। जीने का सिर्फ नाम हैजीना कहाँ! क्योंकि जीवन तो केवल वे ही जानते हैं जिन्होंने महाजीवन के साथ हाथ जोड़ लिए हैं। जो परमात्मा के साथ एक धारा में बँध जाते हैंवे ही जीवन को जानते हैंबाकी तो हम मृत्यु ही जानते हैं। मरण-ही-मरण है। रोज हम मरते हैं--और थोड़ा ज्यादा मर जाते हैंऔर थोड़ी मौत करीब सरक आती हैऔर थोड़ी कब्र करीब आ जाती है। हमारी जिंदगी का और अनुभव क्या है?

इक बिगड़ी हुई सूरत के सिवा कुछ भी न था

जब भी हालात की तस्वीर उतारी मैंने
कभी अपने हालात की तस्वीर उतारकर देखो। कभी अपने रंग-ढंग पर गौर करो। सब फीका है! सब बासा है! न कहीं कोई गंधन कहीं कोई रंगन कोई नृत्यन कोई मदहोशीन कोई मस्ती। किसलिए जीते होकिसलिए जिए जाते होकिस आशा में चले जाते हो?

किसी अफलाक-नशीं ने मुझे धत्कार दिया

जब भी रोकी है मुकद्दर की सवारी मैंने

मेरे गमख्वार! मेरे दोस्त! तुम्हें क्या मालूम
आदमी की जिंदगीजिंदगी नाममात्र को है। आदमी जब तक परमात्मा से जुड़े नहीं तब तक जीवन के कोई स्वर उसमें उठते नहीं। उसके साथ जुड़ते ही पाजेब बजती है। उसके साथ जुड़ते ही झंकार उठती हैइकतारा बजता है।
ये आज के सूत्र उसके साथ जुड़ने के सूत्र हैं। लेकिन इसके पहले कि कोई परमात्मा से जुड़ेकिसी परमात्मा के प्यारे से जुड़ना होता है।

गुरु गरवा दादू मिल्यादीरघ दिल दरिया।

तत छन परसन होत हीं भजन भाव भरिया।। 
यह प्यारा वचन है। "तत छन'! एक क्षण मेंनजर से नजर मिली और सब हो गया! "तत छन परसन होत हीं,'. . . दरस-परस होते हीदेखा गुरु को कि बात हो गयी।
साहसी व्यक्ति रहा होगा रज्जब। लोग तो वर्षों सोचते हैं। विचार में ही गँवा देते हैं। बुद्ध मिल जाएँकि कृष्ण मिल जाएँ तो भी विचार में गँवा देते हैं। सोचते ही रहते हैं। संदेहों का अंत ही नहीं आताप्रश्नों की समाप्ति नहीं होती। शायद सोचना एक बहाना होगा। शायद सोचना टालने की एक विधि होगी। शायद सोचने के नाम से स्थगन करते होंगे--कलपरसोंअभी नहीं।
साहसी का अर्थ हैः जो जानता हैया तो अभी या कभी नहीं।
"तत छन परसन होत हीं'. . . । और जैसे ही दरस हुआपरस हुआजैसे ही स्पर्श हुआ गुरु की तरंग काजैसे ही गुरु का राग सुनायी पड़ाजैसे ही उन ऑंखों ने रज्जब की ऑंखों में झाँका. . . "भजन भाव भरिया'. . . उठ आयी कोई चीज जो सोयी पड़ी थी जन्मों-जन्मों से। फूटी कोई कली! खिला कोई फूल! जो सितार कभी नहीं छुई गयी थीबज उठी। "भजन भाव भरिया'! गुरु के पास बैठकर अगर भजन भाव न भरेतो तुम पास बैठे ही नहीं। अगर गुरु के पास बैठकर डोले नहींतो तुम पास बैठे ही नहीं।
गुरु के पास बैठे होइसका लक्षण क्या हैकसौटी क्या हैएक ही कसौटी हैः "भजन भाव भरिया'। तुम्हारे भाव में भजन उतर आए। तुम्हारे भीतर नाद जगे। तुम जीवन के उल्लास से भर जाओ। यह जो जीवन चारों तरफ न-मालूम कितने-कितने तरह की मधु ढाल रहा हैतुम इसे पी उठो! तुम नाच उठो!
"तत छन परसन होत हीं'। यह "परसनशब्द के दो अर्थ हो सकते हैं--या तो परसस्पर्शया प्रसन्न। "तत छन परसन होत हीं'. . . दोनों अर्थ सार्थक हैं। गुरु प्रसन्न क्या हुआ, "भजन भाव भरिया'। शिष्य की तरफ से एक अर्थ कि परस हुआ। सौभाग्यशाली है शिष्य कि गुरु से ऑंख मिलीकि गुरु के हाथ में हाथ पड़ाकि गुरु के वातावरण में बैठने का सुअवसर आयाकि थोड़ी देर को गुरु की तरंग में डोला। यह बजी बीन गुरु की और शिष्य नाचा एक नाग की भाँति! यह परस शिष्य की तरफ से है। लेकिन जब भी कोई गुरु किसी शिष्य को नाग की भाँति फन उठाकर नाचते मस्त होते देखता हैस्वभावतः प्रसन्न होता है--एक फूल और खिला! एक मंदिर और बना! एक काबा और खोजा गया! एक तीर्थ और उठा! परमात्मा एक हृदय में और उतरा!
"तत छन परसन होत हीं'...तो गुरु प्रसन्न न हो जाए तो क्या हो? आह्लाद से भर जाता हैशिष्य को पाकर गुरु उतने ही आह्लाद से भर जाता हैजितना शिष्य गुरु को पाकर आह्लाद से भर जाता है। यह लपट दोनों तरफ साथ-साथ जगती है। यह धुन एकसाथ उठती है।

"तत छन परसन होत हींभजन भव भरिया।।'
और गुरु प्रसन्न हो जाए और उसकी मुस्कुराहट तुम पर बरस उठे और उसका आनंद तुम पर ढल जाएतो क्या होगा?--"भजन भाव भरिया'! तुम्हारे भीतर भाव तो पड़ा ही था जन्मों-जन्मों सेकोई ठीक-ठीक वसंत का अवसर न मिला थाबीज तो पड़ा थाभूमि न मिली थीआज भूमि मिल गयी। आज वसंत आ गया। ऋतु आ गयी। टूटेगा बीजपौधा उठेगा। हरे पत्ते निकलेंगे। सुर्ख फूल खिलेंगे।

"भजन भाव भरिया'!

श्रवण कथा साँची सुणीसंगति सतगुरु की।
और सब तो सुना थाऔर सब जो गुना थापढ़ा थाव्यर्थ हो गया--जब संगति सतगुरु की जानी। उसी संगति में सुनी सच्ची श्रवण-कथा। साथ होने में सुनी। संगति में सुनी।
शास्त्र तो बहुत हैंलेकिन जब तक शास्ता को न खोज लोगेतब तक कोई शास्त्र जीवित नहीं होता। बुद्ध के वचन संगृहीत हैं, "धम्मपदपढ़ोकृष्ण के वचन संगृहीत हैं, "भगवद्गीतापढ़ोलेकिन कुछ कमी है। कुछ खोयी-खोयी बात है। क्या बात की कमी हैक्योंकि जो कृष्ण ने अर्जुन से कहा थावही गीता में लिखा हैवैसा-का-वैसा लिखा है। क्या कमी हैकहने वाला नहीं है। शब्द हैंशब्दों का मालिक नहीं है। शब्दों के पीछे धड़कता हुआ हृदय नहीं है। शब्दों के पीछे खड़ा हुआ शून्य नहीं है। तो जो अर्जुन को अनुभव हुआ होगावह गीता पढ़कर तुम्हें नहीं हो सकता। मेरे पास बैठकर तुम्हें जो अनुभव हो रहा हैवह कल आनेवाले दिनों में इन्हीं शब्दों को पढ़नेवाले लोगों को नहीं होगा। संगति खो जाएगी। कुछ मूलस्वर कम रहेगा। कुछ बात खाली-खाली हो जाएगी। उतना ही फर्क समझो जैसा जिंदा आदमी में और उसकी तस्वीर में जैसे जिंदा आदमी में और उसकी बनायी हुयी संगमरमर की प्रतिमा में। प्रतिमा बिल्कुल वैसी ही तो लगती हैफिर भी प्राण नहीं हैं। बोलेगी नहींचलेगी नहींउठेगी नहीं।
जब शास्त्र चलता हैबोलता हैउठता हैहँसता हैगाता हैनाचता हैतभी पकड़ लेना। जब शास्त्र का जन्म हो रहा होतब पकड़ लेना। गुरु का यही अर्थ हैः जहाँ शास्त्र का जन्म हो रहा हैजहाँ अभी सब ताजा है। फिर बासे फूलों कोसुखाए गए फूलों को लोग सदियों-सदियों तक सम्हाल कर रखते हैंमगर उनसे फिर गंध नहीं उठती।

श्रवण कथा साँची सुणीसंगति सतगुरु की।
वह जो साथ बैठना हो जाता है गुरु केगुरु बोले कि न बोलेयह बोलेवह बोलेइससे कुछ फर्क नहीं पड़ता--उसके साथ बैठने में ही. . . श्रवण कथा साँची सुणी...सच्ची कथा!
ये शब्द समझने जैसे हैं। सुनना मात्र श्रवण नहीं है। सुनते तो सभी हैंश्रवण बहुत कम लोग करते हैं।
सुनने और श्रवण में क्या भेद है?
सुनना तो कान से हो जाता है। जिसके कान ठीक हैंवही सुन लेता है। श्रवण--जो कान के पीछे अपनी आत्मा को भी उँडेल देता हैजो प्रेम से सुनता है भाव से सुनता हैआह्लाद से सुनता हैजिसके कान के पीछे उसका हृदय जुड़ा होता है। कोई विवाद से भी सुन सकता है। भीतर हजार तर्क चल रहे हैं। यहाँ कभी-कभी यहाँ भी लोग आ जाते हैं। एक भी आदमी आ जाता है तो यहाँ का स्वर भंग होता है। आकर मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँतभी मेरे खयाल में आ जाते हैं कि कुछ ये दो-चार लोग आ गए हैं। वे हाथ जोड़कर नमस्कार भी नहीं कर सकते। मैं उन्हें नमस्कार कर रहा हूँवे हाथ जोड़कर नमस्कार भी नहीं कर सकते। वे सुनेंगे कैसेनमस्कार तक का उत्तर देने की उनमें सामर्थ्य नहीं हैसुनेंगे कैसेआ गए हैं. . . देखने-परखने आ गए होंगेः क्या यहाँ हो रहा हैकुछ सुनिश्चित धारणाएँ लेकर आ गए होंगेकि जो यहाँ हो रहा है गलत हो रहा हैधर्म के विपरीत हो रहा है। तो मैं नमस्कार भी उन्हें करूँ तो वे मुझे हाथ जोड़कर कैसे नमस्कार करें--ऐसे अधार्मिक आदमी को कोई नमस्कार करता है!
सुनेंगे तो वे भीलेकिन श्रवण न हो सकेगा। और वे इस भ्रांति में होंगे कि सुनकर आ गए। श्रवण तो उन्हीं का हो सकेगाजिनके कान सिर्फ कान नहींबल्कि उनका हृदय भी हैंजो सहानुभूति से सुनेंगेजिनके भीतर विवाद नहीं हैसंवाद हैजो मेरे साथ जुड़कर सुनते हैं। इधर मैंउधर वेऐसे दो नहीं रह जातेएक सेतु बन जाता है। एक अज्ञात ऊर्जा जोड़ देती है।
मैं देख पाता हूँ किन-किन से मेरी ऊर्जा जुड़ी है। मेरे लिए दृश्य है! और तुम भी जानते हो जब तुम्हारी जुड़ जाती है और जब नहीं जुड़ती। वे घड़ियाँ तुम्हें भी मालूम हैं। जब जुड़ जाती है कोई बाततो मैं क्या कह रहा हूँयह सवाल नहीं होताफिर जो भी मैं कहता हूँ उसीसे अमृत का अनुभव होता है। जब नहीं जुड़ पाती किसी दिनतो तुम पाते हो कुछ चूका-चूका है। इधर मैं बोल रहा हँ उधर तुम सुन रहे होमगर बीच में कोई जोड़ नहीं है। मैं दूर से चिल्ला रहा हूँतुम बहुत दूर से सुन रहे होआवाज सुनायी भी पड़ती हैपर अर्थ पकड़ में नहीं आते जब जुड़ जाती है तरंगजब तुम मेरे साथ साँस लेते होऔर मेरे हृदय के साथ तुम्हारा हृदय धड़कता हैजब मुझमें और तुममें कोई भेद नहीं होताजब तुम एकात्म होकर सुनते होतो श्रवण पैदा होता है।
"श्रवण कथा साँची सुणी'। और "कथा'! शब्द तो बनता है "कथ्यसेजो कहा जाता है। लेकिन शब्द पर ही मत अटक जाना। कथा का मौलिक अर्थ होता है जो नहीं कहा जा सकताफिर भी कहने की कोशिश की जाती है। जो कहा जा सकता हैवह तो साधारण कथा है। जो कथ्य में समा जाता हैवह तो साधारण कथा है। जो कथ्य में नहीं समाताफिर भी कहना तो पड़ता है। कहना पड़ेगा हीक्योंकि बहुत हैं जिनके काम आ जाएगा। शब्द में नहीं आता हैफिर भी समाने की चेष्टा करते हैं। उसका नाम कथा है। शब्दातीत को शब्द में लाने का उपाय कथा ही है।
इसलिए कथा में इतिहास नहीं होता। राम की कथा में कोई इतिहास नहीं है। कुछ ऐसा नहीं है कि जो राम की कथा में कहा गया हैवैसा-ही-वैसा हुआ है। वैसी भ्रांति में मत पड़ना। नहीं तो वाल्मीकि की कथा एक बात कहती हैतुलसी की कथा दूसरी बात कहती है। और भी बहुत लोगों ने रामायणें लिखी हैंसबकी कथाएँ अलग बात कहती हैं। ऐतिहासिक नहीं है बात। इतिहास से ज्यादा आध्यात्मिक है। इतिहास तो बहाना है। राम और सीता और रावण तो बहाने हैं। उनके पीछे बहानों के पीछे कुछ छिपाया गया है। जो श्रवण करेंगेउन्हें बहानों के पीछे छिपे हुए खजाने मिल जाएँगे। जो केवल सुनेंगेउनके हाथ में केवल कथा लगेगीजो कही गयी हैवही बात लगेगीजो अनकही कहे के साथ जोड़ दी गयी हैवे उससे वंचित रह जाएँगे। वह सूक्ष्म है। वही अर्थ है। श्रवण कथा साँची सुणीसंगति सतगुरु की।
पश्चिम से नए विचार आए हैंनयी शोध की पद्धतियाँ आयी हैंनयी इतिहास की खोजों की विधियाँ आयी हैं। उन सबने हमें बड़ी मुश्किल में डाल दिया है क्योंकि हमारी सारी कथाएँ ऐतिहासिक नहीं हैं। और जब पश्चिम की कसौटी पर कसी जाती हैंतो गैर-ऐतिहासिक सिद्ध होती हैं। फिर हमारे यहाँ भी ऐसे मूढ़ हैं जो उनको ऐतिहासिक सिद्ध करने की कोशिश में लग जाते हैं। और तब एक व्यर्थ का विवाद शुरू होता हैजिसमें हम हारेंगे।
यह बात समझ लेनी चाहिए कि पूरब ने जो कथाएँ रची हैंवे इतिहास की घटनाएँ नहीं हैंवे अंतरतम की घटनाएँ हैं। राम तुम्हारे भीतर की किसी चीज के प्रतीक हैं और रावण भी तुम्हारे भीतर की किसी चीज के प्रतीक हैं और सीता भी तुम्हारे भीतर है और राम के हाथ से रावण के हाथ में पड़ गयी है। उसे वापस घर लौटाना है। तुम्हारे भीतर के राम को तुम्हारे भीतर की सीता की तलाश में निकलना है। तुम्हारी आत्मा ही तुम्हारी सीता हैबाजार में खो गयी है। रावण की लंका सोने की थी--कहीं सोने में खो गयी हैकहीं धन-दौलत में बिक गयी है।

जवानीहुस्नगमजेअहदपैमांकहकहेनग्मे

रसीले ओंठशरमीली निगाहेंमरमरी बाहें

यहाँ हर चीज बिकती है,

खरीदारो!

बताओ क्या खरीदोगे?

भरे बाजूगठीले जिस्मचौड़े आहनी सीने

बिलकते पेटरोती गैरतेंसहमी हुई आहें

खरीदारो!

यहां हर चीज बिकती है,

बताओ क्या खरीदोगे?
तुमने अपनी आत्मा बेच दी है और कुछ व्यर्थ की चीजें खरीद लाए हो। तुमने अपनी आत्मा दाँव पर लगा दी हैऔर कुछ व्यर्थ की चीजें खरीद लाए हो। तुम्हें अपनी सीता को छुड़ाना होगा। ऐसे बाहर रावण के पुतले जलाने से कुछ भी न होगायह पागलपन बंद करो। भीतर जलाना होगा। यह बाहर की विजय-यात्रायह दशहरे का पर्व. . . बहुत मना चुके। इससे कुछ नहीं होता। यह विजय-यात्रा भीतर घटनी चाहिए। यह दशहरा भीतर आना चाहिए। यह विजयदशमी भीतर होनी चाहिए। भीतर का खयाल ही नहीं है। कथा को बाहरी कर दिया है। ऐसे कथा सेकथा के मौलिक अर्थ से बच गए हो।
"स्रवण कथा साँची सुणीसंगति सतगुरु की।गुरु के साथ बैठ-बैठकरपर्त-पर्त गहरे उतरकरआहिस्ता-आहिस्ताकदम-कदम अंतरतम में चलकर जाना।

दूजा दिल आवै नहिंजब धारी धुर की।।
और जबसे यह पहचान हो गयी हैजबसे यह असली कथा सुन ली हैजबसे यह सच अनुभव आने लगा हैजब से ये साँचे बोल हृदय में उतर गए हैं. . . दूजा दिल आवै नहिं. . . अब परमात्मा के सिवाय दिल में कोई आता नहीं!
"दूजा दिल आवै नहिं'। यही पहचान है। जब तक परमात्मा के सिवाय दूसरे की याद आती हैतब तक समझना अभी संसार जारी है।

दूजा दिल आवै नहिंजब धारी धुर की।।
अब तो जो मेरे से भी परे हैउसको ही पाने की एकमात्र आकांक्षा बची है। परात्पर! "जब धारी धुर की'। जो न शब्दों में हैन सीमाओं में हैजिसे प्रगट करने को ब्रह्म शब्द भी छोटा पड़ जाता हैउस परात्पर ब्रह्म कोउस शब्दातीत ईश्वर कोउस भावातीत को पाने चल पड़े हैं। अब तो उस एक की ही धुन लग गयी है। अब तो वह एक ही पुकार रहा हैएक ही खींच रहा है। एक गहरी कशिश! भक्त चल पड़ा--बँधा हुआ!

दूजा दिल आवै नहिंजब धारी धुर की।।

भरमजाल भव काटियासंका सब तोड़ी।
गुरु का काम क्या हैभरमजाल भव काटिया। यह जो संसार का व्यर्थ का उपद्रव हैजिसको तुमने सार्थक मान लिया हैगुरु का इतना ही तो अर्थ है कि वह तुम्हें जगा दे और दिखा देः क्या व्यर्थ है और क्या सार्थक हैबसइससे ज्यादा गुरु कुछ कर भी नहीं सकताइतना ही दिखा दे कि यह रहा हीरावह रहा पत्थरअब तुम्हें जो चुनना हो चुन लो। जानकर कभी कोई पत्थर को चुनता हैपत्थर को चुनते हो इसी आशा में कि शायद हीरा है। गुरु यह नहीं कहता कि पत्थर मत चुनो। गुरु यह भी नहीं कहता कि हीरा चुनो। गुरु तो इतना ही कहता हैः यह रहा हीरायह रहा पत्थरयह रही कसौटी--कस लो और जाँच लोफिर जो मर्जी करो।
महावीर ने कहा हैः मैं उपदेश देता हूँआदेश नहीं। ठीक कहाप्यारी बात कही। यही सभी सद्गुरुओं का आधार है। उपदेश। आदेश नहीं। जहाँ आदेश होसमझना गुरु नहीं है वहां। जो तुम से कहेऐसा करना ही पड़ेगाऐसा ही करोइससे अन्यथा किया तो पापी हो--वहाँ गुरु नहीं है। वहाँ तो कोई नयी राजनीति का जाल है। वहाँ नेता होगागुरु नहीं है। वहाँ तो कोई नयी तानाशाही तुम्हारे ऊपर निर्मित हो रही हैतुम्हें गुलाम बनाने की कोई नयी व्यवस्था की जा रही हैकोई नयी जंजीरें ढाली जा रही हैंनए कारागृह खड़े किए जा रहे हैं। सावधान रहना।
सद्गुरु केवल उपदेश देता है। इतना ही बता देता है कि यह पत्थर हैयह सोना है। फिर तुम्हारी जो मर्जी। आदेश नहीं देता। आदेश की जरूरत नहीं है। आदेश की जरूरत तो उनको पड़ती हैजो समर्थ नहीं हैं तुम्हें दिखलाने में कि क्या पत्थर है और क्या हीरा है। वे ही तुम्हें अनुशासन देते हैं। वे कहते हैं: सुबह पाँच बजे उठनाराम-भजन करनाऐसा करनावैसा करनायह खानावह पीनायह मत खानावह मत पीनाहजार नियम तुम्हें देते हैंहजार मर्यादाएँ तुम्हें देते हैं। उसका कारणएक बात की कमी है उनके पास--तुम्हारी ऑंख खोल नहीं पातेतुम्हें दिखा नहीं पाते कि यह रहा हीरायह रही मिट्टी। जिस दिन तुम्हें दिख जाएगा कि हीरा क्या हैमिट्टी क्या हैउस दिन क्या तुम मिट्टी चुनोगेकौन ऐसा पागल होगा?

भरमजाल भव काटियासंका सब तोड़ी।
इतना ही काम है सद्गुरु का कि तुम्हारे भ्रम के जो-जो जाल हैंउनको तोड़ देतुम्हारे चित्त की शंकाओं का निरसन कर दे।
      एक पतंगा
            तन्हात्तन्हा
                  शाम ढले इस फिक्र में था
                        यह तन्हाई कैसे कटेगी?
     
      रात हुई
            और शमा जली
                  मगसूम पतंगा झूम उठा
                        हँसते-हँसते रात कटेगी

      सुबह हुई
            और सबने देखा
                  राख पतंगे की उड़-उड़कर
                        शमा को हरसू ढूँढ़ रही थी
यही तुम्हारी जिंदगी है! जल्दी ही राख का ढेर रह जाएगा। ज़रा याद करो! जरा पहचानो! जल्दी ही अपनी चिता पर जलोगे। जल्दी ही राख पड़ी रह जाएगी। और राख उड़-उड़कर खोजेगी उस जीवन कोजिसको गँवा आए। राख उड़-उड़कर खोजेगी उन सपनों कोजिनके आधार पर सब खोयासब                     व्यर्थ किया।
      एक पतंगा
            तन्हात्तन्हा
                  शाम ढले इस फिक्र में था
                        यह तन्हाई कैसे कटेगी?

      रात हुई
            और शमा जली
                  मगसूम पतंगा झूम उठा
                        हँसते-हँसते रात कटेगी
तुम भी सब यही सोच रहे होः हँसते-हँसते रात कटेगी! और रात के पार सुबह नहीं है मौत है। और शमा के साथ तुम्हारी जिंदगी नहीं हैतुम्हारी चिता है।

      सुबह हुई
            और सबने देखा
                  राख पतंगे की उड़-उड़कर
                        शमा को हरसू ढूँढ़ रही थी
ऐसी ही राखें उड़ रही हैंशमा को ढूँढ़ रही हैं। रास्ते पर उड़ती धूल के बवंडर को देखा हैखड़े हो जानाज़रा ध्यान करना। यह जो धूल का आज बवंडर हैकभी तुम्हारी जैसी देह रही होगी। पैर के नीचे पड़ी धूल को देखा हैयह तुम्हारे पैर के नीच है आजकल किसी सिर में रही होगी। कल कोई देह रही होगी। तुम भी ऐसे ही कल धूल में पड़े रह जाओगे। इसके पहले कि सब धूल हो जाएइसके पहले कि धूल धूल में गिरेकुछ खोज लो। कुछ ऐसा खोज लोजो मिटता नहीं। कुछ ऐसी तलाश कर लो।

भरमजाल भव काटियासंका सब तोड़ी।
अभी तो जिस ढंग से हम जी रहे हैंवह एक व्यर्थता की पुनरुक्ति मात्र है। वही-वही बार-बार करते हैंअनंत बार करते हैंफिर भी जागते नहीं। आदमी अनुभव से सीखता मालूम ही नहीं होता।

सब काट दो

बिस्मिल पौधों को

बेआब सिसकते मत छोड़ो

सब नोच लो

बेकल फूलों को

शाखों पै बिलखते मत छोड़ो

यह फस्ल उम्मीदों की हमदम!

इस बार भी गारत जाएगी

सब महनत सुबहो-शामो की

अबके भी अकारत जाएगी

खेती के कोनों खदरों में

फिर अपने लहू की खाद भरो

फिर मिट्टी सींचो अश्कों से

फिर अगली ऋतु की फिक्र करो

जब फिर इक बार उजड़ना है

इक फस्ल पकी तो भर पाया

तब तक तो यही कुछ करना है

बस यही करते रहो। हर बार फसल काटो और हर बार उजड़ो


यह फस्ल उम्मीदों की हमदम!

इस बार भी गारत जाएगी

यह जिंदगी तुम्हें पहली बार नहीं मिलीबहुत बार मिली है। यह फसल तुम बहुत बार उगा चुके हो। यह काम कुछ नया नहीं हैतुम बड़े पुराने होतुम बड़े कारीगर हो अपने को गँवाने में। तुम बड़े कुशल हो अपने को बरबाद करने में।

यह फस्ल उम्मीदों की हमदम!

इस बार भी गारत जाएगी

सब महनत सुबहो-शामो की

अबके भी अकारत जाएगी
यह अकारत ही जानेवाली हैक्योंकि यह दिशा ही भ्रांत है। तुम रेत से तेल निचोड़ने की चेष्टा कर रहे होहारोगे नहीं तो और क्या होगा?

खेती के कोनों खदरों में

फिर अपने लहू की खाद भरो

फिर मिट्टी सींचो अश्कों से

फिर अगली ऋतु की फिक्र करो

जब फिर इक बार उजड़ना है

इक फस्ल पकी तो भर पाया

जब तक तो यही कुछ करना है
मगर बस फिर उजड़ोगेफिर आशाएँफिर उजड़ोगेफिर आशाएँ। जागो अब! अब कुछ ऐसी फसल काटें जो भर जाए जीवन को। अब कुछ ऐसा धन तलाशेंजो निर्धनता को सच में ही मिटा देंछुपाए नमात्र छुपाए नमिटा दे--सदा के लिए मिटा दे!

भरमजाल भव काटियासंका सब तोड़ी।

साँचा सगा जे राम का ल्यौं तासूँ जोड़ी।।
गुरु मिला--दरिया दिल! साँचा सगा जे राम का. . . । उसने दो काम किए। पहले तो उसने अपने से संबंध जोड़ा--"साँचा सगा जे राम का'। क्योंकि गुरु से जब तक संबंध न जुड़ जाएतब तक परमात्मा से संबंध जुड़ना करीब-करीब असंभव है। "साँचा सगा जे राम का'। पहले राम से दोस्ती होइसके पहले राम के सगों से तो दोस्ती हो जाएउसके मित्रों से तो पहचान हो जाए! उसके मित्र यहाँ घूमते हैं। उसके मित्र तुम्हारे आसपास हैं। तुम जिस दिन चाहोगेउनके हाथ में तुम्हारा हाथ हो जाएगा। उनके हाथ में हाथ पड़ते ही पहला कदम उठ गया।

साँचा सगा जे राम काल्यौं तासूँ जोड़ी।।
पहले उससे अपनी प्रीति को जोड़ लो। अपने लगाव को उससे लगा लोजो राम का सगा हैसाँचा हैजिसमें राम की तुम्हें थोड़ी-सी झलक मिल जाएजिसके पास तुम्हें राम की थोड़ी-सी सुगंध मिल जाए।

भौजल माहिं काढ़िकै जिन जीव जिलाया।
गुरु के साथ जुड़ते ही जीवन में एक क्रांति आती है। कल तक जो जीवन थामृत्यु हो जाता है। और कल तक जिसका हमें सपने में भी सवाल नहीं उठा थाउस नए जीवन का प्रादुर्भाव होता है।
"भौजल माहिं काढ़िकै जिन जीव जिलाया'। वह जो चक्कर था संसार कावह जो भँवर थी संसार की--यह कमा लूँवह कमा लूँयह बना लूँवह बना लूँ--जगाया गुरु ने कि सब व्यर्थ है! सार वहाँ हाथ नहीं लगेगा। उस दिशा में जाओ मत! उस दिशा में कुछ कभी किसी ने पाया नहीं। निरपवाद रूप से जो उस दिशा में गया हैभटका हैभूला हैमरा है। मैं भी गया हूँगुरु कहता हैमैं भी दौड़ा हूँ उन्हीं रास्तों परजिन पर तुम दौड़ रहे होमैं भी ऐसे ही थका हूँऐसे ही गिरा हूँ जैसे तुम दौड़ रहे होगिर रहे होथक रहे हो। अब मैंने एक और दिशा खोज ली हैजहां विश्राम हैजहाँ विराम हैजहाँ राम है। और ध्यान रखनाजहाँ राम हैवहीं विराम हैवहीं विश्राम है। राम के अतिरिक्त कहाँ विरामदौड़-धूप जारी रहेगीआपाधापी जारी रहेगी।

भौजल माहिं काढ़िकै जिन जीव जिलाया। 

सहज सजीवन कर लिया साँचे संगि लाया।।
गुरु खींच लेता है इस भ्रमजाल से। उसके लगाव में खिंचे तुम बाहर आ जाते हो--अपने सपनों को छोड़कर। गुरु तुम्हारे सामने एक नया दृश्य उपस्थित कर देता हैजो ज्यादा मनमोहक हैजो ज्यादा प्यारा हैजो ज्यादा मधुमय है। तुम छोड़ देते हो अपने छोटे-मोटे उपद्रवों कोतुम गुरु के पीछे चल पड़ते होउसके साथ हो लेते हो।
"भौजल माहिं काढ़िकै जिन जीव जिलाया।और जैसे गुरु ने मुर्दे को जिला दिया होऐसी घटना घटती है।
"सहज सजीवन कर लिया साँचे संगि लाया।पर खयाल रखनासद्गुरु जबरदस्ती चेष्टा से तुम्हें नहीं बदलता है--सहज। उसकी मौजूदगी बदलती है।
वह कोई छेनी लेकरहथौड़ी लेकर तुम्हारे अंग-प्रत्यंग काटने नहीं लगता है। वह तुम्हें बाँधने नहीं लगता है--मर्यादाओं मेंबाढ़ों में। तुम्हें अपने निकट बुलाता है। तुम्हें अपनी खिड़की से झाँकने का निमंत्रण देता है। कहता हैइस हृदय में राम का वास हो गया हैतुम ज़रा अपने कान मेरे हृदय के पास ले आओजरा यह धड़कन सुनो! इस धड़कन में प्यारा संगीत है! उस धड़कन को सुनते ही तुम्हारे भीतर भी एक दीवानापन पैदा होता है। उस धड़कन को सुनते ही फिर तुम रुक नहीं सकते। तुम्हें पंख लगने शुरू हो गए! तुम उड़ोगे ही! उड़ना ही पड़ेगा! अब कोई उपाय नहीं है। चुनौती आ गयी।
गुरु तो सिर्फ पास बुलाता है और चुनौती दे देता है। फिर सहज घटनाएँ घटनी शुरू हो जाती हैं।

सहज सजीवन कर लियासाँचे संगि लाया।।
और चुपचापतुम्हें पता नहीं चलताकब गुरु ने तुम्हारे जीवन को आमूल रूपांतरित कर दिया। कानोंकान खबर नहीं होती। यह चुपचाप हो जाता है। पगध्वनि भी नहीं सुनी जाती। कहीं कोई शोरगुल नहीं मचता। कहीं कोई बैंडबाजे नहीं बजते। चुपचाप हो जाता है। होते-होते हो जाता है। एक दिन अचानक सुबह जागकर तुम पाते होतुम वही आदमी नहीं हो जो थे।
परसों एक युवती कोई वर्ष-भर यहाँ रहने के बाद वापस लौटी अपने घर। उसकी एक ही चिंता थी कि अब घर जा रही हूँएक ही मुझे फिक्र है कि मेरे प्रियजन मुझे पहचान पाएँगेमेरे माँ-बाप मुझे पहचान पाएँगेमेरा पति मुझे पहचान पाएगामैं इतना बदल गयी हूँ। एक ही डर था उसके मन में कि मुझे वे पहचान नहीं सकेंगे। मैंने उससे पूछाः यह तुझे खयाल कब आयाउसने कहा : जब तक जाने का खयाल नहीं थाखयाल ही नहीं आया था। यहाँ सब चुपचाप हो रहा थाइतना हो रहा था कि किस-किस बात का हिसाब रखो! लेकिन अब जबसे जाने का सवाल उठा है कि जाना हैमाँ बीमार हैउसे देखने जाना हैतबसे एक चिंता मन में सवार हुई है--वे मुझे पहचान पाएँगेवे मुझे स्वीकार कर पाएँगेमैं बदल गयी हूँ। मेरे पति निश्चित ही उसी स्त्री को नहीं पाएँगे जो साल-भर पहले उन्हें छोड़कर आयी थी।
चुपचाप घटनाएँ घट जाती हैं। असली घटनाएँ चुपचाप ही घटती हैं। बड़ी घटनाएँ चुपचाप ही घटती हैं। ये तो छोटी-छोटी घटनाएँ हैंजिनका शोरगुल मचता है। फूल चुपचाप खिल जाते हैंचाँदत्तारे चुपचाप पैदा हो जाते हैं।

सहज सजीवन कर लिया साँचे संगि लाया।।
तभी पता चलता है शिष्य को जब सत्य का संग-साथ हो जाता हैतब उसे याद आती है कि अरेक्या हो गया! मैं कहाँ-से-कहाँ आ गया! मैं कौन था और कौन हो गया! हो जाती है घटनातभी पता चलता है। मगर यह संभव तभी है जब कोई सरलता से गुरु के हाथ में अपना हाथ दे पाए। खींचातानी न करे। प्रतिरोध न करे। अड़चन-रुकावट न डाले। अवरोध न खड़ा करे।

सहज सजीवन कर लियासाँचे संगि लाया।।

जनम सफल तब का भयाचरनौ चित लाया।
रज्जब कहते हैंअब समझ में आ रहा है कि सफल उसी दिन हो गया था मैंजिस दिन इन चरणों में चित्त लग गया था। वह जो घोड़े पर सवार थे और बारात जाती थी और दादू ने बीच में रोक लिया था और कहा था--

रज्जब तैं गज्जब कियासिर से बाँधा मौर।

आया था हरिभजन कोचला नरक की ठौर।।
एक क्षण में सब हो गया था। रज्जब कूद पड़ा था घोड़े से। बारात ठिठकी रह गयी थी। किसी की समझ में न आया था क्या हो रहा है। उसने चरण पकड़ लिए थे दादू के। क्रांति उसी दिन हो गयी थीपहचान आने में शायद वर्षों लग जाएँ।
"जनम सफल तब का भया'...उसी दिन हो गया थामैं तो अब पहचान पाया..."चरनौ चित लाया।जिस क्षण गुरु के चरणों में चित्त लगा थाउसी दिन क्रांति हो गयी थी।
क्रांति की भी खबर मिलते-मिलते मिलती है। तुम ऐसे बेहोश हो कि तुम्हारे भीतर ही फूल खिल जाते हैं और तुम्हें पता नहीं चलता और तुम्हारे भीतर ही क्रांतियां हो जाती है और तुम्हें पता नहीं चलता। समय लग जाता है। तुम्हारे अचेतन तल में और तुम्हारे चेतन तल में बड़ा फासला है--जमीन और आसमान का। घटना तो भीतर घटती है तुम्हारे केंद्र परपरिधि को खबर लगते-लगते समय स्वभावतः लग जाता है। बहुत समय लग जाता है कभी। कभी-कभी वर्षों लग जाते हैं। गुरु न हो तो शायद तुम चेतो ही न।
ज़रा सोचोयह दादू दयाल न आए होते इस घोड़े पर चढ़े हुए रज्जब को उतारनेथोड़ी ही देर की बात थीयह संसार में उतरा जा रहा था। एक लंबी यात्रा शुरु होतीजिसका कोई अंत अपने हाथ में नहीं है। यह कहाँ जाकर समाप्त होतीयह भी कहना मुश्किल है। कहाँ अंत होता इसकायह भी कहना मुश्किल है। लेकिन गुरु ने ठीक उस समय रोक लियाद्वार पर ही रोक लिया संसार के। यह भवजाल में पड़ने ही जा रहा था और रोक लिया। मगर यह मत सोचना कि सिर्फ गुरु का ही हाथ है इस रोक लेने में। रज्जब की भी बड़ी कला है। रज्जब भी बड़े हिम्मत का आदमी है। इतना आसान तो नहीं!
मेरे पास लोग आते हैं। किसी की उम्र सत्तर साल हैवह अभी भी कहता है कि अभी कैसे संन्यास लूँ! अभी बच्चों की शादी होनी है। बस एक लड़का और बचा हैइसकी शादी कर दूँइसको काम-धाम से लगा दूँफिर कोई चिंता नहीं हैफिर संन्यास ले लूँगा। जैसे मौत तुम्हारी प्रतीक्षा करेगी! और मौत तुमसे यह नहीं पूछेगी कि सब लड़कों की शादी हो गयी कि नहीं।
हिम्मत का आदमी रहा होगा रज्जब! अभी इसकी उम्र ही क्या रही होगीयही कोई अठारह-बीस साल की उम्र रही होगी। मगर अक्सर ऐसा हो जाता है कि जवान जो हिम्मत कर लेते हैंबूढ़े नहीं कर पाते। नियम तो यही है कि बूढ़े होते-होते सभी को संन्यस्त हो जाना चाहिए। लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि दुनिया में जो बड़े संन्यासी पैदा हुए हैंवे सब जवानी में संन्यासी हुए। क्योंक्योंकि बुढ़ापे में अक्सर तो ऊर्जा ही नहीं रह जाती।
कल मैं एक कहानी पढ़ रहा था एक आदमी की। वह मरणशय्या पर पड़ा है। गीता सुनायी जा रही है। वह बेहोश है और बीच-बीच में सिर हिलाता हैहाथ ऊपर उठाता है। पास में पड़ोस की स्त्रियाँ बैठी हैं। कोई कहती है कि देखोकाका हाथ ऊपर उठा रहे हैंशायद भगवान की तरफ उठा रहे हैं। आखिर एक आदमी बैठा थोड़ी देर से देख रहा थाउसने कहा--बकवास बंद करो! मैं जानता हूँ काका को। उसने खीसे से बीड़ी निकाली और काका के मुँह में लगा दी और काका मरते वक्त बीड़ी पीने लगे। इधर गीता चल रही है! और दोत्तीन उन्होंने कश लिएधुऑं मुँह से निकलाफिर शांति से मर गए। जिंदगी-भर जो लत रही . . . ! उस आदमी ने कहा कि बकवास बंद करोयह भगवान वगैरह की तरफ हाथ नहीं उठा रहेइनको बीड़ी चाहिए। मुझे भली-भाँति मालूम हैबिना बीड़ी पिए नहीं मरेंगे। और जब उन्होंने दोत्तीन कश लगा लिए. . . वह उनका राम-नाम हुआहरिभजन हो गया!. . . तब वे शांति से मरे।
मरते वक्त तक भी तुम हरि को याद थोड़े ही कर पाओगे। याद भी आएगी तो बीड़ी की याद आएगीकि कोई ले आता इस वक्तकि होता कोई प्रभु का प्यारा और ले आता इस वक्त! अब अपने से तो जाते बनता नहींबोल भी खो गया हैबोल भी नहीं सकते हैं और गीता चल रही हैः "सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।गीता चल रही है! और स्वभावतः गीता चल रही हैपड़ोस की स्त्रियाँ--धार्मिक स्त्रियाँ ऐसी जगह इकट्ठी हो जाती हैं--और काका हाथ उठा रहे हैं! सोचा होगा कि काका भी आखिरी अवस्था में सिद्धावस्था को पहुँच गए हैं। काका वहीं हैं जहाँ सदा थे। गीता वगैरह नहीं सुनी जा रही है। उनको तलफ लगी है।
आदमी बदल जाए जवानी मेंजब ऊर्जा होजब शक्ति होजब प्राण होंतो आसानी होती है। क्योंकि बदलाहट के लिए भी तो ऊर्जा की जरूरत होती है। जितनी जल्दी बदल जाओ उतना अच्छा।
रज्जब को ठीक समय पर पकड़ लिया होगा। लोग तो नाराज हुए होंगे। लोगों ने तो कहा होगा यह कोई भली बात हैयह अपशकुन कर दिया। बारात जा रही थीयह कोई समय था ज्ञान की चर्चा छेड़ने काहरिचर्चा छेड़ने का यह कोई समय थादादू पर नाराज हुए होंगे। दादू को क्षमा नहीं कर पाए होंगे। आदमी मरते वक्त संन्यास लेता है।
एक बूढ़ा आदमी मेरे पास आया। उसके लड़के ने संन्यास ले लिया है। लड़के की उम्र होगी कोई तीस साल। बाप बहुत नाराज था। पंडित है--पढ़ा-लिखा--ज्ञानी है। आकर उसने शास्त्रों की चर्चा छेड़ दीऔर उसने कहाआपको मालूम है कि संन्यास तो चौथी अवस्था है--ब्रह्मचर्यफिर गृहस्थफिर वानप्रस्थफिर संन्यास। और आपने इस मेरे लड़के को संन्यास कैसे दे दियायह किस शास्त्र में लिखा हैयह तो आखिरी अवस्था में लेने का है। यह तो जब आदमी बूढ़ा हो जाता है तब लेने का है।
मैंने कहाः ठीकमैं आपसे राजी हो गया। आप संन्यास लेने को राजी हों तो मैं इसका संन्यास वापस लेता हूँ। सत्तर-पचहत्तर साल का आदमीजब वह यह भी न कह सके कि मेरा समय नहीं आया है। मैंने कहा कि पचहत्तर साल तो बस खत्म--वह भी सौ साल उम्र मानेंतो। पचहत्तर साल पर वानप्रस्थ खत्म हो गयाअब संन्यास का वक्त आ गया। सौ साल जीता कौन हैसत्तर साल औसत उम्र है। उस हिसाब से तो आपको कभी का संन्यासी हो जाना चाहिए था। मैंने कहा : आप ले लो संन्यास। आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैंशास्त्र की बात कह रहे हैं। मैं शास्त्र के बिल्कुल विपरीत नहीं हूँपक्ष में हूँ।
वे बहुत घबड़ाए। उन्होंने कहा मैं फिर आकर आपसे बात करूँगा। मैंने कहाः आप जाते कहाँ हैंलौटेंन लौटें! फिर इस लड़के का भी संन्यास तो वापिस लेना है। जब आप लौटोगेतभी इसका वापिस लूँगा।
फिर वे नहीं आए। फिर भाड़ में जाए लड़का! फिर उन्होंने चिंता नहीं की। काका फिर नहीं आए! कौन झंझट में पड़े इस! अब शास्त्र के अनुकूल तो यही है। वे सोच रहे थे शास्त्र के अनुकूल बच्चे को बचा लेंगेउन्होंने यह नहीं सोचा था खुद फँस जाएँगे।
जिंदगी जब प्रवाह में होती हैजब उभार में होती हैजब लोहा गर्म होता हैतब चोट हो जाए तो बड़े काम की होती है।

जनम सफल तब का भयाचरनौं चित लाया।

रज्जब राम दया करीदादू गुर पाया।।
कहते हैं: राम की कृपा हो गयी मुझ पर। भक्तों का सदा का यह अनुभव रहा है कि उसकी बिना कृपा के हम उसको खोजेंगे भी नहीं। उसकी बिना कृपा के हम उसकी तरफ जाएँगे भी नहीं। वही चाहेगा तो ही हम उसे खोजेंगे।
मिस्र के पुराने शास्त्र कहते हैं कि जब तुम परमात्मा की खोज पर निकलते हो तो एक बात पक्की समझ लेना कि उसने तुम्हें पुकारा हैअन्यथा तुम अपने से थोड़े ही खोज पर निकल सकते थे। उसने तुम्हारी याद की है। तुम उसे याद आ गए होइसलिए खोज शुरू हुई है।
"रज्जब राम दया करी'। राम ने दया की। और जब भी राम दया करता है तो सीधा नहीं कर सकता। क्योंकि सीधा तो राम तुम्हारी समझ में न आएगा। सीधा तो तुमसे कोई सेतु नहीं बनेगा। सीधे-सीधे तो राम इतना बेबूझ होगा तुम्हें कि सामने भी खड़ा रहे तो तुम देख न पाओगेपहचान न पाओगे। बोले तो समझ न पाओगे।

रज्जब राम दया करीदादू गुर पाया।।
उसकी कृपा का परिणाम यह था कि दादू जैसा गुरु मिला। यह उसकी कृपा है कि दादू जैसा गुरु मिला। दादू जैसा गुरु मिल जाए तो राम के मिलने में देर कितनीमिल ही गया! समझो कि मिल ही गया। गुरु के चरणों पर हाथ पड़ गए तो उसीके छिपे चरणों पर हाथ पड़ गए। गुरु वही है जिसमें तुम्हें भगवान की पहली किरण उतरती अनुभव में आने लगे। गुरु वही है तुम्हारे लिएजो तुम्हारे लिए परमात्मा का प्रतिबिंब बन जाएजिसमें परमात्मा की छाया तुम्हारे लिए उतरने लगेजिसके माध्यम से परमात्मा तुम्हारे लिए ग्राह्य हो जाए।

राम रंगीले के रंग राती।
और जब यह हुआजब यह घटना घटीतो एक नयी दुनिया शुरू होती है--मस्ती कीनृत्य कीउत्सव की। "राम रंगीले के रंग राती।रज्जब कहते हैं: उस राम रंगीले के रंग में रंग गयी हूँ। जैसे ही भक्त परमात्मा में रँगता हैउसकी भाषा हमेशा स्त्री की हो जाती हैयह खयाल रखना। वहाँ कहाँ दूसरा पुरुषबस एक ही पुरुष है। वहाँ तो सभी स्त्री हो जाते हैं। स्त्री का मतलबवहाँ तो सभी निष्क्रियग्राहकअनाक्रामकस्वागत के द्वार हो जाते हैं। बंदनवार हो जाते हैं।
"राम रंगीले के रंग राती।राम सच में ही रंगीला है। और जिन्होंने राम की तस्वीरें ऐसी बनायी हैंजिनमें रंग नहीं हैंवे तस्वीरें झूठी हैं। क्योंकि सारे जगत के रंग उसके रंग हैं। सारे रंग उसके रंग हैं। सब रंग हैं। इंद्रधनुष के सारे रंग उसके रंग हैं। फूलों केवृक्षों केपक्षियों के सारे रंग उसके रंग हैं। तितलियों के सारे रंग उसके रंग हैं। इस जगत में जितनी भाव-भंगिमाएँ हैंसब उसकी भाव-भंगिमाएँ हैं।
"राम रंगीले के रंग राती।और जो उसमें रंग जाएउसके सारे रंगों में डूब जाएउसका जीवन उदासी का होगा तुम सोचते हो? अगर उसका जीवन उदासी का होगा तो फिर आनंद काउत्सव का जीवन किसका होगासंसार में उदास रहोसंसार उदासी हैपरमात्मा में उत्सव है।
मगर बड़ी उल्टी बातें हो रही हैं दुनिया में। यहाँ सांसारिक तो थोड़े-बहुत प्रसन्न भी दिखायी पड़ते हैंआध्यात्मिक तो बिल्कुल ऐसे बैठ जाते हैंमुर्दा होकर! इसका मतलब क्या हैइसका मतलब साफ हैगणित सीधा है। ये जो तुम्हारे तथाकथित आध्यात्मिक लोग उदास होकर बैठे हैंये आध्यात्मिक नहीं हैं। नहीं तो ये कहते**ऱ्**: राम रंगीले के रंग राती! ये आध्यात्मिक नहीं हैंये सांसारिक ही हैं। संसार में थोड़ी-बहुत हँसीथोड़ी-बहुत गूँजथोड़ा-बहुत रसइनको थावह भी गया।
संसार में लोग थोड़े हँसते भी हैंचलो झूठी ही सहीहँसी तो है! थोड़े नाचते भी हैंव्यर्थ ही सहीमगर नाच तो है! थोड़ा रस भी संसार में बहता दिखायी पड़ता हैउथला ही सहीमगर रस तो है! यह थोड़ा उत्सव भी दिखायी पड़ता है संसार में। फिर तुम्हारे आध्यात्मिक साधु-संत हैंवे बिल्कुल ऐसे बैठे हैं मुर्दे की भाँति! यह इस बात की खबर दे रहे हैं वे कि संसार में ही उनका रस हैऔर संसार हाथ से गयाअब दूसरा उन्हें कोई रस है नहींअब क्या करेंउदास न हों तो और क्या करेंअब बस मरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
असली आध्यात्मिक व्यक्ति का लक्षण ही यही होगा कि उसके पास तुम सब रंगों कीसब ध्वनियों की बहार पाओगे। उसके पास तुम्हें उत्सव-ही-उत्सव मालूम होगा। वहाँ अगर नाच न होगातो फिर नाच और कहीं भी नहीं हो सकता। मंदिर उजड़ गएमस्जिदें खाली पड़ी हैंचर्च बेरौनक हैंक्योंकि वहाँ रंग नहीं हैरूप नहीं है। वहाँ परमात्मा के सौंदर्य की आयोजना नहीं है। वहाँ परमात्मा के आनंदरूप का अवतरण नहीं है। वहाँ संसार से जबरदस्ती अपने को छुड़ाकरकिसी भाँति संसार से भाग गए लोग बैठ गए हैं! नाराजक्रुद्धपरेशानपीड़ितउदास!

"राम रंगीले के रंग राती।'
"परम पुरुष संगि प्राण हमारो'। यह होगा ही। यह रंगमय तो जीवन हो ही जाएगा। मधुमय तो जीवन हो ही जाएगा। "परम पुरुष संगि प्राण हमारो'। जब परम पुरुष के साथ होओगे तो रास न रचाओगेजब उसकी बाँसुरी बजेगी तो तुम नाचोगे नहींऔर जब वह मोर-मुकुट बाँधकर तुम्हारे बीच खड़ा हो जाएगातो तुम साधु-महात्मा बने खड़े रहोगे?
ज़रा सोचोकृष्ण बाँसुरी बजा रहे हैंमोर-मुकुट बाँधे और सब महात्मा इत्यादि--अखंडानंदपाखंडानंद--सब खड़े हैं! वे सब अपनी मालाएँ फेर रहे हैं। वे कह रहे हैं--हरे रामहरे राम! नहींकृष्ण के पास नृत्य चाहिए।
यह आकस्मिक नहीं है कि हिंदुओं ने कृष्ण को पूर्णावतार कहा है। राम थोड़े कम पड़ जाते लगते हैं। इतना उत्सव नहीं है। कृष्ण के पास उत्सव पूर्ण है। बहुविध प्रगट हुआ है। सब रंगों में प्रगट हुआ है। कोई निषेध नहीं है। कृष्ण के पास जैसा रास रचा हैवही खबर दे रहा है पूरे विराट की। ऐसा ही रास चल रहा है चाँदत्तारों कासूरज-पृथ्वियों का। यह विराट उत्सव चल रहा है जो प्रकाश काइसके बीच में कहीं कोई कृष्ण जरूर है। इसके बीच में कोई बाँसुरी जरूर बज रही है। उसी बाँसुरी की धुनें पक्षियों के कंठ में आ गयी हैं। उसीकी बाँसुरी के रंग फूलों में आ गए हैं। उसी बाँसुरी की तरंग तितलियों में आ गयी है। कहीं इस विराट के केंद्र पर कोई बाँसुरी निश्चित बज रही है।
हिंदू ठीक ही कहते हैं कि कृष्ण पूर्णावतार हैं। उन्होंने हिम्मत से यह बात कही। राम का बड़ा समादर हैलेकिन उनको अंशावतार ही कहा। कुछ कमी रह गयी है। कुछ थोड़ी-सी मर्यादा है। उत्सव में मर्यादा नहीं होती। उत्सव में मर्यादा हो तो उत्सव मर जाता है। उत्सव तो अमर्याद होना चाहिए।

राम रंगीले के रंग राती।

परम पुरुष संगि प्राण हमारेमगन गलित मद-माती।।
सब डूब गया! पूर्ण मग्नता पैदा हुई है। मदमस्त।. . .मगन गलित मद-माती

लाग्यो नेह नाम निर्मल सूँगिनत न सीली ताती
अब न तो सर्दी की कोई फिकर हैन गर्मी की कोई फिकर है। न सफलतान असफलता। न सुखन दःुख। अब उस परम प्यारे के साथ नाच चल रहा है। अब कैसी फिकरअब सब उसके हाथ में है। अब कैसी फिकरअब कैसी चिंता?
लाग्यो नेह नाम निर्मल सूँगिनत न सीली ताती

डगमग नहीं अडिग होई बैठीसिर धरि करवत काती।।
करना क्या पड़ा है इस उत्सव के लिएसिर्फ अपने सिर को काट देना पड़ा है। सिर को काटकर रख दिया है चरणों मेंफिर नाच शुरू हो गया हैजिसका कोई अंत नहीं। और उस एक ही नाम से प्रेम लग गया है।
अहंकार के कारण ही तुम रुके हो। तुम्हारा सिर भारी है। तुम्हारा सिर सब कुछ हो गया है। तुम सोच-विचारकर चल रहे हो। तुम गणित बिठा रहे हो। तुम चालाक होचालबाज होचतुर हो। तुम्हारे जीवन में सरलता नहीं हैहृदय का भाव नहीं है। तो तुम में "भजन-भाव भरिया', कैसे घटे यह घटना! हृदय ही सूख गया है।

लाग्यो नेह नाम निर्मल सूँगिनत न सीली ताती

डगमग नहीं. . .
सिर कट गयाफिर कैसा डगमग होनायह सिर ही डगमगाता है। यह खोपड़ी ही है जो संदेहों से भरती है। यह खोपड़ी ही है जो चंचल होती है। यह अहंकार ही है जो यहाँ से वहाँ ले जाता हैकहता है--यह कर लोवह कर लोवैसे हो जाओवैसे हो जाओ।
"डगमग नहीं अडिग होई बैठी।सिर कट जाए तो फिर तो अडिग हो ही गएफिर तो सब ठहर गया। मन ठहरा कि सब ठहरा। विचार ठहरे कि सब ठहरा। बस एक काम करोः अगर कहीं राम की तुम पर कृपा हो गयी होराम की कृपा हो रही हो और गुरु के चरण मिल जाएँतो सिर को काटने में देर मत करना। तत्क्षण सिर काटकर चढ़ा देना। तुम गँवाओगे कुछ भी नहींक्योंकि तुम्हारे सिर में सिवाय भूसे के और कुछ भी नहीं है। गँवाना क्या हैभूसे के अतिरिक्त कुछ और तुमने सिर में पाया हैबेचने जाओगे तो भूसे के भी दाम नहीं मिलेंगे।
मैंने सुना हैऐसा हुआ। एक सम्राट किसी भी फकीर के चरणों में झुक जाता था। उसके वजीरों को अच्छा नहीं लगता था। और उसके वजीरों ने कहायह भला नहीं हैयह ठीक नहीं है। यह शोभा नहीं देता। आप इतने बड़े सम्राट हैं। ऐरे-गैरेकोई भी फकीर चले आते हैंभीख माँगनेवाले फकीरआप उनके चरण छूते हैंआप सिर झुकाते हैं उनके चरणों मेंयह सिर बड़े सम्राट नहीं झुकवा सकतेयह सिर कभी नहीं झुका--विजेता सम्राट था--इस सिर पर बहुमूल्य हीरे-जवाहरातों के मुकुट होते हैं। इसको आप झुकाते हैं फकीरों के चरणों मेंगंदे फकीरनंगे फकीर! उस सम्राट ने कहासमय आने पर जवाब दूँगा। एक दिन एक आदमी को फाँसी लगी। बड़ा सुंदर आदमी थाबड़ा प्यारा आदमी था। कुछ भूल-चूक की थीसम्राट से कुछ धोखाधड़ी की थीफाँसी लग गयी। लेकिन चेहरा उसका बड़ा सुंदर थारूपवान था। उसकी गर्दन कटवायी सम्राट ने और अपने वजीरों को कहा कि इसको जाकर बाजार में बेच आओ। सम्राट ने कहा था तो वजीरों को जाना पड़ा। जहाँ गए वहीं लोगों ने कहाहटो-हटोभागो यहाँ से! यह क्या ले आए हो तुमइसका हम क्या करेंगेऔर बदबू भी आ रही हैतुम यहाँ से जाओ! तुम होश में होकौन खरीदेगा इसको?
जहाँ गए वहीं से भगाए गए। साँझ होते ही वे वापिस लौटे। उन्होंने कहायह तो बड़ा मुश्किल मामला हैदो पैसे में भी कोई लेने को तैयार नहीं है। पैसे की बात ही अलगलोग खड़े नहीं होने देते। वे कहते हैंअपना रास्ता पकड़ो! बात ही नहीं करतेखरीदने का तो सवाल ही नहींलोग हँसते हैं। वे कहते हैंपागल हो गए होआदमी के सिर का हम करेंगे क्या?
सम्राट ने कहातुम सोचते होकल जब मैं मर जाऊँगातुम मेरे सिर को बेच पाओगेदो पैसे में कोई खरीदेगा नहीं। भूसे के सिवाय इसमें कुछ है भी नहीं। भूसा भी बिक जाएगा।
एक और ऐसी कहानी है।
एक सूफी फकीर को कुछ डाकुओं ने पकड़ लिया। मस्त फकीर था! अलमस्त फकीर था! और उन्होंने सोचा कि बेच देंगे इसे गुलामों के बाजार मेंअच्छे दाम लग जाएँगे हाथ। उसे लेकर चले। राह वह में एक सम्राट की सवारी गुजरती थीसम्राट रुकाउसने कहा कि यह आदमी कहाँ ले जा रहे होउन्होंने कहाहम बेचने जा रहे हैंआपको खरीदना हैगुलाम हैखरीद लें।
उसने कहादस हजार रुपए में खरीद लेता हूँ। लेकिन उस फकीर ने उन डाकुओं को कहा कि इतने सस्ते में बेच मत देना। ठहरो ज़रातुम्हें मेरे मूल्य का पता नहीं।
आदमी बुद्धिमान मालूम होता था। थोड़ी देर साथ उसके रहे भी थेउसकी मस्ती भी देखी थी। हो सकता है ठीक हो। तो उन्होंने कहानहींइतने में नहीं बेचेंगे। तो सम्राट ने कहाबीस हजार देता हूँ। उस फकीर ने कहातुम ज़रा धीरज रखो। अब तो उसकी बात पर भरोसा भी आ गया। दस से बीस हो गए। उन्होंने मना कर दिया बेचने से।
आगे फिर एक धनी की सवारी मिली। उस धनी ने कहापचास हजार रुपए देता हूँ इस आदमी के। उस फकीर ने कहातुम बेच मत देना जल्दी में--वे तो बिल्कुल आतुर हो रहे थे। पचास हजार! जब ठीक कोई मूल्य बताएगा तो मैं तुम्हें खुद कह दूँगा कि बेच दो।
फिर कोई और मिल गया खरीदनेवाला जो लाख रुपए देने को तैयार थालेकिन फकीर ने कहाज़रा सावधान! अब तो वे ज़रा गुलाम बेचनेवाले भी चिंतित हो गए कि इससे ज्यादा दाम मिल नहीं सकते। हमने बड़े-बड़े गुलाम बिकते देखे हैंमगर एक लाख रुपया! यह जरूरत से ज्यादा हो गया! बेचने को ही थे और उस फकीर ने कहातुम्हारी मर्जीफिर पछताओगेजिंदगी-भर पछताओगे! तुम्हें मेरे दाम का पता नहीं हैमुझे पता है। तुम ज़रा ठहरो!
थोड़ी दूर चलने पर एक घसियारा मिला। वह एक घास की पोटली लिए सिर पर जा रहा था। और उस फकीर ने कहाइससे पूछो कितने दाम देगाउन्होंने कहायह क्या दाम देगाउसने कहा तुम पूछो तो। फकीर को देखा उस घसियारे नेनीचे से ऊपर तकउसने कहा--भई ज्यादा तो मेरे पास नहीं हैमगर यह घास की पोटली दे सकता हूँ। फकीर ने कहाबेच दो! ठीक दाम मिल रहे हैंअब चूको मत।
सिर ठोंक लिया होगा उन डाकुओं ने कि किस पागल के चक्कर में पड़ गए।
मगर फकीर ठीक कह रहा है। इतना ही दाम है! ठीक दाम तो इतना ही है। लेकिन इस सिर को हम बचाए फिरते हैं। इस सिर को हम अकड़ाए फिरते हैं। मजा यह है कि यह सिर अकड़ा रहे तो दो कौड़ी इसके दाम नहीं हैं और यह सिर झुक जाए तो इसकी कीमत का क्या हिसाब! मगर यह बड़ा मजा हैयह झुके तो इसमें कीमत आती है। झुकने से कीमत आती है। झुकने से यह हीरों से तुलने-योग्य हो जाता है।

जनम सफल तब का भयाचरनौं चित लामा।
रज्जब राम दया करीदादू गुर पाया।।
डगमग नहीं अडिग होई बैठीसिर धरि करवत काती।।
एक बड़े आरे से लेकर सिर को काट डाला हैतब से सब डाँवाँडोलपन चला गयासब थिर हो गया। प्रज्ञा ठहर गयी।
और जहाँ विचार ठहर जाते हैंवहीं तो परमात्मा का आगमन है। तुम्हारे विचारों की तरंगों के कारण ही तुम चूक रहे हो। देख नहीं पातेसुन नहीं पातेअनुभव नहीं कर पाते। परमात्मा तो सदा मौजूद हैतुम्हारी तरंगें सब विकृत कर देती हैं। ऐसा ही है जैसे चाँद तो निकला होलेकिन झील पर बहुत लहरें हों तो छाया चाँद की नहीं बनती। बने तो भी बिखर जाती हैं। झील भर पर चाँदी बिखर जाती हैमगर चाँद नहीं दिखायी पड़ता। फिर कभी झील पर हवा नहीं हैहवा के झोंके नहीं हैंतरंगें नहीं हैं और चाँद निकला--चाँद पूरा झलकता है। ऐसे ही परमात्मा तुम में झलकेतुम ठहरो ज़रा! लेकिन तुम पड़े हो विवाद मेंसंदेहों मेंविचारों में--जिनका कोई मूल्य भी नहीं हैजिनको पकड़-पकड़कर तुम कुछ पाओगे भी नहीं। लेकिन बड़ी जिद्द से पकड़ा है। छोड़ने को राजी नहीं हैं। बीमारियों को पकड़े बैठे हो और छोड़ने को राजी नहीं हैं!

डगमग नहीं अडिग होई बैठीसिर धरि करवत काती।।

सब विधि सुखी राम ज्यूँ राखै. . .
और जब से यह सिर काटा हैतब से एक मजे की बात घट रही हैः सब विधि सुखी राम ज्यूँ राखै. . . । अब जैसा राम रखते हैंहर हाल में सुख-ही-सुख है। संतोष से दोस्ती हो गयी है।

सब विधि सुखी राम ज्यूँ राखैयहु रसरीति सुहाती।
यही प्रेम की पुरानी रीति है। "यहु रसरीति सुहाती'. . . । भक्त को यही सुहाती है--एक बातकि जैसे राम रखेंवैसे रहूँगा। "जैसेका खयाल रखना। उसमें तुम्हारी शर्त नहीं आनी चाहिए। सुख तो सुखदुःख तो दुःख। दिन तो दिनरात तो रात। सब उसकी हैं--रात भी उसकीऔर दुःख भी उसकाफूल भी उसके और काँटे भी उसके।

सब विधि सुखी राम ज्यूँ राखैयहु रसरीति सुहाती।
जन रज्जब धन ध्यान तिहारो. . .
धनी हो जाता है आदमीध्यानी हो जाता है आदमी--जब सिर झुका देता हैविचारों की आहुति चढ़ा देता हैमेरे का जो भाव हैउसे गिरा देता है।
"जन रज्जब धन ध्यान तिहारोफिर तो बस उसकी याद ही रह जाती है। वही एकमात्र भीतर की आवाज रह जाती है।

जन रज्जब धन ध्यान तिहारोबेरबेर बलि जाती।।
और फिर तो बार-बार बलि जाने का मजा आने लगता है। हर घड़ी बलि जाने का मजा आने लगता है। यही है पूजायही है प्रर्थानायही है अर्चना।
कहना मुश्किल है-- राम रंगीले के रंग राती--उस घड़ी में क्या घटता हैकहना मुश्किल है। कैसे सौंदर्य के बादल तुम्हारे ऊपर बरस जाते हैंकहना मुश्किल है। कैसे सूरजअनंत सूरज तुम्हारे अंधेरे को आलोकित कर देते हैंकहना मुश्किल है। कोई शब्द सार्थक नहीं हैं जो बता सकें। और कैसे अपूर्व सौंदर्य का अनुभव होता हैऔर कैसे सुख की धार भीतर बहने लगती हैकहना मुश्किल है!

जैसे शबनम से भरी कोंपल में
किसी तितली के परों का परतव
जैसे जंगल में किसी मोर का रक्स
जैसे झोंकों में किसी शमा की जौ
तेरे शानों पे मुअत्तर जुल्फें

जैसे बरसात की महकी रुत में
साँवला गीत किसी बादल का
जैसे गुलज़ार में भौंरों की उड़ान
जैसे मंदिर में धुऑं संदल का
यह जवां साल खदो-खाल तेरे

मुझसे तारीफ नहीं हो सकती
तेरी तुर्शी हुई रानाई की
जिसमें शामिल हो तवाजुन का शऊर

तू वह तस्वीर है चुगताई की
बन गया है मेरा सपना कल का
खुशनुमा रंग तेरे ऑंचल का
साधारण प्रेम की भी परिभाषा नहीं हो पातीतो प्रभु-प्रेम की तो कैसे हो! साधारण रूप भी शब्दों में नहीं बँधतातो उस निराकार का रूप तो कैसे बँधे!
यह तो किसी कवि के शब्द हैं--अपनी प्रेयसी के लिए कहे हैं। कहा है--

जैसे शबनम से भरी कोंपल में
जैसे कोंपल में ओस की बूँद भरी हो।
जैसे शबनम से भरी कोंपल में
किसी तितली के परों का परतव
और पास से कोई उड़ती तितली निकल जाए और तितली के रंगीन परों की छाया ओस की बूँद में पड़ जाए!

जैसे शबनम से भरी कोंपल में
किसी तितली के परों का परतव
जैसे जंगल में किसी मोर का रक्स
और जैसे एकांत जंगल में कोई मोर नाचे!

जैसे झोंकों में किसी शमा की लौ
और जैसे हवा के झोंके में शमा की लौ का नृत्य!

तेरे शानों पे मुअत्तर जुल्फें
ऐसे तेरे बाल तेरे माथे पर!
जैसे बरसात की महकी रुत में
साँवला गीत किसी बादल का
जैसे गुलज़ार में भौंरों की उड़ान
जैसे मंदिर में धुऑं संदल का
यह जवां साल खदो-खाल तेरे
यह तेरा रूपयह तेरा नक्श!
मुझसे तारीफ नहीं हो सकती
साधारण रूप की तारीफ भी नहीं हो पाती।

मुझसे तारीफ नहीं हो सकती
तेरी तुर्शी हुई रानाई की
तेरे रूप कीतेरे सौंदर्य की मैं प्रशंसा नहीं कर पाता!

जिसमें शामिल हो तवाजुन का शऊर
और फिर जिसमें संतुलन भी हो . . . सौंदर्य और संतुलन!

तू वह तस्वीर है चुगताई की
बड़े-बड़े चित्रकार भी तेरी तस्वीर न बना सकें।

बन गया है मेरा सपना कल का

खुशनुमा रंग तेरे ऑंचल का
इतना ही कह सकता हूँ कि मैंने जिंदगी-भरकल तक जो सपने देखे थेउन सब सपनों का रंग तेरे ऑंचल का रंग है। मगर कहना मुश्किल है!

मुझसे तारीफ नहीं हो सकती

तेरी तुर्शी हुई रानाई की
प्रभु के सौंदर्य का तो कैसे वर्णन होऔर प्रभु का संग-साथ मिल जाने पर जो मस्ती उतर आती हैजो शराब ढल जाती है प्राणों मेंउसकी तो कैसे अभिव्यक्ति होपर भक्त के जीवन को देखोगे तो अभिव्यक्ति मिलेगी-- उसके उठने मेंउसके बैठने मेंउसकी ऑंखों मेंउसके हाथों में। भक्त को देखोगे--उसकी भक्ति मेंउसकी पूजा मेंउसकी प्रार्थना मेंउसकी आरती में--भक्त को देखोगे तो थोड़ी-थोड़ी खबर मिलेगी। तारीफ तो नहीं हो सकतीवचनों में आबद्ध भी नहीं किया जा सकतारंगों में तस्वीर भी नहीं बनायी जा सकतीमगर भक्त के प्रसाद में थोड़ी-सी झलक मिल सकती है। वैसी ही झलक--

जैसे शबनम से भरी कोंपल में
किसी तितली के परों का परतव!
वैसी ही झलक--

जैसे जंगल में किसी मोर का रक्स
जैसे झोंकों में किसी शमअ की लौ

जैसे बरसात की महकी रुत में
साँवला गीत किसी बादल का
जैसे गुलज़ार में भौंरों की उड़ान
जैसे मंदिर में धुऑं संदल का
यह जवां साल खदो-खाल तेरे
परमात्मा बहुत निकट हैतुम नाहक उससे दूर बने हो! अपूर्व संपदा तुम पर बरसने को तत्पर हैझोली फैलाओ! मगर तुम अपनी झोली बंद किए बैठे हो। सब कुछ मिल सकता है--और तुम ना-कुछ की तलाश कर रहे हो! हीरों की खदान पास है--और तुम कचराघर में खोजबीन कर रहे हो!
सब बहुत निकट हैहाथ बढ़ाने की बात है--इतने निकट है! मगर तुम्हारे हाथ गलत दिशाओं में टटोल रहे हैं। तुम ऍ?धेरों में टटोल रहे हो। तुमने ऑंखें बंद कर रखी हैं। तुमने हृदय को जड़ कर रखा है। तुमने अपनी बुद्धि से ही सब कुछ जीने की व्यवस्था कर रखी है। यही तुम्हारे जीवन की दुर्घटना है। इस बुद्धि को चढ़ा दो। खोज लो कहीं कोई चरणकिसी भी बहाने इस बुद्धि को चढ़ा दो। यह बुद्धि चढ़ जाएतुम अचानक पा जाओ! रोशनी उतरे! रंग उतरे! गंध उतरे! और पहली बार तुम्हें जीवन का अर्थ मालूम हो।
जीवन बहुमूल्य हैइसे ऐसे ही मत गँवाओ। जीवन बहुत बड़ी भेंट है भगवान की! इसे ऐसे ही मत चला जाने दो। मगर अधिक लोग इसे ऐसे ही चला जाने देते हैं। रज्जब से कुछ सीखो!

गुरु गरवा दादू मिल्यादीरघ दिल दरिया।
तत छन परसन होत हीं भजन भाव भरिया।।
श्रवण कथा साँची सुणीसंगति सतगुरु की।
दूजा दिल आवै नहिंजब धारी धुर की।।
भरमजाल भव काटियासंका सब तोड़ी।
साँचा सगा जे राम कात्यों तासूँ जोड़ी।।
भौजल माहिं काढ़िकैजिन जीव जिलाया।
सहज सजीवन कर लिया साँचे संगि लाया।।
जनम सफल तब का भयाचरनौं चित लाया।
रज्जब राम दया करीदादू गुरु पाया।।

राम रंगीले के रंग राती।
परम पुरुष संगि प्राण हमारोमगन गलित मद-माती।।
लाग्यो नेह नाम निर्मल सूँगिनत न सीली ताती
डगमग नहीं अडिग होई बैठीसिर धरि करवत काती।।
सब विधि सुखी राम ज्यौं राखैयहु रसरीति सुहाती।
जन रज्जब धन ध्यान तिहारोबेरबेर बलि जाती।।
राम रंगीले के रंग राती।

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