Friday, December 27, 2019

चूलसुभद्या—(ऐतिहासिक कहानी)

चूलसुभद्या-(कहानी)-मनसा दसघरा

सूर्य के आगमन से पहले उसके पद-चिह्न, आकाश में बादलों के छिटकते टुकड़े के रूप में श्यामल से नारंगी होते दिखाई दे रहे थे। सुबह ने अल साई सी अंगड़ाई ली, पेड़-पौधों में नई जीवंतता का संचार हुआ। कली‍, फूल, पत्तों में भी सुबह के आने की सुगबुगाहट,  उन्मादी पन का अहसास होने लगा था। कोमल नवजात पत्तों ने पहली साँस के साथ नन्हीं आँखों से धरा को झाँक कर देखना चाहा, परंतु सूर्य की चमक ने उन सुकोमल नन्हे पत्तों को भय क्रांत कर फिर माँ के आँचल में दुबका दिया था। पास बड़े पत्तों न मंद्र समीर में नाच खड़खड़ाहट कर, तालियाँ बजा उनके भय को कुछ कम करना चाहा। दूर पक्षियों ने मानो उनके लिए मधुर लोरियों की झनकार छेड़ दी हो। उनका कलरव नाद सर्वस्व में कैसी मधुरता भर रहा था। तोतों ने जिन आमों को रात कुतरना छोड़ सो गए थे, सुबह फिर उन्हीं पर लदे-लटके कैसे किलकारियाँ मार-मार कर कह रहे हो,’’पा गया रात वाला फल’’ और खुशी के मारे उन्हें कुतर-कुतर कर विजय पत्ताका फहरा रहे थे। कुछ किसी अलसाए साथी को धक्के मार-मार के उठा रहे हे, चलो महाराज सूर्य सर पर चढ़ आया है, मीलों लंबा सफ़र तय करना है।

        प्रकृति में नया नित, नूतन घटता रहता है, पल-पल, छण-छण, पर वो इतना सहजता-सरलता से होता है, किसी को कानों-कान खबर तक भी नहीं होने देती। मनुष्य का मन नये पन का आदि हो गया है, या यूँ कह लीजिए नए पन ही उसका जीवन है। दूर प्रकृति उसके इस आयोजन पर मुस्कुरा ही नहीं रही होती, मूक दृष्टा बनी देखती रहती है। सुबह की नीरवता, दूर किसी घर से काँसी का बैला बजने की प्रतिध्वनि से कैसे सिहर कर काँप गई। किसी घर में फिर कोई किलकारी गूँजी, कन्या के आगमन का संदेश। माँ की प्रसव पीड़ा कैसे तिरोहित हो जाती है, बच्चे के क्रंदन से, शायद यही एक मात्र क्रंदन उसको भाता ही नहीं, उसके अन्तस प्राणों तक को सींच जाता है। अब ये रूधन-रूधन न रह कर,  माँ का उपचारक बन कैसे  एक-एक पीड़ा रूपी शूल निकाल उसके चेहरे पर मधुर मुस्कान बिखेर जाता है। एक नन्हीं कली के चटखने में भी यही नया पन रहता है,  कोमल सकुचाए पत्तों का पहला आगमन कितना भव्य, कितना निरापद लगता होगा वृक्ष को। परंतु कौन देखे उस नए होने को, कली के चटखने से भी एक मधुर ध्वनि निकला होगी, उसके पहले पर्दापण का कैसा स्वागत-सत्कार मनाया होगा इस समस्त आस्तित्व ने। लेकिन फिर भी यह यहीं हठी बन कर देखता रहता है। यही तटस्थता ही इसकी पूर्णता को दर्शाती है।
        श्रावस्ती निवासी सुदत्‍त सेठ के घर भोर के आगमन के साथ एक कन्या ने जन्म लिया। उसकी पहली किलकारी ने घर को ख़ुशियों से भर ही नहीं दिया, वो ऊन दीवार, दरवाज़ों को लांघ समस्त श्रावस्ती में फैल जाना चाहती थी। दूर गली-गली, अटालिकाऔ के भी पार,नदी, पहाड़, जंगल के उस छोर तक पहुँचना जाना चाहती थी। सुदत्त नगर श्रेष्ठी थे श्रावस्ती के, व्यापार दूर गंधार, मथुरा, कोशी,द्वारिका, विषाखापाटन तक फैला था। जलथल दोनों मार्गों से ही व्यापार करते थे, हजारों बैल गाडियों और बड़ी-बड़ी नावों  में आनाज, रुई, काँसी, पीतल के बरतन, लकडी, पत्थर, जुट के बने हस्तकारी का सामान। इनमें छोटे बड़े फानूस, मूढ़े, मूर्ति, झूले, कैन और बाँस के हाथ के बने दैनिक कार्य में इस्तेमाल होने वाली चीज़ें जो आस पास के गाँव देहात में बनती और पहुँच जाती हजारों कोस तक। वहाँ से सूखे मेवे, पटसन, लोहे-पीतल के बने लडाई के औज़ार, कच्चा चमड़ा,भेड़ की ऊन आदि के साथ सोने-चाँदी का लेन देन चलता था। शादी के सात साल बाद सुदत्त सेठ के धर ये खुशी का मौक़ा आया था। श्रावस्ती नगरी अपनी प्रसन्नता लाख छिपा कर भी कहाँ छिपा पा रहा थी। बच्ची के जन्म की बात देखते-ही-देखते पल में पूरी श्रावस्ती में फैल गई, ग्रामीणों के झुंड के झुंड इकट्ठे होने लगे नगर श्रेष्ठी के द्वार पर। गरीब की आस ही उन्हें तुम्हारे द्वार तक खींच कर ले आती है। खुशी के मौके पर जब तुम खुले हुए होते हो, या यूँ कह लीजिए खुशी में आदमी अपने बहुत से बंधन, ढँके आवरण पहनने भूल जाता है। फिर कोई सरल ह्रदय तो द्वार खोलता ही नहीं, उसके चौखटे तक उतार कर फेंक देता है। इस मौके पर सुदत्त सेठ ने प्रत्येक आने वाले को जी खोल कर घन-धान्य लुटा याँ था। इसकी गूँज श्रावस्ती नगरी से होकर दूर दराज के नगरों से टकरा कर ध्वनि-प्रतिध्वनि बनकर सालों गूँजती रही थी। फिर कब ये गूँज मंद्र से मंद्र तर होते तक सुदत्त सेठ के नाम को अनाथपिण्ड़क कर गई पता ही नहीं चला, भूल गए लोग सुदत्त सेठ नाम का कोई मनुष्य श्रावस्ती में रहता था, याद रह गया एक नाम ’’अनाथपिण्ड़क’’ जो आज हजारों सालों बाद भी इतिहास के पोर-पोर, पन्ने-पन्ने तक पर अंकित रह गया है।
        वस्त, मगध और राजग्रह के राज मार्गों को जोड़ता था श्रावस्ती नगर। इसकी सुंदर भूगोल स्थिति आने वाले आगन्तुक को अनायास ही खींच लेती थी। मणि-माणिक, जौहरी, काश्तकार, शिल्पकार, आनाज के व्यापारियों का विशेष केंद्र बनता जा रही थी श्रावस्ती नगरी। पास बहती शांत और विशाल अचर वती नदी खेती के भू भाग को ही नहीं सिंचती थी, अपने सीने पर हजारों छोटी-बड़ी नावों को माल असबाब समेत आन-जाने देती थी। लाल बजरी, ईटों के बने चौडे मार्ग, किनारे लगे पीपल, नीम, जामुन के छाया दार वृक्ष, पीने के पानी के कुएँ कोस दो कोस पर, बने विश्रामगृह  पैदल ही नहीं रथ, बैल गाडियों पर जाते मुसाफ़िरों को भी बरबस अपनी और खिंच लेती थे। श्रावस्‍ती की ऊंची बनी अटालिकाये, महल, दुमहला, शहर की शान और शौकत की कहानी कहते से प्रतीत होते थे। पथिकों के साथ पैदल चलते बोध भिक्षुओं के झुंड के झुंड, नगरी का गौरव ही नहीं बढ़ाते वहाँ अध्यात्मिक और शांति का बीज बिखेर रहे थे। कौशल कुमार जैत को तो ये नगरी इतनी भा गई वो तो यहीं के हो कर रह गए। नगरी का सौन्दर्य, गरिमा, भाग्य कह लीजिए भगवान बुद्ध ने अपने ४०वर्षा वासों में से १६वर्षा वास श्रावस्ती में गुज़ारे थे। इस विकसित होती नगरी में व्यापर के साथ-साथ शान्ति और ध्यान का सुनहरा प्रकाश फैल रहा था।
        उसी दिन अचानक इस ऊहा-पोह, भाग दौड़ और शोरशराबे के बीच नगर श्रेष्ठी को पता चला भगवान बुद्ध श्रावस्ती पधारे है। उसकी तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा। एक तो गीली मिट्टी ऊपर से विशाल पानी की लहर का टकराना, सब कुछ बह गया रेत पर कोई पद चाँप निशान भी नहीं बचे पीछे। अनाथपिण्ड़क समझ नहीं पा रहे थे, इस होने न होने को केवल आसमान की तरफ़ आँखें उठा कर देखा, एक गहरी साँस ली और आँखें बन्ध हो गई। कुछ देर ऐसे ही  बैठे रहे अविचल, थिर, अकंपन, मूर्तिवत से जैसे कोई झंझावात में थौड़ी देर के लिए कहीं अटक जाए जिसकी उसे कल्पना भी नहीं हो। आँखें खोली और भगवान बुद्ध के शिविर कि तरफ़ चल दिए जो शहर से दूर एक निर्जन भू भाग पर लगा था। भगवान ने अनाथपिण्ड़क की गौरव-गर्वित चाल जो आज उसके केंद्रीकरण होने के कारण से थी, अपनी और आते देख कैसे गद्द-गद्द हो रहे थे। कितने भिक्षु देख सके होगें उस चलने को, इसके लिए भगवान का होश उनकी जागृति चाहिये, वो कोरी निर्मल आँखें, स्फटिक शांत मन। एक शब्द बना है ’’चाल चलन’’ तुम्हारी चाल ही तुम्हारा पूरा जीवन चरित्र वर्णित करती चलती है। किसी पुरुष का सौम्यता, सौन्दर्य, साहस, पोरस या भय, या किसी नारी की गौरव गर्वित चाल, उसका कर्मीय, प्रेम, लज्जा उसकी जीवन ऊर्जा कदम-कदम बिखेरती चलती है। चाहो तो तुम उसे पग-पग पर छिटकते चरित्र को सुकेर-समेट कर विश्लेषण तक कर सकते हो।
        अनाथपिण्ड़क भगवान के सामने दोनों हाथ जोड़ आँखें बंद कर बैठ गए। भगवान ने भी अपनी आँखें ऐसे बंध कर जैसे कोई सालों भूला धर आ जाये। दोनो तरफ से बहारी द्वार बंध हो गये। मानो किसी राज प्रसाद मे गहन मंत्रणा हो रही हो, पलकों पर द्वार पाल का विशेष पहरा लग गया हो। पास बैठे आनन्द, संभूति, मौद्गल्यायन, सारी पुत्र.......और अनेक भिक्षु बहार कितनी देर बैठते, जब ध्यान की वर्षा हो रही हो, वो भी आंखे बंध कर अपने पाल खोल दिये। चारो तरफ़ निशब्दता छा गई, शायद हवा भी इस निशब्दता को देखे आवक हो किसी विशाल वृक्ष की औट ले खड़ी रह गयी थी। हवा के हठात रूक जाने से पत्ते भी अपना झूमना-इठलाना भूल गये, पक्षी भी कुछ देर अपने मधुर कंठ पर इतराते रहे, फिर अचानक चारों तरफ़ फैली इस शान्ति से अछूते नहीं रह सके और मौन हो गये, जैसे अवाकता उनके कंठों पर आकर बैठ गई हो।
         घण्टों बाद सन्नाटा टूटा कोई कुछ बोलना नहीं चहा रहा था। शायद शब्द मौन पर ब्रज आघात करते प्रतीत हो रहे थे। वहीं जगह कुछ क्षणों के लिए कोई और ही लोक और ही आयाम बन गई थी। अनाथपिण्ड़क ने दोनों हाथ जोड़ कर भगवान के आगे माथ जमीन पर टेक दिया, भगवान ने अपना दाया हाथ अनाथपिण्ड़क के सर पर इतने प्रेम और वात्सल्यपूर्ण रख दिया जैसे वो हाथ सर पर न रह कर उसकी सम्पूर्णता मे ही समा गया हो, उसमें एक शीतलता, शून्यता, मधुमास की मादकता सी फेल गई। आंखे खोल अनाथपिण्ड़क केवल इतना ही बोल पाये ’’भगवान’’ और गला धूलि गया, जैसे अन्दर शब्द ही न बचे हो, जब वाणी जवाब दे गई, आँखों की भाषा अवरूढ हो गयी तब आंसुओं ने सारे तटबंध तोड़ दिये। उन्हीं आंसुओं के तूफ़ान मे अनाथपिण्ड़क का वो द्वार क्षणों मे खोल दिया, जो साधना करने से हजारों लाखों जन्म मे भी नहीं खुलता। ’’मणिपूर’’ अध्यात्मिक जगत का वो सोपान जहाँ तक की यात्रा के लिए प्रयास करना पड़ता है, फिर यात्रा प्रयास रहित, छोड़ना एक धारा मे ’’श्रोत्तापति’’ शायद यहीं गुरू की महिमा,यह समर्पण, श्रद्धा, खुलापन माँगता है। इसके बाद साधक की साधना जगत का सम्पूर्ण आयाम ही बदल जाता है। अनाथपिण्ड़क कब उठे कब घर पहुँचें इसका उन्हें भान ही नहीं रहा। उस मदहोशी मे भी कैसी होने की प्रगाढता थी, सम्पूर्ण जेसे सुकूड़-सिमिट सब केन्द्रित हो गया हो। घर मे अभी तक नौकर-चाकरों की चिल्ल-पो, मची थी। अनाथपिण्‍ड़क  को  देखते ही लाखों कम निकल आये, ये खत्म हो गया, वो मंगाना है,.. अनाथपिण्ड़क हां हूं करते रहे कुछ बोलने की स्थिति मे नहीं थे, मुनीम उनकी ये दशा देख समझ उन्हें विश्रामकक्ष की तरफ़ भेज कर हालात फिर आपने नियन्त्रण मे ले लिये।
      श्याम का धुंधलका छा रहा था,  सूर्य भगवान धीरे-धीरे अपना प्रकाश पेड़, पत्तों, की फुलबगिया से समेट पहाड़ी चोट पर बैठ क्षण भर विश्राम की स्वास ले रहा लगता था,   एक बार फिर घर लौटने की तैयारी कर रहा था। जैसे एक माँ दिन भर की धूल-धमास के बाद बच्चे को अपने स्तनों का दूध मुँह से लगा कैसे आँचल से ढक लेती है। बच्चे की आंखे तो दूध के सुखद स्वाद से पहले ही बन्द होने को थी। प्रकृति ने अन्धकार की चादर औड ली, चारो तरफ़ अन्धकार ने छदम रूप धर धरा को अपने अन्दर छुपा लिया था। अनाथपिण्ड़क की नींद मे प्रकाश की किरण अन्दर ऊन अछूते तलों मे उतरती चली गई, एक अनूठी यात्रा सोपान रहित, निभ्रर्म नीले आसमान मे सफेद स्फटिक बादलों की तरह जो चल ही नहीं रहे आपके भीतर भी साथ चलने का भ्रम पैदा कर दे रहे थे। न वो सोने जैसा था, न जागने जैसा, भला जब तुम्हे अपने होने का पता है, तुम कैसे सोये हुए मानो गे, फिर कैसे तुम्हारी दिन भर की थकावट मिट गई, कैसा श्यामल सुनहरी प्रकाश जो शब्दों और कल्पना के परे की बात है। पुर्ण तन-मन जैसे सब निर् झरा सा सुकोमल, गत्यात्मक हो गया था। सुबह पक्षियों के कलरव की पहली ध्वनि ने कैसे महीन-मन्द्र घण्टियों की सरस अव छिन्न गुंज कानों भर दी। आंखे खुली तो यकीन ही नहीं हुआ, क्या ये सब मैं पहली बार देख रहा हुँ, या वहीं पुराना जिसे हजारों बार पहले भी देखा है, वहीं दीवालें, खिड़की, पेड़, पक्षियों की चहचहाहट, जो कल तक थी, उसका ड़ाल-ड़ाल ही नहीं पोर-पोर तक बदल गया है। रंग, रूप, आकार-प्रकार, वह सोन्द्रय आज जो आंखे देखा वह कल तक क्यों नहीं देख पाती थी।
         जीवन आज जीवन बना, आज ही उसमें प्राणों का स्पन्दन हुआ, कल तक जो रंग हीन रूखा-सूखा था, उसमें रंग भरे, सूखे रेगिस्तान मे आषाढ़ का पहला दोगंड़ा कैसे उसमें जीविन्तता ला देता हे, आज जीवन के होने का पता चला था। मनुष्य की मनुष्य बनने की यात्रा पेट से ऊपर गति करने मे ही है।  पेट तो एक प्राकृतय केन्द्र है, उसमें जीवित दिखने वाले प्राणी ही नहीं दूर क्षितिज पे मंदाकिनी,काल सूर्य, नक्षत्र, स्थूल से दिखने वाला दृश्य-अदृष्य भी उससे अछूते नहीं है। प्रकृति और पारलौकिक का विभाजन यहीं से शुरु होता है, विकास अब विकास न रह कर क्रांति बन गया हैं। सृष्टि की पकड़ मनुष्य तक ले जाने तक ही है, चाहो तो पंख लगा अनन्त नभ मे ऊड़ों या चिपके रहो इस गुरूत्व के फेर मे। गुरू ही काटे गा गुरूत्वा शक्ति के परिधि को । नहाते हुऐ पानी ने शरीर को स्‍पर्श किया कैसा स्पन्दन, नीलाभ सी तरूणाई फैल गई रोए-रोए मे, अपनी ही छुअन कैसे रोमान्चित कर गई थी। खाने का पहला कोर मुहँ मे ड़ाला,  भरोसा ही नहीं आया स्वाद, गन्ध, मे कैसा माधुर्य भर गया। चलना तो ऐसा मानों शरीर निर्भार हो गया पृथ्वी पर चलना न रह कर उत्तुंग आकाश मे फैलना भर हो, एक पाखी की तरह। दिमाग मे चलते विचार कैसे आते ही, क्षण मे फुर्र से उड़ जाते पक्षी की तरह, खाली टहनी झूमती रह जाती। विचारों की भीड़ कैसे अटक कर चल रही उसकी लय, गति छिटक के टुट-टुट जाती थी। एक चित्र थिर हुआ क्षण भर के लिए फिर चल पड़ा। जैसे-जैसे साधक का होश बढ़ेगा वह अटकन भी बढ़ती जायेगी, फिर एक दिन सब गायब, रह जायेगा केवल खाली पर्दा... न चित्र,न दर्शक,मात्र दृष्टा नितान्त होना केवल अपनी सम्पूर्णता मै।
         मील भर का चलना अनाथपिण्ड़क को लगा मानों फरलांग भर का ही रास्ता तय किया है। भगवान नियम से सुबह और श्याम धर्म उपदेश दिया करते थे, यहीं घटता है गुरू और शिष्‍य का मिलन, सत्य के संग होना। शब्द तो तुम्हारे मन को उलझाने मात्र के लिए है, क्योंकि निशब्द की हमे आदत नहीं है। जब तुम शब्दों मे उलझे होगें, नितान्त होने का भाव होगा तुम्हारे अन्दर, निश्चित हो तुम खोल दोगे अपने अन्तस को, तब घटेगा सत्संग, तब होगी बरसात, तब बहेगा आनन्द का झरना। प्रकृति या गुरू बलात कुछ नहीं करते, वो केवल होते हे, वहाँ करता भाव नहीं होता, घटना घटती है, सूर्य मात्र हे, बर्फ पिघलती, नये पत्तों का अंकुरण होगा, प्रकृति मे विकास होगा और विज्ञान विकास करेगा उसमे कर्ता भाव होगा। यही भेद है प्रकृति और विज्ञान के काम करने के तरीके में। अनाथपिण्ड़क खाली जगह देख बैठ गया, भगवान के एक-एक शब्द मे कैसा माधुर्य अन्दर भर रहा था। चारो तरफ गहन सन्नाटा छाया था। दस हजार भि‍क्षूओं का होना न होन जैसा लग रहा था। भगवान जब बोलते तो ऐसे लगता शब्द कोई सुनने के लिए न होकर, पिये जा रहे हो अंग-अंग, रोए-रोए से। जिधर भी आपकी नजर जायेगी आंखे बनी होगी तालतलि‍याँ, टुट रहे होगें तटबन्ध न कोई उन्हे सम्हालना  चाहता होगा, न किसी को इसकी जरूरत होगी। धुल गया अन्तस का धुल धमास निर्मल कोमल स्फटिक मन कैसा न होने का भ्रम देता है, इतना पारदर्शी की मन लगेगा है ही नहीं। हमने तो मन को जब भी देख जाना हे, ठुसा भरा वसनाओं के बोझ तले, ऐसा निर्भार कैसा लगता है शब्दातीत, शायद नहीं कह पायेंगे शब्द। उपदेश खत्म होने पर अनाथपिण्ड़क हाथ जोड़ कर खड़े हो गये, शब्द नहीं निकले या शायद कुछ क्षणों के लिए थे ही नहीं।
        भगवान ने अनाथपिण्ड़क की दुविधा समझ ली, बात को अपनी तरफ़ से पूरा करते हुऐ पूछा--’’हाँ पुत्र अनाथपिण्ड़क कहो कुछ कहना चाहते हो।’’
              ’’भगवान लक्ष्मी का घर आगमन हुआ है, चार दिन बाद छटी का मुहूरत निकला है, उसी दिन नामकरण संस्‍कार भी हो जायेगा, इस खुशी के पावन अवसर पर आप श्रावस्ती पधारे मानो सब नियोजित तरीके से किया गया आयोजन है, आप के साथ सभी भिक्षु संध को भोजन का निमन्त्रण है, स्वीकार कीजिए।’’
         भगवान ने हंस कर ’हाँ’ भर गर्दन हिला दी, चेहरे पर प्रसन्नता छाई नहीं छिटक रही थी, जैसे उतंग पर्वत की चोटियों पर छिटकी बर्फ समस्त कुरूपता को ढ़क केवल सोन्द्रय बिखेर देना चाहती है।
         छ: दिन बाद नाम करण संस्कार मे भगवान ने बालिका को अपनी गोद मे ले दोनो आंखे बन्द कर उसका नाम रखा’’चुलसुभद्दा’’ । भगवान ने जब आंखे खोल उसके आज्ञा चक्र को छुआ तो कैसे निर्भ्रम भाव से सुकोमल नीली आँखो से देख ही नहीं रही उसके होठ, नन्हे हाथ, शरीर ही मानो कुछ कहना चह रहे हो। समय के चक्र के साथ कब चुलसुभद्दा का गुड़लियाँ चलना गुड्डे-गुड़ियों को गोद में लेकर दौड़नें में बदला, इसका पता ही नहीं चला। मानों समय चल ही नहीं रहा उड़ रहा है हंस की पर पर बैठ कर, उसकी किलकारियाँ दीवारों को छूती ही नहीं थी, यहाँ पूरे घर में रौनक बिखर रही थी। इस घर में रौनक मेला, बसंत बनकर ऐसे आया जाने का नाम ही नहीं ले रहा। अनाथपिण्ड़क का व्यापार भी पहले की बनिस्बत दुगना चौगुना हो कर फल फूल रहा था। काम करने में जो पहले थकावट महसूस होती थी, अब अचानक एक खुशी उसे घेरे रहती है। काम करने में एक खास तरह का भी आनन्द आने लगा, मानो काम न रह कर खेल बन गया है। उसे लगा क्या काम के प्रति वो ला परवाह होता जा रहा है। परन्तु पहले से भी ज्यादा चौकन्ना और सतर्क महसूस करता था अपने आप को। काम में कभी नफ़ा नुकसान हो भी जाता तो न पहले की तरह बेचैनी होती, न ही झुंझलाहट, अन्दर शान्ति सी छाई रहती। अगर किसी गाड़ी वान, पल्‍लेदार, छौलदार से कोई नुकसान जाने अनजाने हो भी जाता, मुनीम, उन्हे डाटता फटकारता, पैसे काटन की धमकी देता तब बड़े शान्त भाव से कहते आगे से ध्यान से करगे, इस बार छोड़ दो। घर बहार, व्यापार, सब बदल रहा था अनाथपिण्ड़क का भगवान बुद्ध के सान्निध्य का चमत्कार सब को आकर्षित और प्रभावित कर रहा था। दिन भर होश से काम करने की कोशिश करते, लाख भूलते, फिर वही से शुरु कर देता, ये भगवान की बात उसने अपने मन में ही नहीं हड्डी, माँस, मज्जा मे बसा  गई थी।’’भूलोगे तुम बार-बार लाखों जन्मों का अभ्यास है हमे भूलने का, फिर-फिर याद करो होश को, मेरे साथ भी यहीं हुआ था मैं भी भूलों से ही सिखा है। परन्तु मैं हारा नहीं अपने संकल्प पै अड़िग रहा, उसका परिणाम आज तुम देख रहे हो। भुलोगे परन्तु अपने संकल्प को याद करो, यहीं साधक थक हार कर टुट जाता हे। अन्दर बहुत बेहोशी है अति धीर-धीर टुटेगी, जैसे-जैसे होश बढ़ेगा और होश को बढ़ाएँगे, फिर पहली बार होश के रस से जब तुम सराबोर होने लगो गे, फिर साधना साध्य बन जायेगी।’’
         कुमार जैत का एक बड़ा भू-भाग दक्षिण में शहर से जरा दूर अचरवती के किनारे-किनारे खाली और निर्जन पड़ा था। ये भूमि नदी के अति निकट होने से खेती बाड़ी के काबिल नहीं थी, फिर बरसों से पड़ी निर्जन भूमि पर प्रकृति ने अपना कब्जा जमा लिया जिससे जंगली बनसपतियाँ, झाड़ीयाँ, जंगली बबूल, रोझ, शीशम, नीम मस्त सीना ताने झूमते इठलाते रहते थे। बीच-बीच में बरसाती तालाब भी बन गये थे, जो आस पास के ग्वालों को अपनी गायें भैंसे, भेड़-बकरीयाँ चराने के लिए आमन्त्रित करते थे। भैंसे तालाब के किचड़ में मस्त लेट जुगाली करती, गायें,भैड़, बकरीयाँ पेड़ो की छाँव में ग्वालों के साथ ऊँघती बैठी होती। अनाथपिण्ड़क ने जब ये जगह देखी जो शहर के पास है, साथ ही जंगल जैसी शान्ति है, और अचरवती के किनारे भी है। खेती बाड़ी भी नहीं होती वीरान, निर्जन पड़ी हे, ये भगवान के वर्षा वास के लिए उपयुक्त रहेगी। पता कर कुमार जैत के महल मिलने के लिए चल दिये, डयोढी दार ने जैसे ही अनाथपिण्ड़क का रथ देखा,दोनो हाथ जोड़ नमन कर द्वार खोल दिये। पहरे दार को आवाज दे अतिथि ग्रह खुलवा  अनाथपिण्ड़क को आदर पूर्व बैठा कुमार जैत को सुचित करने अन्दर चला गया। कुछ ही देर में कुमार जैत पधारे, नगर श्रेष्ठी सम्मान भाव से खड़े हो नमन किया, कुमार जैत ने दोनों हाथ जोड़ ’’पधारे नगर श्रेष्ठी बैठे, सुना हे घर कन्या का आगमन हुआ है, कहो कैसे आना हुआ।’’
       अनाथपिण्ड़क--’’ दक्षिण में नदी के किनारे आपका जो भू-भाग खाली पड़ा हैं, वहाँ भगवान के वर्षा वास के ठहरने के उपवन बनवाना चाहता हुँ, इस लिए वो भूखण्ड की टुकडा आपसे माँगने आया हुँ।’’
       कुमार जैत--’’नगर श्रेष्ठी वो भू-भाग तो बिक्री के लिए नहीं है।’’(उनके चेहरे पर शरारत भरी मुस्कान थी )
       अनाथपिण्ड़क--’’वो भू-भाग खेती बाड़ी के काम का भी नहीं, आप जो चाहे कीमत ले लो।’’
       कुमार जैत--’’ तो फिर एक करोड स्वर्ण मुद्रा दे दो।’’
       अनाथपिण्ड़क--’’ दी महाराज एक करोड स्वर्ण मुद्रा, आपकी हुई।’’    
       कुमार जैत--’’हंसे, अवाक, विषमय विमुग्ध हो कुछ क्षण को देखते रह गये, उन्होंने कभी सोचा भी न था बात इतनी गहरे तक चली जायेगी। अन्दर उन्हे अपने छोटे पन का अहसास हुआ, अपने को सम्हालते हुऐ कहने लगे।
’’नगर श्रेष्ठी आपका भगवान के प्रति लगाव, त्याग स्थूल-भौतिक वस्तुऔं से कहीं अधिक है। मैने तो केवल मजाक किया था, जमीन आपकी वो स्वर्ण मुद्रा उसके विकास कार्य के लिए खर्च कर दो। सुन्दर साधना स्थली बनवाईए फिर भी किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो राज आज्ञा आपके साथ है।’’  
अनाथपिण्ड़क ने दोनों हाथ जोड़, कर केवल खड़े भर रह गए उनके मुख मूँड़न से कोई शब्‍द नहीं निकला। कुमार जैत के व्‍यवहार, आभार और स-ह्रदय ता पूर्ण व्यवहार ने उन्हें गदगद कर दिया, धन्य है कुमार ’’जैत’’ जितना सूना उससे कहीं हजार गुण प्रेम है आपके ह्रदय में भगवान के प्रति।  आप जब पढेगे भगवन जैत वन में विहरे, कितनी कथाएं आती है,’ धम्म पद’ में, ’’जेत वन कुमार जैत और अनाथपिण्ड़क की साँझी विरासत है, जो श्रावस्ती को मिली।
    भू-भाग की अच्छी तरह से निरीक्षण कर करवाया गया, अनाथपिण्ड़क ने खुद भी काम छोड़ उसके साथ माथा कितनी पच्ची करनी पड़ी, ताकी जो प्राकृतिक सम्पदा है, वृक्षों की उनको काटे बीना, उसी को विकास का हिस्सा बना लिया जाए, तो कुदरती सौंद्रिय बना रहे और सालों पहले से प्रकृति जो उनके उगाने में श्रम और समय व्यय कर रही थी उसका सदुपयोग होना चाहिए, भू शस्त्री और राजमिस्तरी इन बातों को सुन ही चकरा गया, उसे तो अटालिकाये, महल दुमहला बनाने का अनुभव था, वो ध्यान और प्रकृति प्रेम को भी अपनी बाधा ही समझता आया था। सबसे पहले भू-भाग के चारो तरफ़ कांटे ओर मेहँदी की झाड़ी यों की बाढ़ नुमा लगाव शुरू करवा दिया ताकी आवारा जानवरों का प्रवेश बन्द हो जाये। और दूसरा विकास कार्य में बहार से अवरोध पैदा न हो। और इसके साथ-साथ आम, अमरूद, नाशपाती, के पौधे भी बाढ़ के साथ-साथ रूपवा दिए गए। इसके साथ ही एक ईटों की पक्की नाली भी बनानी शुरू करवा दी, जो सिचाई के साथ बरसाती पानी की निकासी का काम आये। इसी के साथ-साथ चारो तरफ़ लाल बजरी बिछा कर मार्ग बनवाया, बीच से  गुजरता हुआ एक सो फिट का सीध मार्ग जो बीच से काटते हुए आर पार गुजर गया। उस को जोड़ने के लिए सह मार्ग बनवाया जो उपवन को इस कोने से उसे कोने को जोड़ती चलते थे। सुन्दर बांस और खपरैलों के ओसार, कुटिया, एक बड़ा सत्संग भवन और पक्का चुने, ईटों का एक स्तूप भगवान के ठहरने के लिए बनवाया गया। जो पुराने वृक्ष थे उनके चारो ओर पक्का चबूतरे पत्थर चुने से चिनाई करवा कर उस में मिटटी से भर दिया गया।  जो छाव में आराम के अलावा ध्यान के लिए भी बहुत उपयोगी थे।
      वो वीरान सी दिखने वाली जगह छ: साल में सज सवार कर एक नव यौवना सी इठलाता दिखाई देने लगी थी मानों उसकी तो काया ही पलट गई, कल तक  जिसमें रेत मिट्टी के अन्धड़़ चलते थे, अब कितनी लूह  की गर्मी में भी सीतल समीर चलने लगी  थी। एक बिकल ओर बेकार सी पड़ी प्रकृति मनुष्य के हाथों कैसी सुशील और सत्य सी दिखने लगती है । पेड़ पौधों ने पक्षियों को भी निमन्त्रण भेज बुलाना शुरू कर दिया। मार्च महीने मे तो हिमालय पार से हजारों मील से उड़ कर विदेशी मेहमान पक्षियों का आगमन के स्‍वागत में मानों जैत बन पलकें बिछाए खड़ा था। देखते ही देखते जहाँ देखो वहीं उन विदशी सफ़ेद पक्षियों के झुंड के झुंड ऊंचे पेड़ो की फुनगियों पे बैठे ऐसे लगते मानो विशाल वृक्ष पे भी सफेद फूलों के गुच्छे निकल आये हो। उन्हीं पेड़ो पर घोसले बनाने का काम जोरों से चलने लगा, महीने भर में घोसलों में बच्चे अपने माँ-बाप की चोंचों से दान चुगा खा रहे होते, कहीं कोई बच्चा माँ-बाप की अनुपस्थित में उडने की अभ्यास कर रहा होता, ताकी माँ-बाप जब खाना लेकर घर आये तो उन्हें अपने उडने का कौतुक दिखा कर प्रसन्न कर दे। दुर दराज से लोग-बाग बैलगाड़ियों में अपने पूरे परिवार के साथ इन विदेशी मेहमानों को देखने आते, औरतें, बच्चे, बड़े-बूढे भी खडीय मिट्टी से भी सफेद पक्षियों को देख आंखे झपकना तक भूल जाते थे। अप्रैल-मई आते तक सब मेहमान अपने बच्चों सहित वापिस हिमालय पार चले जाते, रह जाते कुछ बूढे कमजोर पक्षी जो पेड़ो के झुंडों में संथारा कर मरने का इन्तजार कर रहे होते। बड़ा ही पीड़ादायक लगता वो दृश्य।
      भगवान जब श्रावस्‍ती पधारे ओर जैत वन को देखा तो गद्द गद्द हो गये। कुमार जैत और अनाथपिण्‍ड़क ने उन का स्‍वागत किया। भिक्षुओं को तो भरोसा ही नहीं आ रहा था उस जगह को देख कर जो सालों पहले कैसी वीरान सी दिखती थी आज वो उपवन बन महक रही थी। पेड़ो की छाव के साथ-साथ उन कुटिया में अंदर महीन मुलायम सुखी घास बिछावन की तरह बिछा दी थी। जिससे जमीन की नमी से साधकों कोई शारीरक बीमारी न हो इस साथ-साथ कीड़ा मकोड़ों से भी उनके शरीर को कोई हानि न पहुँचे ये बारीक बातें केवल साधना करने वाला ही समझ सकता था।
      भगवान ने अनाथपिण्‍ड़क की और देख कर कहा-‘’चमत्‍कार कर दिया पुत्र अनाथपिण्‍ड़क तुमने जिस कोशल और चतुरता से तुमने जैत वन का निर्माण किया है वहीं तुम्‍हारी ध्‍यान की गति को दर्श रहा है। कुमार जैत तुमने जो मोका इस भूभाग को अनाथपिण्‍ड़क को दे कर दिया है। अब हम इस का नाम तुम्‍हारे ही नाम से करेंगे लोग इसे जैत वन के नाम से जानेंगे। कुमार जैत की आँख से टप-टप आंसू बहते रहे जबान तो मानें एक दर्शक सी बन कर रह गई।
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      चूल सुभद्रा अब तक छ: साल की बातुनी और चंचल हो गई थी। पिता के साथ कभी-कभी जब संध में आ जाती तो उसे बड़ी जिज्ञासा होती। इतने सारे बोध भिक्षुओं को मूर्तिवत बैठे देख कर उन पास चली जाती और देखने की कोशिश करती क्‍या कोई मूर्ति है। बौध भिक्षु भी उसकी उस हरकत को देख कर कैसे बाल हो हंसने लग जाते थे। उनका प्रेम मीठी हंसी बन उनके होठों पर ही नहीं पूर्ण शरीर पर फेल जाता था। चूल सुभद्रा ने भगवान को देख कर पिता के कहने से नमन किया, भगवान ने उसे अपनी गोद में बिठा लिया, पहले तो थोड़ा झिझकी फिर तो उस की तुतलाती रस पूर्ण बातों ने सब को हंसा-हंसा कर लोट पोट कर दिया। क्‍या भगवान क्‍या मौद्गल्यायन क्‍या सारीपूत्र सभी का मन मोह लिया चुल सुभेद्य ने।
      जब घर पर मां से चुल सुभेद्य मां से बार-बार पूछती की वो सब भिक्षु वहां पर रहते है, उन का कोई घर नहीं है। उन की मां भी नहीं दिखाई दे रही थी....इतने प्रश्न पुछती की मां का सर चकरा जाता और वह बात को टाल मटोल कर जाती। इसी बीच अनाथपीड़क के घर एक पुत्र रतन ने जन्‍म लिया जिस का नाम अनाथपिण्ड़क ने ‘’काल’’ रखा काल समय का भी नाम हो और मोत को भी काल कहते है। कितना विचित्र शब्‍द है। और ऐसा नाम कोई अनाथपिण्‍ड़क जैसा साधक ही रख सकता था। धीरे-धीरे दोनों भाई बहन बुद्ध की हवा में बड़े होने लगे। बच्‍चों के ह्रदय सुकोमल होते है आप जैसी पर्त चढ़ाना चाहों वही चढ़ जाती है। आज आप को समाज में आदर्श नैतिकता चरित्र क्यों नहीं दिखाई देता। मां बाप ऊंची से ऊंची शिक्षा देते है। फिर भी बच्‍चों में कोई नैतिकता दिखाई नहीं देती। क्‍या चुक रह गई , कोई न कोई कारण तो जरूर होगा। हमारी शिक्षा तुम्‍हारे आचरण को नहीं बदल सकती। संस्‍कारों में वो गहरे नहीं जाती। न तो मां बाप के पास संस्‍कार और ध्‍यान है। और न ऐसा माहौल हम निर्मित कर पाते है। की बच्‍चे को संग मिले और वो स्‍वय को जान सके। न मां बाप के पास संस्‍कार है और न शिक्षक के पास। बच्‍चा पाये भी तो कहां से पाए। सौभाग्यशाली थे, धन्य भागी थे जिन्‍हें बचपन में बुद्धो का संग मिल जाए।
      समय ने मानों पंख लगा लिए देखते ही देखते चुलसूभद्या जवान हो गई शादी के लायक। शादी की बात पास ही उग्र नगर में उग्‍गत सेठ के बेटे चित्रगंध के चल रही थी। शादी की बात सून कर चुलसूभद्या उदास हो गई। और बिना किसी के कुछ बोले भगवान के पास जा गंध कुटी में उनके सामने हाथ जोड कर बैठ गई। उसने कहां’’ भगवान हमें भी सन्‍यास दे दीजिए हम शादी नहीं करना चाहते है।‘’
      अभी तक भगवान स्‍त्री जाती को सन्‍यास नहीं देते थे। अचानक उठे इस प्रश्न के लिए मानों वो तैयार नहीं थे। ये सब ऐसे हुआ जैसे नियति अपूर्णता को दर्शाना चाहती हो। जिसे भगवान पूर्ण समझ रहे थे वो अपूर्ण था। अभी उसे पूर्ण होने में बहुत आयाम और रंग चाहिए थे। प्रकृति अपनी पूर्णता का घूंघट कभी किसी को  नहीं खोलने देती है। यही तो उसका रहस्‍य है। इसी लिए वो शाश्वत है जो पूरी कभी नहीं जानी जा सकती है। यही मानव की भयंकर भूलों में से एक भूल है वो जानता है एक हिस्‍से को मान लेता है पूर्ण।
      भगवान ने चुलसूभद्या की तरफ़ देखा और मौन हो गये। जैसे बहता कल-कल झरन अचानक सुख गया। कभी किसी के सामने निरुत्तर नहीं होने वाले भगवान एक साधारण सी चूलसुभद्या के सामने नतमस्तक हो गय। कहां गया वो सीतलता भी प्रपात वो जल धारा और भगवान ने अपनी दोनों आंखे बंध कर ली। बिना किसी उत्‍तर की प्रतीक्षा किये चूलसुभद्या भारी कदमों से घर की और चल दी। शायद ये आखरी बार आना था उसका संध में वो कभी नहीं आ सकेगें। कभी नहीं। फिर शादी के लिए उसने कोई ना नच नहीं किया। ये सब देख कर काल को भी अधिक ठेस लगी। जो सालों संग लड़ते खेलते रहे अचानक क्‍यों चली गई उसकी बहन किसी दूसरे के संग। क्‍यों बिना शादी के नहीं रह सकती है। संध में भी तो हजारों भिक्षु बिना शादी के रहते है। फिर औरत के लिए ये बंधन क्‍यों।
      शादी कर के चूल सुभद्रा अपनी ससुराल उग्र नगर चली गई। घर खाली हो गया। बड़े लाड प्‍यास से पाला था अनाथपिण्‍ड़क ने चूल सुभद्रा को। सबसे ज्‍यादा तो खाली पन लगा बाल मन काल को,इस के बाद उसकी दिन चर्या ही बदल गई। वो सार दिन घर से गायब रहता। पिता के साथ कभी भी प्रवचन सुनने नहीं जाता। अजीब चिड़चिड़ा स्‍वभाव हो गया था। काल का। इसी बीच एक घटना और घटी चूल सुभद्रा के यू उठ कर चले जाने के बाद अगले दिन ही भगवान ने घोषणा कर दी इस वर्षा वास में वो सत्‍त मौन और समाधि में रहेगें। किसी से मिलेंगे भी नहीं। जो सालों पुरानी दिनचर्या थी वह बदल गई। प्रवचन हाल खाली पडा रहने लगा। भगवान की अनुपस्थित सबक़ों चुभनें लगी। ऐसा आज से पहले कभी नहीं हुआ था। क्‍या हो गया भगवान को कहीं उन का स्‍वास्‍थ तो खराब नहीं हो गया है। तीन माह अपने में ही डूबे रहे।
      ‘’ये ज्ञान पसुता धीरा, नकखम्‍मूपसये रता।
      देवापि तेसं पिहंति सं  बुद्धा नं  सतीमता।।
( जो धीर ध्‍यान में लीन है, परम शांत है, निर्वाण कार्य में रत है, उन स्‍मृतिवान संबुद्धों की स्‍पृहा देवता भी करते है।)
      चूलसुभद्या का उग्‍गत सेठ के घर जानें से उस का घर तो ख़ुशियों से भर गया। शांत और  सुशील स्‍वभाव की मधुरभाषिणी चूलसुभद्या नें सब का मन मोह लिए। क्‍या घर के नौकर चाकर सब के साथ उस का व्‍यवहार अपनत्‍व लिए रहता था। कभी सास-ससुर को टोकने तक का मोका ही नहीं देती थी। प्रत्‍येक काम किस सुचारु रूप से करती थी। ये सब देख कर दंग रह जाते थे। थोड़े दिनों में ही वह सब की चहेती बन गई। परन्‍तु धीरे-धीरे वही चाहत और शांति उग्‍गत सेठ के अशांति बन गई। जब कोई शांत और गहरा आदमी तुम्‍हारे अंग संग हो तो तुम बाहरी आडम्बर और दिखावा ज्यादा देर नहीं कर सकते वह तुम्‍हें अंदर तक बेचैन कर जाएगा और तुम्हारे दिखावे का वो पर्दा ज्‍यादा देर तुम्हारे दिखावे को ढक नहीं सकेगा। ये बेचैनी शाब्‍दिक नहीं होगी वो मौन तुम्‍हें घेरने लग जायेगा। पर हम शांत होना ही नहीं चाहते केवल चाहते करते है शांति और मौन की। जब उस शांति और मौन में खड़े होते है। हम तत्काल बेचैन है जाते है। जब तो कोई बुद्ध जब पृथ्‍वी पर होता है हम कितने बेचैन हो उस के विरोध में खड़े हो जाते है। भाग्‍य शाली है जो उस मौन और ध्यान  की शीतल छाया में बैठ सत्संग करते है। धन्य भागी है वे लोग।
      पूजा पाठ के जो घर के रिति रिवाज थे, श्‍याम को घर में धी का दीपक जलना। मंदिर में फूल सब बड़े आदर भाव से करती थी। जब भी कोई धर्म गुरु आता उसका आशीर्वाद लेना, व्रत उपवास करना, माथे पर सुहाग का टीका लगाना। छोटे बड़े आडम्‍बर जो हम उपरी आडम्बर की तरह करते है। हालाकि उसे भगवान के संग कर के इन बातों में केवल दिखावा ओर प्रपंच ही लगता था। फिर भी वो इन बातों के लिए किसी का दिल दुखाना नहीं चाहती थी। पूरा समाज इन्‍हीं आडम्बर की लहरों पर टीका है। शायद इसका कारण भय है। जो धर्म गुरूओं ने हमारे ह्रदय में भर रखा है। परन्‍तु एक दिन तूफान आ ही गया। जो चिंगारी सालों दबी रही वह एक दिन जल उठी। हुआ ये की एक दिन कुछ साधु जन घर पर आये चूलसुभद्या ने उनके लिए भोजन बनाया खिलाया। पर एक काम जो सालों करती थी शायद मन मार कर । उनके पैर नहीं छुए। जब किसी ने बुद्ध के पैर छू लिए फिर वो किसी के चरणों में सर नहीं रख सकता। बुद्ध की हवा,उनका होश उनका आनंद मानसरोवर के जल के जैसा है। फिर वो किसी भी नदी पोखरे के जल को गृहण नहीं कर सकता है। यह तूफान का करण बन गया। उग्‍गत सेठ तो मानों तैयार ही थे, इस मोके के लिए जो सालों से उन्‍हें नहीं मिल पा रहा था। वो एक दम से आग बबूला हो गए, ‘’तुम हमारे साधुओं का अपमान करती है। में जानता हुं इस सब का कारण वो ढोंगी गोतम बुद्ध है, तुम क्‍या समझती हो  हम कुछ नहीं पता हम सब जानते है। तुम्‍हारे पिता को मुर्ख बना कर करोड़ों स्‍वर्ण मुद्राओं की जमीन को हड़प गया। क्‍या शक्‍ति है उस क्‍या रिद्धि सिद्धि है, क्‍या चमत्‍कार है उसमें हम भी तो सुने।‘’
      चूलसुभद्या—‘’आप उनसे एक बार मिल को देख, तब आप किसी बात का निचोड़ निकाल सकते है। आप तो उनसे अभी मिले ही नहीं। फिर उन्‍हें भला-बुरा कहना शोभा दायक नहीं लगता।‘’
      उग्‍गत सेठ—में सब जानता हुं, इन ढोंगी यों को ये सब बातों के चमत्‍कारी है। तुम्हारे पिता को मुर्ख बना दिया मेरे सामने एक बार आ जाए तो उन्‍हें वो खरी-खरी सूनाऊगां की उनके कानों के कली लें झड़ जाए। मेरे सामने एक बार आए तो सही......
      चूलसुभद्या—‘’(मुंह नीचा की एक शरारती हंस उनके चेहरे पर फेल गई) आप अगर आज्ञा दे तो में भगवान को निमन्त्रण भेज दूँ।‘’
      उग्‍गत सेठ—‘’ हां देखे तुम्‍हारा चमत्‍कारी बाबा को। भेजों निमन्त्रण और बुला उस गोतम को देखे क्‍या चमत्कार दिखाता है।‘’
      चूलसुभद्या ने ससुर के पैर छुए, ससुर गुस्‍से में दो कदम पीछे हट गया। पूजा की थाली से जूही के दो मुट्ठी फूल ले, पूर्व की और मुहँ कर दोनें आंखें बंद कर फूल हवा में फेंक दिये। और कहां—‘’भंते कल के लिए पाँच सौ भिक्षुओं के साथ मेरा निमंत्रण‍ स्वीकार करे। भुला तो नहीं दिया अपनी चूलसुभद्या को।‘’
      दूरे संतो पकासेंति ‘हिमवंतों’ व  पब्‍बता।
      असंतेत्‍थ न दिस्‍संति रितखिता यथससरा।।
      एकासनं एक सेय्य: एको  चरमतंदितो ।
      एको दममत्‍तानं  वंतने  रमतो  सिया ।।
(संत दूर होने पर भी हिमालय पर्वत की भाति प्रकाशित है। और असंत पास होने पर भी रात में फेंके गये बाण की तरह दिखाई नहीं देता)
      परिवार के साथ वहां उपस्‍थित साधु जन भी उसकी इस मूर्खता पर खिलखिला कर हंस दिये। परन्‍तु उन्‍हें लगा अब इस पागलपन के बाद कभी यह हमारे साधुओं का अपमान नहीं करेगी। अपमान तो क्‍या करती थी बेचारी। परन्‍तु उग्‍गत सेठ का परिवार मिथ्‍या दृष्टि था, मिथ्‍या यानि चमत्‍कार, रिद्धि-सिद्धि, जिस के जाल में ये समाज फंसा है। शायद लालच भी इसका एक कारण है। इस सब के कारण समाज का ये ढोंगी शो क्षण करते है। यानि हम तुम्‍हें ताकत देंगे, वैभव देंगे, नाम यश देंगे......पूँछों क्‍या तुमने उसे पा लिया, खुद तो हासिल नहीं कर सके खुद के पास है नहीं बांटने चले रेवडीयां....। वही दुसरी और सम्‍यक दृष्‍टि शांति चाहता है। ध्‍यान चाहता है। और मिथ्‍या दृष्‍टि—शक्ति। यहीं भेद है।
      आज भी आप जहीं देखो जगह-जगह धर्म की दुकानें खुली है। भीड़ की भीड़ आडम्‍बर , दिखावा, चमत्‍कार....जब तुम शक्ति खोजते हो तो तुम्‍हारा शोषण होता है। न उनके पास शक्‍ति है जो तुम्‍हें दे हां तुम्‍हारे पास धन है जिसे वो हड़प लेते है। अगर तुम शांति खोजने निकले तो एक दम अलग ही बात है। कोई करोड़ों में एक चाहता है शांति। तब क्‍या होता है, ये एक विरोधाभास है। शान्‍त की छाया है शक्ति वो उसकी दासी  बन पीछे-पीछे चली आती है। पर हम पकड़ना चाहते है छाया को....
      बुद्धत्‍व एक रिद्धि-सिद्धियों के पार की अवस्‍था है वह तो खुद एक चलता फिरता चमत्‍कार है। उसका बैठना, चलना, खाना, सोना भी इस संसार के बड़े से बड़े चमत्‍कारों के पार है। यहीं तो सत्संग हे। उसके अंग –संग रहना, सत्‍य कैसे चलता है, कैसे बोलता है....
      उधर भगवान बुद्ध अचानक बोलते हुए चुप हो गए...चारों और भगवान का उपस्थिति का मौन गहरा गया। इससे पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था। हवा भी मानों कुछ क्षण के लिए उसी मौन में ठहर गई।
      ‘’भिक्षुओं जुही के फूलों की गन्‍ध आती है।‘’
      परन्‍तु शायद किसी को आई हो, भगवान के अविचार मन ने चूलसुभद्या की वो तरंगें पकड ली हो। ये एक विज्ञान है। कोई चमत्‍कार नहीं। हम आज इतने विचार शोर,ध्‍वनि, हवा, विचारों से भरे धूसती माहौल में जीते है। हम इस की कल्‍पना भी नहीं कर सकते। कभी हिन्दूओ ने शस्‍त्रीय संगीत की खोज समय की निश्शब्दता को समझ कर राग रागनिया बनाई थी। सालों बाद भी आप देखते है, इस परम्‍परा को ढोया जा रहा है। कि राग मालकोस को गानें के लिए साय का पहला पहर या यमन, राग श्री, या भैरवी....इन सब के  सुरों के हिसाब से समय निर्धारित किया गया है। आज भी आप शाम के समय राग भैरवी किसी महफिल में नहीं सुन सकते। आज रेडियों, टी वी पर कोन राग या सुरों की महफिल सज रही है। कोई नहीं जानता। ये ध्‍वनि प्रदूषित है। कभी विज्ञान गहरे जाएगा तो दुबारा इसे खोजेगा कैसे हम अपने विचारों को एक जगह से दुसरी जगह हस्तांतरित कर सकते है। कैसे अपने विचार लाखों मील के फासले पर किसी दूसरे व्‍यक्‍ति के मस्तिष्क में प्रवेश करा सकते है। वो ये भी नहीं जान पायेंगे की ये विचार उसके नहीं है। उस के लिए होश चाहिए.....ओर भगवान ने आंखों बंद कर उस निमंत्रण को स्वीकार कर लिया। इसे शायद और कोई नहीं देख सका।
      इसी बीच अनाथ पिंडक ने खड़े होकर कहां—‘’भगवान कल के भोजन लिए मेरा निमंत्रण स्वीकार कीजिए।‘’
      भगवान—‘’ गृह स्‍वामी, कल के भोजन के लिए तो हमने अपनी पुत्री चूलसुभद्या का निमंत्रण स्वीकार कर लिया है।‘’
      अनाथपीड़क—‘’परन्‍तु भगवान चूलसुभद्या तो यहां दिखाई नहीं देती। न ही उसके परिवार को कोई सदस्‍य ही यहां पर उपस्‍थित है। वो तो यहाँ से कोसों दुर है, फिर आपने कैसे उस का निमंत्रण स्‍वीकार कर लिया।‘’
      ‘’अभी-अभी तो जहीं के फूलों के साथ, उसने निमंत्रण भेजा है। दूर रहते हुए भी सत्पुरुष सामने खड़ा होता है। दूरी और काल इसमें भेद नहीं करती। असल में श्रद्धा के आयाम में समय और स्‍थान कोई आस्‍तित्‍व नहीं रखते है। अश्रद्धालु पास रह कर भी पार नहीं रहता।‘’
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      उधर चूलसुभद्या ने तो मह मानों के आव भगत कि तैयारी शुरू कर दी घर के लोगों की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। ये क्‍या मामला है। न किसी को भेजा, न किसी ने आने का कोई संदेश दिया फिर भी ये सब उन की समझ के बहार कि बात थी। ज्‍यादा बात को न बढा कर उन्‍होंने सोचा करने दो इसे जो करना है कल तक की तो बात ही है। सुबह सब दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा। दालान साफ करवा कर वहां पर भटिया बना दी, बैठक  को सज़ा दिया गया। भोजन बनाने के ठहरने के लिए सभी इंतजाम तो करने थे। समय है कि भागा जा रहा है। फिर भी उसके चेहरे पर उल्‍लास था। उसके पेर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। सारे नौकर-चाकरों को काम पर लगा दिया गया। धी, तेल, आटा, खुद खड़ी होकर भंडार ग्रह से निकलवाए चूल सुभद्या ने, रसोइयों को बुलाकर क्‍या–क्‍या पकवान बनवाने है। कोन काम किस को करना है। और कहां भगवान हमारी नगरी में पहली बार आ रहे है। इतना सुस्‍वाद भोजन बनाओ की सालों कोई याद करे कि गये थे उग्र नगर में, हम सब के भाग्‍य खुल गये है। रात भर खाना बनता रहा, पास ही जो बड़ी सी जैन धर्म शाला थी उसे भी खोल दिया गया, वो शादी या भोज आदि के लिए काम आती थी। पानी छिड़काव दिया। दरियाँ बिछा दी। भिक्षु संग वहीं पर भोजन आदि करेंगें। ये धर्म शाला जैन समुदय ने बनवाई थी। कभी शायद दस वर्ष पहले महावीर भगवन आये थे। उसके बाद तो यह केवल किस उत्‍सव आदि के ही काम आती है। पंचायत घर के बड़े-बड़े वर्तन, परात, टंकी, कढाइयां, कलसे....जब भी कोई उन्‍हें इस्‍तेमाल करता, उस के बाद दान के रूप में जो चाहे चंदा जमा कर सकता था। जो उनकी टुट फूट और रख रखाव के काम आता था।
      अभी भोर का तारा यौवन पर चमक रहा था, इसकी भी चाल कितनी वक्र है, गर्मियों में सुबह और शरद ऋतु में श्‍याम को दिखाई देता है। सप्‍तऋषि मंडल भी जैसे रात भर चलने के बाद बूढ़ा हो झुक गया था। सुर्य के आगमन का कहीं नामों निशान नहीं था। भगवान और पाँच सौ भिक्षुओं का दल चल दिया उग्र नगर की और। रात अभी धनी थी। फिर भी तारें अपना प्रकाश बिखेर रहे थे। उनकी मंद रोशनी भी उस भिक्षु दल को राह दिखाने के लिए काफी थी। सफेद पगडंडी दुर तक चमकती दिखाई दे रही थी। इतना बड़ा काफिला फिर इतना घना मौन की पक्षियों तक को भान नहीं होता था की कोई प्राणी दल चला जा रहा है। कदम मानों जमीन पर चल नहीं रहे थे। उन्‍हें छू रहे थे। फिर भी झींगुर अपनी लम्‍बी-लम्‍बी तान लगाये चला जा रहा था। उसकी तान भिक्षु दल की तरह उतनी ही लंबी चली जा रही थी। मानों बेंड बाजे से उस का स्‍वगत सत्‍कार कर रहा हो। दुर कभी किस मोर की कर्णभेदी पुकार अवश्‍य सुनाई दे जाती थी। शायद कोई ध्‍वनि उसको अचानक भयभीत कर गई हो। उसके कानों की संवेदन सिलता इस पुकार की गवाह थी। गीदड़ों के झुण्ड जरूर घर जाने से पहले अपनी चीख पुकार की हाऊ- हाऊ कर रहा था।
      एक तो सुबह की जगती प्रकृति उपर से शान्‍त और निशब्‍द चलता भिक्षु संध का चलना, मानों रेत पर चलना न हो कोई कवि अपनी कविता उरेर रहा हो। कैसा इतिहास वक्‍त ने उस रेत पर उकेरा जो हजारों सालों बाद भी आप उसे महसूस कर सकते है। सब भिक्षु अपने चलने में इतने तल्लीन थे एक दूसरे के पास होने पर भी मानों एक दूसरे से लाखों मील दुर चल रहे हो।
      संघ जब उग्र नगर पहुंचा सूर्य आपने यौवन पर चढ़ चुका था। हवा जो सुबह ठंडी थी आब गर्म हो चुकी थी। सब भिक्षुओं के सर और माथे पर पसीने कि बुंदे चमक रही थी पर चेहरे पर ताजगी वैसे ही थी।  थकान का तो कोई नामों निशान तक नहीं था, शांत सौम्य चेहरे अभी भी मूर्तिवत लग रहे थे।
      इतनी देर में एक बच्‍चा भागा हुआ घर के अंदर प्रवेश किया साथ में दो तीन बच्‍चें और भी भागे आ रहे थे। मुहँ से शब्‍दों ये ज्यादा उसकी उखड़ी साँसे निकल रही थी। किसी तरह से अपनी सांसों पर काबू पा कर कह पाया,’’भिक्षु संध नाला पार कर, तालाब के पास बरगद के वृक्ष के नीचे पहुंच गया है।‘’
      शहर ने कब इतने बड़े दल देखे थे, कभी कहते है एक बार भगवान महावीर आए थे, या एक बार कुमार जेठ का काफिला  डाकू अंगुलि मार को पकड़ने के लिए यहां से गुजरा था। बड़े-बूढ़े,औरतें कितने मंत्रमुग्ध से होकर ये सब देख रहे थे। जो शहर कर तक सुन सान था अचानक न जाने को उस में रोनक लोट आई। आज हम किसी चीज को देख कर आह्लादित नहीं हो सकते, किसी पीड़ा को गहरे से महसूस नहीं कर सकते। आपके पड़ोस में मृत्‍यु शोक भी आपकी संवेदना को छू तक नहीं पाता। क्‍या हमारी संवेदन खतम होती जा रही है। ये मनुष्‍य के लिए सबसे बड़ी घातकता है। उगत सेठ ने अपने को लाख बचाने की कोशिश की परन्तु  जैसे ही भगवान के आने का समाचार चार मिला। उसके सारे चमत्‍कार, सारे गिले शिकवे न जाने कहां काफूर हो गए। और वो  भगवान के स्‍वागत सत्‍कार के लिए चल पड़े उन्‍हें यकीन नहीं हो रहा था। जो घट रहा था। लेकिन मानने को मजबूर था जो कुछ कल और आज में हुआ था उस का वो गवाह था। कोई कहानी कलपना नहीं थी। मानों हमारा मन हमें बचा रहा था। बो कोई न कोई बचने का मार्ग ढ़ूँढ़ लेता है। पर अब तो उसे बचने को कोई बहाना नहीं मिला। शायद वो बचना भी नहीं चाहता हो केवल बहाने ढूँढ रहा हो। आपने मित्र बंधुओं और पुत्र के साथ भगवान के स्वागत सत्कार के लिए निकल पडा  उगत सेठ, हम चाहते सभी सत्‍य को है, उसी विशाल समुद्र को, परन्‍तु हमारा मन अपने पोखरे को ही सर्व सब मान कर बैठ जाते हे।
      दल बल सहित भगवान का स्‍वागत सत्कार पूरे उग्र नगर ने किया। जहां देखो चूल सुभद्या की चर्चा हो रही थी। कैसी भाग्‍यवान कुल बधू आई है। आज हमारे शहर में भगवान का आगमन इसी के कारण हुआ है। वरना हमारे ऐसे भाग्‍य कहा थे। भगवान का आना ही चमत्‍कार साबित हो रहा था, न कोई बुलाने गया, केवल मुट्ठी भर जूही के फूल हवा में फेंके थे वो भी कल और आज सुबह ही भगवान पधार गये। फिर ताबीज निकालना, भभूती निकलना मानों मदारी गीरी जैसी बात हो गई। ये तो दो कोड़ी के मदारी भी चौराहों पर कर देते है। तो क्‍या वो संत हो जाते हे। अब तो साक्षात हिमालय ही हमारे आँगन आ कर खड़ा हो गया है। उग्‍गत सेठ ने भगवान के पैर पकड़ कर माफी मांगी, ‘’भगवान मुझ बुद्धि हीन को बालक समझ कर माफ कर दो।‘’
      भगवान—‘’नहीं पुत्र तुम श्रेष्‍ठ हो तुम केवल किनारे पर खड़े थे, बस जरा सा हवा का झोंका ही चाहिए था, वो काम चुलसूभद्या ने कर दिया। ये तो नियति है, उस का खेल है। वो आपके घर, गांव में इसी लिए आई थी। ये तो इस का प्रणाम है। बीज तो हमे दिखाई नहीं देता। संत कितनी भी दुर हो हिमालय की तरह प्रकाशित होता है। समय और काल को वह नहीं मानता। बस तुम्‍हारी श्रद्धा उस द्वार कि कुंजी है।‘’
      इतना अच्‍छा इंतजाम देख कर भिक्षु संध भी दंग  रह गया। क्‍योंकि जब भगवान ने चूल सुभद्रा का निमंत्रण सब के सामने ग्रहण किया था। वहां कोई नहीं था। इस चमत्‍कार से भिक्षु दल भी उतना ही अभिभूत था जितना उग्र नगर, काम जैसे किसी एक व्‍यक्‍ति का न हो कर पूरे उग्र नगर का हो गया था। सब भिक्षु संध के हाथ पेर धुलवाएं गए। पीने को ठंडा जल दिया गया। भगवान को उगत सेठ ने अपने बैठक खाने में ठहराया। बाकी भिक्षु संध धर्मशाला और दालानों मे ठहर गये।
      भोजन के समय भिक्षु संध का भोजन करना देख गांव वाले दंग रह गये थे। कोई अराजकता नहीं, बड़े प्रेम से सब भोजन कर रहे थे। इस से पहले भोजन कराने वालों ने ऐसा दृश्य कभी नहीं देखा था। इससे अधो लोग भी भोजन करे तो मारा मारी हो जाती थी। लेकिन भिक्षु संध तो ऐसे भोजन कर रहा था कि लोगों को अपनी आंखों पर यकीन नहीं आ रहा है। मनुष्‍य नहीं आज वो साधकों को जीवित देवताओं को प्रसाद दे रहे थे। भगवान यह तो चाहते थे लोग देखें दोनों में भेद क्‍यों हो जाता है। परिर्वतन साधक और आम आदमी के जीवन चर्या में।
      श्‍याम को बड़े से मदान में भगवान के अमृत वचन का सत्‍संग पूरे अग्र नगर ने पिया। एक युवक ने खड़े होकर भगवान से पूछा भगवान क्‍या बात इससे पहले हमने अपने गांव में आज से पहले इतनी शांति कभी नहीं जानी थी। न हमारे ह्रदय में ऐसी गुद-गुदा हट पहले कभी उठी थी। न ऐसा कभी महसूस किया था,चलना खाना ये सब क्‍या है, हमारी समझ के बहार की बात है। आज अपना गांव भी हमें अपना नहीं लगता, जैसे कोई देव लोक ही बन गया है। आप लोगो के आने से।
      भगवान—‘’ये सब होश का कमाल है, हमारी जीवन से जैसे तमस कम होती है, वैसे-वैसे हमारे विचार कम होने लग जाते है। दिन में जो विचार है वहीं आँख बद कर लेने से रात स्वप्न बन जाते है। दोनों गुणात्मक भेद नहीं है। जितना हमारा होश बढ़ेगा, उस के साथ-साथ,हमारे स्वप्न,कम होते चले जाएँगे। साथ ही साथ, हमार क्रोध, भय, वासन का अँधेरा कम हात चला जाएगा फिर एक दिन उस अंधेरी अमावस में पूर्णिमा का चाँद चमक उठेगा। फिर तुम्‍हारे पास होगी आंखे तुम सही गलत को देख सकोगे। अभी तो हमारे पास जो आंखें हे, हम देख सकेगें सत्‍य को.....आज इस संध का होश का समुद्र पूरे गांव में भरा है। जड़ चेतन में,जो सालों आप को महसूस होता रहेगा।‘’
      ऐसे बदलते थे मनुष्‍य गांव के गांव जहां भी बुद्ध जाते बुद्धत्‍व की संभावना के सभी तार पीछे छूटते चले जाते थे। आज हजारों साल बाद भी वो तार वो प्रेम इतना अटूट और अदृष्य है। उसे हम तोड़ नहीं पा रहे। बस समय और स्‍थान की दूरी ही मनुष्‍य को कचोटती है। लेकिन प्रेम और ध्‍यान के लिए इस का भी कोई महत्‍व नहीं है। आज भगवान की दूरी 2500वर्ष दूर है या चूलसुभद्या के लिए 25मील यह केवल समय पर ही दिखती है दूरी। समय और स्‍थान प्रेम में तिरोहित हो जाता है। कृष्‍ण और मीरा क्‍या इसी समय और काल के बंधन को लांघ नहीं गये। वही है शाश्‍वत, और तभी हम जीते है अनंत में, वहीं है सत्‍य जो समय और काल जहां पर विलीन हो जाता है। वहीं सनातन-शाश्‍वत है।
      इसके बाद श्रावस्‍ती में एक घटना और घटी ‘’काल’’ जो चूलसुभद्या को छोटा भाई था और अनाथपीड़क का एक मात्र पुत्र था वह कभी भी भगवान के संध या सत्संग में नहीं जाता था। उसने सोचा कि भगवान ने मेरी बहन के साथ न्‍याय नहीं किया। इस लिए वह लाख समझाने बुझाने के बाद भी बात नहीं मानता था। जब चुलसूभद्या की घटना का उसको पता चला तो उसे यकीन ही नहीं हुआ। इस बीच अचानक अनाथ पिंडक ने एक दिन उसे बुला कर कहा की तुम अगर भगवान के सत्संग में जाओगे तो तुम्‍हे एक हजार सवर्ण मुद्रा दी जाएगी। काल प्रवचन में चला गया। और आकर एक हजार स्‍वर्ण मुद्रा ये ले ली दूसरी बार अनाथ पिंडक ने कहा ऐसे नहीं  तूम गए तो जरूर पर केवल तुम्‍हारा शरीर ही वहां गया तुम्‍हारा मन वहां नहीं गया। मन तो तुम्‍हारा एक हजार स्‍वर्ण मुद्रा गिन रहा था। ये जाना भी कोई जाना होता है। आप कल जब जाओं और भगवान ने क्‍या कहां वह तो आकर मुझे  सुनाओ तभी तो  तुम जाना सार्थक होगा कि भगवान ने जो अमृत वचन बोले मेंरे कानों में उनका माधुर्य अगर वो सब मुझे एक-एक बात सतसंग की कहों  की भगवान ने क्‍या कहा था। जभी आपका जाना होगा। काल गया और बह गया उस काल के प्रवाहा में फिर नहीं लोटा घर पर अपनी स्‍वर्ण मुद्रायेलेने के लिए भी। और ले ली दिक्षा बेठ गया भगवान के चरणों में.......ऐसे थे वे लोग।
--मनसा दसघरा 

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