Thursday, November 21, 2019

शिव--सूत्र

ऐसा हुआ कि औरंगजेब एक फकीर पर बहुत नाराज था। और एक दिन उसने फकीर को पकड़वा कर महल बुलवा लिया। और लोगों ने कहा था, इस फकीर को नाराज करना तक मुश्किल है।
औरंगजेब ने कहा, देखेंगे। सर्द रात थी—दिल्ली की सर्द रात। महल में राग—रंग चलता रहा और फकीर को नग्न करवाकर यमुना में खड़ा करवा दिया। और औरंगजेब ने कहा कि सुबह पूछेंगे।
रातभर फकीर नग्न बर्फीली नदी में खड़ा रहा। सुबह औरंगजेब ने पूछा, 'कहो, कैसी बात?' फकीर ने कहा, 'कुछ तुम जैसी, कुछ तुमसे अच्छी!
'औरंगजेब ने पूछा, 'मैं समझा नहीं', फकीर ने कहा, 'सपने आते रहे। उनमें मै सम्राट था। महलों में था, राग—रंग चल रहा था। उन सपनों में और तुम्हारे राग—रंग में जो महल में चल रहा था, जरा भी भेद नहीं है। मैंने उतना ही मजा लिया, जितना तुम लिये। तो कुछ तुम जैसी, कुछ तुमसे अच्छी; क्योंकि बीच—बीच में होश आ गया और सपना टूट गया। तुम्हें अभी होश जरा भी नहीं आया।’
रात तुम वही तो पूरा करते हो, जो दिन में चूक जाता है। दिन के अधूरे कृत्य रात में पूरे किये जाते हैं। दिन में जो वासनाएं तुम पूरी न कर पाये, क्योंकि कठिनाइयां हैं। और वासनाएं पूरी करना आसान नहीं है, क्योंकि वासनाएं दुष्‍पूर हैं।
और ऐसी हैं कि उनके पूरे होने का कोई उपाय ही नहीं, उनका स्वभाव ही पूरा होना नहीं है। तुम्हें सारी दुनिया की संपत्ति मिल जाये, तो भी पूरी न होगी।
कहते हैं, सिकंदर को डायोजनीज ने कहा, 'सिकंदर, जिस दिन तू सारी दुनिया जीत लेगा, बड़ी मुश्किल में पड़ेगा। यह काम छोड़ ही दे। जब तक जीता नहीं, तब तक मुश्‍किल में हो, जब जीत लेगा तो और भी मुश्किल में पड़ेगा।’ सिकंदर—कहते हैं—उदास हो गया।
और उसने डायोजनीज से कहा, 'ऐसी बातें मत करो। क्योंकि यह खयाल ही कि सारी दुनिया मैंने जीत ली, मुझे उदास करता है; क्योंकि फिर कोई और दूसरी दुनिया तो जीतने को है नहीं। सारी दुनिया जीतकर भी मन भरेगा नहीं। मन कहेगा—अब क्या? अब क्या जीते? और मन उदास होगा।’
सपने सम्राट भी देखते हैं, भिखमंगे भी देखते हैं। क्योंकि अधूरा जो रह गया, वह सपने में पूरा कर लेना पड़ता है। सपने का एक गुण है। सपना बड़ा दयालु है। सपना तुम पर बड़ी कृपा करता है। अगर तुमने दिन में उपवास किया है, किन्हीं साधु—संन्यासियों के चक्कर में पड़कर और तुम भूखे मरे, तो रात तुम राज—भोज में सम्मिलित हो जाओगे। सपना तुम्हारे साधुओं से ज्यादा दयालु है। वह तुम्हें राज—भोज में बुला लेगा।
बढ़िया से बढ़िया मिष्ठान्न जो तुम्हें कभी नहीं मिले, सुंदर से सुंदर भोजन, तुम कर पाओगे। और उनके स्वाद में और असली भोजन के स्वाद में जरा भी अंतर नहीं है। शायद थोड़ा उनका स्वाद ज्यादा ही है। तुम अगर स्रियों के पीछे दौड़ते रहे और तुम उन्हें नहीं पा सके तो सपने में तुम उन्हें पा लोगे। दुनिया की सुंदरतम स्रियां तुम्हारी हो जायेंगी या सुंदरतम पुरुष तुम्हारे हो जायेंगे।
सपना, तुम्हें द्वार खोल देता है—तुम्हारी सारी वासनाओं को पूरा कर लो। और आदमी अगर साठ साल जीता है, तो बीस साल सोता है। बीस साल जागता है। बीस साल दूसरे कामों में व्यतीत होते हैं। अगर बीस साल सपने में तुम सम्राट रहते हो और कोई आदमी जागकर सम्राट रहता है, तो फर्क क्या है? हिसाब बराबर है।
शायद जागने में जो सम्राट रहता है, वह झंझटों में सम्राट रह भी नहीं पाता; तुम निश्‍चित भाव से सम्राट रहते हो सपनों में।
सपने उसी दिन खोते हैं, जिस दिन कोई नींद में जाग जाता है—तब सपने व्यर्थ हो जाते हैं। क्योंकि नींद में जो जाग गया, अब उसकी कोई वासना न रही। सब वासनाएं मूर्च्छा के हिस्से हैं, बेहोशी के हिस्से हैं।

Tuesday, November 19, 2019

जगत प्रतिदान है

जगत प्रतिदान है
एक सूफी कहानी। एक चोर रात के समय किसी मकान की खिड़की में से भीतर जाने लगा, कि खिड़की की चौखट टूट जाने से गिर पड़ा और उसकी टांग टूट गयी। अगले दिन उसने अदालत में जाकर अपनी टांग के टूटने का दोष उस मकान के मालिक पर लगाया। मकान-मालिक को बुलाकर पूछा गया, तो उसने अपनी सफाई में कहा: इसका जिम्मेदार वह बढ़ई है, जिसने कि खिड़की बनायी। बढ़ई को बुलाया गया, तो उसने कहा कि मकान बनाने वाले ठेकेदार ने दीवार का खिड़की वाला हिस्सा मजबूती से नहीं बनाया था।

ठेकेदार ने अपनी सफाई में कहा: मुझसे यह गलती एक औरत की वजह से हुई, जो वहां से गुजर रही थी। उसने मेरा ध्यान अपनी तरफ खींच लिया था।
जब उस औरत को अदालत में पेश किया गया, तो उसने कहा: उस समय मैंने बहुत बढ़िया लिबास पहन रखा था। आमतौर पर मेरी तरफ किसी की नजर उठती नहीं है। सो, कसूर उस लिबास का है जो इतना बढ़िया सिला हुआ था।
न्यायाधीश ने कहा: तब तो उसे सीने वाले दर्जी को बुलाया जाये, वही मुजरिम है। उसे अदालत में हाजिर किया जाये। वह दर्जी उस स्त्री का पति निकला और वही वह चोर भी था जिसकी टांग टूटी थी।
यह इस जगत का सर्वाधिक आश्चर्यजनक नियम है: जो गङ्ढे तुम दूसरों के लिये खोदते हो, उनमें स्वयं गिरना पड़ता है। फिर तुमने चाहे गङ्ढे जानकर खोदे हों चाहे अनजाने खोदे हों। जो कांटे तुम दूसरों के लिये बोते हो, वे तुम्हारे ही पैरों में छिदेंगे। अगर फूलों पर चलना हो तो सभी के रास्तों पर फूल बिखराना, क्योंकि तुम्हें वही मिलेगा जो तुम दोगे।
वही मिलेगा जो दोगे। जिंदगी दोगे, जिंदगी मिलेगी। जिंदगी लोगे, जिंदगी छिन जायेगी। जगत प्रतिध्वनि करता है। गीत गाओ, चारों तरफ से गीत तुम पर बरस जायेंगे। गालियां दो, चारों तरफ से गालियां तुम पर बरस जायेंगी। जो चाहो लो। मगर शर्त यही है कि वही दोगे तो मिलेगा। जगत प्रतिदान है। तुम दान करो। जगत प्रतिदान है। हजार गुना होकर लौट आता है सब।
यह कहानी तो एक व्यंग्य है, एक मजाक है। मगर जिंदगी ऐसी ही है। अगर इस नियम को तुम पहचानकर चलने लगे तो बस तुम्हारा रास्ता स्वर्ग की तरफ मुड़ गया। अगर इस नियम को न पहचाना, न समझे और इसके विपरीत चलते रहे तो नर्क ही तुम्हारी मंजिल है।
सहज योग

शिक्षित चित्त का अर्थ है

🔴एक छोटी सी घटना से मैं अपनी चर्चा शुरू करना चाहूंगा।
कोई पच्चीस सौ वर्ष पहले एक छोटे से गांव में एक सुदास नाम का व्यक्ति था, बहुत गरीब, उसकी एक छोटी सी तलई थी, उसमें कमल का एक फूल बेमौसम खिल गया था। उसे बहुत खुशी हुई। उसने पांच रूपये निकाल कर उस सुदास को देने चाहे, सुदास हैरान हुआ, पांच रूपये कोई देगा इस फूल के, लेकिन इसके पहले कि वह रूपये लेता, पीछे से नगर का जो सबसे बड़ा धनपति था, उसका रथ आकर रुका। उसने कहा सुदास ठहर जा, बेच मत देना। पांच रूपये देगा वह सेनापति, तो मैं पांच सौ रूपये दूंगा। सुदास तो बहुत हैरान हो गया, यह बात तो सपने जैसी हो गई कि एक फूल के कोई पांच सौ रूपये देगा। सुदास बढ़ा उस धनपति की ओर अपने फूल को लेकर, लेकिन तभी पीछे धूल उड़ाता राजा का स्वर्ण रथ भी आ गया। और उसने कहा, सुदास ठहर जा, धनपति जो देता होगा, उससे दस गुना मैं तुझे दूंगा। सुदास की समझ के बाहर थी यह बात, इतनी धनराशि कोई एक फूल के लिए देगा!
राजा के स्वर्ण रथ की तरफ वह बढ़ा, रुपये लेने को नहीं, बल्कि राजा से यह पूछने को कि इस एक फूल के इतने दाम देने की क्या जरूरत आ पड़ी है? और सारा नगर ही क्या फूल को खरीदने को उत्सुक हो आया है? राजा ने कहा शायद तुझे पता नहीं, नगर में बुद्ध का आगमन हुआ है, हम उनके स्वागत को जाते हैं। और धन्य होगा वह व्यक्ति, जो इस फूल को उनके चरणों में चढ़ाएगा। फूल मुझे दे दे और धन थोड़ी ही देर में तेरे घर पहुंच जाएगा।
सूदास ने कहाः क्षमा करें, यह फूल अब मैं बेचूंगा नहीं। मैं भी उसी तरफ चलता हूं, जिस तरफ आप सब जाते हैं। राजा हैरान हो आया। कल्पना न थी कि गरीब व्यक्ति भी, इतने बड़े मोह को छोड़ सकेगा। सुदास ने फूल बेचने से इनकार कर दिया। राजा का रथ तो पहले ही बुद्ध के पास पहुंच गया, सुदास बाद में पैदल पहुंचा। बुद्ध के चरणों पर उसने उस फूल को रखा, बुद्ध को खबर हो गई कि राजा ने कहा था, हजारों स्वर्णमुद्राओं को ठुकरा कर एक दीन-हीन चमार ने आज मुझे चकित कर दिया है। बुद्ध ने कहा सुदास को, पागल है तू, पीड़ियों तक के लिए तेरी जीवन की चिंता, आजीविक की चिंता समाप्त हो जाती। फूल बेच क्यों न दिया? सुदास ने कहा, जो आनंद उस धन से मुझे मिलता, आपके चरणों में फूल को रख कर उससे बहुत अनंत गुना आनंद मुझे मिल गया है। बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को कहा, भिक्षुओं ये दीन-हीन मनुष्य नहीं है, ये बहुत सुसंस्कृत और सुशिक्षित व्यक्ति है। सुसंस्कृत और सुशिक्षित कहा उस सुदास को, जो न पढ़ा था, न लिखा था, दीन-हीन था। जूते सीकर ही जीवन जिसने यापन किया था। किसी विद्यालय मंे कोई प्रवेश नहीं पाया था, किसी गुरु के पास बैठ कर कोई शिक्षा न पाई थी। लेकिन बुद्ध ने कहा, सुशिक्षित है, सुसंस्कृत है, ये दीन-हीन चमार। और भिक्षुओं इससे शिक्षा लो, उनके एक भिक्षु ने पूछा, किन अर्थों में इसे सुशिक्षित कहते हैं? बुद्ध ने कहा इसमें ऊंचे मूल्यों को देखने की क्षमता है। हाइयर वैल्यूज जिन्हें हम कहें, जीवन के ऊं चे मूल्यों को देखने की इसमें क्षमता है। शिक्षा का और कोई अर्थ ही नहीं है। जीवन में उच्चतर मूल्यों का दर्शन हो सके, तो ही मनुष्य शिक्षित है। पैसे का दर्शन तो सुदास को भी हो सकता था, लेकिन नहीं पैसे की जगह प्रेम को उसने वरन किया। धन तो उसे भी दिखाई पड़ सकता था, एक फूल के लिए उसे जो धन मिलने को था, वह बहुत था। लेकिन नहीं उसने धन को ठुकराया। और धर्म को वरन कि या। उसने साहस किया क्षुद्र को छोड़ देने का, और विराट के प्रति समर्पण का। शिक्षित मनुष्य का और कोई अर्थ नहीं होता।
शिक्षित चित्त का अर्थ है, जो क्षुद्र को विराट के लिए छोड़ सके। और अशिक्षित का अर्थ है, जो क्षुद्र को पकड़े रहे और विराट को छोड़ दे। लेकिन इन अर्थों में क्या हम आज की शिक्षा को शिक्षा कह सकेंगे? शायद नहीं, कोई कारण नहीं है इस अर्थ में शिक्षा को शिक्षा कहने का। क्योंकि सारे जगत में जो मूल्य शिक्षा से हमें उपलब्ध हो रहे हैं, जो मूल्य हमें प्रेम को छोड़ने को कहते हैं, पकड़ने को नहीं; वे हमें धर्म को छोड़ने को कहते हैं, धन को पकड़ लेने को; वे जीवन में जो कुछ स्थूल और पार्थिव है, जो अत्यंत शुभ है, उसके ही इर्द, उसकी हत्या के लिए हमें तैयार करते हैं। जो जीवन का विराट है, जीवन में चिन्मय है, जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, वो क्षुद्र सी वेदी के सामने...किया जाता हो, तो नहीं किया जा सकता; जिसे हम शिक्षा समझ बैठे हैं, वह शिक्षा है। होगी आजीविका को उत्पन्न कर लेने की विधि, लिविंग उससे आ जाती होगी, लाइव, आजीविका मिल जाती होगी, लेकिन जीवन, जीवन उससे छिन जाता है।

🔴जन्म और मृत्यु के बीच में जो समय बीता, वही जीवन है?
अगर वही जीवन है, तब तो बड़े आश्चर्य की बात है, सच तो यह है कि जन्म और मृत्यु के बीच में जो समय बीतता है, उसका जीवन से कोई भी संबंध नहीं। जन्म और मृत्यु के बीच का समय, केवल रोज-रोज मरते जाने की प्रक्रिया का समय है, जीवन का नहीं। एक ग्रेजुअल डेथ है, जो जन्म से शुरु होती है, मृत्यु पर पूरी हो जाती है। हम रोज-रोज धीरे-धीरे मरते जाते हैं, इसी को हम जीवन समझ लेते हैं। एक घड़ी भर नया बिता देंगे, एक घड़ी भर और मर जायेंगे। मरना कोई आकस्मिक बात तो नहीं है कि किसी भी एक दिन आप मर जाएंगे, मैं मर जाऊंगा, मर जाना एक लंबी प्रोसेस है, एक लंबी प्रक्रिया है। रोज-रोज हम मरते हैं, इसलिए एक दिन हम मर जाते हैं। रोज हमारे भीतर कुछ मरता जाता है, मरता जाता है। एक दिन यह मरना पूरा हो जाता है। और हम कहते हैं मृत्यु आ गई। जिसे हम जीवन कहते हैं, वह केवल एक मरने की प्रक्रिया से ज्यादा नहीं है। और सच है यह बात अगर यह जीवन होता, तो मृत्यु कैसे आ सकती थी? जीवन की भी और मृत्यु हो सकती है! जीवन और मृत्यु तो बड़ी विरोधी बातें हैं, इनका क्या संबंध? जीवन की भी मृत्यु हो सकती है? मरने की प्रक्रिया का अंत मृत्यु में हो सकता है, लेकिन जीवन की प्रक्रिया का अंत मृत्यु में कैसे होगा? जीवन के रास्ते पर हम चलेंगे तो अंत में परम जीवन उपलब्ध होना चाहिए। मृत्यु के रास्ते पर हम चलेंगे, तो अंत में मृत्यु आएगी। जो अंत में आता है, उसी से तो पहचाना जाता है।
एक बीज हम बोते हैं और कड़ुवे फल लगते हैं, तो क्या हम नहीं समझ पाएंगे कि जो कड़वे फल लगे वे बीज में ही छिपे थे? जो फल की तरह प्रकट हुआ, वह बीज में मौजूद रहा होगा। अन्यथा फल में प्रकट कैसे होता? मौत का फल लगता है, जिसे हम जीवन कहते हैं उसमें। तो क्या यह थोड़ी सी समझ न होगी, जिसे हमने जन्म कहा, उस जन्म के बीज में ही मौत छिपी रही होगी। धीरे-धीरे प्रकट हुई।

AAJ AUR KAL




भगवान होने का आनंद अगर लेना हो, तो इसी क्षण भगवान होकर लो; क्या यही आपकी देशना है?
कल भ्रांति है। आज ही सत्य है। आने वाला क्षण भी आएगा या नहीं, कोई भी कह नहीं सकता। जो आ गया है, बस वही आ गया है।
तो कल पर छोड़ कैसे सकते हो? कल है कहौ?
कल पर छोड़ने की आदत संसार में खतरनाक से खतरनाक आदत है। आज ही जी लो। लेकिन तुम्हें सदा यही सिखाया गया है, कल पर छोड़ो। क्योंकि तुम्हें यह सिखाया गया है, हर चीज की तैयारी करनी होगी। तैयारी के लिए कल की जरूरत है। आज कैसे भोगोगे? सितार बजानी है? तो पहले सीखनी भी तो पड़ेगी। सीखने के लिए कल तक ठहरना पड़ेगा। गीत गाना है? तो कंठ को साधना भी तो पड़ेगा। आवाज को व्यवस्था तो देनी होगी। तो कल की जरूरत पड़ेगी।
मगर मैं तुमसे कहता हूं, भगवान को भोगने के लिए कुछ भी तैयारी की जरूरत नहीं है। जो बिना तैयारी उपलब्ध है, वही भगवान है। जो तैयारी से मिलता है, उसका नाम ही संसार है। तुम्हें बड़ी उलटी लगेगी मेरी बात।
मैं तुमसे फिर कहूं, जो साधना से मिलता है, उसकॉ नॉम संसार है। जो मिला ही हुआ है, उसका नाम भगवान है। संसार के लिए कल की जरूरत है, समय की जरूरत है, भगवान के लिए कोई जरूरत नहीं।
धार्मिक व्यक्ति भगवान के खिलाफ नहीं होता। धर्म सभी भगवान के खिलाफ हैं। धार्मिक व्यक्ति तो कभी—कभार होता है। जो धर्मों की जमींतें हैं, वे परमात्मा के विपरीत हैं। तुम्हारे महात्मा सभी परमात्मा के विपरीत हैं। महात्मा तुम्हें जिंदगी को छोड़ना सिखाते हैं, और परमात्मा ने तुम्हें जिंदगी दी है। और महात्मा कहते हैं छोड़ो, और परमात्मा कहता है भोगो, जीवन परम भोग है।
तुमने मेरी बातों को ठीक से समझा, तो मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि तुम अपने परमात्मा को अपने जीवन की ऊंचाई बनाओ। तुम अपने परमात्मा को अपने जीवन के विपरीत मत रखो अन्यथा तुम अड़चन में पड़ोगे। न तुम जिंदगी के हो पाओगे, न परमात्मा के हो पाओगे। तुम दो नावों में सवार हो जाओगे, जो विपरीत जा रही हैं। तुम परमात्मा को जीवन का स्वर समझो, और तुम जीवन के प्रतिपल को प्रार्थना बनाओ। तुम जीवन को इस ढंग से जीओ कि वह धार्मिक हो जाए। धर्म के लिए जीवन में अलग से खंड मत खोजो। धर्म को पूरे जीवन पर फैल जाने दो।
लेकिन दुखी लोग हैं, जो दुख को पकड़ते हैं। वे जीवन में सब तरह के दुख का आयोजन करते हैं। पहले धन के नाम पर दुखी होते हैं, पद के नाम पर दुखी होते हैं, फिर किसी तरह इनसे छुटकारा होता है तो भगवान के नाम पर दुखी होते हैं। लेकिन दुख की आदत उनकी छूटती नहीं।
तुम परमात्मा से छुट्टी न चाहो। तब तो एक ही उपाय है कि तुम जो करो, वह परमात्मा को ही निवेदित हो, समर्पित हो। तुम जो करो, उसमें ही प्रार्थना की गंध समाविष्ट होने लगे। प्रार्थना की धूप तुम्हारे जीवन को चारों तरफ से घेर ले, सुवासित कर दे। और अगर तुमने किसी भविष्य के परमात्मा के सामने प्रार्थना की तो वह झूठी रहेगी, क्योंकि परमात्मा सदा वर्तमान का है। भविष्य के परमात्मा तुम्हारी ईजादें हैं। धोखे हैं। और अगर तुमने किसी भविष्य के परमात्मा के सामने प्रार्थना की तो उस प्रार्थना में मस्ती न होगी, मस्ती तो केवल अभी हो सकती है।
निश्चित, यही मेरी देशना है। परमात्मा को जीना है, तो अभी। और कोई उपाय नहीं।

truth


प्रश्न : आप कहते हैं सब उसकी मर्जी पर छोड़ दें।

🔴प्रश्न : आप कहते हैं सब उसकी मर्जी पर छोड़ दें। मगर यह कैसे पता चले कि कौन—सी हमारी मर्जी है और कौन—सी उसकी मर्जी है?
खूब मजे की बात कर रहे हो! अपनी मर्जी अभी भी बचाए हुए हो! पुराने संस्कार बाधा डालते हैं। पुराने संस्कार कहते हैं कि यह तो ठीक बात है—सब उसकी मर्जी पर छोड़ दें। मगर यह कैसे पता चलेगा कि यह मर्जी हमारी है कि उसकी?
तुम हो ही नहीं, वही है; तुम्हारी मर्जी हो कैसे सकती है? तुम मेरी बात समझ नहीं पाते, क्योंकि वे सारे जाल जो तुम्हारे चित्त में बैठे हैं, उनके बीच से ही मेरी बात को गुजरना पड़ता है। वह जाल मेरी बात को विकृत कर देता है। मैं कह रहा था—उसके सिवाय और कुछ है ही नहीं; उसकी ही मर्जी है। अब तुम्हारे सामने एक नया सवाल खड़ा हो गया कि यह पक्का कैसे पता चलेगा कि यह उसकी मर्जी है कि मेरी मर्जी है? तुम हो ही नहीं, इसलिए जो भी है उसी की मर्जी है।
नए—नए सवाल उठते जाएंगे तुम्हारे भीतर, क्योंकि धारणाएं तैयार हैं, अभी गई नहीं हैं। तो सवाल उठेगा, फिर कोई बुरा काम करने का सवाल उठा, फिर मैं क्या करूंगा? जैसे कि चोरी करने का सवाल उठा, फिर मैं क्या करूंगा? जिसने सच में सब कुछ छोड़ दिया है, वह चोरी का ख्याल भी उसी पर छोड़ेगा। वह कहेगा—तेरी मर्जी, चोरी करवाना है, चोरी करवा।
इसका यह मतलब नहीं है कि चोरी में पकड़े नहीं जाओगे। क्योंकि परमात्मा ने करवाई, तो पकड़े क्यों गए? अब पकड़ाए जाना भी उसकी मर्जी है, तो पकड़े गए। इसका यह मतलब नहीं है कि मजिस्ट्रेट छोड़ देगा; कि हमने तो परमात्मा की मर्जी से किया था। मजिस्ट्रेट में भी उसी की मर्जी है।
एक सदगुरु के पास एक शिष्य वर्षों रहा, रहा होगा योग चिन्मय जैसा शिष्य! वह सुनता था कि सबमें परमात्मा है, कण—कण में उसी का वास है। एक दिन राह पर भीख मांगने गया था, एक पागल हाथी भागा उस गरीब शिष्य की तरफ। मगर उसने सोचा कि गुरु कहते हैं, आज प्रयोग ही करके देख लें कि सबमें उसी का वास है। कण—कण में है, तो इतने बड़े हाथी में तो होगा ही, निश्चित होगा, बड़ी मात्रा में होगा। गणित ऐसा ही चलता है, कि जब कण—कण में है तो इस हाथी में तो सोचो कितना नहीं होगा। एकदम लबालब भरा है! खड़ा ही रहा! डर तो लगा बहुत। भीतर से कई बार भाव भी उठा कि भाग जाऊं। उसने कहा लेकिन आज अपनी नहीं सुनना है। भीतर बहुत बार चित्त हुआ कि भाग जाऊं, यह मार डालेगा। यह चला आ रहा है बिलकुल पागल; पता नहीं रुकेगा कि नहीं रुकेगा! मगर उसने कहा, अब आज प्रयोग ही करके देख लें, जब वही है। महावत भी चिल्ला रहा है हाथी का कि भाई, रास्ता हट। भाग जा, पागल है हाथी। बच जा कहीं भी। दुकान में प्रवेश कर जा। आसपास के किसी भी मकान में छिप जा। मगर उसने कहा कि चिल्लाते रहो! महावत की कौन सुने, जब वही सब में है।
जो होना था वह हुआ, हाथी ने उसे बांधा अपनी सूंड़ में और फेंका। कोई तीस गज दूर जाकर गिरा। हड्डी—पसली चकनाचूर हो गई। बड़ा दुखी हुआ कि यह क्या मामला है? कण—कण में उसी का वास, इतने बड़े हाथी में नहीं! लंगड़ाता, टूटा—फूटा वापिस गुरु के पास पहुंचा, बोला कि सब वेदांत व्यर्थ, सब बकवास है! कण—कण में क्या, हाथी में भी उसका वास नहीं है।
गुरु ने पूछा: लेकिन महावत ने कुछ कहा था?
कहा: हां चिल्ला रहा था कि पागल है।
और तेरे हृदय में कुछ हुआ था?
कहा: हां, हृदय भी चिल्ला रहा था कि हाथी पागल है। मगर मैंने कहा, एक बार तो प्रयोग करके देख लें! उसकी मर्जी।
उस गुरु ने कहा: महावत में भी उसी की मर्जी थी, और तेरे भीतर भी वही चिल्ला रहा था। अगर तूने उसकी ही मर्जी सुनी होती, तो तू भाग गया होता। तूने उसकी नहीं सुनी। और हाथी तुझसे कह नहीं रहा था कि रास्ते पर खड़ा रह। महावत कह रहा था, भाग जा। तेरा हृदय कह रहा था, भाग जा। और हाथी कुछ कह नहीं रहा था। हाथी की तूने सुनी, जो कुछ कह ही नहीं रहा था। हाथी कह नहीं रहा था कि भाई, खड़े रहो, कहां जा रहे हो? जरा मुलाकात करनी है। कहां जाते हो, हाथ तो मिला लो, जय राम जी तो हो जाने दो। हाथी तो कुछ बोल ही नहीं रहा था। जो नहीं बोल रहा था उसकी तूने सुनी! और तेरा हृदय जोर—जोर से चिल्ला रहा था।
उसने कहा: हां, बहुत जोर—जोर से चिल्ला रहा था कि हट जाओ, भाग जाओ। जान ले लेगा यह। कहां के वेदांत में पड़े हो! फिर कभी प्रयोग कर लेना, आज ही क्या जिद्द ठानी है! और महावत भी चिल्ला रहा था। आसपास के लोग भी चिल्ला रहे थे सड़क के कि भाई, बीच में क्यों खड़ा है रास्ते के, भाग जा।
गुरु ने कहा: सारा संसार चिल्ला रहा था...!
मजिस्टे्रट सजा देगा। लेकिन तब जिसने सब उस पर छोड़ दिया है, वह सजा भी स्वीकार करेगा—उसी की सजा है। उसी ने चोरी करवाई। उसी ने चोरी की। उसी का धन था, जिसकी चोरी की गई। वही मजिस्ट्रेट में है। जिसने सब उस पर छोड़ा, उसका अर्थ यह होता है कि अब मेरी मर्जी जैसी कोई चीज ही नहीं है। अब जो होगा, जैसा होगा। यह बड़ी गहन अवस्था की बात है।
तुम हिसाब लगाते हो कि इसमें मेरी मर्जी कहां है, उसकी मर्जी कहां है? जैसे कि दो मर्जी हो सकती हैं। लहर की कोई मर्जी होती है? मर्जी तो सब सागर की होती है। क्षण—भर को लहर उठती है, नाचती है, गीत गा लेती है, शोरगुल मचा लेती है, फिर खो जाती है। मगर जब लहर नाचती है उत्तुंग, हवाओं से बात करती है, बादलों को छूने की आकांक्षा रखती है, तब भी सागर की ही मर्जी है।
ऐसा जान लेने वाला निर्विचार हो जाता है। तो फिर यह सवाल नहीं उठता कि ऐसा क्यों नहीं हो रहा है? वैसा क्यों नहीं हो रहा है? फिर जैसा हो रहा है, यही उसकी मर्जी है। अगर उसके मन में यही है कि मेरे हाथ में कंकड़—पत्थर ही रहें, हीरे—जवाहरात नहीं, तो कंकड़—पत्थर ही ठीक। तो कंकड़—पत्थर हीरे—जवाहरात हैं, क्योंकि उसकी मर्जी है। उसकी मर्जी से ज्यादा मूल्यवान थोड़े ही हीरे—जवाहरात होते हैं। उसकी मर्जी से हो, तो मौत भी जीवन है। उसकी मर्जी से हो, तो जहर भी अमृत है।
तुम्हारा कूड़ा—करकट जाने दो, आने दो मेरी बाढ़। और तुम्हारे भीतर जल्दी ही, जैसे ही समाज के द्वारा दिए गए संस्कार बह जाएंगे, ज्योति जलेगी।

संन्यास से मिलता है सौंदर्य

संन्यासी अपूर्व सुंदर हो जाता है। संन्यास जैसा सौंदर्य देता है, मनुष्य को और कोई चीज नहीं देती। संन्यस्त होकर तुम सुंदर न हो जाओ तो समझना कि कोई भूल-चूक हो रही है। संन्यासी का कोई श्रृंगार नहीं है। संन्यास इतना बड़ा श्रृंगार है कि फिर किसी और श्रृंगार की कोई जरूरत नहीं है।तुमने देखा कि सांसारिक व्यक्ति भोगी है। जवानी में शायद सुंदर होता हो, लेकिन जैसे-जैसे बुढ़ापा आने लगता है, असुंदर होने लगता है। लेकिन उससे उलट घटना घटती है संन्यासी के जीवन में; जैसे-जैसे संन्यासी वृद्ध होने लगता है, वैसे-वैसे और सुंदर होने लगता है। क्योंकि संन्यास की कोई वृद्धावस्था होती ही नहीं, संन्यास कभी बूढ़ा होता नहीं। संन्यास तो चिर-युवा है। इसलिए तो हमने बुद्ध और महावीर की जो मूर्तियां बनाई हैं, वह उनकी युवावस्था की बनाई हैं। इस बात की खबर देने के लिए कि संन्यासी चिर-युवा है। हमने अपूर्व सौंदर्य से भरी मूर्तियां बनाई हैं महावीर और बुद्ध की। उनके पास कुछ भी नहीं है, न कोई साज है, न श्रृंगार है। कृष्ण को तो सुविधा है, कृष्ण की मूर्ति को तो हम सजा लेते हैं, मोरमुकुट बांध देते हैं, रेशम के वस्त्र पहना देते हैं, घुंघरू पहना देते हैं, हाथ में कंगन डालकर मोतियों का हार लटका देते हैं, पर बुद्ध और महावीर के पास तो कुछ भी नहीं है। बुद्ध के पास तो एक चीवर है, जिसको ओढ़ा हुआ है, महावीर के पास तो वह भी नहीं, लेकिन फिर भी अपूर्व सौंदर्य है। ऐसा सौंदर्य, जिसको किसी सजावट की कोई जरूरत नहीं। संसार तो छोड़ना है, संसार की माया-ममता भी छोड़नी है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि संन्यास कठोर बना दे तुम्हें, कृपण बना दे तुम्हें, कि तुम्हारे हृदय को पत्थर बना दे, तब तो तुम चूक गए।
अकसर ऐसा होता है। अकसर तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी और महात्मा, जिस दिन माया-मोह छोड़ते हैं, संसार का, उसी दिन दया-ममता, दया-करुणा भी छोड़ देते हैं। ये तथाकथित संन्यासी रूखे-सूखे लोग हैं। उन्होंने माया-मोह छोड़ी, उसी दिन से वे डर गए हैं। उन्होंने अपने को सुखा लिया भय के कारण। वे रसहीन हो गए हैं। उन पर न नए पत्ते लगते हैं, न नए फूल आते हैं। इसलिए तो उनके जीवन में तुम्हें सौंदर्य दिखाई न पड़ेगा। उनके जीवन में एक कुरूपता है। मरुस्थल जैसे हैं! चूक गए। रस से थोड़े ही विरोध था। पतंजलि ने कहा न- ‘रसो वै स:’, वह सत्य तो रसमय है, वह परमात्मा तो रस भरा है। संन्यासी रस से थोड़े ही विरुद्ध है! रस संसार में व्यर्थ न बहे, रस दया बनकर बहे, करुणा बन कर बहे, सेवा बन कर बहे; रस तुम्हें भिखारी न बनाए, सम्राट बनाए; याचक न बनाए, दानी बनाए; रस तुम लुटाओ, रस तुम दो। इसलिए जो संन्यास तुम्हें माया-मोह से छुड़ाकर करुणा-दया से भी छुड़ा देता हो, समझना चूक गए। तीर निशाने पर न लगा, गलत जगह लग गया। भूल हो गई। माया-ममता से छुड़ाने का प्रयोजन ही इतना है कि तुम्हारी जीवन-ऊर्जा करुणा बने। माया-ममता छूट गयी और करुणा बनी नहीं, तो संसार भी गया और सत्य भी न मिला। तुम घर के न बचे, न घाट के- तुम कहीं के न रहे। संसार छूट गया है और सत्य मिला नहीं है। बाहर का सौंदर्य छूट गया और भीतर का सौंदर्य मिला नहीं है। अटक गए। रसधार ही सूख गई। मरुस्थल हो गए।
ज्यादा से ज्यादा कुछ कांटे वाले झाड़ पैदा हो जाते हों मरुस्थल में तो हो जाते हों, बस और कुछ नहीं। न ऐसे वृक्ष पैदा होते हैं कि जिनमें किसी राहगीर को छाया मिल सके, न ऐसे वृक्ष पैदा होते हैं कि रसदार फल लगें और किसी की भूख मिट सके। ना ही किसी की क्षुधा मिटती, ना ही किसी की प्यास मिटती, रूखे-सूखे ये लोग और इनकी तुम पूजा किए चले जाते हो! इनकी पूजा खतरनाक है, क्योंकि इनको देख-देखकर धीरे-धीरे तुम भी रूखे-सूखे हो जाओगे।इस देश में यह दुर्भाग्य खूब घटा। इस देश का संन्यासी धीरे-धीरे जीवन की करुणा से ही शून्य हो गया। उसे करुणा ही नहीं आती। लोग मरते हों तो मरते रहें। लोग सड़ते हों तो सड़ते रहें। वह तो कहता, हमें क्या लेना-देना! हम तो संसार छोड़ चुके। संसार छोड़े, वह तो ठीक, लेकिन करुणा छोड़ चुके! तो फिर तुम बुद्ध की करुणा न समझोगे, महावीर की अ¨हसा न समझोगे और क्राइस्ट की सेवा न समझोगे। इसे कसौटी मानकर चलना। करुणा बननी ही चाहिए। तो ही समझना कि संन्यास ठीक दिशा में यात्र कर रहा है।    
जो संन्यास तुम्हें माया-मोह से छुड़ाकर करुणा-दया से भी दूर कर देता हो, समझना चूक गए। भूल हो गई। माया-ममता से छुड़ाने का प्रयोजन ही इतना है कि तुम्हारी जीवन-ऊर्जा करुणा बने।

ध्यान(201119)


जब लोग आकर मुझसे पूछते हैं, 'ध्यान कैसे करें?' मैं उन्हें कहता हूं, ‘यह पूछने की कोई आवश्यकता नहीं है कि ध्यान कैसे करें, बस पूछें कि कैसे स्वयं को खाली रखें। ध्यान सहज घटता है। बस पूछो कि कैसे खाली रहना है, बस इतना ही। यह ध्यान की कुल तरकीब है - कैसे खाली रहना है। तब आप कुछ भी नहीं करेंगे और ध्यान का फूल खिलेगा।
 
जब तुम कुछ भी नहीं करते तब ऊर्जा केंद्र की तरफ बढ़ती है, यह केंद्र की ओर एकत्रित हो जाती है। जब तुम कुछ करते हो तो ऊर्जा बाहर निकलती है। करना बाहर की ओर जाने का एक मार्ग है। ना करना भीतर की ओर जाने का एक मार्ग है। किसी कार्य को करना पलायन है। तुम बाइबिल पढ़ सकते हो, तुम इसे एक कार्य बना सकते हो। धार्मिक कार्य और धर्मनिरपेक्ष कार्य के बीच कोई अंतर नही है: सभी कार्य, कार्य हैं, और वे तुम्हें तुम्हारी चेतना से बाहर की ओर ले जाने में मदद करते हैं। वे बाहर रहने के लिए बहाने हैं।
 
मनुष्य अज्ञानी और अंधा है, और वह अज्ञानी और अंधा बने रहना चाहता है, क्योंकि स्वयं के भीतर आना अराजकता में प्रवेश करने की भांती लगता है। और ऐसा ही है; अपने भीतर तुमने एक अराजकता निर्मित कर ली है। तुम्हें इसका सामना करना होगा और इससे होकर गुजरना होगा। साहस की आवश्यकता है – साहस- स्वयं होने का, साहस- भीतर जाने का। ध्यानपूर्वक होने का साहस – इस साहस से बड़ा साहस मैंने नहीं जाना है।
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तो ध्यान क्या है? ध्यान है केवल स्वयं की उपस्थिति में आनंदित होना; ध्यान स्वयं में होने का आनंद है। यह बहुत सरल है - चेतना की पूरी तरह से विश्रांत अवस्था जहां तुम कुछ भी नहीं कर रहे होते। जिस क्षण तुम्हारे भीतर कर्ता भाव प्रवेश करता है तुम तनाव में आ जाते हो; चिंता तुरंत तुम्हारे भीतर प्रवेश कर जाती है। कैसे करें? क्या करें? सफल कैसे हों? असफलता से कैसे बचें? तुम पहले ही भविष्य में चले जाते हो।
 
यदि तुम विचार कर रहे हो, तो तुम क्या विचार कर सकते हो? तुम अज्ञात पर कैसे विचार कर सकते हो? तुम केवल ज्ञात पर विचार कर सकते हो। तुम इसे बार-बार चबा सकते हो, लेकिन यह ज्ञात है। यदि तुम जीसस के बारे में कुछ जानते हो, तो तुम इस पर बार-बार चिंतन कर सकते हो; अगर तुम कृष्णा के बारे में कुछ जानते हो, तो तुम इस पर बार-बार चिंतन कर सकते हो; तुम संशोधन, बदलाहट, सजावट किए जा सकते हो - लेकिन यह तुम्हें अज्ञात की ओर ले जाने वाला नहीं है। और "ईश्वर" अज्ञात है।
 
ध्यान मात्र होना है, बिना कुछ किए - कोई कार्य नहीं, कोई विचार नहीं, कोई भाव नहीं। तुम बस हो। और यह एक कोरा आनंद है। जब तुम कुछ नहीं करते हो तो यह आनंद कहां से आता है? यह कहीं से नहीं आता या फिर हर जगह से आता है। यह अकारण है, क्योंकि अस्तित्व आनंद नाम की वस्तु से बना है। इसे किसी कारण की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम अप्रसन्न हो तो तुम्हारे पास अप्रसन्नता का कारण है; अगर तुम प्रसन्न हो तो तुम बस प्रसन्न हो - इसके पीछे कोई कारण नहीं है। तुम्हारा मन कारण खोजने की कोशिश करता है क्योंकि यह अकारण पर विश्वास नहीं कर सकता, क्योंकि यह अकारण को नियंत्रित नहीं कर सकता - जो अकारण है उससे दिमाग बस नपुंसक हो जाता है। तो मन कुछ ना कुछ कारण खोजने में लग जाता है। लेकिन मैं तुम्हें बताना चाहता हूं कि जब भी तुम आनंदित होते हो, तो तुम किसी भी कारण से आनंदित नहीं होते, जब भी तुम अप्रसन्न होते हो, तो तुम्हारे पास अप्रसन्नता का कोई कारण होता है - क्योंकि आनंद ही वह चीज है जिससे तुम बने हो। यह तुम्हारी ही चेतना है, यह तुम्हारा ही अंतरतम है। प्रसन्नता तुम्हारा अंतरतम है।

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तो ध्यान क्या है? ध्यान है केवल स्वयं की उपस्थिति में आनंदित होना; ध्यान स्वयं में होने का आनंद है। यह बहुत सरल है - चेतना की पूरी तरह से विश्रांत अवस्था जहां तुम कुछ भी नहीं कर रहे होते। जिस क्षण तुम्हारे भीतर कर्ता भाव प्रवेश करता है तुम तनाव में आ जाते हो; चिंता तुरंत तुम्हारे भीतर प्रवेश कर जाती है। कैसे करें? क्या करें? सफल कैसे हों? असफलता से कैसे बचें? तुम पहले ही भविष्य में चले जाते हो।
 
यदि तुम विचार कर रहे हो, तो तुम क्या विचार कर सकते हो? तुम अज्ञात पर कैसे विचार कर सकते हो? तुम केवल ज्ञात पर विचार कर सकते हो। तुम इसे बार-बार चबा सकते हो, लेकिन यह ज्ञात है। यदि तुम जीसस के बारे में कुछ जानते हो, तो तुम इस पर बार-बार चिंतन कर सकते हो; अगर तुम कृष्णा के बारे में कुछ जानते हो, तो तुम इस पर बार-बार चिंतन कर सकते हो; तुम संशोधन, बदलाहट, सजावट किए जा सकते हो - लेकिन यह तुम्हें अज्ञात की ओर ले जाने वाला नहीं है। और "ईश्वर" अज्ञात है।
 
ध्यान मात्र होना है, बिना कुछ किए - कोई कार्य नहीं, कोई विचार नहीं, कोई भाव नहीं। तुम बस हो। और यह एक कोरा आनंद है। जब तुम कुछ नहीं करते हो तो यह आनंद कहां से आता है? यह कहीं से नहीं आता या फिर हर जगह से आता है। यह अकारण है, क्योंकि अस्तित्व आनंद नाम की वस्तु से बना है। इसे किसी कारण की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम अप्रसन्न हो तो तुम्हारे पास अप्रसन्नता का कारण है; अगर तुम प्रसन्न हो तो तुम बस प्रसन्न हो - इसके पीछे कोई कारण नहीं है। तुम्हारा मन कारण खोजने की कोशिश करता है क्योंकि यह अकारण पर विश्वास नहीं कर सकता, क्योंकि यह अकारण को नियंत्रित नहीं कर सकता - जो अकारण है उससे दिमाग बस नपुंसक हो जाता है। तो मन कुछ ना कुछ कारण खोजने में लग जाता है। लेकिन मैं तुम्हें बताना चाहता हूं कि जब भी तुम आनंदित होते हो, तो तुम किसी भी कारण से आनंदित नहीं होते, जब भी तुम अप्रसन्न होते हो, तो तुम्हारे पास अप्रसन्नता का कोई कारण होता है - क्योंकि आनंद ही वह चीज है जिससे तुम बने हो। यह तुम्हारी ही चेतना है, यह तुम्हारा ही अंतरतम है। प्रसन्नता तुम्हारा अंतरतम है।
   
 
ध्यान की शुरुआत खुद को मन से अलग करने से होती है, एक साक्षी बनने से। खुद को किसी भी चीज से अलग करने का यही एकमात्र तरीका है। यदि तुम प्रकाश को देखते हो, स्वाभाविक रूप से एक बात निश्चित है: की तुम प्रकाश नहीं हो, तुम ही वह हो जो इसे देख रहे हो। यदि तुम फूल को देखते हो, तो एक बात निश्चित है: तुम फूल नहीं हो, तुम देखने वाले हो।
 
देखना कुंजी है ध्यान की:
 
अपने विचारों को देखो।
 
कुछ भी मत करो – कोई मंत्र नहीं दोहराना है, भगवान के नाम को नहीं दोहराना है- बस जो भी मन कर रहा है उसे देखो। उसे परेशान मत करो, उसे रोको मत, उसे दबाओ मत; अपनी ओर से कुछ मत करो। तुम केवल द्रष्टा बने रहो, और देखने का चमत्कार ही ध्यान है। जैसे ही तुम देखते हो, धीरे-धीरे मन विचारों से खाली हो जाता है, लेकिन तुम सो नहीं जाते हो, तुम अधिक होशपूर्ण होने लगते हो, और अधिक जागरूक होने लगते हो।
 
जैसे ही मन पूरी तरह से खाली हो जाता है, तुम्हारी पूरी ऊर्जा जागरण की एक लौ बन जाती है। यह लौ ध्यान का परिणाम है। तो तुम कह सकते हो कि ध्यान बिना किसी भी मूल्यांकन के देखने का, साक्षी का, निरीक्षण का दूसरा नाम है। मात्र देखकर, तुम तुरंत मन से बाहर आ जाते हो।
 
जो भी महर्षि महेश योगी और उनके जैसे अन्य लोग कर रहे हैं वह अच्छा है, लेकिन वे जिस किसी चीज को भी ध्यान का नाम दे रहें हैं वह ध्यान नहीं है। इसी बात पर वे लोगों को गुमराह कर रहे हैं। अगर वे ईमानदार और प्रामाणिक बने रहते और लोगों से कहते कि इससे आपको मानसिक स्वास्थ्य, शारीरिक स्वास्थ्य, एक बेहतर आरामदायक जीवन, और एक शांतिपूर्ण जीवन मिलेगा, तो यह सही होता। लेकिन एक बार जब उन्होंने इसे 'ट्रान्सेंडैंटल मैडिटेशन' कह कर बुलाना शुरू किया, तो उन्होंने एक बहुत ही तुच्छ सी चीज को परम महत्व का बता दिया है जैसा कि बिलकुल भी नहीं है। लोग वर्षों से ट्रान्सेंडैंटल मैडिटेशन करते आ रहे हैं, और पूर्व में तो हजारों वर्षों से ट्रान्सेंडैंटल मैडिटेशन कर रहे हैं। लेकिन यह उनका आत्म-ज्ञान नहीं बना है, और ना ही इससे वे गौतम बुद्ध हो गए हैं।

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ध्यान क्या है?
 
ध्यान अ-मन की अवस्था है। ध्यान बिना किसी विचार के शुद्ध चेतना की स्थिति है। साधारणता, तुम्हारी चेतना, कचरे से बहुत अधिक भरी हुई है, बस धूल से ढके हुए दर्पण की तरह। मन एक निरंतर चलता ट्राफिक है: विचार चल रहे हैं, इच्छाएं चल रही हैं, स्मृतियां चल रही हैं, महत्वाकांक्षाएं चल रही हैं - यह रात-दिन निरंतर चलने वाला एक ट्राफिक है! यहां तक कि जब तुम सो रहे होते हो तो भी मन कोई न कोई काम कर रहा होता है, वह स्वप्न देख रहा होता है। वह अभी भी सोच रहा है; वह अभी भी चिंताओं और तनावों से भरा है। वह अगले दिन की तैयारी कर रहा है; अंदर ही अंदर तैयारी चल रही होती है।
 
यह गैर-ध्यान की अवस्था है - इसके ठीक विपरीत है ध्यान। जब कोई ट्राफिक नहीं होता और विचार रुक जाते हैं, कोई विचार नहीं चलते हैं, कोई इच्छा तुम्हें डगमगाती नहीं है, तुम पूरी तरह से मौन होते हो - वह मौन ही ध्यान है। और उस मौन में सत्य जाना जाता है, अन्यथा कभी नहीं। ध्यान अ-मन की अवस्था है।
 
और तुम मन के द्वारा ध्यान को नहीं पा सकते क्योंकि मन स्वयं को टिकाए रखेगा। तुम मन को अलग रखकर ही ध्यान को पा सकते हो, इसके प्रति शांत, उदासीन और स्वयं को उससे दूर हटाकर; मन को गुजरता देखकर, लेकिन इसके साथ बिना कोई तादात्म्य बनाए, बिना यह सोचे कि "यह मैं हूं।"
 
ध्यान एक बोध है कि "मैं मन नहीं हूं"। जब यह बोध तुम्हारे भीतर गहरा और गहरा हो जाता है, धीरे-धीरे कुछ क्षण आते हैं - मौन के क्षण, शुद्ध रिक्तता के क्षण, पारदर्शिता के क्षण ऐसे क्षण जब तुम्हारे भीतर कोई हलचल नहीं और सब कुछ ठहरा हुआ होता है। उन ठहरे हुए क्षणों में तुम जान लोगे कि तुम कौन हो, और तुम्हें पता चलेगा कि इस अस्तित्व का क्या रहस्य है।

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ध्यान क्या है? क्या यह कोई तकनीक है जिसका अभ्यास किया जा सकता है? क्या यह कोई प्रयास है जिसे तुम्हें करना है? क्या यह ऐसा कुछ है जिसे मन हासिल कर सकता है? ऐसा नहीं है।
जो कुछ भी मन कर सकता है वह ध्यान नहीं हो सकता - यह कुछ ऐसा है जो मन के पार है, यहां मन बिल्कुल असहाय है।
 
मन ध्यान में प्रवेश नहीं कर सकता, जहां मन समाप्त होता है, वहां ध्यान आरंभ होता है। इसे स्मरण रखना होगा, क्योंकि हमारे जीवन में, हम जो भी करते हैं, हम मन के द्वारा करते हैं; जो भी हम प्राप्त करते हैं, हम मन के द्वारा करते हैं।
 
और फिर, जब हम भीतर की ओर मुड़ते हैं, हम फिर से तकनीक, विधि, क्रिया के अनुसार सोचना शुरू कर देते हैं, क्योंकि पूरे जीवन का अनुभव हमें दिखाता है कि सब कुछ मन से किया जा सकता है। हां - ध्यान को छोड़कर, सब कुछ मन के द्वारा किया जा सकता है।
 
ध्यान को छोड़कर सब कुछ मन से किया जाता है। क्योंकि ध्यान एक उपलब्धि नहीं है – ऐसा पहले से ही है, यह तुम्हारा स्वभाव है। इसे हासिल नहीं करना है; इसे समझना ही नहीं, इसे स्मरण भर रखना है। यह तुम्हारे लिए प्रतीक्षारत है – बस भीतर की और लौटना, और यह उपलब्ध है। तुम हमेशा-हमेशा से इसे साथ लिए हुए हो।
 
ध्यान तुम्हारा आंतरिक स्वभाव है। वह तुम हो, वह तुम्हारी आत्मा है, इसका तुम्हारे कर्मों से कोई लेना-देना नहीं है। इसे तुम हासिल नहीं कर सकते। इस पर कब्जा नहीं हो सकता, यह कोई वस्तु नहीं है।
 
यह तुम हो। यह तुम्हारा होना हैै।

 
 
हम जिस ध्यान की बात कर रहें हैं वह किसी का ध्यान नहीं है: ध्यान की एक अवस्था है। अवस्था का मतलब ये है ध्यान का मतलब किसी को स्मरण में लाना नहीं है। ध्यान का मतलब जो सब हमारे स्मरण में है उनको गिरा देना है। और एक स्थिति लानी है कि केवल चेतना मात्र रह जाए, केवल जागरूकता मात्र रह जाए।
 
यहां हम एक दिया मात्र जलाएं और यहां से सारी चीजें हटा दें तो भी दिया प्रकाश करता रहेगा। वैसे ही अगर हम चित्त से सारे विचार हटा दें, चित्त से सारी कल्पनाएं हटा दें तो क्या होगा? जब सारे विचार, सारी कल्पनाएं हट जाएंगी तो क्या होगा? चेतना अकेली रह जाएगी। चेतना की वो अकेली अवस्था ध्यान है। ध्यान किसी का नहीं करना होता है, ध्यान एक अवस्था है जब चेतना अकेली रह जाती है।
 
जब चेतना अकेली रह जाए और चेतना के सामने कोई विषय न हो उस अवस्था का नाम ध्यान है। मैं ध्यान का उसी अर्थ में प्रयोग कर रहा हूं।
 
जो हम प्रयोग करते हैं वो ठीक अर्थों में ध्यान नहीं धारणा है; ध्यान तो उपलब्ध होगा उसके द्वारा जो हम प्रयोग कर रहे हैं। समझ लें रात्रि में हमने प्रयोग किया चक्रों पर, सुबह हम प्रयोग करते है स्वांस पर ये सब धारणा हैं, ये ध्यान नहीं हैं। इस धारणा के माध्यम से एक घड़ी आएगी की स्वांस भी विलीन हो जाएगी। इस धारणा के माध्यम से एक घड़ी आएगी की शरीर भी विलीन हो जाएगा, विचार भी विलीन हो जाएंगे। जब सब विलीन हो जाएगा तो क्या शेष रहेगा? जो शेष रहेगा उसका नाम ध्यान है।

अप्सरा साधना और नियम

आज हम अप्सरा साधना तथा उसके नियम की बात करेगे ये सब जानकारी आपको सिर्फ ज्ञान बढाने के उद्देश्य से दिया जा रहा है. प्रत्येक धर्म मे यह कहा जाता है कि स्वर्ग मे जाने वालो को भोगविलास तथा दिव्यसुख की प्राप्ती होती है. अप्सराये उनका मनोरंजन करती है. यूनानी शास्त्रो मे अप्सराओ को "निफ" नाम से जाना जाता है. ये अत्यंत रूपवती और दिव्य शक्तियो से संपन्न होती है. इन अप्सराओ को इस्लाम मे "हूर" कहा गया है. इनका कार्य नृत्य, गायन, वादन कर सबका मनोरंजन करना होता है. ये अत्यंत खूबसूरत तथा भरपूर यौवन से भरी हुयी षोडस वर्षीया अप्सरा होती है. षोडस वर्षीया का अर्थ है कि १६ वर्ष के ऊपर न हो. इनके शरीर से निकलने वाली खुशबू लोगो को आकर्षित करती रहती है. ये अगर साधक के ऊपर प्रसन्न हो जाय तो उनको कभी धोखा नही देती और भरपूर सुख प्रदान करती रहती है. इसके अलावा इन्हे रिषी-मुनी की तपस्या को भंग करने के लिये भी भेजा जाता था. इनमे से प्रमुख अप्सराओ के नाम है रंभा, मेनका, तिलोत्तमा, उर्वशी. देखा जाय तो हमारे भारतीय समाज मे अप्सराये रूप और सौंदर्य की पर्याय बन चुकी है.
अब हम जानना चाहेगे कि इनकी साधना इस कलियुग मे लोग क्यो करते है?
जब भी कोई ब्यक्ति किसी देवी-देवता, यक्ष, गंधर्य, अपसरा की साधना करता है तो उनके गुण उस साधक मे आने शुरु हो जाते है जैसे कि...
अगर हम माता लक्ष्मी की साधना करते है तो लक्ष्मी के गुण जैसे बुद्धी का सही उपयोग, सही समय मे सही निर्णय लेना, भौतिक सुख, ब्यापार मे बृद्धी ईत्यादि गुण होने की वजह से यही गुण साधक को भी मिलने लगते है.
हनुमान की साधना करते है तो उनके गुण जैसे आत्मविश्वास, पराक्रम, शक्ति, विजय तथा ब्रम्हचर्य जैसे गुण होने की वजह से साधक को भी वही गुण मिलने लगते है.
इसी तरह से अप्सरा की साधना करने से उनके गुण जैसे कि रूप, सुंदरता, यौवन, हमेशा आनंद मे रहना, सौंदर्य, सम्मोहन, आकर्षण, हमेशा जवान दिखना ईत्यादि गुण होने की वजह से वही गुण साधक मे भी आने लगते है. इसीलिये आज के युग मे अप्सरा की साधना स्त्री तथा पुरुष करने लगे है.
आईये जानते है क्या क्या लाभ मिलते है इस अप्सरा साधना से....
  • स्त्री तथा पुरुष मे आकर्षण शक्ति बढ जाती है
  • पुरुषो मे यौन क्षमता बढ जाती है
  • स्त्रियो को भरपूर यौवन की प्राप्ति होती है.
  • आपकी बातो मे या हाव-भाव जबर्दस्त आकर्षण छुपा रहता है.
  • यह एंटी-एजिंग शक्ति प्रदान करता है यानी उम्र का प्रभाव शरीर पर कम होता है.
  • आपको सुंदर, आकर्षक दिखने मे मदत करता है.
  • हीन-भावना दूर कर आत्मविश्वास को बढाता है.
  • यौन क्षमता मे बृद्धी
  • यौन समस्या मे लाभ
  • गुप्त अंग की समस्या से लाभ
  • ठंडेपन की समस्या से लाभ
  • शरीर मे आनंद, चेतना तथा स्फूर्ति बनी रहती है.
  • कला के क्षेत्र कार्य करने वालो के लिये ये साधना बहुत ही लाभकारी है.
अप्सरा साधना के नियम
  • अप्सरा साधना स्त्री पुरुष कोई भी संपन्न कर सकता है.
  • १८ वर्ष से लेकर ६०-७० वर्ष तक के ब्यक्ति अप्सरा साधना कर सकते है.
  • ये साधना किसी के मार्ग-दर्शन मे ही करे.
  • आखे बंद कर मंत्र जप करे
  • किसी जानकार गुरु से दिक्षा अवश्य प्राप्त कर ले.
  • इनकी साधना बीच मे न छोडे.
  • स्त्रियो को मासिक धर्म के कारण ३ दिन की छूट होती है.
  • साधना एक निश्चित समय पर ही शुरु करे. १०-१५ मिनट आगे पीछे चल जाता है.
  • साधना मे उपांशु जाप का प्रयोग करे यानी बुदबुदाकर जाप करे और आपके होठ हिलते रहने चाहिये.
  • जल्दबाजी न करे. साधना जितने दिन की बताई गयी है उतने दिन अवश्य करे.
  • कुछ साधको को बीच मे ही ऐसा लगता है कि साधना सफल हो गयी है इसलिये साधना रोके नही. अप्सराये परिक्षा भी लेती रहती है.
  • साधना के प्रति पूर्ण विश्वास होना जरूरी है
  • साधना के दौरान अपनी कामेच्छा पर नियंत्रण रखे. साधना मे वासना का कोई स्थान नही है इसलिये मन पर नियंत्रण रखे.
  • कई साधक अप्सराओ के साथ शारीरिक संबंध की कल्पना भी करने लगते है. इसलिये ऐसी भावनाओ से बचे क्योकि ऐसी भावनाये साधना को असफल बनाती है.
  • साधना के दौरान खुशबू आने का अहसास होता है
  • किसी को अपने आस-पास चलने का अहसास होता है. कुछ भी हो अपनी आख न खोले.
  • कहा जाता है कि जब तक अप्सरा द्वारा वचन न दिया जाय तब तक उसकी बातो पर विश्वास न करे.