Monday, September 30, 2019

swar vigyan

वाम नासिका का श्वासफल :
जिस समय इडा नाड़ी से अर्थात बाईं नासिका से श्वास चलता हो, उस समय स्थिर कर्मों को करना चाहिए, जैसे अलंकार धारण, दूर की यात्रा, आश्रम में प्रवेश, राज मंदिर तथा महल बनाना तथा द्रव्यादि को ग्रहण करना। तालाब, कुआं आदि जलाशय तथा देवस्तंभ आदि की प्रतिष्ठा करना। इसी समय यात्रा, दान, विवाह, नया कपड़ा पहनना, शांतिकर्म, पौष्टिक कर्म, दिव्यौषध सेवन, रसायन कार्य, प्रभु दर्शन, मि‍त्रता स्थापन एवं बाहर जाना आदि शुभ कार्य करने चाहिए। बाईं नाक से श्वास चलने के समय शुभ कार्य करने पर उन सब कार्यों में सिद्धि मिलती है, परंतु वायु, अग्नि और आकाश तत्व उदय के समय उक्त कार्य नहीं करने चाहिए।

दक्षिण नासिका का श्वासफल :
जिस समय पिंगला नाड़ी अर्थात दाहिनी नाक से श्वास चलता हो, उस समय कठिन कर्म करने चाहिए, जैसे कठिन क्रूर विद्या का अध्ययन और अध्यापन, स्त्री संसर्ग, नौकादि आरोहण, तान्त्रिकमतानुसार वीरमंत्रादिसम्मत उपासना, वैरी को दंड, शास्त्राभ्यास, गमन, पशु विक्रय, ईंट, पत्‍थर, काठ तथा रत्नादि का घिसना और छीलना, संगीत अभ्यास, यंत्र-तंत्र बनाना, किले और पहाड़ पर चढ़ना, हाथी, घोड़ा तथा रथ आदि की सवारी सीखना, व्यायाम, षट्कर्मसाधन, यक्षिणी, बेताल तथा भूतादिसाधन, औषधसेवन, लिपिलेखन, दान, क्रय-विक्रय, युद्ध, भोग, राजदर्शन, स्नानाहार आदि।
सुषुम्ना का श्वासफल :
दोनों नाकों से श्वास चलने के समय किसी प्रकार का शुभ या अशुभ कार्य नहीं करना चाहिए। उस समय कोई भी काम करने से वह निष्फल ही होगा। उस समय योगाभ्यास और ध्यान-धारणादि के द्वारा केवल भगवान को स्मरण करना उचित है। सुषुम्ना नाड़ी से श्वास चलने के समय किसी को भी शाप या वर प्रदान करने पर वह सफल होता है।

श्वास-प्रश्वास की गति जानकर, तत्वज्ञान के अनुसार, तिथि-नक्षत्र के अनुसार, ठीक-ठीक नियमपूर्वक सब कर्मों को करने पर आशाभंगजनित मनस्ताप नहीं भोगना पड़ता। परंतु यहां विस्तृत रूप से इन सब बातों का वर्णन करने पर एक बड़ी भारी पुस्तक तैयार हो जाएगी। बुद्धिमान पाठक इस संक्षिप्त अंश को पढ़कर यदि ठीक-ठीक कार्य करेंगे तो निश्चय ही सफल मनोरथ होंगे।
- कल्याण के दसवें वर्ष का विशेषांक योगांक से साभार

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जीवन और मृत्यु के बीच की डोर हमारी नाक से बहता सांस ही है। जब तक ये सांस है, जीवन है और इस डोर का टूटना ही मृत्यु है। चूँकि इस सांस में जीवन है इसलिए ये सांस अपने आप में अनेक रहस्य छिपाए हुए होती है। इसी सांस में न केवल स्वास्थ्य का खज़ाना छुपा है बल्कि जीवन के हर छोटे-बड़े कार्यों की सफलता के लिए यह सांस हमें अपनी भाषा में कुछ न कुछ कहता रहता है। जिसका एक पूरा विज्ञान है इसको स्वर विज्ञान कहा जाता है। इस विज्ञान के आधार से नाक में दोनों छिद्र में बहता श्वास स्वर कहलाता है। बाएं नासिका में चन्द्र स्वर और दायीं नासिका में सूर्य स्वर बहता है। चन्द्र स्वर में इड़ा नाड़ी होती है, यह स्वर ठंडी प्रकृति का होता है। जब सांस इससे आता-जाता है तब शरीर में ठंडकपन आती है यह स्वर हमारे दाए मस्तिष्क को सक्रीय बनाता है जबकि सूर्य स्वर में पिंगला नाड़ी होती है यह स्वर गर्म प्रकृति का होता है। जब सांस दायें से आता-जाता है तब शरीर में गर्मी आती है।
यह स्वर बाएं मस्तिष्क को सक्रिय बनता है।     

सुबह उठने के बाद से लगभग ढ़ाई घड़ी यानि एक घंटे तक एक स्वर चलता है और फिर यह स्वर शरीर की आवश्यकता के अनुसार अपने आप बदल जाता है और जो सांस अभी बाई नाक से आ रही थी वो दाए से बहने लगती है ये स्वर परिवर्तन बड़ी बारीकी से होता है व्यक्ति को इसका अहसास तक नहीं हो पाता। जब स्वर बदलता है तब कुछ देर के लिए ऊर्जा मस्तिष्क के मध्य भाग में बहने लगती है उस समय ऐसा लगता है कि मानो दोनों स्वर चल रहे हो। इस स्वर परिवर्तन के समय एक तीसरी नाड़ी चलने लगती है जिसको सुषुम्ना कहते है। यह नाड़ी आध्यात्मिक दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण होती है। यह मध्य नाड़ी चक्रों में बहती ऊर्जा को उर्ध्वगामी कराती है। यह स्वर कुछ समय लगभग तीन से चार मिनट के लिए ही होता है। जब यह स्वर चलता है तब व्यक्ति में हल्कापन व मन की शांति का अनुभव होने लगता है। ध्यान में बैठने और पहाड़ों पर सुषुम्ना ज्यादा चलती है ऐसे ही किसी महापुरुष के सामने आने या मंदिर और धार्मिक स्थान में जाते ही सुषुम्ना खुल जाती । 

यह शास्त्र एक ज्योतिष शास्त्र के साथ-साथ जीवन जीने के सभी पहलु को सीखाता है। तन और मन की चिकित्सा भी इसी के आधार पर की जाती थी। इसी स्वर को व्यवस्थित करने के लिए प्राणायाम किया जाता । जिससे इन स्वरों में ठीक प्रकार से ऊर्जा का प्रवाह होकर शरीर स्वस्थ बना रहे। योगशास्त्र कहता है कि स्वर के गड़बड़ाने से रोग पैदा होते हैं और प्राणायाम से इन्हीं स्वरों को फिर से व्यवस्थित करके रोग को ठीक किया जाता है।  

स्वर शास्त्र बताता है कि किस स्वर के चलने पर क्या करे और क्या न करें। जैसे बाएं स्वर के चलने पर सौम्य तथा स्थिर कर्म करने चाहिए और दायें स्वर के चलने पर शारीरिक परिश्रम के कार्य करने चाहिए तो थकान नहीं होगी। सुषुम्ना के चलने के समय ध्यान, भक्ति, स्वाध्याय में रहना चाहिए क्योंकि सुषुम्ना के चलने पर अन्य कोई और कार्य सिद्ध नहीं होता। दिन के समय सूर्य नाड़ी और रात के समय चन्द्रमा नाड़ी का चलना उचित रहता है। शास्त्र कहता है जिससे बात कर रहे हो उसी नासारन्ध्र की तरफ उस व्यक्ति को रखकर बात करें तो सफलता मिलती है। दूर देश जाना हो तो चन्द्रमा नाड़ी और समीप देश जाना हो तो सूर्य नाड़ी में गमन करें। दाए स्वर में भोजन करें और बाए स्वर में जल पीये। घर से निकलने के समय जो स्वर चल रहा हो यदि वही पैर पहले बाहर निकालें तो कार्य पूर्ण होता है । इस प्रकार यह विज्ञान अनेक जानकारी देता है यह जानकारियां इतनी फायदेमंद रही होगी की आज भी काफी बुजुर्ग लोग इन बातों का ध्यान रखते हैं । 

Thursday, September 26, 2019

hath yoga

On Mudras[सम्पाद्यताम्]

  1. जिस प्रकार भगवान अनन्त नाग पर ही यह संपूर्ण संसार टिका हुआ है, उसी प्रकार सभी तन्त्र (योग क्रियायें) भी कुण्डली पर टिकी हैं।
  2. जब गुरु की कृपा से सोती हुई कुण्डली शक्ति जागती है, तब सभी कमल (छे चक्र) और गन्ठियां भिन्न हैं।
  3. सुशुम्न नाडी प्राण का मुख्य पथ बनती है, और मन तब सभी संगों और विचारों से मुक्त हो जाता है, तथा मृत्यु पर विजय प्राप्त होती है।
  4. सुशुम्न, शुन्य पदवी, ब्रह्म रन्ध्रा, महापथ, स्मासन, संभवी, मध्य मार्ग - यह सब एक ही वस्तु के नाम हैं।
  5. इसलिये, इस कुण्डली देवी को जगाने के लिये, जो ब्रह्म द्वारा पर सो रही है, मुद्राओं का अभ्यास करना चाहिये।

The Mudras[सम्पाद्यताम्]

  1. दस मुद्रायें हैं जो जरा और मृत्यु का विनाश करती हैं। ये हैं महा मुद्रा, महा बन्ध, महा वेध, केचरी, उद्दियान बन्ध, मूल बन्ध, जल्न्धर बन्ध, विपरीत करनी, विज्रोली, शक्ति चलन।
  2. इनका भगवान आदि नाथ (शिवजी) नें वर्णन किया है और इन से आठों प्रकार की दैविक सम्पत्तियाँ प्राप्त होती है। सभी सिद्धगण इन्हें मानते हैं, और ये मारुतों के लिया भी प्राप्त करनी कठिन हैं।
  3. इन मुद्राओं को हर ठंग से रहस्य रखना चाहिये, जैसे कोई अपना सोने की तिजोरी रखता है, और कभी भी किसी भी कारण से किसी को नहीं बताना चाहिये जैसे पति और पत्नि आपनी आपस की बातें छुपाते हैं।

The Maha Mudra[सम्पाद्यताम्]

  1. योनि (perineum) को अपने left पैर का एडी से दबाते हुये, और right पैर को आगे फैला कर उसकी उंगलीयों को अपने अंगूठे और पहली उंगली से पकड कर बैठें।
  2. साँस अन्दर लेने के बाद जलन्धर बन्ध (Jalandhara Bandha) द्वारा वायु को नीचे की ओर धकेलें। जैसे साँप सोटी की मार से सोटी की तरह सीधा हो जाता है उसी प्रकार शक्ति (कुण्डली) भी इस से सीधी हो जाती है। तब कुण्डली ईद और पिंगल नाडीयों को त्याग कर सुशुमन (मध्य मार्ग) में प्रवेश करती है।
  3. फिर वायु को धीरे धीरे धोडना चाहिये, जोर से नहीं। इसी कारण से इसे बुद्धिमान लोगों ने महामुद्रा कहा है। महा मुद्रा का प्रचार महान ऋषियों ने किया है।
  4. महान कष्ट जैसे मृत्यु इस से नष्ट होते हैं, और इसी कारण से इसे महा मुद्रा कहा गया है।
  5. इसे left nostril से करने के बाद, फिर right नासिका से करना चाहिये और जब दोनो तरफ का अंग बराबर हो तभी इसे बंद करना चाहिये।
  6. इसमें सिद्ध होने के बाद कुछ भी खतरनाख या हानिकारक नहीं है क्योंकि इस मुद्रा के अभ्यास से सभी रसों के हानिकारक तत्वों का अन्त हो जाता है। जहरीले से जहरीला जहर भी शहद जैसे असर करता है।
  7. भूख न लगना, leprosy, prolapsus anii, colic, and और बदहजमी के रोग,-- यह सब रोग इस महामुद्रा के अभ्यास से दूर हो जाते हैं।
  8. यह महा मुद्रा महान सफलता दायक बताई गई है। इसे हर प्रयास से रहस्य ही रखना चाहिये और कभी भी किसी को भी बताना नहीं चाहिये।

The Maha Bandha[सम्पाद्यताम्]

  1. अपनी left ऐडी को अपने नीचे दबा कर (perineum के साथ दबा कर) अपने right foot को अपने left thigh पर रखें।
  2. फिर साँस अन्दर ले कर, अपनी ठोडी को अच्छे से छाती पर दबा कर, और इस प्रकार वायु को दबा कर, मन को eyebrows के मध्य में स्थापित करें।
  3. इस प्रकार जब तक संभव हो वायु को रोक कर, फिर धीरे धीरे निकालें। इसे left side पर करने के बाद फिर right तरफ करें।
  4. कुछ मानते हैं की गले का बंद करना जरूरी नहीं है, क्योंकि जीहवा को अपने ऊपर के दाँतों की जड़ के against अच्छे से दबा कर रखा जाये, तब भी अच्छा बन्ध बनता है।
  5. इस बन्ध सो सभी नाडीयों में ऊपर की ओर का प्रवाह रुकता है। यह मुद्रा महान सफलता देने वाली है।
  6. यह महा बन्ध मृत्यु को काटने का सबसे होनहार उपकरण है। इस से त्रिवेणी उत्पन्न होती है (conjunction of the Triveni (Ida, Pingala and Susumna)) और मन केदार को जाता है (eyebrows के मध्य का स्थान, भगवान शिव का स्थान)।
  7. जैसे सौन्दर्य और सौम्यता एक नारी को बेकार हैं यदि उस का पति न हो, उसी प्रकार महा मुद्रा और महा बन्ध बेकार हैं महा वेध के।

The Maha Vedha[सम्पाद्यताम्]

  1. महा बन्ध में बैठ कर, योगी को वायु भर कर अपने मन को बाँध कर रखना चाहिये। गले को बंद करने द्वारा वायु प्रवाह (प्राण और अपान) को रोकना चाहिये।
  2. दोनो हाथों को बराबर धरती पर रख कर, उसे स्वयं को जरा सा उठाना चाहिये और फिर अपने buttocks को धरती पर आयसते से मारना चाहिये। ऐसा करने से वायु दोनो नाडीयों को छोड कर बीच का नाडी में प्रवेश करती है।
  3. इस प्रवेश को ईद और पिंगल का मिलन कहते हैं, जिस से अमरता प्राप्त होती है। जब वायु ऐसे हो जाये मानो मर गई है (हलचल हीन हो जाये) तो उसे निकाल देना चाहिये।
  4. इस महा वेध का अभ्यास, महान सिद्धियाँ देने वाला है, जरा का अन्त करता है, सफेद बाल, शरीर का काँपना - इन का अन्त करता है। इसलिये, महान योगी जन इसका सेवन करते हैं।
  5. यह तीनों (मुद्रायें) ही महान रहस्य हैं। यह जरा और मृत्यु के नाशक हैं, भूख बढाते हैं, और दैविक शक्तियां प्रदान करते हैं।
  6. इन्हें आठों प्रकार से अभ्यास करना चाहिये - हर रोज। इन से पुण्य कोश बढता है और पाप कम होते हैं। मनुष्य को, अच्छे से सीख कर धीरे धीरे इन्का अभ्यास बढाना चाहिये।