Friday, December 13, 2019

एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है:

एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है: अगर तुम्हें किसी भी कौम से कोई काम करवाना हो, तो उसे किसी काल्पनिक शत्रु के नाम से भयभीत कर दो, फिर वह कौम कुछ भी करने को राजी हो जाएगी। और यह उसने अपने अनुभव से लिखा है। उसने लिखा है कि अगर किसी कौम को युद्ध पर लड़वाना हो, तो एक झूठा शत्रु पैदा कर दो, जिससे वह भयभीत हो जाए। अगर सच्चा शत्रु मिल जाए तब तो ठीक, नहीं तो झूठा शत्रु खड़ा कर दो। कह दो इस्लाम खतरे में है। कह दो हिंदू धर्म खतरे में है। कह दो भारत खतरे में है कि पाकिस्तान खतरे में है। और बता दो कि खतरा कौन पैदा कर रहा है। दुश्मन खड़ा कर दो, चाहे वह झूठा ही हो। फिर तुम उस कौम को मरने और मारने के लिए राजी कर सकते हो। फिर उससे तुम कोई भी बेवकूफियां करवाने के लिए उसे राजी कर सकते हो। फिर अपनी खुद की आत्महत्या करने को उस कौम के लिए राजी किया जा सकता है।
आदमी भयभीत हो जाए, फिर उसे किसी भी तरह राजी किया जा सकता है। ये दुनिया के जो भी शोषक हैं, इस बात को बहुत भलीभांति जान गए। लेकिन वृहत्तर मानव-समाज, हम सब अब तक भी ठीक-ठीक परिचित नहीं हो पाए हैं कि हमारा शोषण किन आधारों पर हो रहा है।
भय और प्रलोभन के आधार हैं--दान करो, यज्ञ करो, हवन करो, तो स्वर्ग में स्थान मिल जाएगा। मध्य-युग में तो ईसाई, पोप टिकट बेचते रहे हैं आदमी के स्वर्ग जाने के लिए। टिकट खरीद लो और स्वर्ग में स्थान सुरक्षित हो जाएगा।
कैसी-कैसी बेवकूफियां आदमी के साथ की जाती रही हैं जिनका कोई हिसाब है? लेकिन इस टिकट खरीदने की बात पर हम हंसेंगे। और हम एक ब्राह्मण को गाय दान कर दें, ताकि वैतरणी गाय पार करा देगी, तो हम न हंसेंगे। वह हमारी बेवकूफी है। अपनी बेवकूफी पर कोई भी नहीं हंसता। दूसरों की बेवकूफी पर कोई भी हंसने लगता है। लेकिन समझदार आदमी वह है जो अपनी बेवकूफियों पर हंसना शुरू कर देगा।
यज्ञ करो या हवन करो, या जाओ और भगवान की मूर्ति के सामने भगवान की स्तुति करो, स्तुति क्या है सिवाय खुशामद के? क्या है सिवाय परमात्मा की प्रशंसा के? और क्या यह भूल भरी बात नहीं है कि हम यह सोचते हों कि भगवान की प्रशंसा करके हम उसे प्रसन्न कर लेंगे? क्या हमने भगवान को भी एक कमजोर आदमी की शक्ल में नहीं सोच लिया है? किसी आदमी के पास जाते हैं और कहते हैं, आप बहुत महान हो और उसकी छाती फूल जाती है और सिर ऊंचा हो जाता है।
शायद हम सोचते हैं, भगवान के सामने खड़े होते हैं कि तुम महान हो और पतित पावन हो, तो शायद वह भी गरूर से और अहंकार से भर जाता हो और खुश हो जाता हो। कैसे पागल हैं हम? या कि हम भगवान को जाकर कहें कि हम कुछ चढ़ा देंगे, कुछ त्याग कर देंगे, कैसी नासमझियां हैं? और इनके आधारों पर हम सोचते हैं कि हम धार्मिक हो जाएंगे? इस तरह हम धार्मिक नहीं हुए, लेकिन धर्म का शोषण करने वालों का एक व्यवसाय जरूर मोटा और तगड़ा हो गया। एक परंपरा जरूर खड़ी हो गई शोषकों की, जो हमारी कमजोरियों का शोषण कर रहे हैं और हमें समझा रहे हैं कि तुम ऐसा करो।
ओशो , अंतर की खोज, 04

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