Monday, February 10, 2020

ज्‍योति से ज्‍योति जले-(सूंदर दास)--प्रवचन-19

ज्‍योति से ज्‍योति जले-(सूंदर दास)--प्रवचन-19
ज्‍योत से ज्‍योत जले-(सूंदर दास)
प्रवचन-उन्‍नीसवां
सारसूत्र—(हमारे गुरु दीनी एक जरी)
 हमारैं गुरु दीनी एक जरीकहा कहौ कछ कहत न आवैअंमृतरसहि भरी।ताकौ मरम संतजन जानतवस्तु अमोल परी।।यातें मोहि पियारी लागतिलैकरि सीस धरी।मन-भुजंग अरन पंच नागनी सूंघत तुरंत मरी।।डायनि एक खात सब जग कौंसो भी देस डरी।।विविधि बिकार ताप तानि भागीदुरमति सकल हरी।ताकौ गुन सुनि मीच पलाईऔर कवन बपुरी।।निसबासर नाहिं ताहि बिसारतपल छिन आध घरी।सुंदरदास भयो घट निरविषसबही व्याधि टरी।।देखौ माईआज भलौ दिन लागत।

बरिषा रितु कौ आगम आयौबैठि मलारहिं रागत।।रामनाम के बादल उनएघोरि घोरि रस पागत।तन मन मांहिं भई शीतलतागए बिकार जु दागत।।जा कारनि हम फिरत बिवोगीनिशिदिन उठि-उठि जागत।सुंदरदास दयाल भए प्रभु सोइ दियौ जोइ मांगत।।

इस गुलशने-हस्ती में लगता नहीं दिल अपना।
आए हैं खुदा जाने हम किससे जुदा होकर।।
इस जिंदगी में किसका दिल कब लगा! थोड़ी देर लग भी जाए तो टिकता कहां! अभी लगा अभी उखड़ा।
यह जिंदगी असली जिंदगी नहीं है। धोखा कोई खाना चाहे खा लेपर कितनी देरदेर-अबेर जागरण होगा ही। रेत से कोई तेल ही निचोड़ेकब तक निचोड़ता रहेगारेत में तेल नहीं हैदेर-अबेर बोध आएगा ही।
यह जीवन असली जीवन नहीं है। असली जीवन प्रतीक्षा कर रहा है कि खोजो। इसीलिए यहां किसी का मन लगता नहीं। लाख लगाओ नहीं लगता। लाख उलझाओ भरमाओउखड़-उखड़ जाता है। ऐसा तुम्हें प्रतीत नहीं हुआकुछ-न-कुछ कमी मालूम पड़ती है। और ऐसा नहीं है कि जिनके पास कुछ नहीं है उन्हें कमी मालूम पड़ती है। जिनके पास सब कुछ हैउन्हें ज्यादा मालूम पड़ती है। जिस दिन सब मिल जाता है इस जगत् काउस दिन तो बहुत कमी मालूम पड़ती हैआशाएं भी टूट जाती हैं फिर।
धनी से ज्यादा दरिद्र नहीं होता। दरिद्र को तो थोड़ी धन की आशा होती हैधनी को वह आशा भी टूटी! दरिद्र तो सोचता हैः कल थोड़ा धन होगामकान होगाजमीन-जायदाद होगीसुख से रहेंगेसुख से जिएंगेजिंदगी मिल जाएगी। अमीर की यह आशा भी गयी। धन भी है और निर्धनता वैसी की वैसी अछूती खड़ी है। बाहर धन का ढेर लग जाता है तो भीतर की दीनता और भी प्रकट होती है। बाहर का धन भीतर की दरिद्रता को प्रकट करने के लिए पृष्ठभूमि बन जाता हैजैसे कोई काले तख्ते पर सफेद खड़िया से लिखे। काला तख्ता हो तो ही सफेद खड़िया की लिखावट दिखाई पड़ती है। सफेद तख्ते पर लिखोगे तो दिखाई नहीं पड़ती।
अमीर को दरिद्रता दिखाई पड़ती है। यह आकस्मिक नहीं है कि बुद्ध और महावीर राजपुत्र थे। यह आकस्मिक नहीं है कि हिंदुओं के सारे अवतार राजपुत्र थेजैनों के सारे तीर्थंकर राजपुत्र थे। इन्हें दरिद्रता दिखाई पड़ती होगी! खूब घनीभूत होकर दिखाई पड़ी होगी। संसार से आशा का दीया बिल्कुल बुझ गयाक्योंकि संसार जो दे सकता है। तब इनकी आंखें भीतर की तरफ मुड़ीं!
कमी तो सभी को लगती है--भिखारी से लेकर सम्राट् तक को। लेकिन भिखारी सोचता हैः धन नहीं है इसलिए कमी मालूम पड़ती हैपद नहीं है इसलिए कमी मालूम पड़ती है। होगा पदहोगा धनभरा-पूरा हो जाऊंगा।
इस संसार में कोई कभी भरा-पूरा नहीं होता। सिकंदर भी खाली हाथ जाते हैं यहां सब पा लो तो भी हाथ खाली के खाली रहते हैं।

इस गुलशने-हस्ती में लगता नहीं दिल अपना।

आए हैं खुदा जाने हम किससे जुदा होकर।।
कहीं किसी गहरे में हमें अब भी याद है उस मूलस्रोत कीजहां से हमारा आना हुआ है। भूल गए हैं बहुतविस्मृति गहन हो गयी हैपर्त-पर-पर्त जन्मों-जन्मों के अनुभव की जम गयी हैलेकिन फिर भी कोई भनक कहीं सुनायी पड़ती हैः यह हमारा घर नहीं है। दबा देते हैं इस आवाज कोक्योंकि और भी तो कहीं कोई घर दिखाई पड़ता नहीं। और इस आवाज की सुनो तो पागल हो जाओ। यह आवाज सुनो तो फिर यहां जियो कैसे?
धर्म की आवाज सभी के भीतर उठती हैलोग उसकी गर्दन दबोच देते हैं। ऐसा आदमी तो खोजना कठिन है इस पृथ्वी परजिसे कभी-न-कभी इस बात की समझ न आती हो कि यहां हम परदेशी हैं। हमारा देश कहीं और। हमारा निज-देश कहीं और। इतना जो दुःख हमें अनुभव होता है वह भी इसीलिए कि हमने आनंद जाना है। जरूर जाना है! बिना आनंद को जाने दुःख की प्रतीति नहीं हो सकती। बिना आनंद को जाने आनंदकी खोज भी नहीं हो सकती है।
और यहां प्रत्येक व्यक्ति आनंद को तलाश रहा है। गलत रास्तों पर तलाशता हो कि सही रास्तों परठीक दिशाओं में तलाशता हो कि गलत दिशाओं मेंपर हर व्यक्ति यहां आनंद को तलाश रहा है। तलाश तो उसी की होती हैजो खोया हो। जरूर हमारे पास था और छिटक गया है। हाथ में था और खो गया है। हमने किन्हीं क्षणों में जाना है। बहुत अंतराल हो गया होगा समय कासदियां बीत गयी होंगीहम न मालूम कितने रूपों में भटक गए होंगेहमें अपना मूल-स्वरूप खो ही गया है।
जैसे कोई आदमी एक नाटक में अभिनय करेफिर दूसरे नाटक मेंफिर तीसरे नाटक में और नाटक में अभिनय करता रहे--और एक दिन अचानक याद आए कि मैं कौन हूं! इतने नाटकों में काम कर चुका हूंइतने रूप धर चुका हूंइतने वेश पहन चुका हूं कि अब याद भी नहीं आती कि मेरा असली चेहरा क्या हैमेरा मूल-स्वरूप क्या है?
नाटक करते-करते आदमी भी नाटक हो जाता है। अभिनय करते-करते आदमी भी अभिनय हो जाता है। धोखा देते-देते हम धोखा हो जाते हैं। झूठ बोलते-बोलते हम झूठ हो जाते हैं। और झूठ ही हमने बोली है। धोखा ही हमने दिया है। मुखौटे ही हमने पहने हैं। अब हमें अपनी असली शकल पहचान में नहीं आतीयाद भी नहीं आती। मगर फिर भी कहीं कोई आवाज अब भी झरती है और कहीं कोई झरना अब भी बहता है।
कभी भी जब तुम शांत होकर बैठ जाओगेतब तुम्हें यह पृथ्वी असली घर मालूम नहीं होगी। इसलिए लोग शांत बैठने में भी डरते हैंखाली होने में भी डरते हैं। उलझाए रखते हैं अपने को। व्यस्त रखते हैं। काम का काम न हो तो बेकाम का काम ले लेते हैं। छुट्टी का दिन होजिसके लिए छः दिन प्रतीक्षा की थी कि आए छुट्टी का दिन तो आराम कर लेंगेतो कार खोलकर बैठ जाते हैंघड़ी खोलकर बैठ जाते हैं कि इसको ही सुधार लें! कुछ-न-कुछ व्यस्तता निकाल लेते हैं।
आदमी अपने को खाली नहीं छोड़ताक्योंकि खाली छूटा आदमी कि भीतर की आवाज सुनाई पड़नी शुरू होती है कि तुम कर क्या रहे हो! यहां तुम कह क्या रहे होतुम्हें अभी यह भी पता नहीं है कि मैं कौन हूं! तुम किस जिंदगी में उलझे हो?

हस्ती का शोर तो है मगर एतिबार क्या।

झूठी खबर किसी की उड़ायी हुई-सी है।।
जिसे हमने जिंदगी समझा हैवह झूठी खबर किसी की उड़ायी हुई-सी है। एक न एक दिन एक सपना सिद्ध होती है। और जब मौत दरवाजे पर दस्तक देती है तो सारी जिंदगी सपना सिद्ध होती है। उस दिन तो केवल वे ही मौत को अंगीकार कर पाते हैं जिन्होंने असली जिंदगी का रस पाया हो। उस असली जिंदगी का नाम ही परमात्मा है। और जब तक परमात्मा की वर्षा न हो जाए तब तक तुम प्यासे रहोगे! और जब तक परमात्मा की छाया न मिल जाए तब तक तुम दग्ध रहोगे। धूप और ताप और जीवन की आपाधापी. . .! और जब तक परमात्मा के मंदिर में प्रवेश न हो जाएतब तक यात्रा हैव्यर्थ यात्रा है। सार्थक यात्रा तो वही है जो मंदिर तक ले आए।
मंदिर ही हमारा घर है। उससे कम से राजी मत होना।
लोग बड़े जल्दी राजी हो जाते हैं। लोग छोटे बच्चों जैसे हैंखिलौनों से राजी हो जाते हैं। बच्चों को पकड़ा दिया लकड़ी का घोड़ा--सुंदरदास ने कल ही तो याद किया था--लकड़ी के घोड़े पर ही उछलने लगते हैं! गुड्डे-गुड्डियों का विवाह रचाने लगते हैं।
तुम भी क्या कर रहे होज़रा जिंदगी पर गौर करो! गुड्डे-गुड्डियों का विवाह कर रहे हो। लकड़ी के घोड़ों पर सवार। किस्सा कुर्सी का! लकड़ी के घोड़े हैं सब। कुर्सी और लकड़ी के घोड़े में तुम कुछ फर्क समझते होलेकिन कुर्सी पर कितने उपद्रव चला रहे हैं। कितने उपद्रव चलते रहेंगे। कुर्सी पर बैठने का मजा उसी छोटे बच्चे की अकड़ है जो घोड़े पर बैठकर उछल रहा है। छोटे बच्चे तो कचरे के घूरे पर चढ़ जाते हैं और कहते हैं मुझसे ऊपर कोई भी नहींमुझसे ऊंचा कोई भी नहीं। पद और धन के भी घूरे हैं। उन पर चढ़कर जब तुम कहते होमुझसे ऊपर कोई भी नहींतब तुम्हें पता नहींतुम कैसी मूढ़ता की बात कर रहे हो!

कम से कम मौत से ऐसी मुझे उमीद नहीं।

जिंदगी तूने तो धोखे पे दिया है धोखा।।
जिंदगी ने तुम्हें धोखे के अतिरिक्त और दिया ही क्या हैतरहत्तरह के धोखे। बचपन के धोखे अलग हैंजवानी के धोखे अलग हैंबुढ़ापे के धोखे अलग हैंलेकिन धोखे पर धोखे। और सबसे आखिरी धोखा प्रतीक्षा कर रहा है--जब गिरोगे और सांस लौटेगी नहीं! आखिरी धोखा मौत होगी।
जन्म धोखा था। क्योंकि जन्म ने तुम्हें यह भ्रांति दे दी तुम देह हो। तुम्हारी शिक्षा धोखे की थीक्योंकि शिक्षा ने तुम्हें यह भ्रांति दे दी है कि तुम मन हो। और  अब यह आखिरी धोखा आएगा।

कमर बांधे हुए चलने को यहां सब यार बैठे हैं।

बहुत आगे गएबाकी जो हैं तैयार बैठे हैं।।
तुम तैयारी क्या कर रहे होसब तैयारी मरने की तैयारी है। यह भी खूब मजा हैजिंदगी--और मरने की तैयारी में व्यतीत हो जाती है! जिंदगी में आदमी मरता ही हैऔर करता क्या हैरोज-रोज मरता है। लेकिन हम बड़े होशियार हैंएक साल मर जाते हैं तो हम उसको कहते हैं हमारा जन्म-दिन आया! एक साल मौत और करीब आ गयी। कहते हो जन्म-दिनमृत्यु-दिन कहो!
जिस दिन से बच्चा पैदा होता है उसी दिन से मरना शुरू हो जाता है। इस आहिस्ता मौत को तुम जीवन मत समझ लेना। जीवन कुछ और है। और दूर भी नहीं है। कुंजी चाहिए। जीवन बहुत निकट है। जिसके पीछे तुम दौड़ रहे हो वह तो दूरबहुत दूरबहुत देर है और जब पहुंचोगे तो पाओगे नहीं हैमृगमरीचिका है। लेकिन असली जिंदगी बहुत पास हैपास से भी पास है। "पासशब्द भी ठीक नहीं हैक्योंकि तुम्हारा अंतरतम है। पास में भी तो दूरी का पता चलता है। पास शब्द भी तो दूरी का ही एक नाम है। नहीं! असली जिंदगी तो पास से भी पास है। क्योंकि असली जिंदगी तुम्हारे मूल केंद्र पर मौजूद है। लेकिन वहां हम जाते नहीं। हम सारे संसार में जाने को उत्सुक हैं। चांदत्तारों पर जाने को उत्सुक है आदमीअपने भीतर जाने को उत्सुक नहीं है। और वहीं जो पहुंचता हैउसके सामने ही चांदत्तारों का राज खुलता है।

अगर मुमकिन हो तो सौ-सौ जतन से

अज़ीज़ो काट लो यह जिंदगी है।
लोग काट ही तो रहे हैं। समय काट रहे हैं। जिंदगी काट रहे हैं। एक ऐसा जीवन भी हैजो न कटता है न काटा जा सकता है। अविछिन्न! अखंड! शाश्वत! समय के पार! देह में आबद्ध नहीं। मन में सीमित नहीं। और वह चैतन्य तुम्हारे भीतर मौजूद है। वही तुम हो! तत्त्वमसि! पर भीतर जाओतब।
जब तक बाहर की आशा हैतुम भीतर जाओगे नहीं! बाहर की आशा निराशा हो जाए तो भीतर जाओ।
बुद्ध के बड़े प्यारे वचन हैं कि धन्यभागी हैं वे जो हताश हो गएजिनका जीवन बाहर से बिल्कुल हताश हो गया है। इसे दुर्दिन मत मानना। इसे सुदिन मानना। जिस दिन तुम बाहर से बिल्कुल हताश हो जाओगेउसी दिन ठिठकोगेउसी दिन रुकोगेदौड़ बंद होगी। और जो ऊर्जा संसार में छितरी जाती थीइकट्ठी होगीसिमटेगीअंतर्यात्रा शुरू होगी।

ऐ मौजे-बला! इनको भी ज़रा दो-चार थपेड़े हल्के से

कुछ लोग अभी तक साहिल से तूफ़ां का नजारा करते हैं।
और कुछ लोग हैं जो भीतर की बातें बस शास्त्रों में पढ़ते हैंसद्-उपदेशों में सुनते हैं। दोहराने भी लगते हैं तोतों की भांति। मगरअगर किनारे पर बैठकर तूफान को देखा है तो अभी तुमने तूफान नहीं देखा। तूफान तो उसी ने देखा है जिसने तूफान में अपनी नौका छोड़ी। तूफान तो उसी ने जाना हैजो तूफान से जूझा है।

ऐ मौजे-बला! इनको भी ज़रा दो-चार थपेड़े हल्के से

कुछ लोग अभी तक साहिल से तूफ़ां का नजारा करते हैं।
कितने जन्मों से तुम किनारे बैठे-बैठे देख रहे होसोच रहे होविचार रहे हो! अंतर्यात्रा शुरू कब करोगेऐसे भी बहुत देर हो गयी है। ये सूत्र अंतर्यात्रा के सूत्र हैं। और सुंदरदास ने बड़ा गहरा इशारा किया है। पकड़ना।

हमारैं गुरु दीनी एक जरी।

हमारे गुरु ने एक जड़ी-बूटी दे दी।

कहा कहौ कछ कहत न आवैअंमृतरसहि भरी।
स्वाद अमृत का है उसमेंअमृत रस ही भरा है उसमें। और अब उसे कहने का कोई उपाय नहीं! कोई कभी नहीं कह पाया। जिनके पास है वे पिला देते हैं। कहना तो सिर्फ बुलाना है कि आओ और पियो! कहना तो सिर्फ निमंत्रण है। कहने में जड़ी नहीं है। कहने में अमृत नहीं है। शब्द से सावधान! शब्द बड़े धोखे में डाले हुए हैं। कोई सोचता है "रामशब्द में राम है। तो ओढ़ लेता है रामनाम की चदरियाबैठ जाता है लिखने लगता है राम-राम राम-रामकि बैठ जाता है दोहराने लगता है राम-राम। शब्द सत्य नहीं है। शब्द तो मात्र इशारा है।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी बहुत दिन से उसके पीछे पड़ी थीकि सारे लोग छुट्टियों में पहाड़ जाते हैं--कोई दक्षिण जाताकोई उत्तर जाताकोई पूरब जाताकोई पश्चिम जाता। दूसरे लोग तो विदेश यात्राएं तक करके आ गए हैं। मोहल्ले में एक भी नहीं है ऐसा अभागा आदमीजो कहीं न गया होलेकिन हमारे भाग्य में नहीं कुछ।
मुल्ला एक दिन गुस्से में आया और कहा कि ठीक हैअभी जाकर इंतजाम करके आता हूं! गया और थोड़ी देर बाद वापिस लौटा। एक नक्शा लेकर वापिस लौटा। नक्शा फैला दिया जमीन पर और कहा कि देखयह रहा हिमालय पहाड़कर ले यात्रायह बह रही गंगाले-ले डुबकीयह गौरीशंकर. . .। जाने की जरूरत क्या है नक्शा तो बाजार में मिलता है। पागल हैं जो जाते हैं वहां--उसने कहा--होशियार तो नक्शे से काम चला लेते हैं।
लेकिन खयाल रखनाहिमालय का नक्शा हिमालय नहीं है। मगर तुम हंसना मत मुल्ला नसरुद्दीन परमजाक तुम्हारे ऊपर है। यही तो तुमने किया है। शास्त्रों की पूजा चल रही है।
पंजाब में एक घर में मैं मेहमान था। सुबह उठकर दंतवन करने जा रहा था कि जिस कमरे से गुजरागुरु ग्रंथ साहब को सजाकर रखा गया थाउनके सामने एक लोटा रखा है चांदी का और दंतवन रखी है। मैंने पूछा कि यह मामला क्या हैयह दंतवन मैं ले लूंउन्होंने कहा कि नहीं-नहींयह तो गुरु ग्रंथ साहब के लिए रखी है।
गुरु ग्रंथ साहब दंतवन कर रहे हैं!
आदमी का पागलपन! पत्थर की मूर्तियों पर भोग लगाए जा रहे हैं! नक्शों में यात्राएं हो रही हैं! शब्दों का कितना मूल्य हमने बढ़ा दिया है! और ऐसा भी नहीं है कि शब्द धोखा नहीं देतेअगर शब्दों को दोहराते रहोदोहराते रहो तो धोखा दे देते हैं। जैसे बैठकर विचार करने लगो कि बैठे हो एक नींबू के वृक्ष के नीचे और नींबू ही नींबू और सुगंध नींबुओं की! किसी और चीज की तो ऐसी सुगंध होती नहीं। भर लो नासापुटों को अभी नींबुओं की सुगंध से। फिर तुमने एक बड़ा नींबू तोड़ लिया है। फिर चाकू से काटा है। फव्वारे की तरह उसका रस उड़ा है। अब तुम नींबू को मुंह में ले लिए हो। अब तुम चूसने लगे हो। और लार बहने लगी! न कुछ नींबू हैन कोई नींबू का वृक्ष है कहींसिर्फ बातचीत चल रही है। और लार बहने लगी। शरीर ने मान लिया झूठ। शरीर ने शब्द को असली मान लिया। शब्द "नींबूनींबू हो गया। शरीर को भला तुम धोखा दे दोलेकिन फिर भी धोखा धोखा ही है।
ऐसे ही लोग अगर राम-राम को रटते रहेंरटते रहेंजैसे नींबू-नींबू का विचार करते रहेंतो एक तरह की लार बहने लगती है। उस लार को तुम अमृत-रस मत समझ लेना। उस लार से ही बहुत-से लोगों ने समझ लिया है पहुंच गए।**त्र्!)ध्****त्र्!)इ१४)१०**
न तो "अग्निशब्द में अग्नि है और "जलशब्द में जल है और न "रामशब्द में राम है। यद्यपि ये सभी शब्द सार्थक हैंमगर इशारे हैंनक्शे हैं। अमृत-रस तो सत्य की प्रतीति से बहेगा। लेकिन शब्द सस्ता मिलता है और सत्य की प्रतीति तो मंहगा मामला है।

दूसरों से बहुत आसान है मिलना साकी

अपनी हस्ती से मुलाकात बड़ी मुश्किल है।
यहां दुनिया में हर किसी से मिल लोबहुत आसान हैबस अपने से मिलना मुश्किल है। दूसरों से मिलने में होता भी क्या हैशब्दों का लेन-देन। तुम जब दूसरों से मिलते होकरते क्या होतुम्हारे संवादतुम्हारी बातचीततुम्हारी गुफ्तगू क्या हैशब्दों का लेन-देन है। अपने से मिलने चलोगे तो सारे शब्द छोड़ देने पड़ेंगे। वहां तो निःशब्द हो जाओगेतब पहुंचोगे। वही कठिनाई है। वहां तो बोल खो जाएगाअबोल हो जाओगेतब पहुंचोगे!
वही है जड़ीजो गुरु ने दी! उसे मौन कहोध्यान कहो। जो भी नाम तुम देना चाहोदे दो! लेकिन उसका स्वाद निःशब्दता का है। सारे गुरुओं ने शब्द छीन लेने चाहेशास्त्र हटा देने चाहेतुम्हें मौन करना चाहातुम्हें शांत करना चाहा। तुम्हारे भीतर विचारों की तरंगें विदा हो जाएं। तुम निस्तरंग हो जाओ। कोई लहर न उठे। बस जहां तुम्हारी लहराती चेतना गैर-लहराती हो गयीजहां तुम्हारी झील चेतना की शांत हो गयीकोई तरंग नहींकोई लहर नहीं--बस वहीं अमृत-रस बह उठता है! अमृत-रस तो बह ही रहा हैलेकिन तरंगों में तुम इतने उलझे होविचारों में तुम इतने डूबे हो कि तुम्हें सुविधा नहींअवकाश नहींकि अमृत-रस को चख सकोदेख सको।
परमात्मा तुम्हारे भीतर मौजूद हैमगर तुम पीठ किए खड़े हो। तुम्हारे और परमात्मा के बीच में जो सबसे बड़ी चीन की दीवार हैवह पत्थरों की बनी हुई नहीं हैशब्दों की बनी हुई है। फिर तुम्हारे शब्द हिंदुओं के हैं या मुसलमानों के या सिक्खों के या ईसाइयों के या जैनों केइससे कुछ फर्क नहीं पड़ताशब्द तो शब्द हैं। फिर तुम राम-राम दोहरा रहे हो कि नमोकारइससे फर्क नहीं पड़ता। फिर तुम किस पत्थर के सामने सिर झुका रहे होइससे भी फर्क नहीं पड़ता। उसी पत्थर से बुद्ध बन जाते हैंउसी पत्थर से महावीर बन जाते हैंउसी पत्थर से गणेश जी बन जाते हैं। तुम किसके सामने सिर झुका रहे होइससे फर्क नहीं पड़तातुम पत्थर के सामने ही सिर झुका रहो हो। और मजा तो ऐसा है कि उसी पत्थर से मस्जिदें बन जाती हैं जिनमें कोई मूर्तियां नहीं हैं। वहां भी लोग सिर झुका रहे हैं। वे भी पत्थर के सामने ही झुकाए जा रहे हैं। और काबा सिवाय एक बड़े पत्थर के और कुछ भी नहीं है। और मुसलमानों की भ्रांति है कि वे पत्थरों की पूजा नहीं करते। और सबसे बड़े पत्थर की पूजा वही कर रहे हैं। काबा में जितना बड़ा पत्थर उन्होंने पूजा हैउतना बड़ा पत्थर किसी दूसरे धर्म ने नहीं पूजा। और बड़े भाव से पूजा है। काबा के पत्थर को जितने लोगों ने चूमा हैदुनिया के किसी पत्थर को नहीं चूमा गया है। करोड़ों लोग प्रतिवर्ष चूमते हैं। इतना जूठा पत्थर दुनिया में दूसरा नहीं है। पत्थर के खिलाफ चले थे और पत्थर में ही जकड़ गए। एक पत्थर से छूटते हैंदूसरे पत्थर से जकड़ जाते हैं। लेकिन भ्रांति जाती नहीं।
शब्द तुम कौन-से बड़े भाव से पूज रहे होइससे भेद नहीं पड़ेगा। निःशब्द होना पड़ेगा। निःशब्द होने में मस्ती हैअमृत-रस है!

जबाने-होश से यह कुफ्र सरज़द हो नहीं सकता।

मैं कैसे बिन पिए ले लूंखुदा का नाम है साकी।
वह तो पियक्कड़ ही ले सकते हैं खुदा का नाम--मस्त जो हैं! रूखे-रूखेबुद्धि से भरे लोगखुदा का नाम भी लेते रहें तो कुछ परिणाम होनेवाला नहीं है। हार्दिक होना चाहिए। हृदय से उठना चाहिए और हृदय से तभी उठता है जब बुद्धि की सारी तरंगें बंद हो जाती हैं। भाव का जन्म तब होता है जब विचार शांत हो जाते हैं। और भाव भगति है। और गुरु भगति देता है। भाव को भक्ति देता है। भाव को भक्ति में ढाल देता है। फिर भक्ति ही एक दिन भगवान् हो जाती है।
अब यह समझ लोतुम्हारी स्थितियां ये हैं।. . . विचार की स्थिति! गुरु के संपर्क में विचार को भाव में बदला जाता है। "रोनेशब्द को आंसुओं में ढाला जाता है। नक्शों को यथार्थ में रूपांतरित किया जाता है। विचार भाव में बदल जाने चाहिए। फिर भाव परमात्मा पर समर्पित। फिर किसी मंदिर-मस्जिद में जाने की जरूरत नहींफिर तो तुम जहां हो वहीं समर्पितक्योंकि परमात्मा सब जगह है। जहां झुकेजहां सिजदा किया वहीं मंदिर हो गया! जहां कोई शांत और मौन होकर बैठ गया वहीं तीर्थ निर्मित हो जाता है।
ऐसे ही तो तीर्थ निर्मित हुए थे। फिर तुम भूल गए। फिर तुमने तीर्थों की तो पूजा शुरू कीलेकिन तीर्थों का मूल सारा भूल गए। कैसे तीर्थ निर्मित हो गए थेकहीं कोई बुद्ध वृक्ष के नीचे बैठा शांत! अमृत की धार बहीवह वृक्ष भी तीर्थ बन गया। अब सारी दुनिया से बौद्ध आते हैं बोधगया--उस वृक्ष को नमस्कार करने! अब यह पागलपन देख रहे होमूल बात खो गयी। किसी भी वृक्ष के नीचे बैठ जाओबुद्ध जैसे शांत हो जाओवहीं बोधिवृक्ष प्रकट हो जाएगा। बोधगया जाने की जरूरत नहीं है। और बोधगया का वृक्ष बेचारा क्या करेगाबोधगया के वृक्ष के कारण थोड़े ही बुद्ध बुद्ध हो गए थेबुद्ध के कारण यह साधारण वृक्ष अपूर्व महिमा को उपलब्ध हो गया। यह तो सिर्फ याद्दाश्त है। याद्दाश्त प्यारी है। मगर इसी में जो उलझ जाए वह भटक जाता है।

हमारैं गुरु दीनी एक जरी!
क्या जड़ी बूटी दीजिससे अमृत-रस की धार बहीमौन दिया। ध्यान दिया। विचार की ऊर्जा को भाव में रूपांतरित किया। भाव को भक्ति बनायाफिर भक्ति अपने-आप भगवान् हो जाती है।

यही ाज़दगी मुसीबतयही ाज़दगी मसर्रत।

यही ज़िंदगी हक़ीक़त यही ज़िंदगी फ़साना।।
ऊर्जा तो यही है। जो तुम्हारे पास हैवही मेरे पास है। जो मेरे पास हैवही सब के पास है। ऊर्जा तो यही है। इसी ऊर्जा से तुम अपना दुःख बना लेते होनरक ढाल लेते होइसी ऊर्जा से स्वर्गों की ईंटें भी रखी जाती हैं। इसी ऊर्जा से मोक्ष के सोपान भी रखे जाते हैं। यही ऊर्जा है।

यही ज़िंदगी मुसीबतयही ज़िंदगी मसर्रत।

यही ज़िंदगी हक़ीक़त यही ज़िंदगी फ़साना।।
यही जिंदगी एक कहानी होकर खत्म हो जाए या यही जिंदगी एक सत्य बनकर प्रकट हो। यही जिंदगी आनंद बन जाए या यही जिंदगी सिर्फ एक मुसीबत की लंबी कहानी!
जिससे पूछा मैं कि "दिल खुश है दुनिया में कहीं?'
रो दिया उनने और इतना ही कहा "कहते हैं'
कहते हैं कि कहीं लोग खुश होते हैं। देखा तो नहींसुना तो नहीं। आंख का अपना तो अनुभव नहीं हैसाक्षात्कार तो नहीं हुआअफवाह सुनी है।
जिससे पूछा मैं कि "दिल खुश है दुनिया में कहीं?'
रो दिया उनने और इतना ही कहा "कहते हैं'
अफवाहें हैं कि खुश लोग होते हैं। मगर देखे किसने?
जब तुम्हें कोई आनंदित आदमी मिल जाएजिसने अपनी जीवन-ऊर्जा को अमृत में ढाल लिया होतो पकड़ लेना उसके चरणउसके पास जड़ी-बूटी है। जो उसके भीतर हुआ है वही राज तुम्हें भी दिया जा सकता है। वही सूत्र तुम्हें भी समझाया जा सकता है। गुरु का इतना ही अर्थ है।
गुरु का अर्थ होता हैः जिसने पा लिया और अब निश्चिंत है। और जिसे पाने को अब कुछ शेष न रहा। जिसके जीवन में अब कोई प्रश्न नहीं है। जिसके जीवन में उत्तर ही उत्तर है। जिसकी कोई समस्या नहीं है। समाधान के बादल आ गए और बरस गए। समाधि फल गयी है। उसके चरण गह लेना। उसके पास उठना-बैठनासमागम करना। उसके पास से कुंजी मिल सकती है। जो पहाड़ों पर आता-जाता होउससे पहाड़ों का रास्ता पूछ लेना। जो जंगलों से जाता होगुजरता होउससे जंगलों का रास्ता पूछ लेना।
गुरु का और कुछ अर्थ नहीं होता--जिसके जीवन में परमात्मा घट गया है। गुरु साक्षी है इस बात का कि तुम्हारे जीवन में भी घट सकता है। और कुंजी बहुत कठिन नहीं है। एक बार हाथ में लग जाए तो बड़ी सरल है। कुंजी न हो तो ताले खोलना बड़ा कठिन है और कुंजी हो तो ताला खोलने से सरल और क्या बात हैकुंजी डाली कि ताला खुला! और कुंजी न हो हाथ तो तुम तालों को ठोकते रहोपीटते रहोहथौड़े मारते रहो--खतरा यही है कि कहीं ताला इतना न बिगाड़ लेना कि जिस दिन कुंजी भी हाथ लगे कुंजी भी काम न करे।
अकसर ऐसा हो जाता हैलोग ताले को बिना कुंजी के खोलने की चेष्टा में इतना बर्बाद कर लेते हैं कि कुंजी मिल भी जाए तो ताला नहीं खुलता। इसके पहले कि तुम ताला खोलने लगोउस आदमी के पास बैठ जाना जिसके द्वार खुल गए हैं। नहीं तो खतरा है।
मेरे पास बहुत-से लोग आ जाते हैंजो किताबों में पढ़-पढ़ कर कुछ कर लेते हैं। उससे और उलझन खड़ी हो जाती है। किताबों से कुंजी नहीं मिल सकती। कुंजी जीवंत दान है। शास्त्रों से मिलती हैशास्त्र से नहीं मिलती। गुरु से मिलती हैगुरुवाणी से नहीं मिलती। गुरुवाणी तो नक्शा है। मैं तुम्हें दे सकता हूंलेकिन मेरी किताबों से नहीं मिलेगी। हालांकि मेरी किताबों में उसी की चर्चा हैफिर भी तुम्हें उससे नहीं मिलेगी। कुंजी की चर्चा हैउससे कुंजी कैसे मिलेगीकुंजी का वर्णन हैउससे कुंजी कैसे मिलेगीकुंजी तो जिसके पास होउसके पास ही बैठकर धीरे-धीरे धैर्यपूर्वक सीखनी पड़ेगीसाधनी पड़ेगी।
लोग अहंकार-वश किताबों से उपाय खोजते हैं। किताब से एक फायदा हैकिसी को पता नहीं चलता कि तुम किसी से सीखने गए। किताब अपने घर में हैपढ़ लीकरने लगे। अकसर लोग उलझकर आ जाते हैं।
अभी चार दिन पहले कोई विपस्सना करता हुआ आया! तीन महीने विपस्सना की हैनींद खो गयी। अब परेशान है। और विपस्सना करने से जिसकी नींद चली जाएउस पर कोई ट्रेंकुलाइज़र काम नहीं कर सकता फिर। सुस्त कर देगालेकिन नींद नहीं ला सकता। और या फिर इतनी मात्रा में लेना पड़ेगा कि वह दूसरे दिन भी उठ नहीं पाएगा। अब वे मुश्किल में पड़ गए हैं। उनको देखकर ही मुझे लगा कि विपस्सना का परिणाम होना चाहिए। मैंने उनसे पूछाविपस्सना तो नहीं कर रहे होउन्होंने कहाः हांतीन महीने से उसी में तो लगा हुआ हूं। तो मैंने कहाः यह उसका फल है। किससे सीखी विपस्सना?
क्यों शास्ता पर जोर दिया जाता हैक्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के लिए कुंजी थोड़ी-सी भिन्न करनी होती है। कोई व्यक्ति एक जैसे नहीं हैं। सारे व्यक्ति एक जैसे नहीं हैं। किताब में तो एक सामान्य सिद्धांत होता है। सामान्य सिद्धांत औसत की भांति होते हैं। जैसे तुम किसी से पूछो कि पूना में आदमी की औसत ऊंचाई क्या हैतो औसत ऊंचाई का मतलब होता हैः जितने लोग पूना में हैं सबकी ऊंचाई नापोफिर उनकी संख्या का भाग दे दो। फिर औसत ऊंचाई आ जाएगी! समझ लो चार फीट साढ़े तीन इंच। अब अगर तुम चार फीट साढ़े तीन इंच के आदमी को खोजने निकलोतुमको शायद ही मिले। और तुम बड़े हैरान होओगे कि यह तो औसत ऊंचाई है। अधिकतम लोग इसी ऊंचाई के होने चाहिए। कोई पांच फीट दस इंच हैकोई पांच फीट नौ इंच है। कोई छोटा बच्चा तीन फीट हैकोई और छोटा बच्चा एक फीट हैसब तरह के लोग मिल जाएंगे। चार फीट साढ़े तीन इंच का आदमी शायद मिले। शायद हीक्योंकि वह तो सिर्फ औसत ऊंचाई है। गणित का काम है। अस्तित्व में उसकी खोज करना व्यर्थ है।
ऐसे ही सारे सिद्धांत औसत हैं। सूत्र दे दिए गए हैंलेकिन प्रत्येक का ताला अलग है। और गुरु के पास कुंजी ढालनी होती हैजो उसके ताले पर काम आएगी। हर किसी की कुंजी तुम्हारे ताले पर काम नहीं आएगी।
अब अगर कोई विपस्सना का प्रयोग करेगा तो विपस्सना का अर्थ होता हैः श्वास पर ध्यान। साधारण प्राकृतिक रूप से श्वास पर ध्यान नहीं होता। यह बड़ी अप्राकृतिक प्रक्रिया है। श्वास चलती रहती हैध्यान कौन देता है! जब तक कि कोई अड़चन न आ जाएश्वास में कोई तकलीफ होहृदय का दौरा पड़ जाएखांसी आ जाएतो श्वास पर ध्यान जाता हैसर्दी-जुकाम हो जाए तो श्वास पर ध्यान जाता है। स्वस्थ तुम रहो तो श्वास का पता ही नहीं चलता। पता चलना भी नहीं चाहिए! श्वास तो चौबीस घंटे चल रही हैइसका पता चलता रहे तो फिर और चीजों का पता कैसे चलेगाइसमें उलझे रहो तो झंझट हो जाएगी।
विपस्सना का अर्थ होता है श्वास पर ध्यान। यह बड़ा महत्त्वपूर्ण प्रयोग है और खतरनाक भी। अगर ठीक निरीक्षण में न किया जाए तो श्वास पर ध्यान करने का परिणाम यह होगा कि तुम रात सो नहीं सकोगे। श्वास तो रात भी चलती रहती है। अगर तुमने दिन-भर श्वास पर ध्यान कियाश्वास को देखते रहेरात भी तुम बंध जाओगेश्वास को देखते रहोगे। और जब तुम श्वास को देखते रहोगेनींद नहीं आएगी। और नींद नहीं आएगी तो तुम सोचोगे कि चलो विपस्सना ही क्यों न करेंपड़े-पड़े कर क्या रहे हैं?
वही वे सज्जन कर रहे हैं कि अब नींद आ ही नहीं रही तो चलो श्वास को ही देखते रहें। और श्वास को देखने में आनंद भी आएगासुख भी मालूम पड़ेगाशांति भी मालूम पड़ेगी! लेकिन अगर नींद खो गयी तो शरीर के लिए दुःख शुरू हो जाएंगे। जल्दी ही तुम रुग्ण होने लगोगे। मुश्किल में पड़ जाओगे। विक्षिप्त भी हो सकते होअगर ज्यादा दिन नींद न आए। और फिर अगर नींद बिल्कुल खो जाए तो तुम पागल हो ही जाओगे। क्योंकि विश्राम चाहिए ही चाहिए।
यह तो सिर्फ सिद्धांत है श्वास को देखना। फिर कितना देखनायह गुरु तय करेगा। और किस समय देखनायह भी गुरु तय करेगा। गुरु तय करेगा कि चालीस मिनट देखनाइससे ज्यादा नहीं देखना एक बार मेंया साठ मिनट देखनाइससे ज्यादा नहीं देखना एक बार में। साठ मिनट देखने के लिए साठ मिनट उसके बाद छोड़ देनादेखना ही मत। या सुबह देखना या सांझ देखनाकब देखनायह प्रत्येक व्यक्ति के ऊपर अलग-अलग होगा। भोजन करने के बाद देखना श्वास कि नहीं देखनाखाली पेट देखना या भरे पेट देखना--यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग-अलग होगा। अगर तुमने भरे पेट श्वास देखीतुम्हारी पाचन-क्रिया गड़बड़ हो जाएगी। अगर तुमने जितनी तुम्हारे लिए जरूरत है उससे ज्यादा देखी तो तुम्हारे भीतर होश तो आने लगेगालेकिन होश के साथ तनाव आ जाएगा! और अगर तनाव आ गया तो बात गड़बड़ हो गयी! होश तो शांति लाना चाहिएतनाव नहीं। यह मैं सिर्फ उदाहरण के लिए कह रहा हूं। इसी तरह सारे सिद्धांत हैं। सिद्धांतों का व्यवहारिक अर्थ तो गुरु के पास मिलेगा!

हमारैं गुरु दीनी एक जरी।

कहा कहौं कहा कहत न आवैअमृत रसहि भरी।
कहना मुश्किल है। जब गुरु स्वाद दिला देता है तो कहना मुश्किल स्वाभाविक हो जाता है। अमृत का स्वाद हम किस भाषा में कहेंहमारी पूरी भाषा तो मृत्यु के भीतर जीती हैपलती है। हमारी पूरी भाषा मरणधर्मा के लिए बनी है। अमृत को प्रकट करने की उसके पास सामर्थ्य नहीं है। गूंगे का गुड़! अमृत तो गूंगे का गुड़ है। भाषा चुप हो जाती है।
और ध्यान रखनाअमृत तभी तुम्हारे भीतर बहता है जब तुम अभी अपने को जैसा मानते हो वैसे मिट जाते होमर ही जाते हो। जो मर गया गुरु के चरणों में समर्पित हुआवही अमृत का स्वाद ले पाता है।

एक अदना-सा करिश्मा है यह उसके इश्क का

मर गया हूं और मरने का गुमां होता नहीं
गुरु के प्रेम में बहुत चमत्कार घटते हैं। उसमें यह भी एक छोटा-सा चमत्कार है। एक अदना-सा करिश्मा है यह उसके इश्क का!
छोटा इसे इसलिए कह रहे हैं कि तुम्हारा मरना छोटी बात है। इसके बाद जिसका पता चलता हैअमृत कावही बड़ी बात है। मर कर पता चलता है कि मरा नहीं हूं। पहली दफा पता चलता है कि असली जीवन क्या है। मर भी जाते हो और मरने का पता नहीं चलता। और साधारण जीवन में तो जीते होजीवन का पता कहां चलता है! अजीब पहेली है! जीते हैं बाजार में और जीने का पता नहीं चलता! गुरु की छाया में मृत्यु घट जाती हैमरने का पता नहीं चलता! बाजार में जिंदगी के नाम पर मौत ही हाथ मिलती है अंत में। गुरु की शरण में मृत्यु से शुरुआत होती है और अमृत मिलता है। जो अपने को मिटाने को राजी हैं वे ही केवल उपलब्ध कर पाते हैं।

ताकौ मरम संतजन जानतवस्तु अमोल परी।।
तुम्हारे भीतर एक इतना अमूल्य खजाना भरा पड़ा है और तुम्हें उसका पता नहीं। ताकौ मरम संतजन जानत. . .! जो जागे हैं अपने भीतरजिनका दीया जला हैजिन्होंने अपने भीतर आंख गड़ा कर देखा हैजिन्होंने अपने भीतर खुदाई की है--उन्होंने पा लिया है खजाना! भीतर जाना हो तो बाहर से ज़रा दूर होना पड़े। और परमात्मा के पास बैठना हो तो संसार से थोड़ा रसआसक्ति कम करनी पड़े!

सारी दुनिया से दूर हो जाए

जो ज़रा तेरे पास हो बैठे
और उसके पास ज?रा भी बैठ जाओतुम देखते हो यह पास बैठना. . . "उपनिषदशब्द का अर्थ होता हैः पास बैठनागुरु के पास बैठना! उपासना शब्द का अर्थ होता हैः उसके पास बैठनाउप****)१०****आसनगुरु के पास बैठना! उपवास शब्द का अर्थ होता हैः उसके पास बैठना! उप****)१०****वास। उपासना कहोउपवास कहोसत्संग कहोसमागम कहोउपनिषद कहो. . .! यह उपनिषदों का जन्म हुआजब कुछ लोगजिनके दीए बुझे थेउनके पास बैठ गए जिनके दीए जले थे। उपनिषद जल गए। ज्योति से ज्योति जले!

राजे हस्ती राज है जब तक कोई मरहम न हो।

खुल गया जिस दम तो मरहम के सिवा कुछ भी नहीं।।
राजे हस्ती राज है जब तक. . . जिंदगी का रहस्य तभी तक रहस्य है. . . जब तक कोई मरहम न होजब तक कोई मर्मज्ञ न होजब तक कोई जाननेवाला न होतभी तक जिंदगी का रहस्य है। खुल गया जिस दम तो मरहम के सिवा कुछ भी नहीं। और जिस समय यह रहस्य खुल जाता हैकोई मर्मज्ञ जागता हैदेखता हैआंखें खुलती हैंतो बड़ी हैरानी हो जाती हैः सब जिंदगी ऐसे खो जाती है जैसे छाया खो गयी! जैसे सपना खो गया! और फिर बचता कौन हैसिर्फ मर्मज्ञ बच जाता है। सिर्फ जाननेवाला बचता हैजानने के लिए कुछ नहीं बचता। अभी दृश्य सब कुछ हैद्रष्टा बिल्कुल नहीं है। तब द्रष्टा होता है और दृष्य नहीं होता।
और दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं। जिनको हम सांसारिक कहते हैंउनका अगर ठीक-ठीक आध्यात्मिक अर्थ करोतो अर्थ होगाः जिनके जीवन में द्रष्टा छिपा है और दृश्य सब कुछ हो गया है। जो दिखाई पड़ता है वही सब कुछ है। देखनेवाला भूल ही गए हैं वे। और दूसरी तरह के लोग हैंजिनको आध्यात्मिक कहोसंन्यासी कहोवे वे लोग हैं जिनके लिए दृश्य अर्थहीन हो गया है और द्रष्टा ही सब कुछ हो गया है।

ताकौ मरम संतजन जानत वस्तु अमोल परी!
दृश्य मिट जाए और द्रष्टा का पता चल जाए तो मिल गया तुम्हें अपने भीतर का साम्राज्यपा ली मोक्ष की संपदा! और ऐसा नहीं है कि यह कोई नई चीज है जो तुमने पा लीयह तुम्हारे भीतर पड़ी थी। पड़ी ही थी जन्मों-जन्मों से! इसे तुम लेकर ही आए थे! यह तुम्हारा पाथेय हैजो परमात्मा ने दिया था। यह तुम्हारे भीतर रख दिया था। यह तुम्हारा कलेवा हैपूरी यात्रा के लिएयह चुकनेवाला नहीं था।

यातें मोहि पियारी लागति लैकरि सीस धरी।
जब गुरु ने यह औषधि मुझे दीइतनी प्यारी लगी कि लेकर शीश पर रख ली। गुरु के वचन जो शीश पर रख लेता हैस्वीकार कर लेता है अहोभाव सेआनंद-भाव सेगहन कृतज्ञता मेंझुक जाता है--उसके जीवन में ही कुंजियां उपलब्ध होती हैं। उसके भीतर ही जड़ी-बूटी का रस प्रवेश करता है।
जब तक तुम झुककर न ले सकोगे तब तक यह रस तुम्हारे भीतर बहेगा नहीं। कुछ लोग अकड़कर खड़े रहते हैं कि ठीक है अगर कुछ हो तो ठीक है दिखा दें! प्रमाण दे दें! जो सोचेंगेविचार करेंगेवे चूक जाएंगे! ये ऐसे लोग हैं जिन्हें प्यास लगी हैनदी भी सामने बह रही है लेकिन वे अकड़कर खड़े हैंअंजली न बांधेंगे। क्योंकि किसी के सामने हाथ फैलाएंयह उनकी अकड़ के खिलाफ हैयह उनके अहंकार के खिलाफ है। झुकेंगे भी नहीं। अब नदी तुम्हारे कंठ तक आने से रहीतुम्हें झुकना होगा। तुम्हें हाथ की अंजुली बनानी होगी। तुम्हें नदी के सामने झुकना होगा। तो नदी राजी है तुम्हें तृप्त करने को।
इसलिए पूरब के देशों मेंजहां कि गुरु का परम तत्त्व खोजा गया. . . पश्चिम में गुरु जैसी कोई चीज नहीं है। पश्चिम इन अर्थों में दीन हैदरिद्र है। पश्चिम में ज्यादा से ज्यादा अध्यापक होता हैविद्यार्थी होता हैगुरु जैसी कोई चीज नहीं होती। पश्चिम की भाषाओं में गुरु शब्द के लिए कोई शब्द भी नहीं है। ज्ञान लिया-दिया जाता है तो विद्यार्थी-अध्यापक के बीच हो जाता है। लेकिन यह ज्ञान का लेन-देन नहीं है। गुरु और शिष्य में बड़ा फर्क है--अध्यापक और विद्यार्थी से। अध्यापक सूचनाएं देता है विद्यार्थी कोनक्शे देता हैजानकारियां देता है। गुरु जानकारी नहीं देताअपना अनुभव देता हैअपने प्राण उंडेलता हैअपने को उंडेलता है। यह दान बड़ा भिन्न है। इसलिए विद्यार्थी को तो कोई झुकने की जरूरत नहीं है अध्यापक के सामने। इसलिए पश्चिम में चरण छूने का रिवाज पैदा नहीं हुआकिसी के सामने झुकने की बात ही नहीं उठती। फिर विद्यार्थी क्यों झुकेफीस चुका देता हैबात खत्म हो गयी। हमने फीस दे दीतुमने जानकारी दे दीनमस्कार! बात यहां समाप्त हो गयी। लेकिन इस देश में इतने से काम नहीं हल होनेवाला। अनिवार्य शर्त है अस्तित्वगत ज्ञान को पीने की कि झुको। शिष्य का अर्थ हैः जो झुकाजो झुकने को राजी हैजो समर्पित है।

यातें मोहि पियारि लागतिलैकरी सीस धरी।

मन-भुजंग अरु पंच नागनी सूंघत तुरंत मरी।। **त्र्!)ध्****त्र्!)इ१४)१०**
और चमत्कार हुआ। जैसे ही मैं झुका और मैंने गुरु को अपने सिर पर लिया और मैंने अपने पलक-पांवड़े बिछा दिए और मैंने अपने हृदय के द्वार खोल दिए और कहा कि आओन कोई प्रश्न उठायान कोई संदेह खड़ा कियाश्रद्धापूर्वक गहनतम प्राणों से एक ही बात कही--हां! राजी हूं! बस यह बात कहते ही चमत्कार घट जाता है।

मन-भुजंग अरु पंच नागनीसूंघत तुरत मरी।
और जैसे ही यह सुवास गुरु की मेरे भीतर पहुंची और मैं राजी हुआ गुरु की बात के लिएमौन हुआशांत हुआध्यानस्थ हुआअंतर्यात्रा पर चलाउनके हाथ में अपना हाथ दियावे जहर भी पिलाएं तो अमृत मानकर पिया. . .

मन-भुजंग अरु पंच नागनीसूंघत तुरत मरी।
वह मन का जो भुजंग थासांपऔर वह जो पांच इंद्रियों की नागनियां थींजिन्होंने सारा रास रचाया हुआ थामन के चारों तरफ नाचती थींवे तत्क्षण मर गयींतत्काल मर गयीं!
झुकने की कला. . . झुकने में अहंकर मर जाता है। अहंकर रीढ़ है मन की। रीढ़ टूट जाती है। और जो झुकता है उसके भीतर जीवन-ऊर्जा गुरु की प्रवाहित होती है। जैसे ही जीवन-ऊर्जा प्रवाहित होती हैजैसे बाढ़ आ जाए और सब कूड़ा-करकट वर्ष का बहा ले जाएऐसी ही घटना घटती है। ऐसी ही जीवन की धारा हैजो झुकते हैं उनको स्वच्छ कर जाती है।

मन-भुजंग अरु पंच नागनीसूंघत तुरत मरी।

डायनि एक खात सब जग कौं सौ भी देख डरी।।
और वह जो एक डायनि हैजो सारे जगत् को खा रही है. . . कौन-सी डायिनीआत्म-अज्ञान। अविद्या। बौद्धों की भाषा में कहें--तृष्णा। वह जो अज्ञान है--इस बात का बोध नहीं कि मैं कौन हूं--वही तो भटका रहा है। पता नहीं कि मैं कौन हूंतो हम द्वार-द्वार भीख मांग रहे हैं--शायद यहां पता चल जाएशायद वहां पता चल जाए। जैसे ही चित्त स्वच्छ होता हैशांत होता हैतत्क्षण स्मरण आता है कि मैं कौन हूं--आत्मबोध! डायिनी है आत्म-अज्ञान। और आत्म-अज्ञान से वासना उठती हैतृष्णा उठती हैवे सब उसके ही फल-फूल हैं। जैसे ही गुरु की धारा प्रविष्ट होती हैजैसे ही उसकी ज्योति तुम्हारे बुझे दीए को जलाती हैतो भीतर सब रोशन हो उठता हैअहंकार विदा हो जाता है।

डायनि एक खात सब जग कौं सौ भी देख डरी।
डायन भी भाग खड़ी होती है।
विविध विकार ताप तनि भागी. . .
छोड़ दिए सब जालजो तुम्हारे ऊपर फैला रखे थे--त्रिविध--तुम्हारे शरीर परतुम्हारे मन परतुम्हारी आत्मा परजो सब तरह की जंजीरें फैला रखी थीं वे टूट गयीं एक क्षण में!

विविध विकार ताप तनि भागी दुरमति सकल हरी।
और उसी क्षण में सारी दुर्बुद्धि ऐसे विदा हो गयी जैसे दीए के जलने पर अंधेरा विदा हो जाता है।

ताकौ गुन सुनि मीच पलाईऔर कवन बपुरी।
सुंदरदास कहते हैंः अब तो मैं सोचता हूंबेचारी कहां गयीआंखें बंद करके ऐसी भागी कि अब मैं तलाशता हूं तो भी पा नहीं पाता। जैसे तुम दीया जलाकर अंधेरे को तलाशोकहीं पाओगेऐसे ही आत्मज्ञान का दीया जले तो कहां अविद्याकहां अज्ञान!
लेकिन खयाल रखनाफिर तुम्हें याद दिला दूं। अकसर ऐसा हो जाता हैतुम अज्ञान से भरे हो तो तुम सोचते होः उधार ज्ञान से अज्ञान को मिटाने में सफल हो जाएंगे! तो कंठस्थ कर लें वेदकुरानबाइबिल। ज्ञान से भर जाओगेअज्ञान नहीं मिटेगा! यह ज्ञान कूड़ा-करकट ही है। यह ऐसे ही है जैसे अंधेरे घर में तुमने सब जगह दीए की तस्वीरें टांग दीं! इससे कुछ रोशनी नहीं होगीकिसको धोखा दे रहे हो?
चीन में एक सम्राट् हुआ। वह अपने राज्य की सील-मोहर बनवाना चाहता था। उसे मुर्गों से बड़ा लगाव था। मुर्गों की तरह अहंकारी वह खुद भी था। मुर्गे की देखी चालकैसे अकड़ कर कलगी उठाकर चलता है! कैसी बांग देता है! इसी अकड़ में होता है कि न मैं बांग दूंगा न सूरज निकलेगा। उसने कहा कि एक शानदार मुर्गे की तस्वीर बनायी जाएलेकिन तस्वीर ऐसी होनी चाहिए कि जिंदा हो! बहुत चित्रकारों ने बनायी। बड़ा पुरस्कार मिलनेवाला था। सम्राट् को बहुत-सी तस्वीरें जंची भी। लेकिन एक बूढ़े चित्रकार को उसने निर्णायक रखा था। वह इनकार करता जाए कि नहीं यह भी नहींकि यह भी नहीं। वर्षों बीतने लगे। सम्राट् ने कहायह तस्वीर बन ही न पाएगी। इतनी सुंदर तस्वीरें आती हैंतुम बस कह देते हो यह भी नहीं। तुम्हारी कसौटी क्या हैकब तुम हां भरोगे?
उसने कहाः कसौटी एक है। आज मैं दिखाऊंगा।
वह ले गया मुर्गों की जितनी तस्वीरें आयी थींसब उसने कमरे में रख दीं और फिर एक मुर्गे को भीतर लाया गया। उस मुर्गे ने ध्यान ही नहीं दिया उन तस्वीरों पर। उसने कहाजब तक यह मुर्गा ध्यान न देजब तक यह मुर्गा स्वीकार न करे कि हांजब तक यह मुर्गा ठिठक कर खड़ा न हो जाएजब तक यह मुर्गा न डर जाए कि दूसरा मुर्गा मौजूद है--तब तक तस्वीर सही नहीं है।
मगर आखिर यह तस्वीर भी आ गयीजो उसने स्वीकार की। सम्राट् ने कहाः मैं देखना चाहूंगा मुर्गे की पहचानजो तुम बताते थे। तस्वीर भीतर रखी गयीमुर्गे को अंदर ले जाया गयावह देहली पर खड़ा हो गया। तस्वीर उसने देखी और भागने की कोशिश की। उसे भीतर लाया जाएवह भीतर न आए। उस चित्रकार ने कहा कि अब मानता हूं कि यह तस्वीर जिंदा है। मुर्गे ने प्रमाण-पत्र दे दिया। अब मुर्गा कह रहा है कि मुझे डर लग रहा है। यह बड़ा बलशाली मुर्गा खड़ा हुआ है अंदर।
यह भी हो सकता है कि मुर्गा भी तस्वीर से धोखा खा जाए। लेकिन अंधेरा तो नहीं खाएगा तस्वीर से धोखा। आदमी धोखा खा सकता हैमुर्गा भी धोखा खा सकता है। आदमी धोखा खा जाता है तो बेचारे मुर्गे की क्या बिसात! लेकिन अंधेरा धोखा नहीं खा सकता। दीए की तो बात छोड़ोतुम सूरज की तस्वीर टांग दोतो भी अंधेरा भाग नहीं जाएगा। अंधेरा तो प्रकाश ही हो तो भागता है।
और तुमने ज्ञान के नाम पर यही किया हैतस्वीरें टांग ली हैं।
सुंदर तस्वीरें हैं! उपनिषद के प्यारे वचन हैंकि धम्मपद के वचन हैं। अद्भुत वचन हैं! जाननेवालों ने कहे हैं। मगर वचन वचन हैं। जाननेवाला भी कहे दीयातो भी दीया शब्द ही हैउससे रोशनी नहीं हो जाएगी। तुम्हें तो किसी जलते दीए के पास जाना ही पड़ेगाजाना ही पड़ेगा।
धर्म उसी दिन मर जाते हैं जिस दिन गुरु की महिमा से ज्यादा शास्त्र की महिमा हो जाती है। सिक्ख धर्म उसी दिन मर गयाजिस दिन गुरुग्रंथ पर पूर्ण विराम लगा दिया गया और कहा कि बस अब गुरु नहीं होंगेअब ग्रंथ ही गुरु होगा। उसी दिन सिक्ख धर्म मर गया! तब तक जिंदा था। जब तक गुरु थे तब तक जिंदा था। जब गुरु की जगह किताब ने ले ली तो मर गया। जब तक जैनों के तीर्थंकर होते रहे तब तक जिंदा था। जब जैनों ने कहा कि बस चौबीसवां तीर्थंकर अंतिम हैअब कोई पच्चीसवां तीर्थंकर नहीं होगाअब कोई जरूरत नहीं हैअब हम किताब से ही काम चला लेंगे--बस उसी दिन से रोशनी बुझ गयी। उस दिन से अंधेरा ही अंधेरा है। खयाल रखना इस बात का।
मुसलमानों ने कह दिया कि बस मुहम्मद आखिरी पैगंबरअब कोई पैगंबर नहीं होगा--उसी दिन से अंधकार हो गया। अगर रोशनी जिलाए रखनी है तो तुम्हें यह अंगीकार करना होगा कि गुरु आते रहेंआते रहेंगे। तीर्थंकर होते रहेंअवतार होते रहेंदीए जलते रहें। दीए जलते ही रहते हैंतुम्हारे इनकार करने से बुझ नहीं जातेसिर्फ तुम वंचित हो जाते होसिर्फ तुम चूकते हो।
ताकौ गुन सुनि मीच पलाई. . .
जैसे ही दीए से रोशनी प्रकट होती है कि दुर्मति भाग जाती है। अज्ञान कहां भाग जाता हैपता नहीं चलता। सुंदरदास कहते हैंः और कवन बपुरी। कहां भाग गयी बेचारीखोजता हूंपाता नहीं हूं।
और जिस प्रकाश की हम बात कर रहे हैं उस प्रकाश के सामने इस सूरज का प्रकाश कुछ भी नहीं। और जिस दीए की हम बात कर रहे हैं उस दीए के समक्ष हजारों सूरज भी फीके हैं।
सूरज की पहली किरन खुशनुमा सही
लेकिन तेरी नज़र की तरह दिलनशी कहां?
गुरु की नजर जब प्रवेश करती है तो उसकी नजर के पीछे-पीछे ही परमात्मा की नजर भी तुममें प्रवेश कर जाती है। इसलिए गुरु को परमात्मा कहा! इतने समादर से पुकारा।
कबीर ने तो कहाः गुरु गोविंद दोई खड़ेकाके लागूं पांव। कहा कि बड़ी मुश्किल में पड़ा हूंदोनों सामने खड़े हैंकिसके पहले पैर लगूं! इतना सम्मान! इतना समादर कि गुरु के पहले पैर लगूं कि परमात्मा के पहले पैर लगूं! कहीं ऐसा न हो कि परमात्मा के पैर छूंऊं पहले तो गुरु का अनादर हो जाए! इसी किरण के सहारे तो सूरज मिला है। इसी द्वार से तो परमात्मा प्रकट हुआ। यही हाथ तो ले आए इस अनंत की यात्रा तक।

निसबासर नाहिं ताहि बिसारत पल छिन आध घरी।

सुंदरदास भयो घट निरविष सब ही व्याधि टरी।।
अब तो निसबासर नाहिं ताहि बिसारत. . . अब तो एक क्षण को भी भूलना नहीं होता। अब तो उसकी याद ही याद बनी रहती है। अब तो सुरति जगी ही रहती है।

समझे थे हम तो "मीरको आशिक उसी घड़ी।

जब तेरा नाम सुन के वो बेताब हो गया।।
आशिक तो याद करता हैप्रेमी याद करता हैभक्त स्मरण से भरा रहता है।

सब्र मुश्किल है आरजू बेताब।

क्या करें आशिकी में क्या न करें।।
बड़ी मुश्किल होती है भक्त की--क्या करें क्या न करें।
सब्र मुश्किल है आरजू बेताब! आकांक्षा पुकारती है कि और-और। अभीप्सा कहती है और-और। अनुभव कहता हैः और डूबोऔर पुकारोऔर याद करो। जितना रस बहता है उतनी रसाकांक्षा पैदा होती है। भुलाना भी चाहो तो फिर भुलाया नहीं जा सकता। अभी तो याद भी करना चाहते हो तो भूल-भूल जाते हो।
तुमने देखाकभी बैठे घड़ी-दो-घड़ी एकांत में प्रभु-स्मरण करनेघड़ी-दो-घड़ी तो बहुत दूर की बात हैपल-दो-पल भी याद नहीं कर पातेकुछ दूसरी यादें आ जाती हैं। मन संयोग से चलता है। तुम बैठेआंख बंद कीसोचा भगवान् की याद करेंयाद आ गयी भगवानदास सर्राफ की दुकानकि वे जो उधार रुपए ले आए थेवे चुकाने हैं। फिर झकझोराफिर याद की भगवान् कीफिर कुछ और याद आ गया। याद ही आता जाता है। कुछ का कुछ! मन यहां-वहां भागता है।
गुरजिएफ अपने शिष्यों को कहता थाः हाथ की घड़ी सामने रख लो और जो सेकंड का कांटा होता है इस पर नजर रखो। और इतना ही खयाल रखो कि मैं सेकंड के कांटे को देख रहा हूंदेख रहा हूंदेख रहा हूं। अगर तुम एक मिनट भी पूरा याद रख पाओसाठ सेकंडतो तुम सौभाग्यशाली हो। और अकसर ऐसा होता था कि साठ सेकंड भी कोई शिष्य याद नहीं रख पाता थाजो नया-नया आता था। तुम भी कोशिश करना। तुम चकित हो जाओगेसाठ सेकंड इतनी-सी याद नहीं रहती। ऐसी कमजोर याद्दाश्त है। इतनी-सी बात कि मैं सेकंड के कांटे को देख रहा हूं और कुछ याद न करूंगासेकंड के कांटे को भूलूंगा नहीं! बस पांच-सात सेकंड भी याद रख लो तो बहुत। पांच-सात सेकंड में गए तुमभागेकुछ का कुछ आ गया। घड़ी देखकर न मालूम कितने घड़ियाल याद आ जाएंगे। जब तुम फिर दुबारा याद करोगेपाओगे सेकंड का कांटाकई सेकंड सरक गयाइस बीच तुम खो गए थे। इस बीच तुम्हारे मन में कोई विचार एक मेघ की तरह आ गया और छा गया। तुम किसी अंधेरे में डूब गए थे। यह तो गुरु का परस न होयह तो पारस-पत्थर से थोड़ा संस्पर्श न हो जाए. . . तो तुम निसबासर तो कैसे याद करोगेपल-दो-पल भी याद करना मुश्किल है।

इक बार तुझे अक्ल ने चाहा था भुलाना।

सौ बार जुनूं ने तेरी तस्वीर दिखा दी।।
लेकिन परस हो जाएतो फिर अगर अक्ल भुलाना भी चाहेअक्ल कहे भी कि छोड़ो भीकिस झंझट में पड़े होतो भी कुछ काम नहीं आती अक्ल।

इक बार तुझे अक्ल ने चाहा था भुलाना।

सौ बार जुनूं ने तेरी तस्वीर दिखा दी।।
लेकिन तब एक दीवानापन पैदा होता है और दीवानापन तस्वीर दिखाए जाता है। अक्ल भुलाना भी चाहेअक्ल कहे भी कि बंद करो यह बातअभी और बहुत काम संसार के करने हैंअभी धन कमाना हैपद कमाना हैअभी कहां उलझे हो राम-नाम मेंअभी तो तुम जवान होये तो बुढ़ापे की बातें हैं--मगर फिर कुछ हल नहीं! एक बार किसी जिंदा गुरु ने तुम्हारी आंखों में झांका हो और एक बार किसी जिंदा गुरु के सामने तुम झुके होओउसकी जीवन-ऊर्जा तुममें ज़रा भी बही होतुम्हारा कूड़ा-करकट थोड़ा भी हटा होथोड़ी भी झलक मिली होतो फिर ठहर गयी बात। तुम भुलाना भी चाहो तो भुला ना सकोगे।

नफ़स-नफ़स में फुगां है नज़र-नज़र में हिरास।

फिर तो श्वास-श्वास में समा जाती है बात।

नफ़स-नफ़स में फुगां हैनज़र-नज़र में हिरास।

कुछ और दिन यही हालत रही तो क्या होगा।
फिर तो बुद्धि कहने लगती हैः बचोयह तुम क्या कर रहे होदीवाने हुए जा रहे हो! पागल हुए जा रहे हो! अगर यही हालत कुछ दिन और रही तो क्या होगालेकिन फिर बचने का कोई उपाय नहीं! बुद्धि कहते-कहते थक जाती है और चुप हो जाती है।

कुछ ये लगता है तेरे साथ ही गुजरा वो भी

हमने जो वक्त तेरे साथ गुजारा ही नहीं।
फिर तो ऐसा लगने लगता है कि चाहे परमात्मा की याद आए न आएऊपर-ऊपर से चाहे दूसरे काम करते रहो. . .

कुछ ये लगता है तेरे साथ ही गुजरा वो भी

हमने जो वक्त तेरे साथ गुजारा ही नहीं।
फिर बाजार में बैठोदुकान में बैठो--और तुम मंदिर में हो। फिर तो ऐसा लगने लगता है कि तेरी याद करेंया न करें याद बहती ही रहती हैसतत बहती रहती है। उसकी अंतर्धारा चलती रहती है। ऊपर-ऊपर काम चलते रहते हैं। ऊपर-ऊपर अभिनय चलता रहता है। ऊपर-ऊपर सब नाटक का खेल चलता रहता है और नीचे परमात्मा को याद सरकती रहती है।

गुजारी मैंने सारी रात ये कहकर वो अब आए।

ज़रा ऐ चश्मेत्तर थमना ज़रा-ऐ दिलजिगर रहना।।
हे आंसुओं से भरी हुई आंखज़रा ठहर। ज़रा आंसू रोक! वे आए वे आए!
हसीद फकीर झुसिया उठ-उठ कर बार-बार बाहर आ जाता था अपने दरवाजे परदरवाजे खोल लेता थाखिड़की खोल लेता थाबीच-बीच में सत्संग चलता। कहताः रुको। लोग पूछतेः कहां जा रहे होवह कहताशायद वह आएशायद अपने शिष्यों को जगाकर बिठा देता था कि अगर उनका आना हो तो ऐसा न हो कि मेरी नींद रह जाएमुझे जल्दी से उठा देना!

गुजारी मैंने सारी रात ये कहकर वो अब आए।

ज़रा ऐ चश्मेत्तर थमना ज़रा-ऐ दिलजिगर रहना।।

उनका ज़िक्रउनकी तमन्नाउनकी याद।

वक्त कितना कीमती है इन दिनों।।
और जब यह याद सघन होने लगती है तो तुम्हारे समय में पहली दफा मूल्य पड़ता है।

उनका ज़िक्रउनकी तमन्नाउनकी याद।

वक्त कितना कीमती है इन दिनों।।
जब तक परमात्मा का स्मरण नहीं बैठ रहा है तुम्हारे भीतर तब तक तुम जो भी कर रहे होसब व्यर्थ है। जितने जल्दी जाग जाओउतना अच्छा!

दिल के लिए हयात का पैगाम बन गयीं।

बेताबियां सिमट के तेरा नाम बन गयीं।।
जब तक तुम्हारी सारी बेताबियां और सारी आकांक्षाएं सिमटकर उसके नाम पर न लग जाएंउसका नाम न बन जाएंढाल लो उसकी याद को--अपनी श्वास-श्वास सेअपने हृदय की धड़कन-धड़कन से! जिस क्षण भी तुम्हारी सारी श्वासें और धड़कनें उसके प्रति आरोपित समर्पित होती हैंउस आरोहण पर निकलती हैंउसी क्षण घटना घट जाएगी।

निसबासर नहिं ताहि बिसारतपल छिन आध घरी।

सुंदरदास भयो घट निरविषसबहि व्याधि टरी।।
उसकी इस याद में ही याद करते-करते ही यह सारा घड़ा जो कल तक विष से भरा थानिरविष हो गया है। उसकी याद ही करते-करते विष हट गयाअमृत भर गया है।

यही ज़िंदगी मुसीबतयही ज़िंदगी मसर्रत।

यही ज़िंदगी हक़ीक़तयही ज़िंदगी फसाना।।
सब तुम्हारे हाथ में है। अकेले होअंधेरे में हो। उसका हाथ गह लोचल पड़ रोशनी के पथ पर। अकेले कमजोर होनाकुछ हो। उसके साथ सब कुछ संभव है--असंभव भी संभव है! परमात्मा के साथ अपने को जोड़ोवही हमारा मूल है। उसके साथ जुड़ते ही हमारी वही दशा हो जाती है जो वृक्ष की जड़ें जब जमीन को जोर से पकड़ लेती हैं तब वृक्ष का हरा हो जाना। और एक वृक्ष की दशा है कि कोई उखाड़ दे और टिकाकर रख दे दीवार सेजड़ें उखड़ गयीं।
आदमी परमात्मा की याद न करे तो जड़ों से उखड़ा हुआ आदमी है। उसमें न फल लगते न फूल लगते--सिर्फ दुर्गंध उठती हैसिर्फ सड़ांध होती हैसिर्फ कीचड़ मचती है।

सुंदरदास भयौ घट निरविषसबहि व्याधि टरी।
व्याधि हमारी जिंदगी की क्या हैहम ज्वरग्रस्त हैं। दौड़ रहेभाग रहे। यह मिल जाएवह मिल जाए. . .। कुछ कभी मिलता भी नहीं। कुछ कभी मिला भी नहीं। मिलेगा भी नहीं। मगर एक सन्निपात है। सन्निपात के मरीज को देखादिखता है उसकी खाट उड़ रही हैआकाश में जा रहा हैनीचे-ऊपर बादलों पर चढ़ रहा है। मगर सब सन्निपात है। बुखार उतर जाएगान तो खाट उड़ती मिलेगीन बादलों पर चढ़ता हुआ अपने को पाएगा। न खाट उड़ी थी कभीसिर्फ सन्निपात थासिर्फ बेहोशी थी। सिर्फ ज्वर इतना तेज हो गया था कि होश डगमगा गया था।

जिंदगी क्या है मुसलसल शौक पैहम इज्तिराब।

हर कदम पहले से तेज रखता हूं मैं।।
ज़िंदगी क्या हैएक स्थायी आकांक्षा--बस दौड़े जाओ! एक वासना। जिंदगी क्या हैएक निरंतर व्याकुलता। अभी तो नहीं हुआथोड़ा और बढ़ूं तो हो जाएगा। अभी तो नहीं मिलाथोड़ा और तेज दौड़ूं तो शायद मिल जाए।

जिंदगी क्या है मुसलसल शौक पैहम इज्तिराब।

हर कदम पहले से तेज़ रखता हूं मैं।।
और ऐसे ही बुखार बढ़ता जाता है। इसी बुखार मेंइसी दौड़ मेंइसी गति में एक दिन हम अपनी कब्र में गिर जाते हैं। मगर बुखार में ही मरते हैं तो फिर बुखार में जन्म हो जाता है। बेहोश मरते हैंफिर किसी बेहोश गर्भ में प्रविष्ट हो जाते हैं। फिर पैदा हुएफिर चली वही यात्रा। फिर क ख ग से शुरू हुआ वही उपद्रव।
जागो! ऐसे जीवन को व्यर्थ मत करो। यही जीवन की ऊर्जा परम मुक्ति बन सकती हैपरम आनंद बन सकती है।

देखौ माई आज भलौ दिन लागत!
ऐसा दिन तुम्हारा भी आएजब तुम कह सको ः देखौ माई आज भलौ दिन लागत! आज भला दिन आ गया। सौभाग्य की घड़ी आ गयी! कौन-सी घड़ी सौभाग्य की घड़ी है?

बरिषा रितु कौ आगम आयौबैठि मलारहिं रागत।।

रामनाम के बादल उनएघोरि घोरि रस पागत।

तन मन मांहि भई शीतलतागए बिकार जु दागत।।

जा कारन हम फिरत बिवोगीनिशिदिन उठि-उठि जागत।

सुंदरदास दयाल भए प्रभु सोइ दियौ जोइ मांगत।।
जो मांगा था जन्मों-जन्मों मेंमिल गया! जो चाहा था अनंत-अनंत रूपों मेंमिल गया। भर गया हृदय। प्यासी धरती तृप्त हो गयी। मेघ आए और वर्षा कर गए।

देखौ माई आज भलौ दिन लागत।
और दिन वही हैकल ही जैसा दिन हैमगर आज भला लगता है। परमात्मा के हाथ में हाथ पड़ गया तो नरक भी स्वर्ग हो जाता है तत्क्षण! और तुम अकेले स्वर्ग में भी रहोपरमात्मा के बिनातो नरक में ही रहोगे!

देखौ माई आज भलौ दिन लागत

बरिषा रितु को आगम आयो. . .
आ गयी घड़ी वर्षा कीघिर गए मेघअब और प्यासे न रहना होगा।. . . बैठि मलारहिं रागत! अब तो बैठकर मल्हार राग गाते हैं। अब तो वीणा छेड़ दी है। अब तो उठाते हैं अनाहद। अब तो गाते हैंअब तो नाचते हैं। वही ऊर्जा जो क्रोध बनती थीगीत बन गयी। वही ऊर्जा जो काम बनती थीराम बन गयी। वही ऊर्जा जो जीवन की आपाधापी थीसंगीत बन गयी।
बैठ मलारहिं रागत. . .। अब तो वर्षा के बादल घिर गएअब तो मल्हार से स्वागत करें। अब तो गाएं और नाचें और गुनगुनाएं! अहोभाग्य की घड़ी आ गयी।
राम नाम के बादल उनए. . .। कौन-से बादल घने हो गए हैंकौन-से बादल आ गएरामनाम के बादल!
यह एक बहुत आंतरिक घटना की ओर इशारा है। समझना। एक तो तुम्हारा राम-राम का स्मरण हैवह तुम्हारा ही हैवह कुछ बहुत काम का नहीं है। लेकिन एक जैसी घड़ी है जब तुम चुप होते होबिल्कुल चुप होते होराम-राम भी नहीं जपतेक्योंकि जप भी विचार है--अजपा अवस्था में होते होजाप भी चला गयावह भी मन का ही रोग थावह भी मन का ही बुखार था। मन बकवासी है। कुछ-न-कुछ बकवास चाहिए। गाली न बको तो मंत्र जपोमगर कुछ-न-कुछ बकवास चाहिए। सब गया! रेख भी न बची बकवास की। अब मंत्र का उच्चार भी नहीं है भीतर। अजपा की स्थिति आ गयी। मन मौन है। बस उसी क्षण. . .
रामनाम के बादल उनए! उसी क्षण मंत्र तुम्हें पुकारने नहीं पड़तेमंत्र तुम पर बरसते हैं। ओंकार का नाद अपने-आप उठता है। तुम सुननेवाले होते हो। तुम साक्षी होते हो। ऐसा नहीं कि तुम दोहरा रहे हो--बजता है नाद! बज रहा है नाद। मौन में सुन लिया जाता हैपकड़ लिया जाता है। तुम्हारा मन जब तक ऊहापोह से भरा हैशोरगुल से भरा हैसुनायी नहीं पड़ता! संगीत सूक्ष्म है!
रामनाम के बादल उनएइसका अर्थ हैः तुम नहीं कर रहे हो रामनाम का स्मरण अब। अब तो बिल्कुल चुप होतुम तो खाली पात्र की तरह बैठे होशून्य। जब तुम शून्य पात्र की तरह बैठे होते होरामनाम की वर्षा होती हैरामनाम के मेघ घिरते हैं। समाधि बरसती है। जैसे मेघ आकाश में घिरते हैं और पृथ्वी पर वर्षा होती हैऐसे ही उस अनंत के आकाश में समाधि के मेघ घिरते हैं। बुद्ध ने तो उस समाधि को नाम ही दिया--मेघ समाधि!

रामनाम के बादल उनए घोरि घोरि रस पागत।
और ऐसा रस बरस रहा हैएक-एक बूंद रस में पगी है! एक-एक बूंद अमरस से भरी है।
हमारैं गुरु दीनी एक जरी
कहा कहूं कछु कहत न आवैअमृतरसहिं भरी!
तन मन माहिं भइ शीतलता!
सब शीतल हो गया! भीतर शून्य हो जाए तो सब शीतल हो जाता है। यह सारा उत्ताप मन का और तन का हैये सारी बेचैनियांबेताबियांअशांतियांये वासनाएंकामनाएंएषणाएं ये तृष्णाएं सब शांत हो जाती हैं। यह सब ज्वर है।

तन-मन माहिं भई शीतलतागए बिकार जु दागत।
जिन्होंने जाना है उन्होंने दो तरह की समाधि की बात की है--एक सबीज समाधिएक निर्बीज समाधि! आदमी चेष्टा से मिलती हैवह सबीज समाधिउसमें बीज तो रह ही जाते हैंऔर बीज रह जाएं तो खतरा है। फिर कभी मौका आकर अंकुर हो जाएंगे। आदमी की चेष्टा सबीज समाधि के पार नहीं ले जाती। निर्बीज समाधि का अर्थ है जहां बीज भी दग्ध हो गया। वह तो उसकी कृपा से ही होता है। वह तो जब वही बरसता है तभी होता है।
गए बिकार जु दागत! जल गएसारे विकार जल गएजब उनके लौटने का कोई उपाय ही न रहा। बीज जल गएअब अंकुरित नहीं हो सकते।
और इसी के लिए तो हम जन्मों-जन्मों से वियोगी बने घूम रहे थे!

जा कारनि हम फिरत बिवोगीनिशिदिनी उठि-उठि जागत।
और जिसके लिए हम रात-रात जाग-जाग कर उठ-उठ कर चेष्टा करते रहे थे!

सुंदरदास दयाल भए प्रभुसोई दियौ जोइ मांगत।।
हमारे मांगने-मांगने खोजने-खोजने से नहीं मिला थावह आज परमात्मा की सिर्फ कृपा से मिला है।
भक्त का अनुभव यह हैः प्रयास से नहीं मिलताप्रसाद से मिलता है। और इसका यह अर्थ नहीं है कि प्रयास मत करना। प्रयास तो पूरा कर लेना! जब तुम्हारा प्रयास पूरा हो जाता है और थककर तुम गिर जाते होउस क्षण प्रसाद की वर्षा होती है।
देखो माई आज भलौ दिन लागत।
"प्रसादशब्द को स्मरण रखो! भक्ति के शास्त्र में प्रसाद का अर्थ हैः हमारी चेष्टा से नहींउसकी अनुकंपा सेउसकी कृपा से। वह रहीम हैवह रहमान है।

गुनाह गिन के क्यों मैं अपने दिल को छोटा करूं।

सुना है तेरे करम का कोई हिसाब नहीं।।
भक्त कहता हैः मैं क्या गिनती करूं अपने गुनाहों कीयूं तो बहुत किए हैंमगर गिनती भी क्या करूंमेरी गिनती छोटी ही होगी! मैंने जितने गुनाह किए हैंउनका क्या मूल्यतेरी अनुकंपा के सामनेतेरा करम है। तू करीम है।

गुनाह गिन के क्यों मैं अपने दिल को छोटा करूं। 

सुना है तेरे करम का कोई हिसाब नहीं।।
तो कितने ही गुनाह किए हों मैंने और कितना ही कूड़ा-करकट इकट्ठा कर लिया होलेकिन तेरी बाढ़ जब आएगी. . . सुना है तेरे करम का कोई हिसाब नहीं. . . तो तू सब बहा ले जाएगा।
वह फर्क समझ लेना! योगी कहता हैः हमें चेष्टा करनी होगीएक-एक कर्म को काटना होगा। जितने बुरे कर्म किए हैंउनके ठीक मुकाबले तराजू पर दूसरी तरफ दूसरे पलड़े पर अच्छे कर्म करने पड़ेंगे। पाप को पुण्य से काटेंगेतब कहीं सिद्धि होगी। भक्त कहता हैः अगर हम पाप से पुण्य को काटते रहे तो सिद्धि शायद कभी न होगीहमारे पाप इतने हैंहमारे गुनाह इतने हैं! और जिससे इतने गुनाह हुए हैंवह कैसे पुण्य करेगाउसके पुण्य में भी गुनाह की छाया होगी! उसके पुण्य में भी पाप का ज़हर होगा!
समझोएक आदमी ने खूब पाप किया! चोरी कीचपाटी कीशोषण कियाकिसी तरह रुपया इकट्ठा कर लियाअब घबड़ायाकि अब यह रुपए का पाप इतना कर लियाइतना गुनाह कर लियाचलो मंदिर बनवा दो। लेकिन पाप से मंदिर बनेगा। मंदिर बनेगा कैसेसोचो कि चलो धन का दान कर देंमगर दानचोरी से पैदा हो रहा है दान। चोरी से कहीं दान पैदा हो सकता है!
एक क्रोधी आदमी कसम खा लेता है कि अब मैं क्रोध नहीं करूंगा। उसकी कसम में भी क्रोध होता है। वह क्रोध में ही कसम खा लेता है। इस बात को समझना।
आदमी अज्ञानी है। वह जो भी करेगाउसमें उसके अज्ञान की छाया तो पड़ेगी। हमसे पुण्य कैसे हो पाएंगेभक्त का कहना यह है कि हमारे किए तो जो भी होगा पाप ही होगा। हमारा किया है तो पाप होगा। क्योंकि अहंकार मौजूद रहेगा। मैंने किया! मेरा उपवासमेरा व्रतमेरा त्याग! और अहंकार विष है।
नहींहमारे किए कुछ भी न होगा। हम असहाय हैं। उसके किए होगा। उसकी मर्जी पूरी होगी! हम इतना ही कर सकते हैं कि छोड़ दें अपने को उसके साथउसके बहाव मेंउसकी रौ में बह जाएं उसकी लहर में। जहां ले जाए उसकी गंगा। जहां डुबाए तो डूबें और उबारे तो उबरें। ऐसा समर्पण हो तो प्रसाद की वर्षा होती है।
ऐसे भक्त डूबता है और डूबकर जाता है। गिरता है असहाय होकर और परम सहायता उसे उपलब्ध हो जाती है। ऐसे भक्त बेहोशी में डगमगाता हैऔर ज्ञानियों के होश को भी मात कर देऐसे होश पा लेता है।

खोया हुआ सा रहता हूं अकसर मैं इश्क में।

या यूं कहो कि होश में आने लगा हूं मैं।।
उसकी बेहोशी में होश का दीया है। उसके लड़खड़ाने में भी गहरी सावधानी है। उसके गिरने में भी उठना है।
भक्त एक विरोधाभास है। वह बिना पाए पाता है। बिना पाने की चेष्टा किए पाता है।
जा कारनि हम फिरत बिवोगी. . . जिसके लिए हम जन्मों-जन्मों तक वियोगी बने घूमते रहे और न पा सके. . . निसदिन उठि-उठि जागत। जिसके लिए हम कितनी चेष्टा करते रहेउठ-उठ कर जाग-जाग कर और नहीं पाया।

सुंदरदास दयाल भए प्रभुसोइ दियौ जोइ मांगत।।

जो मांगा थासब दे दिया। सब मिल गया।

देखौ माई आज भलौ दिन लागत।
ऐसा भला दिन तुम्हारा भी आए! आ सकता है। आज का दिन भी भला दिन हो सकता हैक्योंकि सभी दिन भले हैं। जिस दिन लगे उसी दिन भला। जिस दिन अहंकार समर्पित कियाउसी दिन प्रसाद बरसा।

देखौ माई आज भलौ दिन लागत!

बरिषा रितु को आगम आयौबैठि मलारहिं रागत!
तुमने अपना मल्हार अब तक गाया नहीं। अब तक तुमने अपना संगीत जमाया नहीं। अब तक तुम नाचे नहीं। नाचो भी कैसेनाचो भी किसलिएकोई कारण भी तो दिखाई नहीं पड़ता। शुभ घड़ी ही नहीं आयी। परमात्मा को पाए बिना कोई नाच ही नहीं सकता। यही तो फर्क है।
मीरां नाची--परमात्मा को पाकर नाची! नर्तकियां नाचती हैंलेकिन नर्तकियों के नृत्य में और मीरां के नृत्य में भेद है। नर्तकियों का नृत्य ऊपर-ऊपर हैकिसी हेतु से हैकिसी प्रलोभन से है। कला होगीमगर उनका प्राण नहीं है। मीरां प्राण से नाची। पाकर नाची! विभोर हो गयी। स्वभावतः कृतज्ञता जगीधन्यवाद का भाव उठा!

देखौ माई आज भलौ दिन लागत!

बरिषा रितु कौ आगम आयौबैठि मलारहिं रागत।।

रामनाम के बादल उनएघोरि रस पागत।

तन मन माहिं भई शीतलतागए बिकार जु दागत।।

जा कारनि हम फिरत बिवोगीनिशिदिन उठि-उठि जागत।

सुंदरदास दयाल भए प्रभुसोइ दियौ जोइ मांगत।।