Friday, December 27, 2019

सुंदरी परिव्राजिका—(ऐतिहासिक कहानी)

सुंदरी परिव्राजिका-(कहानी)-मनसा दसघरा

सुंदरी परिव्राजिका—(ऐतिहासिक कहानी)

गरीब ब्राह्मण सोम मित्र की कुटिया का आँगन, बहार अपनी पाँच वर्ष की लड़की को गोद में लिए कच्चे दालान में बैठा है। अंदर उसकी पत्नी को प्रसव पीड़ा तीन दिन से हो रही है। छटपटाती रही है अंदर, बहार ब्राह्मण केवल भगवान से सब ठीक-ठाक होने की दुआ मांग रहा था। किस तरह से आज तीसरे दिन अंदर से बच्चे के रोने की किलकारी सुनाई दी, परन्तु उसके पीछे एक दुःख भरी घटना भी साथ आई, बच्ची ने जीवन की पहली सांस ली वही बाह्मनी की आखिरी स्वास के साथ प्राण निकल गए। सोम मित्र की कुछ देर तो समझ में नहीं आया की रोएं या क्‍या करें। घर में हाहाकार मच गया। एक बच्ची आते ही अभागी बन गई जिसके सर से मां के आंचल का साया क़ुदरत ने पल भर में छीन लिया। कन्या रूप में इतनी सुंदर थी, जो उसे देखता बस दंग रह जाता। सब लोगों न असली नाम की पहचान तो भूल गए, सब उसे सुंदरी के नाम से ही पुकारने लगे।

      धीरे-धीरे समय गुजरता चला गया। जैसे-जैसे सुन्‍दरी बड़ी होने लगी, उसका सौंदर्य विषमय रूप बढ़ने लगा। रूप के साथ वह बुद्ध में अति कुशाग्र दिखाई देने लगी। पिता गरीब बाह्रमण जन्म पत्री, टेवे, य गण, आदि से रोजगार चलता था। बाकी समय वो घर में विद्या अध्ययन  करता रहता था।
बचपन से ही पिता के साथ रामायण, महाभारत, उपनिषद, मेघ दुत, अभिज्ञान शकुन्‍तला, आदि धार्मिक पुस्तकें पिता कि‍ ज़ुबानी सुनते-सुनते धीर-धीर खुद भी पढ़ने लगी। बड़ी बहन की पास के एक गांव पुरोहित के लड़के के साथ शादी कर दी। अब घर में दो ही प्राणी रह गए। लेकिन होनी कोई कह कर थोड़े ही आती है। जब सोम मित्र को लगा की अब जीवन का बोझ कम हो गया है। एक सुंदरी की भी चार-पाँच साल में शादी कर एक बार चारों धाम को चला जाएगा। जीवन में सुख मिला ही कहा। कहा है यहाँ सुख। देखता बौद्ध भिक्षुओं को लगता ये नव युवक सब छोड़ कर इस गोतम के पीछे दीवाने हो कर घूमते है। जितने पंडित पुरोहित थे उन्‍हें लगता जो गोतम की बात सुन लेता वह पूजा पाठ बंद करा देता। ऐसे ही चलता रहा तो अपना ये धंधा ज्यादा दिन चलने वाला नहीं है। ये गोतम सब को भ्रष्ट कर देगा। जो सालों से धर्म चला आ रहा था उसे ये गलत बता रहा है। कैसे समय आ गया।
 बड़ी बहन नील मणि‍ के पति ने घर में एक दूसरी औरत को और बिठा लिया। नील मणि‍ के उपर अत्याचार करने लगा। पिता ने जाकर कई बाद समझाया आखिर पिता अपनी लड़की को वापस अपने घर ही ले आया। वहाँ कसाई के हाथ मैं अपनी लड़की को छोड़ न सका। पहले माता की मृत्यु, फिर पिता का दुख, अब बड़ी बहन को देख कर सुंदरी को लगा ये संसार है ही ऐसा यहां सुख है ही नहीं। जिनके पास राज महल, सुख वैभव था वे भी अपना सब कुछ छोड़़-छाड़ का इस गौतम के पीछे आ गये । वो पिता से पुछती पिता अंदर से जानते थे की मुझे कुछ नहीं मिला लेकिन सहसा न कर सके गोतम को सुनने का। ऐसा ही आदमी का मन होता है। वा उस पुरानी लकीर को नहीं छोड़ सकता जिसे वो जानता है। इतने साल चलने के बाद भी अपने को ठगा सा खड़ा पता है। कही भी शीतलता  कि छाव नहीं मिली। इन बौद्ध भिक्षुओं का चलना इनके चेहरे का तेज देख कर, लगता है इन्हें पथ मिल गया है। मुझे मार्ग का ही पता न चला। ये सब पेट भरने की आजीविका है मात्र में धर्म को कहां समझा। हां बेटी, लगता है इस गोतम को वो मिल गया लगता है, जिसकी मनुष्‍य जन्मों की साध पीछे लिए चलता है। उसे इस गोतम न जीवित कर दिया।
      सुंदरी जब श्रावस्‍ती में बौद्ध भिक्षुओं को घूमते देखती, तो उसे बहुत अच्छा लगता। जब उसके यहाँ भिक्षा मांगने कोई जैन, या बौद्ध भिक्षु आ जाता तो उसे कितना सुखद लगता। लेकिन उन लोगों के सामर्थ्य के बहार कि बात थी रोज-रोज किसी को भोजन कराना। फिर भी जब तब वो किसी न किसी भिक्षु को बुला ही लाती। कई बार तो अति धनाढ्य  घर से आये युवक से पुछती तुम्हारे पास तो सब था फिर तुम भिक्षु क्यों हो गये। वो युवक हंसता और कहता । इसी लिए तो मैं भिक्षु बन गया कि मैंने देख लिया सुख वैभव में भी शांति नहीं है। ये बातें सुन कर उसका मन करता की वो भी क्यों न भिक्षुणी हो जाए। एक दिन हिम्मत कर के पिता से पूछ लिया कि मैं  भी भिक्षुणी होना चाहती हूं। गरीब सोम मित्र की आंखों में आंसू आ गए, उसे लगा वो धन्य हो गया लड़का होता तो उसे खुद उत्साहित करता इस मार्ग पर चलने के लिए। लेकिन लड़की....बेटी मार्ग अति कठिन है, अगर तू चलना चाहेगी तो मैं तुझे रोकेगा नहीं। परंतु खड्ग पर चलने जैस है। सुंदरी को लगा गरीब था,उसका पिता परन्तु सत्य का हिमायती था।
      सुंदरी ने कहा: लेकिन गृहिणी‍ का मार्ग क्‍या आसान है, जीजी को देख लो, क्‍या हे औरत का जीवन, पति की सेवा करना, उसके लिए बच्चे पैदा करना, उसके अत्याचार सहना, फिर क्यों न में अपने जीवन के लिए कुछ करुँ। आप मुझे आदर्शवाद दे-दे। पुरी उम्र औरत पिता, पति और पोत्र इन तीन ‘प’ के पीछे खत्म कर देती है।
      इसी बीच वह जैत वन में जाकर भगवान के वचन सुनने लगी। उन दिनों भगवान ने स्त्रियो को भी सन्यास देना आरंभ कर दिया था।  इसी बीच एक दिन सुंदरी भगवान के शिविर में जा कर भिक्षुणी बन गई। पिता को लगा उसने जीवन में कुछ पुण्य कि था, जिसके बदले ये दिन देखने को मिला। एक चमत्कार और हुआ एक दिन नील मणि का पति भी अपने किये पर पछतावा करता आ गया। और रोने गिड़गिडाने लगा की नील मणि‍ को भेज दो। वो छिनाल तो मेरा सब धन दौलत ले कर एक दिन रात को रफ़ू चक्‍कर हो गई। पिता को लगा भगवान न उसकी सुन ली। उसके सारे भार उतर गये, और सच ही कुछ ही दिनों में वह तीर्थ यात्रा को चला गया।
      धीरे-धीरे समय गुजरता चला गया, सुंदरी ध्यान में अच्छी गति‍ पाने लगी। इसके साथ-साथ भगवान का प्रभाव भी दिन-प्रति-दिन बढ़ रहा था। और जो धर्म अनुरागी थे वह अतीव रूप से आनंदित थे। उनके ह्रदय कमल भगवान की अनुपस्थिति खील रहे थे। मानों चकवा चाँद को देख मधुर पुकार कर रहा है। उनके जीवन में आनंद प्रसाद की लहरे हिलोरे ले रही थी। उनके पास एक चीवर और एक भिक्षा पात्र होने पर भी अति आनंदित थे। फिर भी उनकी चाल में एक मस्ती थी, एक गौरव-गरिमा थी, उनके वचनों में ओज था, एक माधुर्य बरसता था उनके सान्निध्य अभूतपूर्व था। वह एक ऐसा चमत्कारी जीवन था जो शब्दों में बांधा नहीं जा सकता। उसे तो पिया ही जा सकता है। ओर जो पी रहे थे वह उनके चेहरे ओर चाल से टपक ही नहीं रहा था झर रहा था। उनके मन पंख बन आसमान में विहग बन उड़ान भर रहे थे। लेकिन सब तो ऐसे नहीं थे कुछ तो ऐसे थे कि जिनके मन में भगवान कि उपस्थित भाले की तरह चूभ रही थी। भगवान का बढ़ता प्रभाव देख उनकी छाती पर सांप लोट रहे थे। ऐसे पंडित-पुरोहितों का धंधा खतम कर रहे थे, भगवान। एक हीरे के सामने कांच के टुकड़े जिसमें अपनी रोशनी तो होती नहीं उधार की रोशनी के सामने भी ढकोसलों के काले बादल छा गए थे। जिसके नीचे धर्म ऐसे छुप कर रह गया था कि केवल वहां समय कि गर्द ही दिखाई दे रही थी। अब भला ये पंडित-पुरोहित कैसे उस धुल धमास को गौतम के हटाने को सहन करते।
      क्योंकि गौतम की शिक्षाऐं तो जिसे वो धर्म कहते थे उसके प्रतिकूल थी। गौतम बुद्ध परंपरावादी नहीं थे। न संप्रदाय वादी थे। न ही पुरानी पिटी पिटाई लकीर पर चलने वाले थे। वो अंध विश्वासी पंडित-पुरोहित उस सूर्य के उगते प्रकाश पुंज के सामने चक्का चौंध हो घबरा गये थे। धर्म तो अतीत पर निर्भर नहीं होता। एक बुद्ध पुरूष‍ तो अपनी उपनिषद, गीता, कुरान, बाइबिल खुद होता है। उसका चलना, खाना, सोना एक-एक महा वाक्य होते है। वो इन मुर्दा किताबों में धर्म की कब्र को खोद कर अगर हीरे मोती भी निकालता है। है तो उन्‍हें लगता है ये क्या यहाँ तो मुर्दों की दुर्गंध आनी चाहिए, उसे वो व्याख्या भी फूटी आँख नहीं सहाती थी।
      गौतम बुद्ध कि निष्ठा समाज में नहीं थी। धर्म तो व्यक्तिगत होता है। वह कभी समाज नहीं बन सकता, वह तो सम्प्रदाय ही बन सकता है। आकाश में कोई परमात्मा नहीं है, ये कोई देवी-देवता नहीं बैठा जो तुम्हारे पाप पुण्य देखे या गिन रहा है। भगवान ने मनुष्‍य की और मनुष्‍य के चैतन्य की परम प्रतिष्ठा की थी।
      इस सबसे रूढ़ि वादी दकियानूसी धर्म के नाम पर भाति-भाति के शोषण में संलग्न, पंडित-पुरोहितों ओर तथा कथित धर्म गुरुओं ने नाम पर किसी भी भाति बदनाम करने की साजिश रची। उन्होंने सुंदरी परिव्राजिका को विशाल धन राशि का लोभ दे कर राज़ी कर लिया कि वह भगवान की बदनामी में सहयोग देगी और उनके अपयश फैलाने में उनका सहयोग करेगी। सुंदरी के मन में जो दबी वासना थी, की वो भी धनवान हो वो निकल कर सामने आ गई और वो उन पंडित पुरोहितों के जाल में फंस गई।
      सुंदरी नीत जैत बन में जाती और अन्य परिव्राजिका के समुह में रात गुजराती और सुबह जब श्रावस्‍ती नगर में प्रवेश करती तो वहीं लोगों जिन्होंने उसे धन का लालच दिया था रास्ते के किनारे खड़े हो कर पुछते कि सुंदरी कहां से आ रही हो। आज चेहरा बड़ा चमक रहा है। आंखें के डोरे लाल है। क्या रात भर सोई नहीं लगता है। तरह-तरह की बात करते। और सुंदरी पहले तो वह केवल मुस्कुरा भर देती। लेकिन धीरे-धारे जब मुस्कुराने से भी भीड़ इक्कठा नहीं होते लगी तो वो कहने लगी की यह एक राज की बात है, आपके सामने कहने में मुझे थोड़ी शर्म ओर लाज भी आ रही है। परंतु क्या बताऊं सच मानों या न मानों मैं...... ओर वह एक लटके झटके से कहती की..... श्रवण गोतम को रति में रमण करा कर आ रही हूं। ओर ये कहा वह एक अदा के साथ आगे बढ़ जाती।
      ऐसे धीरे-धीरे भगवान की बदनामी फैलने लगी। लेकिन भगवान कुछ नहीं बोले, चुप रहें। भिक्षुओं का भिक्षा टन करना कठिन होता जा रहा था। एक ही झूठ को आप बार-बार बोलोगे तो हमारा मन कुछ इस तरह से बना है उस वह सच मानने लग जाता है। धीरे-धीरे लोग उसकी बातों को चटकारे लें-लें कर सुनने लगे। जब भगवान को बताया गया कही सुंदरी आप ओर संध की बदनामी कर रही है। सुंदरी के विषय में ये बातें सून कर भगवान केवल हंसे दिये कुछ भी नहीं बोले। अब पूरे श्रावस्‍ती में चारों ओर यहीं चर्चा का एक ही विषय था भगवान और सुंदरी का प्रेम प्रसंग। बात एक जबान से दुसरी जबान तक जाते-जाते उसमें और अतिशयोक्ति लग जाती। इसका प्रति फल ये हुआ की लोगों ने भिक्षुओं को भिक्षा देना बंद कर दिया। भगवान के पास आने वालों की संख्या भी धीरे-धारे घटने लगी। कहां पहले हजारों की भीड़ होती थी अब बँगलियों पर गिने जा सकते है। इतने भर रह गए। भगवान हंसते और कहते की देखा चमत्कार सुंदरी परिव्राजिका का सोना-सोना रह गया, कचरा-कचरा जल गया। कैसा अपूर्व कार्य किया है सुंदरी ने। भगवान न कभी सुंदरी से एक शब्द नहीं पूछा । न ही उसके आने जाने पर रोक लगाई। वह नित प्रतिदिन की तरह जैत वन में आती रहती भगवान की गंध कुटी में आने का उसका सहसा नहीं हाता। अपने इस कुकृत्य पर धीरे-धीरे सुंदरी पछताने लगी। उसे लगता मुझे भगवान न डांटा न कभी कुछ पूछा, ऐसा नहीं था भगवान डाटते नहीं थे कितनी ही कथाओं में हम देखते है कि भगवान न भिक्षुओं को बुलाया डाट है। उसे अपने इस कृत्य से उबकाई सी आने लगी। उसके अब श्रावस्‍ती में जा कर कहना वैसा नाटकीय न रहा, नहीं उसे ये कहने में अब कोई रस आता था। उसकी ये हरकतें देख कर वो धर्म गुरु डर गए और उन्होने कुछ गुंडों को धन दे कर सुंदरी को मरवा डाला। और उसकी लाश जैत वन में ही एक भूसे के ढेर में छुपा दी।
      सुंदरी की हत्या के बाद उन धर्म गुरुओं ने नगर में यह खबर फैला दी कि मालूम होता है कि भगवान बुद्ध ने अपने पाप को छुपाने के लिए सुंदरी को मरवा डाला। उन्होंने राजा प्रसेनजित को भी शिकायत की, महाराज हमें लगता है इस गौतम ने अपने प्रेम प्रसंग को छुपाने के लिए सुंदरी को मरवा डाला है। प्रसेनजित भगवान का अनन्य भगत था। वो भगवान को जानते था और जानता था इन पंडित पुरोहितों को। लेकिन उसके पास भगवान की बेगुनाही का कोई सबूत नहीं था। फिर भी उसने सैनिक भेजे जैत बन में। क्योंकि कई दिनों से सुंदरी दिखाई नहीं दे रही थी।  उन पंडित पुरोहितों ने जनता का मत भी अपनी तरफ कर लिया था।
      राजा ने जैत बन में सिपाही भेजे। वहां पर मिली सुंदरी की लाश। धर्म गुरु अति प्रसन्न हुए। उन्‍हें लगा कि हमारी चाल कामयाब हो गई लगती है। और बात को गली-गली घूम कर सारे शहर में फैला दिया। भिक्षुओं का अब तो भिक्षाटन भी बंध हो गया। लोग गालियां देते पत्‍थर मारते की देखो उस भ्रष्ट गौतम के शिष्यों को जो धर्म के नाम पर भोग विलास करता है। उस हत्यारे गौतम को जो भगवान बनने का ढोंग कर रहा है। लेकिन भगवान उसी तरह गंध‍ कुटी में सत्संग करते रहे। पुरा संध कई-कई दिनों तक भूख रहा। भगवान केवल कहते ‘’ तुम बस शांत रहो इसे भी ध्यान का एक अंग बना लो। अपनी श्रद्धा मत खोओ, इस अग्नि से अपने को गुजर जाने दो। ऐसे अवसर बार-बार नहीं आते, क़ुदरत ने ये मोका हम सब को दिया है इस सुनहरे मोके को हाथ से मत जाने दो। इसी में हमारी सब की भलाई है। ये बातें भिक्षुओं की समझ में नहीं आती। उन्‍हें बड़ी अजीब लगती कि कोई झूठा इल्जाम लगा रहा है और हम उसका विरोध करना तो दुर की बात रही उसकी सफाई भी नहीं दे सकते। तुम केवल मुझे देखो मैं जानता हूं अतीत को तुम तो आज को केवल जानते हो। सत्य क्‍या है, असत्य क्‍या ये बड़ी बात नहीं है बात अतीत की, असत्य के अपने कोई पैर नहीं होते। उसे चलना तो होता सत्य के पैरो से फिर कितने दिन उन उधार पैरा का इस्तेमाल कर सकेगा। जैसे ही प्रकाश होगा अंधकार को घर से बहार निकालना थोड़े ही पड़ता है वो तो स्वयं ही भाग जाता है  क्येांकि उसका कोई आस्तित्व ही नहीं होता।
      और फिर ऐसा ही हुआ, सप्ताह के पूरे होते-होते, जिन गुंडों ने सुंदरी को मारा था। वे एक दिन मधुशाला में शराब की मस्ती में सब सत्य बोल गए। निकल गया सत्य जो छुपा था, गहरे में मधुशाला के आवेश में। सत्य ने अपने को प्रकट कर दिया उसका अपनी अनूठा ढंग था।       यह अंधकार का आवरण के हटते ही भगवान की कीर्ति हजार गुणा बढ़ गई। वो धर्म गुरु जो कल तक गली-गली जा कर भगवान को बदनाम करते फिरते थे। वो निंदित हुए, और राज ने उन्‍हें सज़ा का अधिकारी पाएं गए। भगवान केवल पहले भी मुस्कुराए ओर अब भी मुस्कुराए, राजा प्रसेनजित ने ये खुश खबरी खुद भगवान को दी।
      असत्य से सदा सावधान रहाना। उसके साथ न कभी जीत हुई है। न कभी होगी,और न कभी हो सकती है।
ये कथाएं शाश्वत होती है...जा आज भी घटेगी ओर आने वाले समय में भी घटेगी। ओर ठीक ऐसी ही घटना भगवान ओशो के साथ घटी......

परिणति:
      ये कथाएं पौराणिक है ऐतिहासिक हो या ना हो। ये कथाएं प्रत्येक बुद्ध पुरूष के साथ घटी है, और आज भी घटेगी,और आने बाले कल भी घटेगी इस लिए इन कथा ओ को पौराणिक कहां गया है, हिन्‍दूओं ने कभी इतिहास से समय काल को कभी महत्व  नहीं दिया। हमने पुराण लिखे उपनिषद लिखे इतिहास नहीं लिख। इतिहास है क्‍या नादिरशाह, चगेंजखां, मुसोलिनी, हिटलर, सिकंदर..... उन कुरूर हत्यारों का इतिहास पढ़ते है। आज की राज निति जो सड़ गल जाएगी वो तुम्हारा इतिहास बन जाएगा। फिर क्यों न इसे सड़ी राजनीति कहा जाए। इतिहास तो हाता है  किसी राम, कृष्णा, गोतम, महावीर, नानक, सह जो, गोरखा, मोहम्मद, अष्टावक्र... का होता है।
      मनुष्य का मन दो बातों से घिरा है,कमानी-कांचन से। हमारे भीतर कामवासना की ज्वाला धधक रही है, हम मान ही नहीं सकते की कोई इस ज्वाला के पास भी जा सकता है क्योंकि हमने तो लाख बार जा कर देख लिया परन्तु हम तो सदा उससे अपने को घीरी ही पाते हे। कैसे कोई इन लपटों से अछूता रह सकता है यही तो पैमाना है हमरा हमारे अंदर के चिता का।
प्रश्न—एक जापानी लड़की को माध्यम बनाकर पत्रों और समाचार पत्रों के जरिए पूरे देश में आपके विरूद्ध जो कुत्सित प्रचार किया गया था। क्‍या वह भी पंडितों और पुरोहितों, तथाकथित,महात्माओं का करिश्मा था? आप भी तो उस पर चुप ही रहे थे। क्‍या? और उसकी परिणति क्‍या हुई?
      पूछा है आनंद मैत्रेय ने।
      पहली बात तो ज्यादा इस संबंध में जानना हो तो या तो श्री सत्य साई बाबा या बाबा मुक्ता नंद से पूछना चाहिए। विस्तार उन्‍हें मालूम है।.......
      परिणति यह हुई कि वह जापनी युवती अब आने का विचार कर रही है, वापस लौट आने का। संकोच से भरी है, डरती है, कयोंकि उसने इस पूरे षडयंत्र में हाथ बंटाया, अब डरती है कि यहां कैसे आए। तड़पती है आने को।
      यहां कुछ जापानी मित्र है, उनसे मैं कहूंगा कि वापस जापान जाओ तो उसको कहना कि घबड़ाए न और वापस आ जाए। न तो यहां कोई उससे कुछ पूछेगा, न कुछ कहेगा। जो हुआ सो हुआ। मुझे तो कुछ हानि नहीं हुई मुझे कुछ हानि हो भी नहीं सकती। ऐसा कुछ भी नहीं है जो तुम मुझसे छीन सको। जो मेरा हे वो इतना है कि तुम मुझसे छीन नहीं सकते। मैंने तुमसे लिया नहीं तुम सम्मन दो या अपमान दो इससे भी भेद नहीं पड़ता।......
      लेकिन दया उस लड़की पर आती है। वह नाहक झंझट में पड़ गयी। उसका जरूर नुकसान हुआ है।..............उसे खोजें और मेरा संदेश उसको दे-दे कि आ जाए। यह उसका घर है। ऐसी भूल चूक आदमी से हो ही जाती है।........जिन महात्माओं ने उसे राज़ी किया था इस प्रचार के लिए उन्होंने मेरा तो कुछ नुकसान नहीं किया लेकिन उस लड़की के जीवन को बुरी तरह नुकसान पहुँचा दिया।............ 
      वह विद्यार्थी थी, पैसे की अड़चन थी, उसे पढ़ना था अभी। वह संस्कृत पढ़ना चाहती थी वर्षों का काम था। एक भी पैसा पास नहीं था आ गई होगी लोभ में।......
यह सुन कर चाहे किसी और न मान लिया हो कि यह सच्च है। लेकिन वह स्वयं तो कैसे मान सकती है कि यह सच्च है। इस लिए उसकी आत्मा कचोटती है। उस पर मुझे दया आती है। तो कोई उस तक खबर पहुंचा दे तो अच्छा हो।
 --ओशो (पूरा प्रवचन देखे.....(99) पांचवां प्रश्न—एस धम्मो सनंतनो)

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