Thursday, December 12, 2019

समाधि के सप्‍त द्वार ---भाग --40

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मध्य द्वार अर्थात क्लेश का द्वार, हज़ारों नाग पाशों से बचने के लिए परम् प्रकाश पर ध्यान केंद्रित कर ।
सूत्र :
"दृढ़ बन। अब तू मध्य द्वार के निकट आ रहा है, जो क्लेश का भी द्वार है, जिसमें दस हजार नागपाश हैं।"
अब तू करीब आ रहा है यात्रा के मध्य बिंदु पर। और मध्य बिंदु आखिरी बिंदु है। अगर तू उस पार हो गया, तो दूसरे छोर पर जाना आसान हो जाएगा। और मध्य बिंदु अगर अटकाव बन गया, तो तू वापिस गिर सकता है।
और इस मध्य बिंदु पर दस हजार नागपाश हैं।"
दस हजार उलझनें खड़ी होंगी।
दस हजार उपद्रव खड़े होंगे।
जितने उपद्रव तूने किए हैं अनंत-अनंत जन्मों में, सब तुझे पकड़ेंगे और वापिस बुला लेना चाहेंगे।
जिन-जिनका तूने साथ किया हो,
जिन-जिन नासमझियों का, वे सब नासमझियां एक बार आखिरी कोशिश करेंगी कि लौट आओ;
इतने पुराने संगी-साथी, कहां जाते हो ???
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम इतने अशांत तब न थे, जब ध्यान न करते थे। अब ध्यान करते हैं, तो शांति भी बढ़ रही है और बड़ी अशांति भी मालूम पड़ती है। वह अशांति आपकी पुरानी संगी-साथिन है।
यहां भी किसी को डायवोर्स करना हो, तलाक देना हो, तो बड़ी मुसीबतें आती हैं।
उस भीतर के लोक में तो तलाक और मुश्किल हो जाता है, क्योंकि बहुत पुराने नाते-रिश्ते हैं, बहुत वायदे हैं आपके दिए हुए कि सदा तुम्हारा हूं, सदा तुम्हारे साथ रहूंगा। अब अचानक छोड़ने लगते हैं, तो फिर जोर से पकड़ लिए जाते हैं, ग्रंथियां कस जाती हैं। मध्यबिंदु पर दस हजार नागपाश प्रतीक्षा कर रहे हैं।
"ओ पूर्णता के साधक, अपने विचारों का स्वामी बन, यदि तुझे इसकी देहली पार करनी है।’
"और यदि तुझे अपने गंतव्य पर पहुंचना है, तो अमृत सत्य के खोजी, अपनी आत्मा का स्वामी बन।’
"उस एक शुद्ध प्रकाश पर अपनी दृष्टि को एकाग्र कर, जो प्रकाश सभी प्रभावों से मुक्त है। और अपनी स्वर्ण कुंजी का प्रयोग कर।"
"कठिन कर्म पूरा हो गया। तेरा श्रम पूर्ण हुआ। और वह विस्तृत पाताल जो तुझे निगलने को मुंह फैलाए था, लगभग पाट दिया गया है।"
अगर मध्य बिंदु पार हो गया, तो विशाल खाई, जो मुंह फैलाए थी, वह लगभग पाट दी गई है।
मध्यबिंदु के बाद पतन बहुत मुश्किल है। बहुत चेष्टा की जाए, तो ही हो सकता है।
मध्यबिंदु के पहले पतन बहुत आसान है। बहुत चेष्टा की जाए, तो ही बच सकता है।
मध्यबिंदु के बाद पतन बहुत मुश्किल है। अगर आप बहुत प्रयास ही करें, तो ही वापिस गिर सकते हैं। अन्यथा अपने आप मध्य बिंदु के बाद कोई वापिस नहीं गिरता है। मध्य बिंदु के बाद नया लोक खुल जाता है। पुराने संगी-साथी छूट जाते हैं।
एक अति से अब आप दूसरी अति में प्रवेश करते हैं।
इस मध्य बिंदु को पार करने के लिए शरीर के स्वामी बनें, पहली बात।
फिर विचार के स्वामी बनें, दूसरी बात।
फिर आत्मा के स्वामी बनें, यह तीसरी बात।
शरीर से शुरू करें; क्योंकि उसकी ही मालकियत न हो सके, तो फिर मन की मालकियत न हो सकेगी।
मन की मालकियत न हो सके, तो फिर आत्मा की भी न हो सकेगी।
शरीर--मैंने कहा कि उसको जीतें। फिर जिस दिन आपको लगे कि अब शरीर पर मालकियत हो गई, उस दिन से मन पर भी वही प्रयोग शुरू कर दें। मन में एक विचार आए कि क्रोध करना है, तो कह दें कि क्रोध नहीं करना है, मन चुप हो जा। फिर अड़े रहें अपने वचन पर, फिर मन कितनी ही कोशिश करे, दूर खड़े रहें, देखते रहें, क्रोध न करें। आज नहीं कल आप पाएंगे कि मन आपकी सुनने को राजी हो गया। और जब आप कहेंगे कि नहीं करना है क्रोध तो क्रोध का भाव तत्क्षण विसर्जित हो जाएगा।
आप कहते हैं कि विचार आपके हैं। कहना नहीं चाहिए कि आपके हैं। क्योंकि आप एक विचार को बाहर करना चाहें, तो कर नहीं सकते। आप कहें कि यह विचार मेरे भीतर न आए, आपके वश में नहीं।
आप कहें, न आए, तो और ज्यादा आता है।
आप कहें कि मत सताओ मुझे, तो और सताता है।
आप कहते हैं कि मैं क्रोध न करूंगा, तो और क्रोध से भर जाते हैं। विचार अभी मालिक है।
जो शरीर पर प्रयोग किया है, धीरे-धीरे वही प्रयोग मन पर भी करने का है। अगर आप साहसपूर्वक और प्रसन्न चित्तता से लगे रहें, तो मन के भी मालिक हो जाएंगे।
और तीसरी बात है इस संदर्भ में इस जगह आत्मा की मालकियत का मतलब इतना ही है कि आपके पूरे व्यक्तित्व की मालकियत शरीर, मन, आत्मा, ये तीनों, आपके पूरे व्यक्तित्व की जो समग्रता है, इस समग्रता की मालकियत।
इस समग्र की भी आपकी ही आज्ञा से गति हो। और ऐसी स्थिति आ जाती है, जब आपकी ही आज्ञा से समग्र की गति होने लगती है।
और अगर आप चाहें कि मैं इसी क्षण मर जाऊं, तो इसी क्षण मौत घट जाएगी; क्योंकि समग्र आपको मानता है। इस समग्र की मालकियत का उतना आसान सूत्र नहीं है, जितना शरीर और मन का है।
लेकिन जो लोग शरीर और मन के मालिक हो जाते हैं, उनके लिए तत्क्षण आत्मा के सूत्र की कुंजी मिल जाती है कि अब वे आत्मा के लिए क्या करें। वह उनको स्वयं दिखाई पड़ जाता है।
जो शरीर के लिए किया, वह बाहर था;
जो मन के लिए किया, वह बीच में था;
अब आत्मा के लिए वही करना है, जो बहुत गहरे में है। आत्मा के लिए करने का सार अर्थ है कि अस्तित्व भी आपकी आज्ञा मानने लगे।
अभी क्या है ???
अभी आप अगर कहें कि कोई हर्जा नहीं अगर मौत आए, तो मैं स्वीकार कर लूंगा, लेकिन आपका अस्तित्व भीतर कहता है नहीं, स्वीकार नहीं करेंगे, कैसे मर सकते हैं ???
नहीं मरना चाहते हैं, तो मालकियत उस पर आपकी नहीं है। पर शरीर और मन की यात्रा ठीक हो जाए, तो उसी सूत्र को सूक्ष्‍म में भीतर प्रयोग करने से अस्तित्व की भी मालकियत उपलब्ध होती है।
इस मालकियत के होते ही आपको वह प्रकाश की किरण दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है, जो आप हैं। फिर उस पर ही दृष्टि को एकाग्र करें, और उस किरण की धारा में ही अपने को छोड़ दें। वह किरण ही आपका जीवन-गुरु है। इस किरण को नाव बना लें। और वह नाव परमात्मा की तरफ चलनी शुरू हो जाएगी।
ओशो
समाधि के सप्‍त द्वार

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