Friday, December 27, 2019

तंत्र में प्रवेश—(प्रवचन—पहला)

सूत्र:

देवी कहती है:
हे शिव, आपका सत्‍य क्‍या है?
यह विस्‍मय—भरा विश्‍व क्‍या है?
इसका बीज क्‍या है?
विश्‍व–चक्र की धुरी क्‍या है?
रूपों पर छाए लेकिन रूप के परे
यह जीवन क्‍या है?
देश और काल, नाम और प्रत्‍यय के परे जाकर
हम इसमें कैसे पूर्णत: प्रवेश करें?
मेरे संशय निमूर्ल करें।

 कुछ भूमिका की बातें।
एक कि विज्ञान भैरव तंत्र का जगत बौद्धिक नहीं हैवह दार्शनिक नहीं है। सिद्धांत इसके लिए अर्थ नहीं रखता। यह उपाय कीविधि की चिंता करता हैसिद्धांत की कतई नहीं। तंत्र शब्द का अर्थ ही है विधिउपायमार्ग। इसलिए यह कोई मीमांसा नहीं हैइस बात को ध्यान में रख लें। बौद्धिक समस्याओं और उनके ऊहापोह से इसका कोई संबंध नहीं है। यह चीजों के 'क्योंकी चिंता नहीं लेताउनके 'कैसेकी चिंता लेता हैसत्य क्या है इसकी नहींवरन इसकी कि सत्य को कैसे उपलब्ध हुआ जाए।
तंत्र का अर्थ विधि है। इसलिए यह एक विज्ञान—ग्रंथ है। विज्ञान 'क्योंकी नहीं, 'कैसेकी फिक्र करता है। दर्शन और विज्ञान में यही बुनियादी भेद है। दर्शन पूछता है. यह अस्तित्व क्यों हैविज्ञान पूछता है. यह अस्तित्व कैसे हैजब तुम कैसे का प्रश्न पूछते होतब उपायविधि महत्वपूर्ण हो जाती है। तब सिद्धांत व्यर्थ हो जाते हैंअनुभव केंद्र बन जाता है। तंत्र विज्ञान हैतंत्र दर्शन नहीं है। दर्शन को समझना आसान हैक्योंकि उसके लिए सिर्फ मस्तिष्क की जरूरत पड़ती है। यदि तुम भाषा जानते होयदि तुम प्रत्यय समझते हो तो तुम दर्शन समझ सकते हो। उसके लिए तुमको बदलने कीसंपरिवर्तित होने की कोई जरूरत नहीं है। तुम जैसे हो वैसे ही बने रहकर दर्शन को समझ सकते हो। लेकिन वैसे ही रहकर तंत्र को नहीं समझ सकते। तंत्र को समझने के लिए तुम्हारे बदलने की जरूरत रहेगीबदलाहट की ही नहींआमूल बदलाहट की जरूरत होगी। जब तक तुम बिलकुल भिन्न नहीं हो जाते होतब तक तंत्र को नहीं समझा जा सकता। क्योंकि तंत्र कोई बौद्धिक प्रस्तावना नहीं हैवह एक अनुभव है। और जब तक तुम अनुभव के प्रति संवेदनशीलतैयारखुले हुए नहीं होतेतब तक यह अनुभव तुम्हारे पास आने को नहीं है।
दर्शन की फिक्र तुम्हारे मन के साथ है। उसके लिए तुम्हारा मस्तिष्क काफी हैउसको तुम्हारी समग्रता नहीं चाहिए। तंत्र तुमको तुम्हारी समग्रता में मांगता है। यह बहुत गहरी चुनौती हैइसमें तुम पूरे और इकट्ठे होकर ही उतर सकते हो। तंत्र खंडित नहीं है। उसकी अगवानी के तरह के रुझानतरह की यात्राऔर ही तरह के मन की जरूरत।
यही कारण है कि देवी ऐसे प्रश्न पूछती हैं जो दार्शनिक प्रश्न जैसे दिखते हैं। विज्ञान भैरव तंत्र देवी के प्रश्नों से शुरू होता है। और सभी प्रश्न दर्शन के तल पर हाथ में लिए जा सकते हैं। दरअसल कोई भी प्रश्न दो ढंग से हल किया जा सकता है. दार्शनिक ढंग से अथवा समग्रता पूर्वकबौद्धिक ढंग से अथवा अस्तित्वगत रूप से।
उदाहरण के लिए अगर कोई पूछेप्रेम क्या है? तो तुम उस प्रश्न का उत्तर बौद्धिक तल पर दे सकते होकोई सिद्धांत प्रस्तावित कर सकते होकिसी विशेष परिकल्पना के लिए दलील दे सकते हो। तुम एक व्यवस्थाएक सिद्धांतएक मतवाद खड़ा कर सकते हो। और हो सकता है कि प्रेम का तुमको बिलकुल पता न हो।
मतवाद गढ़ने के लिए अनुभव की जरूरत नहीं है। सच तो यह है कि तुम जितना कम जानते हो उतना ही अच्छा। क्योंकि तब तुम बेहिचक व्यवस्था प्रस्तावित कर सकते हो। केवल अंधा आदमी आसानी के साथ प्रकाश की व्याख्या कर सकता है। जब तुम नहीं जानते होतब ढीठ होते हो। अज्ञान हमेशा ढीठ होता हैज्ञान झिझकता है। जितना तुम जानते हो उतनी ही पांव के नीचे की जमीन खिसक नजर आती है। जितना तुम जानते हो उतना ही तुमको तुम्हारे अज्ञान का अनुभव होता है। और जो सच में ही ज्ञानी हैंवे अज्ञानी हो जाते हैं। वे बच्चों की तरह या शो की तरह सरल हो जाते हैं।
इसलिए जितना कम जानते हो उतना बेहतर। मीमांसक होनामतवादी होनामूढ़ाग्रही होना सचमुच आसान है। किसी भी प्रश्न को बुद्धि के तल पर हल करना सरल है।
लेकिन किसी प्रश्न को अस्तित्वगत रूप से हल करनाउसे सोचना नहींउसे जीनाउसमें जीना और उसके द्वारा अपने को पूरी तरह बदल जाने देना कठिन है। उसका अर्थ हुआ कि प्रेम को जानने के लिए तुमको प्रेम में उतरना पड़ेगा। वह खतरनाक है। क्योंकि तब तुम वही न रहोगे जो थे। अनुभव तुमको बदल देगा। जिस क्षण तुम प्रेम में प्रवेश करते होतुम एक दूसरे व्यक्ति में प्रवेश करते हो। और तब जब तुम उसके बाहर निकलोगेतब तुमको तुम्हारा पुराना चेहरा पहचानने को नहीं मिलेगा। वह चेहरा अब तुम्हारा रहा नहीं। एक विच्छिन्नताएक टूट पैदा हो चुकेगी। अब एक अंतराल आ गया। पुराना आदमी मर चुका और उसकी जगह एक नया आदमी आ गया है। उसे ही पुनर्जन्म कहते हैंद्विज कहते हैं।
तंत्र गैर—दार्शनिक है और अस्तित्वगत है। इसलिए यद्यपि देवी ऐसे प्रश्न पूछती हैं जो दार्शनिक मालूम होते हैंलेकिन शिव उत्तर उसी ढंग से नहीं देते। इस बात को आरंभ में ही समझ लेना बेहतर होगा। नहीं तो तुम हैरानी में पड़ोगे कि शिव क्यों उनके एक प्रश्न का भी उत्तर नहीं देते! जो भी प्रश्न देवी पूछती हैंशिव उनके उत्तर ही नहीं देते। और तो भी वे उत्तर देते हैं। और सच तो यह है कि केवल शिव ने ही उनके उत्तर दिए हैंकिसी और ने नहीं। लेकिन उनके उत्तर भिन्न तल के हैं।
देवी पूछती हैं : प्रभोआपका सत्य क्या हैशिव इस प्रश्न का उत्तर न देकर उसके बदले में एक विधि देते हैं। अगर देवी इस विधि के प्रयोग से गुजर जाएं तो वे उत्तर पा जाएंगी। इसलिए उत्तर परोक्ष हैप्रत्यक्ष नहीं। शिव नहीं बताते हैं कि मैं कौन हूं वे एक विधि भर बताते हैं। वे कहते हैं. यह करो और तुम जान जाओगी।
तंत्र के लिए करना ही जाननाकोई जानना जानना नहीं। जब तक तुम कुछ करते नहींजब तक बदलते नहींजब तक बुद्धि के अतिरिक्त किसी अन्य ही आयाम में नहीं प्रवेश करतेतब तक कोई उत्तर नहीं है। उत्तर तो दिए जा सकते हैंलेकिन वे सब के सब झूठे होंगे। सभी दर्शन झूठे हैं।
तुम एक प्रश्न पूछते हो और दर्शन एक उत्तर दे देता हैउससे तुम चाहे संतुष्ट होते हो या नहीं होते हो। यदि संतुष्ट हुए तो तुम उस दर्शन के अनुयायी हो जाते होलेकिन तुम वही के वही रहते हो। और यदि नहीं संतुष्ट हुए तो दूसरे दर्शन की खोज में निकल चलते हो जिनसे संतुष्टि मिल सके। लेकिन तुम वही के वही रहते होअछूते रहते होअपरिवर्तित रहते हो।
इसलिए तुम हिंदू हो कि मुसलमान हो कि ईसाई हो कि जैन होइससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। हिंदू मुसलमान या जैन के मुखौटे के पीछे जो असली व्यक्ति हैवह वही रहता है। सिर्फ शब्दों का या वस्त्रों का भेद है। चाहे वह चर्च जाता हो कि मंदिर जाता हो कि मस्जिद जाता होवह वही रहता है। सिर्फ चेहरों का फर्क है। और वे चेहरे झूठे हैंवे मुखौटे भर हैं। और मुखौटों के पीछे वही आदमी है—वही क्रोधवही आक्रामकतावही हिंसावही लोभवही लिप्सा—सब कुछ वही का वही है। क्या मुस्लिम कामुकता हिंदू कामुकता से भिन्न हैक्या ईसाई हिंसा और हिंदू हिंसा में फर्क हैवह एक ही है। हकीकत एक हैसिर्फ वस्त्र भिन्न हैं।
तंत्र को तुम्हारे वस्त्रों से कुछ लेना—देना नहीं हैउसे सीधे तुमसे लेना—देना है। अगर तुम प्रश्न पूछते हो तो उससे इतना ही पता चलता है कि तुम कहां हो। और उससे यह भी पता चलता है कि तुम जहां भी होतुमको दिखाई नहीं पड़ता है। एक अंधा आदमी पूछता है. प्रकाश क्या हैऔर दर्शन बताना शुरू कर देगा कि प्रकाश क्या है। मगर तंत्र केवल यह निष्पत्ति निकालेगा कि प्रकाश के बारे में प्रश्न पूछने वाला महज आख का अंधा है। और तब तंत्र उस आदमी का उपचार शुरू करेगाउसे बदलने का उपाय करेगा कि उसकी आंखें देख सकें। तंत्र यह नहीं बताएगा कि प्रकाश क्या हैतंत्र सिर्फ यह बताएगा कि तुम किस तरह आख कोदृष्टि कोदेखने को उपलब्ध हो सकते हो। और दृष्टि की उपलब्धि के साथ ही उत्तर उपलब्ध हो जाएगा।
इसलिए तंत्र समाधान नहीं देता हैसमाधान को उपलब्ध होने की विधि देता है। अब यह समाधान बौद्धिक नहीं होगा। अगर तुम अंधे आदमी को प्रकाश के बारे में कुछ कहोगे तो वह कहना बौद्धिक होगा। और अगर अंधा स्वयं देखने में सक्षम हो जाता है तो वह अस्तित्वगत बात होगी। जब मैं कहता हूं कि तंत्र अस्तित्वगत है तो उसका यही मतलब है।
इसलिए शिव देवी के प्रश्नों के उत्तर देने नहीं जा रहे हैंफिर भी देने जा रहे हैं। यह पहली बात। और दूसरी बात कि यह एक सर्वथा भिन्न भाषा है। इसमें प्रवेश के पहले हमें इसके संबंध में कुछ जान लेना होगा। तंत्र के सभी ग्रंथ शिव और देवी के बीच संवाद हैं। देवी पूछती हैं और शिव जवाब देते हैं। सभी तंत्र—ग्रंथ ऐसे ही शुरू होते हैं। क्योंयह ढंग क्यों?
यह बहुत अर्थपूर्ण है। यह संवाद किन्हीं गुरु और शिष्य के बीच संवाद नहीं हैयह संवाद घटित होता है दो प्रेमियों के बीच। और तंत्र इसके द्वारा एक बहुत अर्थपूर्ण बात की खबर देता है. यह कि गहराई की शिक्षा तब तक नहीं दी जा सकतीजब तक कि दोनों केशिष्य और गुरु के बीच प्रेम का संबंध न हो। शिष्य और गुरु को गहरे प्रेमी होना होगा। तब—और तभी—ऊँचाई कोपार को अभिव्यक्त किया जा सकताप्रकट किया जा सकता।
इसलिए यह प्रेम की भाषा है। शिष्य के लिए प्रेम के भाव में होना जरूरी है। लेकिन इतना काफी नहीं है। दो मित्र भी प्रेम में हो सकते हैं। तंत्र कहता हैशिष्य में प्रेम के अतिरिक्त ग्राहकता होनी चाहिए। तभी कुछ संभव है। शिष्य होने के लिए स्त्री होना जरूरी नहीं हैलेकिन उसके लिए स्त्रैण ग्राहकता का भाव अनिवार्य है। यहां देवी पूछती हैंउसका अर्थ हुआ कि स्त्रैण भाव पूछता है। लेकिन स्त्रैण भाव पर यह जोर क्यों?
पुरुष और स्त्री में शारीरिक फर्क ही नहीं हैमानसिक फर्क भी है। यौन शरीर के तल पर ही नहींमन के तल पर भी बड़ा फर्क लाता है। स्त्रैण मन का अर्थ है ग्राहकता—समग्र ग्राहकतासमर्पणप्रेम। शिष्य को उसी स्त्रैण मन की आवश्यकता हैअन्यथा वह नहीं सीख पाएगा। तुम पूछ तो सकते होलेकिन अगर खुले नहीं होतो उत्तर तुमको नहीं मिल सकता। प्रश्न पूछकर भी तुम बंद रह सकते हो। उस हालत में उत्तर तुम में प्रवेश नहीं करेगा। तुम्हारे द्वार—दरवाजे बंद हैंतुम मृत हो। तुम खुले जो नहीं हो।
स्त्रैण ग्राहकता का अर्थ है. गहरे में गर्भ जैसी ग्राहकताताकि तुम ग्रहण कर सकोले सको। उतना ही नहींउससे भी ज्यादा की जरूरत है। स्त्री कोई चीज ग्रहण ही नहीं करती हैजिस क्षण ग्रहण करती है उसी क्षण वह चीज उसके शरीर का भाग बन जाती है। बच्चा ग्रहीत हुआ। स्त्री गर्भ धारण करती है और गर्भाधान के साथ बच्चा स्त्री के शरीर का अंश बन जाता है। वह विजातीय नहीं रहाविदेशी नहीं रहा। वह आत्मसात कर लिया गया। अब वह बच्चा कुछ ऐसा नहीं रहा जो कि मां से जुड़ा भर रहेगाअब वह मां के अंश की तरहमां की तरह ही जीएगा। बच्चा ग्रहीत ही नहीं होता हैस्त्रैण शरीर सृजनात्मक हो जाता है और बच्चा बढ़ने भी लगता है।
शिष्य को गर्भ जैसी ग्राहकता की जरूरत है। जो कुछ भी ग्रहण किया जाएउसे मृत ज्ञान की तरह इकट्ठा नहीं करना हैउसे तुम्हारे भीतर बढ़ना चाहिएउसे तुम्हारा रक्तहड्डी ही बन जाना चाहिए। अब उसे तुम्हारा हिस्सा बन जाना पड़ेगा। उसे बढ़ने देना हैवृद्धि देनी है। और यही वृद्धि तुमकोग्राहक को बदलेगीरूपांतरित करेगी।
यही कारण है कि तंत्र इस उपाय को काम में लाता है। हर ग्रंथ देवी के प्रश्न से शुरू होता है और शिव उसका उत्तर देते हैं। देवी शिव की प्रिया हैं—उनका स्त्रैण अंश।
एक बात और। अब आधुनिक मनोविज्ञानखासकर गहराई का मनोविज्ञान कहता है कि मनुष्य पुरुष और स्त्री दोनों है। कोई भी व्यक्ति न मात्र पुरुष है और न मात्र स्त्री है। प्रत्येक उभयलिंगी हैउसमें दोनों यौन मौजूद हैं। पश्चिम में यह खोज हाल की घटना हैलेकिन तंत्र के लिए हजारों साल से उसकी एक बुनियादी धारणा रही है। तुमने शिव के कुछ चित्र देखे होंगे जिनमें वे अर्धनारीश्वर हैंआधा पुरुष और आधी नारी। मनुष्य के पूरे इतिहास में यह अपनी तरह की अकेली धारणा है। शिव को उसमें आधे पुरुष और आधी स्त्री की तरह चित्रित किया गया है।
इसलिए देवी प्रिया ही नहीं हैंशिव की अर्धांगिनी हैं। और जब तक शिष्य गुरु का दूसरा अर्धांग नहीं बन जाताऊंचाई की शिक्षागुह्य विधियों की शिक्षा नहीं दी जा सकती। जब तुम ऐसे हो जाओगे तो संदेह नहीं बचेगा। जब तुम गुरु के साथ ऐसे एक हो जाओगे—समग्र
रूपेणगहन रूपेणकि छ न रहाबुद्धि न बचीतब तुम ग्रहण करते होतब तुम गर्भ बन जाते हो। और तब गुरु की शिक्षा तुममें वृद्धि पाती हैतुमको बदलने लगती है।
यही कारण है कि तंत्र प्रेम की भाषा में लिखा गया। यहां प्रेम की भाषा के संबंध में भी कुछ समझना आवश्यक है। भाषा दो प्रकार की है : तर्क की भाषा और प्रेम की भाषा। और दोनों में बुनियादी भेद है।
तर्क की भाषा आक्रामकविवादी और हिंसक होती है। अगर मैं तार्किक भाषा का प्रयोग करूं तो मैं तुम्हारे मन पर आक्रमण सा करूंगा। मैं तुमसे अपनी बात मनवाने कीतुमको अपने पक्ष में लाने कीतुम्हें अपना खिलौना बनाने की कोशिश करूंगा। मैं जिद करूंगा कि मेरा तर्क सही है और तुम्हारा गलत। तर्क की भाषा अहं—केंद्रित होती हैइसलिए मैं सिद्ध करूंगा कि मैं सही हूं और तुम गलत। दरअसल मुझे तुमसे कुछ लेना—देना नहीं हैमुझे मेरे अहंकार से मतलब है। और मेरा अहंकार हमेशा सही होता है।
प्रेम की भाषा सर्वथा भिन्न हैवहां मुझे अपनी नहींतुम्हारी चिंता है। वहां मुझे कुछ सिद्ध करने को नहीं पड़ी हैअपने अहंकार को मजबूत नहीं बनाना है। तुम्हारी सहायता करना ही मेरा अभीष्ट है। यह करुणा है जो तुमको बढ़ने मेंबदलने मेंतुम्हारे पुनर्जन्म में सहयोगी होना चाहती है।
और दूसरी बात कि तर्क सदा बौद्धिक है। उसमें तर्क और सिद्धात महत्वपूर्ण हैंदलीलें अर्थपूर्ण हैं। प्रेम की भाषा मेंक्या कहा जाएयह महत्व का नहीं हैकैसे कहा जाएमहत्व का है। वाहनशब्द महत्वपूर्ण नहीं हैमहत्वपूर्ण है उसका अर्थउसका संदेश। यह हृदय से हृदय की गुफ्तगू हैमन से मन का वाद—विवाद नहीं। यह विवाद नहीं संवाद हैसहभागिता है। इसलिए यह दुर्लभ घटना है कि पार्वती शिव की गोद में बैठकर पूछती हैं और शिव उत्तर देते हैं। यह प्रेम—संवाद हैप्रेमालाप। इसमें कहीं कोई द्वंद्व नहीं है—शिव मानो स्वयं से बोल रहे हों।
प्रेम परप्रेम की भाषा पर इतना जोर क्यों हैइसलिए कि अगर तुम अपने गुरु के साथ प्रेम में हो तो सारा गेस्टाल्ट बदल जाता हैसमूचा दर्शनसमूचा परिदृश्य दूसरा ही हो जाता है। तब बात ही कुछ और है। तब तुम गुरु के शब्द नहीं सुनते होतब तुम गुरु को पीते हो। तब शब्द अप्रासंगिक हो जाते हैंतब शब्दों के बीच का मौन महिमावान हो उठता है। गुरु जो कुछ कहता हैवह अर्थपूर्ण हो सकता हैनहीं भी हो सकता हैउसमें असली चीज उसकी दृष्टि हैमुद्रा हैअसली चीज उसकी करुणा हैप्रेम है।
इसीलिए तंत्र की एक निश्चित अवस्था हैढंग है। उसका हरेक ग्रंथ देवी के प्रश्न और शिव के उत्तर से शुरू होता है। दलील के लिए उसमें जगह नहीं हैशब्दों का वहां अपव्यय नहीं है। उसमें तथ्यों के सीधे—सादे वक्तव्य हैं जो तारनुमा भाषा मेंसंक्षिप्ततम रूप में कहे गए हैं। उसमें किसी से मनवाने का आग्रह नहीं हैमात्र बताने की बात है।
अगर तुम बंद मन से शिव को प्रश्न पूछो तो वे इस ढंग से जवाब नहीं देंगे। तब पहले तुम्हारा जो बंद होना हैउसे हटाने के लिए शिव को आक्रामक होना पड़ेगा। तब पहले तुम्हारे पूर्वाग्रहों कोपूर्व—धारणाओं को नष्ट करना पड़ेगा। जब तक तुम अपने अतीत से बिलकुल विच्छिन्न नहीं होतेतब तक तुमको कुछ भी नहीं दिया जा सकता। लेकिन शिव की प्रिया के साथदेवी के साथ यह बात नहीं हैदेवी के साथ देवी का कोई अतीत नहीं है।
स्मरण रहे कि जब तुम गहरे प्रेम में होते होतब तुम्हारा मन विसर्जित हो जाता हैनहीं हो जाता है। तब कोई अतीत नहीं रहता हैवर्तमान का क्षण ही सब कुछ हो जाता है। जब तुम प्रेम में होते होतब वर्तमान ही मात्र समय होता है। वर्तमान ही सब कुछ है—न अतीतन भविष्य।
इसलिए देवी खुली हैं। कोई सुरक्षा नहीं है वहांकुछ साफ करने को नहीं हैकुछ नष्ट करने को नहीं है। भूमि तैयार हैउसमें बीज डालने की देर है। कहना चाहिए कि भूमि न केवल तैयार ही हैवह स्वागत की मुद्रा में हैग्राहक हैवह गर्भ बनने को तत्पर है।
इसलिए शिव के ये वचनजिन पर हम चर्चा करेंगेअति संक्षिप्त हैंसूत्ररूप में हैं। लेकिन शिव का प्रत्येक सूत्र एक वेद कीएक बाइबिल कीएक कुरान की हैसियत का है। उनका एक अकेला वाक्य एक महान शास्त्र काधर्म—ग्रंथ का आधार बन सकता है। शास्त्र तर्कबद्ध होते हैंउनमें प्रस्ताव करना पड़ता हैबचाव करना पड़ता हैतर्क देना पड़ता है। यहां कोई तर्क नहीं हैप्रेम का मात्र वक्तव्य दिया गया है।
तीसरी बात कि विज्ञान भैरव तंत्र का अर्थ ही है चेतना के भी पार जाने की विधि। विज्ञान का अर्थ चेतना हैभैरव का अर्थ वह अवस्था है जो चेतना से भी परे है और तंत्र का अर्थ विधि हैचेतना के पार जाने की विधि। यह परम धर्म—सिद्धांत है—सिद्धांत के बिना धर्म—सिद्धांत।
हम मूर्च्‍छित हैंअचेतन हैंइसलिए सारी धर्म—देशना अचेतन के ऊपर उठने कीचेतन होने की देशना है। उदाहरण के लिए कृष्णमूर्ति हैंझेन हैवे सभी अधिक से अधिक चेतनासजगताहोश लाने की फिक्र करते हैं। क्योंकि हम मूर्च्छित हैंबेहोश हैंइसलिए कैसे ज्यादा होशपूर्णज्यादा जाग्रत हुआ जाएमूर्च्छा से जागरण की ओर कैसे गति हो?
लेकिन तंत्र कहता है कि यह भी द्वैत का ही खेल है—यह मूर्च्छा— अमूर्च्छा का खेल है। यदि तुम मूर्च्छा से अमूर्च्छा की यात्रा करते हो तो भी एक द्वैत की ही यात्रा करते हो। तंत्र कहता है. दोनों के पार चलो। जब तक तुम दोनों के पार नहीं जातेतब तक परम को नहीं उपलब्ध हो सकते। इसलिए न अचेतनन चेतनदोनों के पार चलोमात्र होओ। चेतन—अचेतन नहीं होना हैमात्र होना है। यह योग के भी पार हैझेन के भी पार हैयह सभी धर्म—देशनाओं के पार है।
विज्ञान कामतलब चेतना है। और भैरव एक विशेष शब्द हैतांत्रिक शब्दजो पारगामी कै लिए कहां गया है। इसलिए शिव को भैरव कहते हैं और देवी को भैरवी—वे जो समस्त द्वैत के पार चले गए हैं।
हमारे अनुभव में प्रेम ही उसकी थोड़ी झलक दे सकता है। यही कारण है कि तंत्र—विद्या सिखाने के लिए प्रेम उसका बुनियादी उपाय बन जाता है। अपने अनुभव से हम कह सकते हैं कि प्रेम ही वह कुछ है जो द्वैत के पार जाता है। जब दो व्यक्ति प्रेम में होते हैंतब ज्यों—ज्यों वे उसकी गहराई में उतरते हैं त्यों—त्यों दो कम और एक ही ज्यादा रहते हैं। और एक बिंदु आता हैएक शिखर स्पर्श होता है जहां वे देखने में ही दो होते हैंभीतर एक ही हो जाते हैं। वहां द्वैत का अतिक्रमण हो जाता हैं।
 इसी अर्थ में जीसस का यह वचन कि 'परमात्मा प्रेम हैअर्थपूर्ण हो जाता हैअन्यथा नहीं। हमारे अनुभव में प्रेम परमात्मा के सबसे निकट है। इसका यह मतलब नहीं है जैसा कि ईसाई अर्थ किए चले जाते हैं कि परमात्मा प्रेमपूर्ण है कि परमात्मा को आपके लिए पिता जैसा प्रेम है। ये मूर्खता भरी बातें हैं। परमात्मा प्रेम है—यह एक तांत्रिक वक्तव्य है। इसका अर्थ है कि हमारे अनुभव में केवल प्रेम वह यथार्थ है जो परमात्मा केभगवत्ता के निकटतम पड़ता है। क्योंकि प्रेम में एकता का अनुभव होता है। शरीर दो रहते हैंलेकिन शरीर से परे कुछ है जो मिलकर एके हो जाता है।
यही कारण है कि यौन की भूख इतनी बड़ी हैउसकी दौड़ भारी है। असली दौड़ तो इस एकता के पीछे है। लेकिन वह एकता यौन कीकाम की नहीं है। काम में दो शरीरों को एक होने का धोखा ही होता हैवे एक होते नहीं। वे आलिंगन में बंधते हैं और एक क्षण के लिए दोनों एक—दूसरे में अपने को भूल जाते हैंऔर थोड़ी शारीरिक एकता अनुभव होती है। यह खोज बुरी नहीं हैलेकिन उस पर ही रुक जाना खतरनाक है। यह खोज किसी गहरी एकता की खोज की खबर भर है।
प्रेम में किसी ऊंचे तल पर कुछ आंतरिक गति करता है और एक—दूसरे में मिलकर एकता की अनुभूति होती है। उसमें द्वैत मिट जाता है। और इसी द्वैतहीन प्रेम में हमें उसकी झलक मिल सकती है जिसे भैरव की अवस्था कहते हैं। हम कह सकते हैं कि भैरवावस्था वह प्रेम है जिसमें से लौटना नहीं होता है। प्रेम के शिखर से फिर नीचे आना नहीं हैशिखर पर ही बने रहना है।
हमने कैलाश पर शिव का आवास बनाया है। वह प्रतीक है कि कैलाश सबसे ऊंचा शिखर हैसबसे पवित्र शिखर है। वहीं हमने शिव का आवास रखा है। हम वहां जा सकते हैंलेकिन हमें वहा से नीचे उतर आना होगा। वह हमारा आवास नहीं हो सकता है। हम तीर्थयात्रा के लिए वहा जा सकते हैं। वह तीर्थ हैतीर्थयात्रा है। एक क्षण के लिए हम भी उस शिखर को छू सकते हैंलेकिन फिर वापस आना होगा।
प्रेम में यह पवित्र तीर्थयात्रा घटित होती हैलेकिन सब के लिए नहीं। क्योंकि शायद ही कोई यौन के पार जाता है। इसलिए हम घाटी मेंअंधेरी घाटी में जीते चले जाते हैं। कभी—कभी विरला कोई प्रेम के शिखर को उपलब्ध होता हैलेकिन वह भी नीचे उतर आता हैक्योंकि उस ऊंचाई पर सिर चकराने लगता है। वह इतना ऊंचा है और तुम इतने निम्नछोटे। और वहा रहना भी कठिन है। जिन्होंने प्रेम किया हैवे जानते हैं कि प्रेम में सदा बने रहना कितना कठिन है। बार—बार वापस आना पड़ता है। वह शिव का आवास है। वे वहां रहते हैंवह उनका घर ही है।
भैरव प्रेम में जीते हैंप्रेम उनका आवास है। जब मैं कहता हूं कि वह उनका आवास हैउसका अर्थ है कि अब उन्हें प्रेम का भी बोध नहीं रहा। क्योंकि कैलाश पर ही रहने पर बोध भी जाता रहता है कि यह कैलाश हैशिखर है। तब शिखर समतल भूमि बन जाता है। शिव को प्रेम का बोध नहीं है। हमें प्रेम का बोध होता हैक्योंकि हम अप्रेम में जीते हैंऔर इस वैषम्य के कारणविपरीतता के कारण हमें प्रेम का बोध होता है।
शिव प्रेम ही हैं। भैरव का अर्थ होता है कि वह प्रेम ही हो गया है। यह नहीं कि वह प्रेमपूर्ण है, प्रेम करतावह स्वय हो गया हैवह शिखर पर हैशिखर ही उसका आवास है।
इस सर्वोच्च शिखर को संभव कैसे बनाया जाए जो सब द्वैत के पार हैअचेतन के पार हैचेतन के पार हैशरीर और आत्मा के पार हैसंसार और मोक्ष के भी पार हैइस शिखर को उपलब्ध कैसे हुआ जाए?
उसकी विधि तंत्र है। लेकिन तंत्र शुद्ध विधि हैइसलिए इसे समझने में कठिनाई होगी। इसलिए हम पहले उस प्रश्न को समझें जो देवी पूछती हैं।
हे शिव आपका सत्य क्या है?
यह प्रश्न क्योंतुम भी यही प्रश्न पूछ सकते होलेकिन उसका वही अर्थ नहीं होगा। इसलिए समझने की कोशिश करो कि देवी क्यों पूछती हैं कि आपका सत्य क्या है।
देवी गहरे से गहरे प्रेम में हैं। और जब कोई गहरे प्रेम में होता है तब पहली दफा उसे भीतर सत्य का साक्षात्कार होता है। तब शिव आकार नहीं हैंशरीर नहीं हैं। जब तुम प्रेम में होते होतब प्रेमी का शरीर लुप्त हो जाता है। तब आकार मिट जाता हैनिराकार प्रकट होता है। तब तुम एक अतल गहराई के सामने होते हो। यही कारण है कि हम प्रेम से इतना डरते हैं। हम एक शरीर का सामना कर सकते हैंहम आकृति कारूप का सामना कर सकते हैंलेकिन हम अगाध अतल कामहाशून्य का सामना नहीं कर सकते।
अगर तुम किसी को प्रेम करते होसचमुच प्रेम करते हो तो उसका शरीर निश्चित रूप से विलुप्त हो जाने वाला है। ऊंचाई के शिखर के किसी क्षण में आकार मिट जाएगा और प्रेमी के माध्यम से तुम निराकार में प्रवेश कर जाओगे। यही वजह है कि हम डरते हैं। यह तो एक अतल समुद्र में गिरना हो जाएगा।
'हे शिवआपका सत्य क्या है?'
यह महज जिज्ञासा का प्रश्न नहीं है। देवी अवश्य ही आकार के साथ प्रेम में पड़ गई होंगी। चीजें वैसे ही शुरू होती हैं। उन्होंने पहले आदमी के रूप में इस आदमी को प्रेम किया होगा। और जब प्रेम वयस्क हुआप्रस्फुटित हुआखिलातब यह आदमी ही अंतर्धान हो गया। वह निराकार हो गया है। अब वह आदमी कहीं दिखाई नहीं देता।
'हे शिवआपका सत्य क्या है?'
यह प्रेम के एक अत्यंत ही गहन क्षण में पूछा गया प्रश्न है। और जब प्रश्न उठते हैं तब जिन मनों से वे उठते हैं उनके अनुसार उनमें फर्क पड़ता है। इसलिए अपने—अपने मन में इस प्रश्न की स्थितिइसका माहौल पैदा करो। पार्वती भारी अड़चन में पड़ी होंगीदेवी कठिनाई में पड़ी होंगी। शिव अंतर्धान हो गए हैं। जब प्रेम अपने शिखर पर होता हैतब प्रेमी अंतर्धान हो जाता है। यह क्यों होता है?
यह होता हैक्योंकि वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति निराकार है। तुम शरीर नहीं हो। शरीर की तरह चलते होशरीर के तल पर जीते होलेकिन शरीर नहीं हो। जब हम बाहर से किसी को देखते हैं तब वह शरीर ही है। लेकिन प्रेम तो भीतर प्रवेश करता है। तब हम व्यक्ति को बाहर से नहीं देखते हैं। प्रेम किसी को भी वैसे देख सकता है जैसे वह अपने को भीतर से देखता है। तब रूप विदा हो जाता है।
झेन संत रिंझाई आत्मोपलब्ध हुआ तो उसने पहला प्रश्न पूछा : मेरा शरीर कहां हैवह कहां चला गयाऔर वह खोजने लगा। उसने अपने शिष्यों को बुलाया और कहां : जाओ और खोजो कि मेरा शरीर कहां गयामेरा शरीर खो गया है।
वह निराकार मेंअरूप में प्रवेश कर गया था। तुम भी एक निराकार अस्तित्व हो। लेकिन तुम अपने को प्रत्यक्ष नहींदूसरों की वजह से जानते हो। तुम अपने को आईने के मार्फत जानते हो। किसी समय आईने में अपने को देखते हुए आंखें  बंद कर लो और तब ध्यान करो अगर आईना नहीं होता तो मैं अपना रूप कैसे पहचानताएक ऐसी दुनिया की सोचो जहां आईना नहीं हो। तुम अकेले होकोई आईना नहीं हैआईने का काम करती हुई दूसरों की आंखें भी नहीं हैं। तब क्या तुम्हें चेहरा होगाया तुम्हें शरीर होगा?
नहींनहीं होगा। है भी नहीं। हम अपने को दूसरों के द्वारा ही जानते हैं। और दूसरे केवल बाहरी रूप देखते हैं। और यही कारण है कि हम उसके साथ तादात्म्य कर लेते हैं।
एक दूसरा झेन संत हयाकुजो अपने शिष्यों से कहां करता था. जब ध्यान करते हुए तुम्हारा सिर खो जाए तब तुरंत मेरे पास आना। जब तुम्हें लगे कि तुम्हारा सिर तुम्हारे कंधे पर नहीं है तब डरना मततुरंत मेरे पास चले आना। यही सही क्षण हैजब तुम्हें कुछ सिखाया जा सकता है। सिर के रहते सिखावन संभव नहीं है। सिर सदा बीच में आ जाता है।
देवी शिव से पूछती हैं. 'हे शिवआपका सत्य क्या हैआप कौन हैं?'
आकार मिट गया हैइसलिए यह प्रश्न। प्रेम में तुम दूसरे में स्वयं उसकी तरह प्रविष्ट होते हो। तुम उत्तर नहीं दे रहेतुम एक हो जाते हो। और पहली दफा तुम एक अंतस कोनिराकार उपस्थिति को जानते हो।
यही कारण है कि सदियों—सदियों तक हमने शिव की कोई प्रतिमाकोई चित्र नहीं बनाया। हम सिर्फ शिवलिंग बनाते रहेउनका प्रतीक बनाते रहे। शिवलिंग एक निराकार आकार है। जब तुम किसी को प्रेम करते होकिसी में प्रवेश करते होतब वह मात्र एक ज्योतित उपस्थिति हो जाता है। शिवलिंग वही ज्योतित उपस्थिति हैप्रकाश का प्रभा—मंडल। इसीलिए देवी पूछती हैं :
आपका सत्य क्या हैयह विस्मय—भरा विश्व क्या है?
हम विश्व को जानते हैंलेकिन नहीं जानते हैं कि यह आश्चर्य से भरा है। बच्चे जानते हैंप्रेमी जानते हैंकभी—कभी कवि और पागल जानते हैं। लेकिन हम नहीं जानते कि ब्रह्मांड आश्चर्य भरा है। हमारे लिए सब कुछ महज पुनरावृत्ति हैउसमें कोई आश्चर्य नहींकोई कविता नहीं। वह सपाट गद्य है हमारे लिए। तुम्हारे हृदय में वह कोई गीत नहीं पैदा करतातुममें वह नृत्य नहीं उपजातातुम्हारे भीतर किसी कविता का जन्म नहीं बनता। सारा जगत यंत्रवत मालूम होता है।
बच्चे अवश्य उसे आश्चर्य— भरी आंखों से देखते हैं। और जब आंखें  आश्चर्य— भरी होती हैंतब सारा ब्रह्मांड आश्चर्य से भर जाता है। और जब तुम प्रेम में होते होतुम फिर बच्चों की भांति हो जाते हो। जीसस कहते हैं : केवल वे ही हमारे प्रभु के राज्य में प्रवेश करेंगे जो बच्चों की भांति हैं। क्योंक्योंकि विश्व यदि आश्चर्यपूर्ण नहीं है तो तुम धार्मिक नहीं हो सकते। विश्व की व्याख्या हो सकेयह दृष्टि वैज्ञानिक है। तब जगत ज्ञात है या अज्ञात। लेकिन जो अज्ञातवह किसी दिन ज्ञात सकता। तब वह अज्ञय नहीं है। और जगत तभी अज्ञेय हैएक रहस्य हैजब आंखें  विस्मय— भरी हों।
देवी पूछती हैं : 'यह विस्मय—भरा विश्व क्या है?'
यहां वे व्यक्तिगत प्रश्न से अचानक अव्यक्तिगत प्रश्न पर छलांग लगाती हैं। वे पूछती थीं : आपका सत्य क्या हैऔर फिर अचानक पूछ बैठती हैं : यह विस्मय— भरा जगत क्या हैजब रूप विदा होता है तब प्रेमी विश्व बन जाता है—निराकारअंतहीन। अचानक देवी को बोध होता है कि मैं शिव के बारे में नहीं पूछ रही हूं पूरे विश्व के बारे में पूछ रही हूं। अब शिव ही समस्त विश्व हो गए हैं। अब सब ग्रह—तारे उनके भीतर ही घूम रहे हैंसारा आकाशसमस्त महाकाश उनसे घिरा है। अब वे सब से बड़ा घेरने वाला तत्व हैं—महा घेरनहार।
कार्ल जैस्पर्स ने ईश्वर को महा घेरनहार कहां है। जब तुम प्रेम मेंप्रेम के घनिष्ठ सस्वर में प्रवेश करते होतब व्यक्ति कारूप का लोप हो जाता है और प्रेमी विश्व का द्वार बनकर रह जाता है।
अगर तुम्हारी उत्सुकता वैज्ञानिक है तो तुम्हें तर्क की राह से जाना होगा। तब तुम्हें निराकार की नहीं सोचना चाहिए। तब निराकार से बचो और आकार से संतोष करो। इसलिए विज्ञान सदा रूप से बंधा है। यदि वैज्ञानिक मन को कुछ निराकार की बात कही जाए तो वह तुरंत उसे आकार में तोड़कर रख देगा। जब तक वह आकार नहीं धारण करतावह उसके लिए व्यर्थ है। पहले उसे आकारनिश्चित आकार देना है और तब खोज शुरू होगी।
प्रेम में यदि आकार हो तो उसका अंत है। आकार को मिटा दो। जब चीजें अरूप हो जाती हैं—धुंधलकीसीमाहीन हो जाती हैंजब हर चीज दूसरी चीज में प्रवेश करती हैजब समस्त विश्व एकता में सिमट जाता हैतब—और तभी—यह विश्व विस्मय— भरा कलामय विश्व है।
इसका बीज क्या है?
देवी आगे बढ़ती हैंविश्व से भी आगे जाकर पूछती हैं. इसका बीज क्या हैयह निराकारविस्मय— भरा विश्व कहां से आता हैकहां इसका उद्गम हैया क्या कोई उद्गम नहीं हैबीज क्या है?
विश्व— चक्र की धुरी क्या है?
देवी आगे पूछती हैं। यह चक्र चलता ही जाता है—महापरिवर्तनसतत प्रवाह। लेकिन इसका मध्यबिंदु क्या हैइसकी धुरी कहां हैअचल केंद्र कहां है?
देवी किसी उत्तर के लिए नहीं रुकती हैंपूछती ही चली जाती हैं। मानो वे किसी और से नहींस्वयं से ही बात कर रही हों।
रूपों पर छाए लेकिन रूप के परे यह जीवन क्या हैदेश और काल नाम और प्रत्यय के परे जाकर हम इसमें कैसे पूर्णत: प्रवेश करेंमेरे संशय निर्मूल करें।
यहां प्रश्न से अधिक संशय पर जोर है. मेरे संशय निर्मूल करें।
यह महत्वपूर्ण है। अगर तुम कोई बौद्धिक प्रश्न पूछते हो तो तुम उसके हल के लिए निश्चित उत्तर चाहते हो। लेकिन देवी कहती हैं : 'मेरे संशय निर्मूल करें। 'वे वास्तव में कोई उत्तर नहीं चाहतींअपने मन का रूपांतरण चाहती हैं। क्योंकि जो उत्तर भी दिया जाएसंदेह तंत्र में प्रवेश करने वाला मन संदेह ही करता रहेगा।
इसे ध्यान में रख लो संदेह करने वाला मन संदेह ही करता रहेगा। उत्तर अप्रासंगिक है। मैं एक उत्तर दूं लेकिन अगर तुम्हारा मन संदेह करने वाला है तो तुम उस उत्तर पर भी संदेह करोगे। तुम्हारा मन ही संदेह करने वाला है। और संदेह से भरे मन का अर्थ है कि तुम किसी भी चीज पर प्रश्नचिह्न लगा दोगे।
इसलिए उत्तर व्यर्थ हैं। तुम मुझसे पूछते हो : किसने संसार को बनायाऔर यदि मैं कहूं कि अ ने बनाया तो तुम निश्चित रूप से पूछोगे कि अ को किसने बनायाइसलिए असली समस्या प्रश्नों के उत्तर देना नहीं हैअसली समस्या है कि संदेह करने वाले मन को कैसे बदला जाएउसे कैसे ऐसा बनाया जाए कि वह संदेह न करेश्रद्धा करे।
इसलिए देवी कहती हैं 'मेरे संशय निर्मूल करें। '
दो—तीन बातें और। जब तुम प्रश्न पूछते हो तो कई कारण से पूछ सकते हो। एक कारण हो सकता है कि तुम अपनी संपुष्टि के लिए पूछते हो। तुम्हें उत्तर पता हैउत्तर तुम्हारे पास हैतुम सिर्फ पक्का करना चाहते हो कि तुम्हारा उत्तर सही है। लेकिन तब तुम्हारा प्रश्न ही झूठा हैनकली है। वह प्रश्न ही नहीं है। तुम अपने को बदलने के इरादे से नहींसिर्फ कुतूहलवश पूछते हो।
मन पूछता ही जाता है। मन में प्रश्न वैसे ही आते हैं जैसे पेडू में पत्ते लगते हैं। मन का स्वभाव ही है पूछना। वह पूछता ही चला जाता है। तुम क्या पूछते होयह महत्व का नहीं हैमन को जो भी मिलेवह उससे ही प्रश्न पैदा कर लेगा। मन प्रश्न गढ़ने की चक्की है। मन को कुछ भी दे दोवह उसके टुकडे कर उससे अनेक प्रश्न बना लेगा। तुम एक प्रश्न का उत्तर दोवह उसी एक उत्तर से अनेक प्रश्न गढ़ लेगा।
यही तो दर्शन का इतिहास रहा है। बर्ट्रेड रसेल ने अपने संस्मरण में कहां है कि मैं बच्चा था तो सोचता था कि एक दिन जब सारे दर्शन को समझने की प्रौढ़ता आएगी तब सभी प्रश्न हल हो जाएंगे। अब जब अस्सी का हो चुका हूं तो मैं कह सकता हूं कि मेरे बचपन के प्रश्न तो त्यों के त्यों खड़े ही हैंदर्शन के इन सिद्धांतों के कारण बहुत—से दूसरे प्रश्न भी पैदा हो गए हैं। इसलिए रसेल ने कहां कि मैं युवा था तो कहता था कि दर्शन आत्यंतिक उत्तरों की खोज हैअब यह नहीं कह सकता। इसे तो अंतहीन प्रश्नों की खोज ही कहना उचित होगा। इसलिए एक प्रश्न अपने साथ एक उत्तर लाता है और साथ ही अनेक प्रश्न भी। संदेह करने वाला मन ही समस्या है।
पार्वती कहती हैं : मेरे प्रश्नों की फिक्र न करें। मैंने अनेक प्रश्न पूछ लिए. 'आपका सत्य रूप क्या हैयह आश्चर्य — भरा जगत क्या हैबीज कौन हैजागतिक चक्र की धुरी कहां हैआकार के परे जीवन क्या हैसमय और स्थान से परे होकर हम उसमें पूरी तरह प्रवेश कैसे करेंलेकिन मेरे प्रश्नों की फिक्र न करें। मेरे संशय निर्मूल करें। ये प्रश्न तो मैं इसलिए पूछती हूं कि वे मेरे मन में उठते हैं। मैं आपको केवल अपना मन दिखाने के लिए ये प्रश्न पूछती हूं। उन पर बहुत ध्यान मत दें। उत्तरों से मेरा काम नहीं चलेगा। मेरी जरूरत तो है कि मेरे संशय निर्मूल हों।
लेकिन संशय निर्मूल कैसे होंगेकिसी उत्तर सेक्या कोई उत्तर है जो कि मन के संशय दूर कर देमन ही तो संशय है। जब तक मन नहीं मिटता हैसंशय निर्मूल कैसे होंगे?
शिव उत्तर देंगे। उनके उत्तर में सिर्फ विधियां हैं—सबसे पुरानीसबसे प्राचीन विधियां। लेकिन तुम उन्हें अत्याधुनिक भी कह सकते होक्योंकि उनमें कुछ भी जोड़ा नहीं जा सकता। वे पूर्ण हैं—एक सौ बारह विधियां। उनमें सभी संभावनाओं का समावेश हैमन को शुद्ध करने केमन के अतिक्रमण के सभी उपाय उनमें समाए हैं। शिव की एक सौ बारह विधियों में एक और विधि नहीं जोड़ी जा सकती। और यह ग्रंथविज्ञान भैरव तंत्रपांच हजार वर्ष पुराना है। उसमें कुछ भी जोड़ा नहीं जा सकताकुछ जोड्ने की गुंजाइश ही नहीं है। यह सर्वांगीण हैसंपूर्ण हैअंतिम है। यह सब से प्राचीन है और साथ ही सबसे आधुनिकसबसे नवीन। पुराने पर्वतों की भांति ये तंत्र पुराने हैंशाश्वत जैसे लगते हैंऔर साथ ही सुबह के सूरज के सामने खड़े ओस—कण की भाति ये नए हैंये इतने ताजे हैं।
ध्यान की इन एक सौ बारह विधियों से मन के रूपांतरण का पूरा विज्ञान निर्मित हुआ है। एक—एक कर हम उनमें प्रवेश करेंगे। पहले हम उन्हें बुद्धि से समझने की चेष्टा करेंगे। लेकिन बुद्धि को मात्र एक यंत्र की तरह काम में लाओमालिक की तरह नहीं। समझने के लिए यंत्र की तरह उसका उपयोग करोलेकिन उसके जरिए नए व्यवधान मत पैदा करो। जिस समय हम इन विधियों की चर्चा करेंगेतुम अपने पुराने ज्ञान कोपुरानी जानकारियों को .एक किनारे धर देना। उन्हें अलग ही कर देनावे रास्ते की धूल भर हैं।
इन विधियों का साक्षात्कार निश्चय ही सावचेत मन से करोलेकिन तर्क को हटा कर करो। इस भ्रम में मत रहो कि विवाद करने वाला मन सावचेत मन है। वह नहीं है। क्योंकि जिस क्षण तुम विवाद में उतरते होउसी क्षण सजगता खो देते होसावचेत नहीं रहते हो। तुम तब यहां हो ही नहीं।
ये विधियां किसी धर्म की नहीं हैं। याद रखोवे ठीक वैसे ही हिंदू नहीं हैं जैसे सापेक्षवाद का सिद्धांत आइंस्टीन के द्वारा प्रतिपादित होने के कारण यहूदी नहीं हो जातारेडियो और टेलीविजन ईसाई नहीं हैं। कोई नहीं कहता कि बिजली ईसाई हैक्योंकि ईसाई मस्तिष्क ने उसका आविष्कार किया था। विज्ञान किसी वर्ण या धर्म का नहीं है। और तंत्र विज्ञान है। इसलिए स्मरण रहे कि तंत्र हिंदू कतई नहीं है। ये विधियां हिंदुओं की ईजाद अवश्य हैंलेकिन वे स्वयं हिंदू नहीं हैं। इसलिए इन विधियों में किसी धार्मिक अनुष्ठान का उल्लेख नहीं रहेगा। किसी मंदिर की जरूरत नहीं है। तुम स्वयं मंदिर हो। तुम ही प्रयोगशाला होतुम्हारे भीतर ही पूरा प्रयोग होने वाला है। और विश्वास की भी जरूरत नहीं है।
तंत्र धर्म नहींविज्ञान हैकिसी विश्वास की जरूरत नहीं है। कुरान या वेद मेंबुद्ध या महावीर में आस्था रखने की आवश्यकता नहीं है। नहींकिसी विश्वास की आवश्यकता नहीं है। प्रयोग करने का महासाहस पर्याप्त हैप्रयोग करने की हिम्मत काफी है और यही इसका सौंदर्य है। एक मुसलमान प्रयोग कर सकता है और वह कुरान के गहरे अर्थों को उपलब्ध हो जाएगा। एक हिंदू अभ्यास कर सकता है और वह पहली दफा जानेगा कि वेद क्या है। वैसे ही एक जैन इस साधना में उतर सकता हैबौद्ध इस साधना में उतर सकता है। उन्हें अपने धर्म छोड़ने की जरूरत नहीं है। वे जहां हैं वहीं तंत्र उन्हें आप्तकाम करेगा। उनके अपने चुने हुए रास्ते जो भी होंतंत्र सहयोगी होगा।
इसलिए याद रहेतंत्र शुद्ध विज्ञान है। तुम हिंदू हो सकते होया मुसलमानया पारसीया कोई भी। तंत्र तुम्हारे धर्म को जरा भी नहीं छूता है। तंत्र का कहना है कि धर्म सामाजिक मामला है। किसी भी धर्म में रहोयह अप्रासंगिक है। लेकिन तुम अपने को रूपांतरित कर सकते हो। और उस रूपांतरण के लिए वैज्ञानिक प्रणाली जरूरी है'। जब तुम बीमार पड़ते हो या तुम्हें तपेदिक या कुछ हो गया हैतब तुम्हारा हिंदू या मुसलमान होना कोई फर्क नहीं करता है। तपेदिक को तुम्हारे हिंदू इस्लाम या किसी भी राजनीतिक या सामाजिक विश्वास के साथ लेना—देना नहीं है। तपेदिक का इलाज वैज्ञानिक ढंग से किया जाना होगा। कोई हिंदू तपेदिक या मुसलमान तपेदिक नहीं होता।
तुम अज्ञान में होद्वंद्व में होतुम सोए हो। यह एक रोग है—आध्यात्मिक रोग। और इस रोग का इलाज तंत्र के द्वारा होना है। तुम इसमें अप्रासंगिक होतुम्हारा विश्वास अप्रासंगिक है। यह आकस्मिक है कि तुम कहीं पैदा हुए हो और कोई दूसरा और कहीं पैदा हुआ है। यह सांयोगिक है। तुम्हारा धर्म भी सांयोगिक है। इसलिए उससे चिपके मत रहो। और अपने को रूपांतरित करने के लिए वैज्ञानिक प्रणाली का उपयोग करो।
तंत्र बहुत माना—जाना नहीं है। यदि माना—जाना भी है तो बहुत गलत समझा गया है। और उसके कारण हैं। जो विज्ञान जितना ही ऊंचा और शुद्ध होगाउतना ही कम जनसाधारण उसे जान—समझ सकेगा। हमने सापेक्षवाद के सिद्धांत का नाम सुना है। कहां जाता था कि आइंस्टीन के जीते—जी केवल बारह व्यक्ति उसे समझते थे। सारी जमीन पर सिर्फ बारह लोग उसे समझ सके। खुद अल्वर्ट आइंस्टीन के लिए उसे दूसरों को समझानाउसे समझने के योग्य बनाना कठिन था। क्योंकि वह सिद्धांत ही इतना ऊंचा था। मानो वह तुम्हारे सिर के ऊपर से चला जला था।
लेकिन उसे समझा जा सकता है। एक तकनीकी ज्ञान होगणित का ज्ञान होप्रशिक्षण होतो वह बिलकुल समझा जा सकता है। तंत्र उससे भी कठिन हैक्योंकि किसी प्रशिक्षण से काम नहीं चलेगा। केवल रूपांतरण मदद कर सकता है।
यही कारण है कि जनसाधारण के लिए तंत्र नहीं समझा गया। और सदा यह होता है कि जब तुम किसी चीज को नहीं समझते हो तो उसे गलत जरूर समझते होक्योंकि तब तुम्हें लगता है कि समझते जरूर हो। तुम रिक्त स्थान में बने रहने को राजी नहीं हो।
दूसरी बात कि जब तुम किसी चीज को नहीं समझते होतुम उसे गाली देने लगते हो। यह इसलिए कि यह तुम्हें अपमानजनक लगता है। तुम सोचते होमैं और नहीं समझूं यह असंभव है। इस चीज के साथ ही कुछ भूल होगी। और तब तुम गाली देने लगते हो। तब तुम ऊलजलूल बकने लगते हो। और कहते हो कि अब ठीक है।
इसलिए तंत्र को नहीं समझा गयाऔर तंत्र को गलत समझा गया। वह इतना गहरा और ऊंचा था कि यह होना स्वाभाविक था।
तीसरी बात कि चूंकि तंत्र द्वैत के पार जाता है इसलिए उसका दृष्टिकोण अति नैतिक है। कृपा कर इन शब्दों को समझो. नैतिकअनैतिकअति नैतिक। नैतिक क्याहम समझते हैंअनैतिक क्या हैवह भी हम समझते हैं। लेकिन जब कोई चीज अति नैतिक हो जाती हैनैतिक— अनैतिक दोनों के पार चली जाती हैतब उसे समझना कठिन हो जाता है।
तंत्र अति नैतिक है। इसे इस तरह देखो। औषधिदवा अति नैतिक हैवह न नैतिक है और न अनैतिक। चोर को दवा दो तो उसे लाभ पहुंचाएगी। संत को दोतो उसे भी लाभ पहुंचाएगी। वह चोर और संत में कोई भेद नहीं करेगी। दवा नहीं कह सकती कि यह चोर है इसलिए मैं उसे मारूंगी और वह साधुहै उसकी मदद करूंगी। दवा वैज्ञानिक है। तुम्हारा चोर या संत होना उसके लिए अप्रासंगिक हैं।
तंत्र अति नैतिक है। तंत्र कहता है : कोई नैतिकता जरूरी नहीं हैकोई खास नैतिकता जरूरी नहीं है। सच तो यह है कि तुम अनैतिक होक्योंकि तुम्हारा चित्त अशात है। इसलिए तंत्र शर्त नहीं लगाता कि पहले तुम नैतिक बनो तब तंत्र की साधना कर सकते हो। तंत्र के लिए यह बात ही बेतुकी है। कोई बीमार हैबुखार में है और डाक्टर आकर कहता है : पहले अपना बुखार कम करोपहले पूरा स्वस्थ हो लो और तभी मैं दवा दूंगा!
यही तो हो रहा है। एक चोर साधु के पास आता है और कहता है कि मैं चोर हूं मुझे ध्यान करना सिखाएं। साधु कहता है कि पहले चोरी छोड़ोचोर रहते ध्यान कैसे करोगे! एक शराबी आकर कहता हैमैं शराबी हूं मुझे ध्यान बताएं। और साधु कहता हैपहली शर्त कि शराब छोड़ो और तब ध्यान कर सकोगे।
ये शर्तें ही आत्मघातक हो जाती हैं। वह मनुष्य शराबी हैया चोर हैया अनैतिक हैक्योंकि उसका चित्त अशांत हैरुग्ण है। ये तो रुग्ण चित्त के प्रभाव हैंपरिणाम हैं। और उसे कहां जाता हैपहले अच्छे हो लो तब ध्यान करना। लेकिन तब ध्यान की जरूरत किसको हैध्यान औषधीय हैध्यान औषधि है।
तंत्र अति नैतिक है। वह नहीं पूछता कि तुम कौन हो। तुम्हारा मनुष्य होना काफी है। तुम जहां भी होजो भी होस्वीकृत हो।
जो विधि तुम्हें तुम्हारे अनुकूल पड़े उसे चुन लोउसमें अपनी पूरी शक्ति लगा दोऔर फिर तुम वही नहीं रहोगे जो थे। वास्तविकप्रामाणिक विधियां सदा वैसा ही करती हैं। और मैं पूर्व—शर्त खड़ी करता हूं तो वह बताता है कि विधि नकली है। अगर मैं कहूं कि पहले यह करोवह मत करो और तब ध्यानतो उसका अर्थ हुआ कि मैं असंभव शर्तें रख रहा हूं। क्योंकि चोर अपने विषय भर बदल सकता हैवह अचोर नहीं हो सकता। लोभी अपने लोभ के विषय बदल सकता हैवह अलोभी नहीं हो सकता। तुम उस पर या वह स्वयं अपने पर अलोभ को लाद सकता हैलेकिन वह भी लोभ के लिए ही करेगा। यदि स्वर्ग का वादा किया जाएतो वह अलोभी होने का यत्न कर सकता है। लेकिन यह तो सबसे बड़ा लोभ हो गयापरम लोभ हो गया। अब स्वर्गमोक्षसच्चिदानंद उसके लोभ के लक्ष्य होंगे।
तंत्र कहता हैतुम आदमी को बदलाहट की प्रामाणिक विधि के बिना नहीं बदल सकते। मात्र उपदेश से कुछ नहीं बदलता है। और पूरी जमीन पर यही हो रहा है। तंत्र जो कुछ कह रहा हैसारा संसार उसकी गवाही दे रहा है। इतने उपदेशइतनी नैतिक शिक्षाइतने पुरोहितइतने प्रचारक! पृथ्वी उनसे पटी है। और फिर भी सब कुछ इतना अनैतिक है! इतना कुरूप है! ऐसा क्यों हो रहा है?
अगर अस्पताल उपदेशकों के हवाले कर दिए जाएं तो वहां भी यही होगा। वे वहां जाकर उपदेश शुरू कर देंगे। वे हर बीमार आदमी को कहेंगे कि तुम अपराधी होतुमने ही यह बीमारी खड़ी की हैपहले तुम उसे हटाओ। यदि अस्पताल उपदेशकों के जिम्मे कर दिए जाएं तो उनका क्या हाल होगावही जो समूचे संसार का है।
उपदेशक उपदेश किए चले जाते हैं। वे लोगों से कहते हैं कि क्रोध मत करो और उसके लिए कोई उपाय नहीं बताते। और हमने यह उपदेश बहुत—बहुत समय से सुना हैलेकिन कभी नहीं पूछा : क्या कहते होमैं क्रोधी हूं और तुम कहते हो कि क्रोध मत करो। यह कैसे संभव हैजब मैं क्रोध में हूं तो उसका मतलब है कि मैं क्रोध ही हूं। और तुम सिर्फ कहते हो कि क्रोध मत करो। तो क्या मैं अपना दमन करूंलेकिन दमन से तो और क्रोध पैदा होगा। उससे अपराध— भाव पैदा होगा। क्योंकि यदि मैं अपने को बदलने की कोशिश करूं और न बदल पाऊं तो मेरे भीतर हीनता पैदा होगी। उससे मुझ में अपराध— भाव पैदा होगा कि मैं निकम्मा हूं र कि मैं अपने क्रोध को नहीं जीत सकता।
वैसे क्रोध को कोई नहीं जीत सकता है। उसके लिए किसी उपाय कीकिसी विधि की जरूरत है। क्यौंकि तुम्हारा क्रोध तुम्हारे अशात चित्त का लक्षण है। अशांत मन को बदलो और लक्षण बदल जाएगा। क्रोध इतना भर दिखा रहा है कि भीतर क्या है। भीतर को बदलो और बाहर बदल जाएगा।
इसलिए तंत्र तुम्हारी तथाकथित नैतिकता की फिक्र नहीं करता। सच तो यह है कि नैतिकता पर जोर देना क्षुद्र हैअपमानजनक है। वह अमानुषिक है। यदि कोई मेरे पास आता है और मैं उससे कहता हूं कि पहले क्रोध छोड़ोपहले काम छोड़ोपहले यह छोड़ो वह छोड़ो तो मैं अमानुषिक हूं। जो मैं कहता हूं वह असंभव है। और इस असंभावना के कारण ही वह आदमी भीतर से क्षुद्रता का अनुभव करेगा। वह दीन—हीन अनुभव करेगाअपनी ही आंखों में भीतर पतित मालूम पडेगा। यदि वह असंभव की चेष्टा करेगा तो हारेगा। और हार के कारण वह अपने को पापी मान बैठेगा।
उपदेशकों ने सारी दुनिया को समझा दिया है कि सब पापी हो। यह उनके लिए अच्छा है। जब तक तुम यह नहीं मानते कि तुम पापी होउनका धंधा नहीं चलेगा। तुम्हें पापी होना पड़ेगातभी गिरजेमंदिर और मस्जिद फूलते—फलते रहेंगे। तुम्हारा पाप में होना ही उनकी कमाई का मौसम है। तुम्हारा पाप ऊंचे से ऊंचे मंदिर—मस्जिद की नींव है। तुम जितने पापी होओगे उतना ही ऊंचा उनका शिखर उठेगा। वे तुम्हारे अपराध परपाप परतुम्हारे हीनता के भाव पर ही खड़े किए जाते हैं। और इस तरह उन्होंने एक दीन—हीन मनुष्यता का निर्माण किया है।
तंत्र तुम्हारी तथाकथित नैतिकता कीतुम्हारे सामाजिक रस्म—रिवाज आदि की चिंता नहीं करता है। इसका यह अर्थ नहीं कि तंत्र तुम्हें अनैतिक होने को कहता है। नहींतंत्र जब तुम्हारी नैतिकता की ही इतनी कम फिक्र करता है तो वह तुम्हें अनैतिक होने को नहीं कह सकता। तंत्र तो वैज्ञानिक विधि बताता है कि कैसे चित्त को बदला जाए। और एक बार चित्त दूसरा हुआ कि तुम्हारा चरित्र दूसरा हो जाएगा। एक बार तुम्हारे ढांचे का आधार बदला कि पूरी इमारत दूसरी हो जाएगी।
इसी अति नैतिक सुझाव के कारण तंत्र तुम्हारे तथाकथित साधु—महात्माओं को बर्दाश्त नहीं हुआ। वे सब उसके विरोध में खड़े हो गए। क्योंकि अगर तंत्र सफल होता है तो धर्म के नाम पर वाली सारी नासमझी समाप्त हो जाएगी।
यह देखो कि ईसाइयत वैज्ञानिक प्रगति के विरुद्ध जोर से लड़ती रही। क्योंकि उसने सोचा कि यदि भौतिक जगत में वैज्ञानिक प्रगति आई तो वह दिन दूर नहीं है जब विज्ञान मनोवैज्ञानिक और धार्मिक जगत में भी प्रवेश कर जाएगा। इसलिए ईसाइयत वैज्ञानिक प्रगति के खिलाफ जूझती रही। एक बार तुम जान गए कि विधियों के द्वारा तुम पदार्थ को बदल सकते हो तो किसी दिन तुम यह भी जान ही लोगे कि विधियों के द्वारा मन को भी बदल सकते हो। क्योंकि मन सूक्ष्म पदार्थ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
यही तंत्र की प्रस्तावना है कि मन सूक्ष्म पदार्थ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है और यह बदला जा सकता है। और मन बदला कि संसार बदल गयाक्योंकि तुम मन के द्वारा ही देखते हो। जो संसार तुम देखते हो उसे वैसा एक विशेष मन के कारण देखते हो। मन को बदलों और तब देखोगे कि एक भिन्न संसार ही तुम्हारे सामने होगा। और जब मन अ—मन हो जाए—वह तंत्र का आत्यंतिक लक्ष्य है कि एक ऐसी अवस्था आए जहां मन ही न रहे—तब संसार को बिना माध्यम के देखो। और जब माध्यम नहीं रहा तब तुम सत्य के बिलकुल आमने—सामने होते हो। क्योंकि अब तुम्हारे और सत्य के बीच में कोई भी न रहा। तब कुछ भी विरूपविकृत नहीं किया जा सकेगा।
तंत्र कहता है कि उस अवस्था का नाम भैरव है जब मन नहीं रहता है—अ—मन की अवस्था। और तब पहली दफा तुम यथार्थत: उसको देखते हो जो है। जब तक मन हैतुम अपना ही संसार रचे जाते होतुम उसे आरोपितप्रक्षेपित किए जाते हो। इसलिए पहले तो मन को बदलो और तब मन को अ—मन में बदली।
और ये एक सौ. बारह विधियां सभी लोगों के काम आ सकती हैं। हो सकता हैकोई विशेष उपाय तुमको ठीक न पड़े। इसलिए तो शिव अनेक उपाय बताए चले जाते हैं। कोई एक विधि चुन लो जो तुमको जंच जाए।
और यह जानना कठिन नहीं है कि कौन सी विधि तुम्हें जंचती है। हम यहां प्रत्येक विधि को समझने की कोशिश करेंगे और बताएंगे कि कैसे तुम अपने लिए वह विधि चुन लो जो कि तुम्हें और तुम्हारे मन को रूपांतरित कर दे। यह समझयह बौद्धिक समझ बुनियादी तौर से जरूरी हैलेकिन यह अंत नहीं है। जिस विधि की भी चर्चा मैं यहां करूं उसको प्रयोग करो। सच में यह है कि जब तुम अपनी सही विधि का प्रयोग करते हो तब झट से उसका तार तुम्हारे किसी तार से लगकर बज उठता है।
इसलिए मैं यहां रोज—रोज विधियों की चर्चा किए जाऊंगा। तुम प्रयोग करना। बस उनसे खेलना। घर जाना और प्रयोग करना। और प्रयोग करते —करते जब तुम अपनी विधि के पास पहुंचोगे तो वह तुम्हारे भीतर खट से बज उठेगीवह तुम्हें घेर लेगी। तुम्हारे भीतर कुछ विस्फोट सा होगा और तुम जानोगे कि यह विधि मेरे लिए है। लेकिन प्रयास जरूरी है। और तुम चकित रह जाओगे कि किसी दिन एक विधि ने तुम्हें बस आच्छादित कर लिया है।

 इसलिए इधर मैं उनकी चर्चा किए जाऊंगा और उधर साथ ही साथ तुम उनके साथ म् खेलते जाना। मैं खेलना शब्द का व्यवहार करता हूं क्योंकि तुम्हें बहुत गंभीर नहीं होना है। बस खेलना। और खेल—खेल में ही तुम्हें कुछ जंच जाएगा। जब जंच जाए तब गंभीर हो जानातब उसमें गहरे उतर जाना—तीव्रता सेनिष्ठा सेपूरी ऊर्जा के साथपूरे मन से। लेकिन उसके पहले बस खेलना।
मैंने देखा है कि जब तुम खेलते हो तब तुम्हारा मन अधिक खुला रहता है। गंभीर होने पर वह उतना खुला नहीं होताबंद होता है। इसलिए खेलना भर। गंभीर मत होनाखेलना। और ये विधियां बहुत सरल हैं। तुम उनके साथ खेल सकते हो।
एक विधि लो और उसके साथ तीन दिन खेलो। अगर तुम्हें उसके साथ निकटता की अनुभूति होअगर उसके साथ तुम थोड़ा स्वस्थ महसूस करोअगर तुम्हें लगे कि यह तुम्हारे लिए है तो फिर उसके प्रति गंभीर हो जाओ। तब दूसरी विधियों को भूल जाओउनसे खेलना बंद करो। और अपनी विधि के साथ टिकोकम से कम तीन महीने टिको। चमत्कार संभव है। बस इतना होना चाहिए कि वह विधि सचमुच तुम्हारे लिए हो। यदि तुम्हारे लिए नहीं है तो कुछ नहीं होगा। तब उसके साथ जन्मों—जन्मों तक प्रयोग करके भी कुछ नहीं होगा। और अगर विधि तुम्हारे लिए है तो तीन मिनट काफी हैं।
ये एक सौ बारह विधियां तुम्हारे लिए चमत्कारिक अनुभव बन सकती हैंया तुम उन्हें महज सुन सकते हो। यह तुम पर निर्भर हैमैं सभी संभव पहलुओं से प्रत्येक विधि की व्याख्या करूंगा। अगर तुम उसके साथ कुछ निकटता अनुभव करो तो तीन दिनों तक उससे खेलो और फिर छोड़ दो। अगर वह तुम्हें जंचेतुम्हारे भीतर कोई तार बजा दे तो फिर तीन महीने उसके साथ प्रयोग करो।
जीवन चमत्कार है। अगर हमने उसके रहस्य को नहीं जाना है तो उससे यही जाहिर होता है कि तुम्हें उसके पास पहुंचने की विधि नहीं मालूम है।
शिव यहां एक सौ बारह विधियां प्रस्तावित कर रहे हैं। इसमें सभी संभव विधियां सम्मिलित हैं। यदि इनमें से कोई भी तुम्हारे भीतर नहीं 'जंचतीहैकोई भी तुम्हें यह भाव नहीं देती है कि वह तुम्हारे लिए है तो फिर कोई भी विधि तुम्हारे लिए नहीं बची। इसे ध्यान में रखो। तब अध्यात्म को भूल जाओ और खुश रहो। वह तब तुम्हारे लिए नहीं है।
लेकिन ये एक सौ बारह विधियां तो समस्त मानव—जाति के लिए हैं। और वे उन सभी युगों के लिए हैं जो गुजर गए हैं और आने वाले हैं। और किसी भी युग में एक भी ऐसा आदमी नहीं हुआ और न होने वाला ही हैजो कह सके कि ये सभी एक सौ बारह विधियां मेरे लिए व्यर्थ हैं। असंभव! यह असंभव है!
प्रत्येक ढंग के चित्त के लिए यहां गुंजाइश है। तंत्र में प्रत्येक किस्म के चित्त के लिए विधि है। कई विधियां हैं जिनके उपयुक्त मनुष्य अभी उपलब्ध नहीं हैंवे भविष्य के लिए हैं। और ऐसी विधियां भी हैं जिनके उपयुक्त लोग रहे नहींवे अतीत के लिए हैं। लेकिन डर मत जाना। अनेक विधियां हैं जो तुम्हारे लिए ही हैं।
तो कल से हम इस यात्रा पर निकलेंगे।

आज इतना ही।

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