Monday, December 30, 2019

अष्टावक्र महागीता भाग-1 मुक्ति की आकांक्षा

अष्टावक्र महागीता भाग-1 मुक्ति की आकांक्षा

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

...तुम मुझे जब सुनो तो ऐसे सुनो जैसे कोई किसी गायक को सुनता है। तुम मुझे ऐसे सुनो जैसे कोई किसी कवि को सुनता है। तुम मुझे ऐसे सुनो कि जैसे कोई कभी पक्षियों के गीतों को सुनता है, या पानी की मरमर को सुनता है, या वर्षा में गरजते मेघों को सुनता है। तुम मुझे ऐसे सुनो कि तुम उसमें अपना हिसाब मत रखो। तुम आनंद के लिए सुनो। तुम रस में डूबो। तुम यहां दुकानदार की तरह मत आओ। तुम यहां बैठे-बैठे भीतर गणित मत बिठाओ कि क्या इसमें से चुन लें और क्या करें, क्या न करें। तुम मुझे सिर्फ आनंद-भाव से सुनो।

स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा ! स्वान्तः सुखाय... सुख के लिए सुनो। उस सुख में सुनते-सुनते जो चीज तुम्हें गदगद कर जाए, उसमें फिर थोड़ी और डुबकी लगाओ। मेरा गीत सुना, उसमें जो कड़ी तुम्हें भा जाए, फिर तुम उसे गुनगुनाओ; उसे तुम्हारा मंत्र बन जाने दो। धीरे-धीरे तुम पाओगे कि जीवन में बहुत कुछ बिना बड़ा आयोजन किए घटने लगा।

अनुक्रम


१.सत्य का शुद्धतम वक्तव्य
२.समाधि का सूत्र : विश्राम
३.जैसी मति वैसी गति
४.कर्म, विचार, भाव–और साक्षी
५.साधना नहीं–निष्ठा; श्रद्धा
६.जागो और भोगो
७.जागरण महामंत्र है
८.नियंता नहीं–साक्षी बनो
९.मेरा मुझको नमस्कार
१॰.हरि ऊँ तत्सत्

प्रवचन : १

सत्य का शुद्धतम वक्तव्य

जनक उवाच।

कथं ज्ञानमवाप्नोति कथं मुक्तिर्भविष्यति।
वैराग्यं च कथं प्राप्तमेतद् ब्रूहि मम प्रभो।।1।।

अष्टावक्र उवाच।

मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत्त्यज।
क्षमार्जवदयातोषसत्यं पीयूषवद् भज।।2।।
न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न वायुद्यौर्न वा भवान्।
एषां साक्षिणमात्मानं चिद्रूपं विद्दि मुक्तये।।3।।
यदि देहं पृथक्कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि।
अधुनैव सुखी शांतः बंधमुक्तो भविष्यसि।।4।।
न त्वं विप्रादिको वर्णो नाश्रमी नाक्षगोचरः।
असंगोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव।।5।।
धर्माऽधर्मौ सुखं दुःखं मानसानि न तो विभो।
न कर्ताऽसि न भोक्ताऽसि मुक्त एवासि सर्वदा।।6।।

एक अनूठी यात्रा पर हम निकलते हैं। मनुष्य-जाति के पास बहुत शास्त्र हैं, पर अष्टावक्र-गीता जैसा शास्त्र नहीं। वेद फीके हैं। उपनिषद बहुत धीमी आवाज में बोलते हैं। गीता में भी ऐसा गौरव नहीं; जैसा अष्टावक्र की संहिता में है। कुछ बात ही अनूठी है !
सबसे बड़ी बात तो यह कि न समाज, न राजनीति, न जीवन की किसी और व्यवस्था का कोई प्रभाव अष्टावक्र के वचनों पर है। इतना शुद्ध भावातीत वक्तव्य, समय और काल से अतीत, दूसरा नहीं है। शायद इसीलिए अष्टावक्र की गीता, अष्टावक्र की संहिता का बहुत प्रभाव नहीं पड़ा।

कृष्ण की गीता का बहुत प्रभाव पड़ा। पहला कारण : कृष्ण की गीता समन्वय है। सत्य की उतनी चिंता नहीं है जितनी समन्वय की चिंता है। समन्वय का आग्रह इतना गहरा है कि अगर सत्य थोड़ा खो भी जाए तो कृष्ण राजी हैं।
कृष्ण की गीता खिचड़ी जैसी है; इसलिए सभी को भाती है, क्योंकि सभी का कुछ न कुछ उसमें मौजूद है। ऐसा कोई संप्रदाय खोजना मुश्किल है जो गीता में अपनी वाणी न खोज ले। ऐसा कोई व्यक्ति खोजना मुश्किल है जो गीता में अपने लिए कोई सहारा न खोज ले। इन सबके लिए अष्टावक्र की गीता बड़ी कठिन होगी।

अष्टावक्र समन्वयवादी नहीं है–सत्यवादी हैं। सत्य जैसा है वैसा कहा है–बिना किसी लाग-लपेट के। सुनने वाले की चिंता नहीं है। सुनने वाला समझेगा, नहीं समझेगा, इसकी भी चिंता नहीं है। सत्य का ऐसा शुद्घतम वक्तव्य न पहले कहीं हुआ, न फिर बाद में कभी हो सका।
कृष्ण की गीता लोगों को प्रिय है, क्योंकि अपना अर्थ निकाल लेना बहुत सुगम है। कृष्ण की गीता काव्यात्मक है : दो और दो पांच भी हो सकते हैं, दो और दो तीन भी हो सकते हैं। अष्टावक्र के साथ कोई खेल संभव नहीं। वहां दो और दो चार ही होते हैं।

अष्टावक्र का वक्तव्य शुद्ध गणित का वक्तव्य है। वहाँ काव्य को जरा भी जगह नहीं है। वहाँ कविता के लिए जरा सी भी छूट नहीं है। जैसा है वैसा कहा है। किसी तरह का समझौता नहीं है।
कृष्ण की गीता पढ़ो तो भक्त अपना अर्थ निकाल लेता है, क्योंकि कृष्ण ने भक्ति की भी बात की है, कर्मयोगी अपना अर्थ निकाल लेता है, क्योंकि कृष्ण ने कर्मयोग की भी बात की है; ज्ञानी अपना अर्थ निकाल लेता है, क्योंकि कृष्ण ने ज्ञान की भी बात की है, कृष्ण कहीं भक्ति को सर्वश्रेष्ठ कहते हैं, कहीं ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ कहते हैं, कहीं कर्म को सर्वश्रेष्ठ कहते हैं।

कृष्ण का वक्तव्य बहुत राजनैतिक है। वे राजनेता थे–कुशल राजनेता थे ! सिर्फ राजनेता थे, इतना ही कहना उचित नहीं–कुटिल राजनीतिज्ञ थे, डिप्लोमैट थे। उनके वक्तव्य में बहुत सी बातों का ध्यान रखा गया है। इसलिए सभी को गीता भा जाती है। इसलिए तो गीता पर हजारों टीकाएं हैं; अष्टावक्र पर कोई चिंता नहीं करता। क्योंकि अष्टावक्र के साथ राजी होना हो तो तुम्हें अपने को छोड़ना पड़ेगा। बेशर्त ! तुम अपने को न ले जा सकोगे। तुम पीछे रहोगे तो ही जा सकोगे। कृष्ण के साथ तुम अपने को ले जा सकते हो। कृष्ण के साथ तुम्हें बदलने की कोई भी जरूरत नहीं है। कृष्ण के साथ तुम मौजूं पड़ सकते हो।

इसलिए सभी सांप्रदायिकों ने कृष्ण की गीता पर टीकाएं लिखीं–शंकर ने, रामानुज ने, निम्बार्क ने, बल्लभ ने, सबने अपने अर्थ निकाल लिए। कृष्ण ने कुछ ऐसी बात कही है जो बहु-अर्थी है। इसलिए मैं कहता हूँ, काव्यात्मक है। कविता में से मनचाहे अर्थ निकल सकते हैं।
कृष्ण का वक्तव्य ऐसा है जैसे वर्षा में बादल घिरते हैं : जो चाहो देख लो। कोई देखता है हाथी की सूंड़; कोई चाहे गणेश जी को देख ले। किसी को कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता–वह कहता है, कहां की फिजूल बातें कर रहे हो ? बादल हैं ! धुआं–इसमें कैसी आकृतियां देख रहे हो ?

पश्चिम में वैज्ञानिक मन के परीक्षण के लिए स्याही के धब्बे ब्लाटिंग पेपर पर डाल देते हैं और व्यक्ति को कहते हैं, देखो, इसमें क्या दिखाई पड़ता है ? व्यक्ति गौर से देखता है। उसे कुछ न कुछ दिखाई पड़ता है। वहां कुछ भी नहीं है सिर्फ ब्लाटिंग पेपर पर स्याही के धब्बे हैं–बेतरतीब फेंके गए, सोच-विचार कर भी फेंके नहीं गए हैं, ऐसे ही बोतल उंडेल दी है। लेकिन देखने वाला कुछ न कुछ खोज लेता है। जो देखने वाला खोजता है वह उसके मन में है; वह आरोपित कर लेता है।
तुमने भी देखा होगा : दीवाल पर वर्षा का पानी पड़ता है लकीरें खिंच जाती हैं। कभी आदमी की शक्ल दिखाई पड़ती है, कभी घोड़े की शक्ल दिखाई पड़ती है। तुम जो देखना चाहते हो, आरोपित कर लेते हो।

रात के अंधेरे में कपड़ा टंगा है–भूत-प्रेत दिखाई पड़ जाते हैं।
कृष्ण की गीता ऐसी ही है–जो तुम्हारे मन में है, दिखाई पड़ जाएगा। तो शंकर ज्ञान देख लेते हैं, रामानुज भक्ति देख लेते हैं, तिलक कर्म देख लेते हैं–और सब अपने घर प्रसन्नचित्त लौट आते हैं कि ठीक, कृष्ण वही कहते हैं जो हमारी मान्यता है।
इमर्सन ने लिखा है कि एक बार एक पड़ोसी प्लेटो की किताबें उनसे मांग कर ले गया। अब प्लेटो दो हजार साल पहले हुआ–और दुनिया के थोड़े से अनूठे विचारकों में से एक। कुछ दिनों बाद इमर्सन ने कहा, किताबें पढ़ ली हों तो वापस कर दें। वह पड़ोसी लौटा गया। इमर्सन ने पूछा, कैसी लगीं ? उस आदमी ने कहा ठीक। इस आदमी, प्लेटो के विचार मुझसे मिलते-जुलते हैं। कई दफे तो मुझे ऐसा लगा कि इस आदमी को मेरे विचारों का पता कैसे चल गया ! प्लेटो दो हजार साल पहले हुआ है; इसको शक हो रहा है कि इसने कहीं मेरे विचार तो नहीं चुरा लिए !

कृष्ण में ऐसा शक बहुत बार होता है। इसलिए कृष्ण पर, सदियां बीत गई, टीकाएं चलती जाती हैं। हर सदी अपना अर्थ खोज लेती है; हर व्यक्ति अपना अर्थ खोज लेता है। कृष्ण की गीता स्याही के धब्बों जैसी है। एक कुशल राजनीतिज्ञ का वक्तव्य है।
अष्टावक्र की गीता में तुम कोई अर्थ न खोज पाओगे। तुम अपने को छोड़ कर चलोगे तो ही अष्टावक्र की गीता स्पष्ट होगी।
अष्टावक्र का सुस्पष्ट संदेश है। उसमें जरा भी तुम अपनी व्याख्या न डाल सकोगे। इसलिए लोगों ने टीकाएं नहीं लिखीं। टीका लिखने की जगह नहीं है; तोड़ने-मरोड़ने का उपाय नहीं है; तुम्हारे मन के लिए सुविधा नहीं है कि तुम कुछ डाल दो। अष्टावक्र ने इस तरह से वक्तव्य दिया है कि सदियां बीत गईं, उस वक्तव्य में कोई कुछ जोड़ नहीं पाया, घटा नहीं पाया। बहुत कठिन है ऐसा वक्तव्य देना। शब्द के साथ ऐसी कुशलता बड़ी कठिन है।

इसलिए मैं कहता हूँ, एक अनूठी यात्रा तुम शुरू कर रहे हो।
अष्टावक्र में राजनीतिज्ञों की कोई उत्सुकता नहीं है–न तिलक की, न अरविंद की, न गांधी की, न विनोबा की, किसी की कोई उत्सुकता नहीं है। क्योंकि तुम अपना खेल न खेल पाओगे। तिलक को उकसाना है देश-भक्ति, उठाना है कर्म का ज्वार–कृष्ण की गीता सहयोगी बन जाती है।

कृष्ण हर किसी को कंधा देने को तैयार हैं। कोई भी चला लो गोली उनके कंधे पर रख कर, वे राजी हैं। कंधा उनका, पीछे छिपने की तुम्हें सुविधा है, और उनके पीछे से गोली चलाओ तो गोली भी बहुमूल्य मालूम पड़ती है।
अष्टावक्र किसी को कंधे पर हाथ भी नहीं रखने देते। इसलिए गांधी की कोई उत्सुकता नहीं है; तिलक की कोई उत्सुकता नहीं है; अरविंद विनोबा को कुछ लेना-देना नहीं है। क्योंकि तुम कुछ थोप न सकोगे। राजनीति की सुविधा नहीं है। अष्टावक्र राजनीतिक पुरुष नहीं हैं।

यह पहली बात खयाल में रख लेनी जरूरी है। ऐसा सुस्पष्ट, खुले आकाश जैसा वक्तव्य, जिसमें बादल हैं ही नहीं, तुम कोई आकृति देख न पाओगे। आकृति छोड़ोगे सब, बनोगे निराकर, अरूप के साथ जोड़ोगे संबंध तो अष्टावक्र समझ में आएंगे। अष्टावक्र को समझना चाहो तो ध्यान की गहराई में उतरना होगा, कोई व्याख्या से काम होने वाला नहीं है।
और ध्यान के लिए भी अष्टावक्र नहीं कहते कि तुम बैठ कर राम-राम जपो। अष्टावक्र कहते हैं : तुम कुछ भी करो, वह ध्यान न होगा। कर्ता जहां है वहां ध्यान कैसा ? जब तक करना है तब तक भ्रांति है। जब तक करने वाला मौजूद है तब तक अहंकार मौजूद है।

अष्टावक्र कहते हैं : साक्षी हो जाना है ध्यान–जहां कर्ता छूट जाता है, तुम सिर्फ देखने वाले रह जाते हो, द्रष्टा-मात्र ! द्रष्टा-मात्र हो जाने में ही दर्शन है। द्रष्टा-मात्र हो जाने में ही ध्यान है। द्रष्टा-मात्र हो जाने में ही ज्ञान है।
इसके पहले कि हम सूत्र में उतरें, अष्टावक्र के संबंध में कुछ बातें समझ लेनी जरूरी हैं। ज्यादा पता नहीं है, क्योंकि न तो वे सामाजिक पुरुष थे, न राजनीतिक, तो इतिहास में कोई उल्लेख नहीं है। बस थोड़ी सी घटनाएं ज्ञात हैं–वे भी बड़ी अजीब, भरोसा करने योग्य नहीं; लेकिन समझोगे तो बड़े गहरे अर्थ खुलेंगे।

पहली घटना–अष्टावक्र पैदा हुए उसके पहले की; पीछे का तो कुछ पता नहीं है–गर्भ की घटना। पिता–बड़े पंडित। अष्टावक्र–मां के गर्भ में। पिता रोज वेद का पाठ करते हैं और अष्टावक्र गर्भ में सुनते हैं। एक दिन अचानक गर्भ से आवाज आती है रुको भी। यह सब बकवास है। ज्ञान इसमें कुछ भी नहीं–बस शब्दों का संग्रह है। शास्त्र में ज्ञान कहां ? ज्ञान स्वयं में है। शब्द में सत्य कहां ? सत्य स्वयं में है।

पिता स्वभावतः नाराज हुए। एक तो पिता, फिर पंडित ! और गर्भ में छिपा हुआ बेटा इस तरह की बात कहे ! अभी पैदा भी नहीं हुआ ! क्रोध में आ गए, आगबबूला हो गए। पिता का अहंकार चोट खा गया। फिर पंडित का अहंकार ! बड़े पंडित थे, बड़े विवादी थे, शास्त्रार्थी थे। क्रोध में अभिशाप दे दिया कि जब पैदा होगा तो आठ अंगों से टेढ़ा होगा। इसलिए नाम–अष्टावक्र। आठ जगह से कबड़े पैदा हुए। आठ जगह से ऊँट की भांति इरछे-तिरछे ! पिता ने क्रोध में शरीर को विक्षत कर दिया।

ऐसी और भी कथाएं है।
कहते हैं, बुद्ध जब पैदा हुए तो खड़े-खड़े पैदा हुए। मां खड़ी थी वृक्ष के तले। खड़े-खड़े... मां खड़ी थी... खड़े-खड़े पैदा हुए। जमीन पर गिरे नहीं कि चले, सात कदम चले। आठवें कदम पर रुक कर चार आर्य-सत्यों की घोषणा की, कि जीवन दुख है–अभी सात कदम ही चले हैं पृथ्वी पर–कि जीवन दुख है; कि दुख से मुक्त होने की संभावना है; कि दुख-मुक्ति का उपाय है कि दुख-मुक्ति की अवस्था है, निर्वाण की अवस्था है।

अष्टावक्र की गीता

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अष्टावक्र की गीता को मैंने यूं ही नहीं चुना है। और जल्दी नहीं चुना है; बहुत देर करके चुना है–सोच-विचार के। दिन थे जब मैं कृष्ण की गीता पर बोला, क्योंकि भीड़-भाड़ मेरे पास थी। भीड़-भाड़ के लिए अष्टावक्र गीता का कोई अर्थ न था।
बड़ी चेष्टा करके भीड़-भाड़ से छुटकारा पाया है। अब तो थोड़े-से विवेकानंद यहां है। अब तो उनसे बात करनी है, जिनकी बड़ी संभावना है।
उन थोड़े-से लोगों के साथ मेहनत करनी है, जिनके साथ मेहनत का परिणाम हो सकता है। अब हीरे तराशने हैं, कंकड़-पत्थरों पर यह छैनी खराब नहीं करनी। इसलिए चुनी है अष्टावक्र की गीता। तुम तैयार हुए हो, इसलिए चुनी है।

अनुक्रम


११.दुख का मूल द्वैत है
१२.प्रभु प्रसाद–परिपूर्ण प्रयत्न से
१३.जब जागो तभी सवेरा
१४.उद्देश्य–उसे जो भावे
१५.जीवन की एकमात्र दीनता : वासना
१६.धर्म है जीवन का गौरीशंकर
१७.परीक्षा के गहन सोपान
१८.विस्मय है द्वार प्रभु का
१९.संन्यास का अनुशासन : सहजता
२॰.क्रांति : निजी और वैयक्तिक


प्रवचन : ११

दुख का मूल द्वैत है

जनक उवाच।

ज्ञानं ज्ञेयं तथा ज्ञाता त्रितयं नास्ति वास्तवम्।
अज्ञानाद्भाति यत्रेदं सोऽहमस्मि निरंजनः।।35।।
द्वैतमूलमहो दुःखं नान्यत्तस्यास्ति भेषजम्।
दृश्यमेतन्मृषा सर्वमेकोऽहं चिद्रसोऽमलः।।36।।
बोधमात्रोऽहमज्ञानादुपाधिः कल्पितो मया।
एवं विमृश्यतो नित्य निर्विकल्पे स्थितिर्मम।।37।।
न मे बंधोऽस्ति मोक्षो वा भ्रांतिः शांता निराश्रया।
अहो मयि स्थितं विश्वं वस्तुतो न मयि स्थितम्।।38।।
सशरीरमिदं विश्वं न किंचिदिति निश्चितम्।
शुद्ध चिन्मात्र आत्मा च तत्कस्मिन् कल्पनाधुना।।39।।
शरीरं स्वर्गनरकौ बंधमोक्षौ भयं तथा।
कल्पनामात्रमेवैतत किं मे कार्यं चिदात्मनः।।40।।

जनक ने कहा : ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता, ये तीनों यथार्थ नहीं हैं। जिसमें ये तीनों भासते हैं, मैं वही निरंजन हूं।

‘ज्ञानं ज्ञेयं तथा ज्ञाता त्रितयं नास्ति वास्तवम्।’

जो भी दिखाई पड़ रहा है, जिसे दिखाई पड़ रहा है, और इन दोनों के बीच जो संबंध है–ज्ञान का या दर्शन का–जनक कहते हैं, आज मैं जागा, और मैंने देखा, यह सब स्वप्न है। जो जागा है और जिसने इन तीनों को देखा, स्वप्न की भांति तिरोहित होते, वही केवल सत्य है।

तो तुम साक्षी को द्रष्टा मत समझ लेना। भाषाकोश में तो साक्षी का अर्थ द्रष्टा ही लिखा है; लेकिन साक्षी द्रष्टा से भी गहरा है। द्रष्टा में साक्षी की पहली झलक मिलती है। साक्षी में द्रष्टा का पूरा भाव, पूरा फूल खिलता है। द्रष्टा तो अभी भी बंटा है। द्रष्टा है तो दृश्य भी होगा। और दृश्य और द्रष्टा हैं, तो दोनों के बीच का संबंध, दर्शन, ज्ञान भी होगा। तो अभी तो खंड हैं।
जहां-जहां खंड हैं, वहां-वहां स्वप्न हैं; क्योंकि अस्तित्व अखंड है। जहां-जहां हम बांट लेते हैं, सीमाएं बनाते हैं, वे सारी सीमाएं व्यावहारिक हैं, पारमार्थिक नहीं।

अपने पड़ोसी के मकान से अलग करने को तुम एक रेखा खींच लेते, एक दीवाल खड़ी कर देते, बागुड़ लगा देते, लेकिन पृथ्वी बंटती नहीं। हिंदुस्तान पाकिस्तान को अलग करने के लिए तुम नक्शे पर सीमा खींच देते; लेकिन सीमा नक्शे पर ही होती है, पृथ्वी अखंड है।
तुम्हारे आंगन का आकाश और तुम्हारे पड़ोसी के आंगन का आकाश अलग-अलग नहीं है। तुम्हारे आंगन को बांटने वाली दीवाल आकाश को नहीं बांटती। जहां-जहां हमने बांटा है, वहां जरूरत है, इसलिए बांटा है। उपयोगिता है बांटने की, सत्य नहीं है बांटने में। सत्य तो अनबंटा है।

और जो गहरे से गहरा विभाजन है हमारे भीतर, वह है देखने वाले का, दिखाई पड़ने वाले का। जिस दिन यह विभाजन भी गिर जाता है, तो आखिरी राजनीति गिरी, आखिरी नक्शे गिरे, आखिरी सीमाएँ गिरीं। तब जो शेष रह जाता है अखंड उसे क्या कहें ? वह द्रष्टा नहीं कहा जा सकता अब, क्योंकि दृश्य तो खो गया। दृश्य के बिना द्रष्टा कैसा ? इस द्रष्टा को जो हो रहा है, वह दर्शन नहीं कहा जा सकता, क्योंकि दर्शन तो बिना दृश्य के न हो सकेगा। तो द्रष्टा, दर्शन और दृश्य तो एक साथ ही बंधे हैं; तीनों होंगे तो साथ होंगे, तीनों जाएंगे तो साथ जाएंगे।
तुमने देखा ! कोई भी स्वप्न जाता है तो पूरा, होता है तो पूरा। तुम ऐसा नहीं कर सकते कि स्वप्न में से थोड़ा सा हिस्सा बचा लूं, या कि कर सकते हो ?

रात तुमने एक स्वप्न देखा कि तुम सम्राट हो गए, बड़ा सिंहासन है, राजमहल है, बड़ा फौज-फांटा है। सुबह जाग कर क्या तुम ऐसा कर सकते हो कि सपने में से कुछ बचा लो। तुम कहो, जाए सब, यह सिंहासन बचा लूं; जाए सब, कम से कम पत्नी तो बचा लूँ; जाए सब, कम से कम अपना मुकुट तो बचा लूं। नहीं, या तो सपना पूरा रहता या पूरा जाता। अगर तुम जागे, तो यह संभव नहीं है कि तुम सपने का खंड बचा लो।
दृष्टा, दृश्य, दर्शन, एक ही स्वप्न के तीन अंग हैं। जब पूरा स्वप्न गिरता है और जागरण होता है, तो जो शेष रह जाता है, उसे तो तुमने स्वप्न में जाना ही नहीं था, वह तो स्वप्न में सम्मिलित ही नहीं हुआ था; वह तो स्वप्न से पार ही था, सदा पार था। वह अतीत था। वह स्वप्न का अतिक्रमण किए था। स्वप्न में जिसे तुमने जाना था, वह सब खो जाएगा–समग्ररूपेण सब खो जाएगा !

इसलिए तुमने परमात्मा की जो भी धारणा बना रखी है, जब तुम्हें परमात्मा का अनुभव होगा, तो तुम चकित होओगे, तुम्हारी कोई धारणा काम न आएगी; तुम्हारी सब धारणाएँ खो जाएंगी। जो तुम जानोगे, उसे स्वप्न में सोए-सोए जानने का कोई उपाय नहीं; धारणा बनाने का भी कोई उपाय नहीं।
इसलिए तो कहते हैं, परमात्मा की तरफ जिसे जाना हो उसे सब धारणाएं छोड़ देनी चाहिए। उसे सब सिद्धांत कचरे-घर में डाल देना चाहिए। उसे शब्दों को नमस्कार कर लेना चाहिए; विदा दे देनी चाहिए कि तुमने खूब काम किया संसार में, उपयोगी थे तुम, लेकिन पारमार्थिक नहीं हो।

इसे भी समझ लें सूत्र के भीतर प्रवेश करने के पहले।
व्यावहारिक सत्य पारमार्थिक सत्य नहीं है। व्यावहारिक सत्य की उपयोगिता है, वास्तविकता नहीं। पारमार्थिक सत्य की कोई उपयोगिता नहीं है, सिर्फ वास्तविकता है।
अगर तुम पूछो कि परमात्मा का उपयोग क्या है, तो कठिनाई हो जाएगी। क्या उपयोग हो सकता है परमात्मा का ? क्या करोगे परमात्मा से ? न तो पेट भरेगा, न प्यास बुझेगी। करोगे क्या परमात्मा का ? कौन से लोभ की तृप्ति होगी ? कौन सी वासना भरेगी ? कौन सी तृष्णा पूरी होगी ? परमात्मा का कोई उपयोग नहीं। परमात्मा के कारण तुम महत्वपूर्ण न हो जाओगे। परमात्मा के कारण तुम शक्तिशाली न हो जाओगे। परमात्मा के कारण इस संसार में तुम्हारी प्रतिष्ठा न बढ़ जाएगी। परमात्मा का कोई भी तो उपयोग नहीं है। इसलिए तो जो लोग उपयोग के दीवाने हैं, वे परमात्मा की तरफ नहीं जाते। परमात्मा का आनंद है, उपयोग बिलकुल नहीं।

मेरे पास लोग आते हैं, वे पूछते हैं : ध्यान करेंगे तो लाभ क्या होगा ?’ लाभ ! तुम बात ही अजीब सी कर रहे हो। तो तुम समझे ही नहीं कि ध्यान तो वही करता है जिसने लाभ-लोभ छोड़ा; जिसके मन में अब लाभ व्यर्थ हुआ, जिसने बहुत लाभ करके देख लिए और पाया कि लाभ कुछ भी नहीं होता। धन मिल जाता है, निर्धनता नहीं कटती। पद मिल जाता है, दीनता नहीं मिटती। सम्मान-सत्कार मिल जाता है, भीतर सब खाली का खाली रह जाता है। नाम जगत भर में फैल जाता है, भीतर सिर्फ दुर्गंध उठती है, कोई सुगंध नहीं उठती है, कोई फूल नहीं खिलते। भीतर कांटे ही कांटे, पीड़ा और चुभन, संताप और असंतोष, चिंता ही चिंता घनी होती चली जाती है। भीतर तो चिता सज रही है, बाहर महल खड़े हो जाते हैं। बाहर जीवन का फैलाव बढ़ता जाता है, भीतर मौत रोज करीब आती चली जाती है।

जिसको यह दिखाई पड़ा कि लाभ में कुछ लाभ नहीं, वही ध्यान करता है। लेकिन कुछ लोग हैं, जो सोचते हैं शायद ध्यान में भी लाभ हो, तो चलो ध्यान करें। वे पूछते हैं : ध्यान से लाभ क्या ? इससे क्या फायदा होगा ? सुख-समृद्धि आएगी ? पद-प्रतिष्ठा मिलेगी ? धन-वैभव मिलेगा ? हार जीत में परिणत हो जाएगी ? यह जीवन का विषाद, यह जीवन की पराजय, यह जीवन में जो खाली-खालीपन है–यह बदलेगा ? हम भरे-भरे हो जाएंगे ?
वे प्रश्न ही गलत पूछते हैं। अभी उनका संसार चुका नहीं। वे जरा जल्दी आ गए। अभी फल पका नहीं। अभी मौसम नहीं आया। अभी उनके दिन नहीं आए।

ध्यान तो वही करता है, या ध्यान की तरफ वही चल सकता है, जिसे एक बात दिखाई पड़ गई कि इस संसार में मिलता तो बहुत कुछ और मिलता कुछ भी नहीं। सब मिल जाता है और सब खाली रह जाता है। जिसे यह विरोधाभास दिखाई पड़ गया फिर वह यह न पूछेगा कि ध्यान में लाभ क्या है ? क्योंकि लाभ होता है व्यावहारिक बातों में। ध्यान पारमार्थिक है।
आनंद है ध्यान में, लाभ बिलकुल नहीं। तुम ध्यान को तिजोड़ी में न रख सकोगे। ध्यान से बैंक-बैलेंस न बना सकोगे। ध्यान से सुरक्षा, सिक्योरिटी न बनेगी।

ध्यान तो तुम्हें छोड़ देगा अज्ञात में। ध्यान में तो तुम्हारी जो सुरक्षा थी वह भी चली जाएगी। ध्यान तो तुम्हें छोड़ देगा अपरिचित लोक में। उस अभियान पर भेज देगा, जहां तुम धीरे-धीरे गलोगे, पिघलोगे, बह जाओगे। ध्यान से लाभ कैसे होगा ? ध्यान से तो हानि होगी–और हानि यह कि तुम न बचोगे। ध्यान तो मृत्यु है। लेकिन तब, जब तुम मर जाते हो–शरीर से ही नहीं शरीर से तो तुम बहुत बार मरे हो; उस मरने से कोई मरता नहीं; वह मरना तो वस्त्र बदलने जैसा है। पुराने वस्त्रों की जगह नये वस्त्र मिल जाते हैं, बूढ़ा बच्चा होकर आ जाता है। उस मरने से कोई कभी मरा नहीं। मरे तो हैं कुछ थोड़े से लोग–कोई अष्टावक्र, कोई बुद्ध, कोई महावीर–वे मरे। उनकी मृत्यु पूरी है; फिर वे वापस नहीं लौटते।
ध्यान मृत्यु है। ध्यान में तुम तो मरोगे, तुम तो मिटोगे, तुम्हारी तो छाया भी न रह जाएगी। तुम्हारी तो छाया भी अपवित्र करती है। तुम तो रंचमात्र न बचोगे, तुम ही न बचोगे, तुम्हारे लाभ का कहां सवाल ?

तुम स्वयं एक व्यावहारिक सत्य हो। तुम सिर्फ एक मान्यता हो, तुम हो नहीं।
तुम सिर्फ एक धारणा हो, तुम्हारा कोई अस्तित्व नहीं है। तुम्हारी धारणा तो बिखर जाएगी। सब धारणाएं बिखर जाएंगी तुम्हारे बिखरते ही। क्योंकि जब मालिक ही न रहा, तो जो सब साज-सामान इकट्ठा कर लिया था, वह सब बिखर जाएगा। जब संगीतज्ञ ही न रहा, तो वीणा क्या बजेगी ? कहते हैं : ‘न रहा बांस न बजेगी बांसुरी।’ तुम ही गए तो बांस ही गया, अब बांसुरी का कोई उपाय न रहा। तब जो शेष रह जाएगा, वही समाधि है–वह है पारमार्थिक !

पारमार्थिक का अर्थ है : जो है ! परम आनंदमय ! परम विभामय ! बरसेगा आशीष, अमृत का अनुभव होगा; लेकिन लाभ ! कुछ भी नहीं। व्यावहारिक अर्थो में कोई लाभ नहीं। उससे तुम किसी तरह की संपदा निर्मित न कर पाओगे।
वही व्यक्ति ध्यान की तरफ आना शुरू होता है, जिसे संसार स्वप्नवत हो गया; जो इस संसार में से अब कुछ भी नहीं बचाना चाहता; जो कहता है यह पूरा सपना है, जाए पूरा; अब तो मैं उसे जानना चाहता हूं जो सपना नहीं है।
ये सूत्र उसी खोजी के लिए हैं।

जनक ने कहा : ‘ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता, ये तीनों यथार्थ नहीं हैं। जिसमें ये तीनों भासते हैं, मैं वही निरंजन हूँ।’
जिसके ऊपर यह सपना चलता संसार का...। रात तुम सोते हो, तुम सपना देखते हो। सपना सत्य नहीं है, लेकिन जिसके ऊपर सपने की तरंगे चलती हैं, वह तो निश्चित सच है। सपना जब खो जाएगा तब भी सुबह तुम तो रहोगे। तुम कहोगे, रात सपना देखा, बड़ा झूठा सपना था। एक बात तय है, जो देखा, वह तो झूठ था, लेकिन जिसके ऊपर बहा, उसे तो झूठ नहीं कह सकते। अगर देखने वाला भी झूठ हो, तब तो सपना बन ही नहीं सकता। सपने के बनने के लिए भी कम से कम एक तो सत्य चाहिए–वह सत्य है तुम्हारा होना। और सुबह जाग कर जब तुम पाते हो कि सपना झूठा था, तो तुम जरा खयाल करना : जिसने सपने को देखा, और जो सपने में भरमाया, जो सपने का द्रष्टा बना था वह भी झूठा था।

रात तुमने सपना देखा कि एक सांप, बड़ा सांप चला आ रहा है, फुफकारें मारता तुम्हारी ओर। जिसने देखा सपने में, वह कंप गया, वह घबड़ा गया। वह पसीने-पसीने हो भागने लगा। पहाड़-पर्वत पार करने लगा, और सांप पीछा कर रहा है। और तुम भागते हो, और उसकी फुफकार तुम्हें सुनाई पड़ रही है। वह जब तुम सुबह जागोगे, तो सांप तो झूठा हो गया। और जिसने सांप को देखा था, जो देख कर भागा था, जो भाग-भाग कर घबड़ाया, पसीने से लथपथ होकर गिर पड़ा था–क्या वह सच था ? वह भी झूठ हो गया। सपना भी झूठ हो गया, सपने का द्रष्टा भी झूठ हो गया।

Saturday, December 28, 2019

जिम जोंस का स्‍वर्ग रथ—सामूहिक बेहोशी


स्‍वर्ग रथ की प्रतीक्षा में—
       सत्‍तर के दशक में अमरीका में एक करिश्‍माई नेता जिम जोंस का प्रभाव बढ़ने लगा। उसके वक्‍तव्‍य बड़े सम्‍मोहक होते और उसके अनुयाई अंधों की तरह उसका अनुसरण करते। जिम जोंस ने कार्ल मार्क्‍स, विंस्‍टन चर्चिल, और एडोल्फ हिटलर जैसे लोगों को गहन अध्‍ययन किया था। उसके जीवन पर किए गए अध्‍ययनों के अनुसार वह बचपन से मृत्‍यु की घटना से बड़ा प्रभावित था। अक्‍सर छोटे-छोटे मृत जानवरों को लाकर उनका अंतिम संस्‍कार किया करता था। वह अपनेआप को महात्‍मा गांधी, कार्ल मार्कस, जीसस और बुद्ध का अवतार भी कहता था।

       जिम जोंस साम्‍यवादी विचारधारा वाला व्‍यक्‍ति था जिसके चलते उसका मतभेद अमरीका प्रशासन से गहराने लगा और वह मीडिया के निशाने पर भी आ गया। उसने अपने अनुयाइयों के आगे एक अलग दुनिया बसाने का प्रस्‍ताव रखा और लगभग 1000 अमरीकी शिष्‍यों को लेकर गुयाना के घने जंगलों में बस गया। अपने इस समुदाय का उसने नाम दिया जन मंदिर—पीपुल्स टेंपल। 18 नवंबर 1978 को जन मंदिर में एक ऐसी घटना घटी जिसने पूरे विश्‍व को दहला कर रख दिया। इस दिन जिम जोंस ने एक प्रवचन टेप रिकॉर्ड किया जिसे उसने अनुयाइयों को सुनाया गया। अपने इस प्रवचन में उसने कहा कि पूरा विश्‍व उनका शत्रु है और यह धरती उनके रहने के काबिल नहीं है। अब समय आ गया है कि एक बेहतर दुनिया की और चला जाए। जो उन सबका इंतजार कर रही है। सभी अच्‍छे से तैयार हो जाएं। नहाएं-धोएं अच्‍छे वस्‍त्र पहने और अपने जूते भी कस लें क्‍योंकि स्‍वर्ग रथ आने वाला है। जो सभी को नई दुनियां में ले जाएगा। इसके लिए जो सबसे महत्‍वपूर्ण कार्य है वह है कि सभी को एक स्‍थान पर एकत्र होकर एक पेय पदार्थ पीना है जो कूल एड और साइनाइड का मिश्रण है।
       लगभग 1000 लोग जिम जोंस की बात से प्रभावित होकर यह पेय पीकर एक-दूसरे का हाथ पकड़े, सजे-संवरे धरती पर लेट गए। 914 लोगों ने एक साथ सामूहिक आत्‍म हत्‍या में प्रवेश किया। निर्देश था कि पेय पहले छोटे बच्‍चों को दिया जाए। मरने वालों में 303 बच्‍चे थे। गिने-चुने लोग ही साइनाइड के  प्रभाव से बच पाए।
       यह घटना सामूहिक बेहोशी का एक सशक्‍त उदाहरण है। एक समूह का, एक भीड़ का अपना कोई उत्‍तरदायित्‍व नहीं होता—न हत्‍या में, न आत्‍म हत्‍या में, न बलात्‍कार में और न ही दंगा फसाद में।
       मनोवैज्ञानिक कहते है कि जब कोई व्‍यक्‍ति असमंजस की स्‍थिति में होता है तो वह निर्णय के लिए अपने आसपास के व्‍यक्‍तियों की और देखता है कि बाकी लोग इस विषय में एक विचार रखते है और उसी पर आधारित निर्णय ले लेता है। बहुमत के साथ चलने की मनुष्‍य की सोच प्राचीनकाल में चली आ रही है। समूह के साथ चलने में एक सुरक्षा का आभास होता है इसीलिए भीड़ों और समूहों ने जहां सशक्‍त प्रशासनों को पलट दिया वही जघन्य हत्‍याओं,बलात्‍कारों और सांप्रदायिक दंगों को भी अंजाम दिया है।
       कार्ल गुस्‍ताव जुंग की सामूहिक अवचेतना की थ्‍योरी के अनुसार एक भीड़, एक समूह में प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति अपना व्‍यक्‍तित्‍व खो कर भीड़ ही हो जाता है। यह समूह या भीड़ स्‍वयं एकत्र नहीं होती। इसे एकत्र करने का काम करता है एक ऐसा व्‍यक्‍ति जो करिश्माई है। जिसमें पहले करने की प्राकृतिक गुणवत्‍ता है। यह व्‍यक्‍ति ऐसा मनुष्‍य भी हो सकता है। जिसकी चेतना में रूपांतरण की और ले जाने में सहायक हो सकता है। लेकिन यह समूह पर समूह की तरह कार्य नहीं करता बल्‍कि प्रत्‍येक की निजता और उसके स्‍वभाव पर कार्य करता है।
       दूसरी और वह नेता एक विक्षिप्‍त और विध्‍वंसकारी प्रवृति का रूग्ण व्‍यक्‍ति भी हो सकता है। जो समूह को हत्‍या, दंगों बलात्‍कार और विध्‍वंस के लिए उकसा सकता है।
       ओशो कहते है कि इस धरती में हुई क्रांतियां आज तक इस लिए सफल नहीं हुई क्‍योंकि वह भीड़ की क्रांतियां थी। वास्‍तविक क्रांति तब घटती है जब वह प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति के अंतर्तम में जन्‍म ले।
       अभी हाल ही में दिल्‍ली में एक बस में एक 23 वर्षीय युवती का सामूहिक बलात्‍कार बड़े जघन्‍य तरीके से हुआ जिसके विषय में हम सब जानते है। लेकिन यह कोई इकलौती घटना नहीं है। विश्‍व में ऐसी घटनाएं होती रहती है।
       24 अक्‍टूबर 2009 में अमरीका के कैलिफ़ोर्निया के विद्यालय रिचमंड हाई स्‍कूल में छात्र-छात्राओं का एक उत्‍सव चल रहा था। एक पंद्रह वर्षीय छात्रा के एक सहपाठी ने उसे स्‍कूल के जिम में एक निजी पार्टी में आने का न्‍योता दिया जहां पर 7 अन्‍य छात्र प्रतीक्षा कर रहे थे। इन सभी न उस छात्रा से कपड़े उतारने को कहा जिससे उसने इनकार कर दिया।
       नशे में धुत लड़कों ने उस समूह ने लड़की को उठा कर जमीन पर पटक दिया। और बारी-बारी से उसके साथ बलात्‍कार करने लगे जो लगभग ढाई घंटे तक चला।
       हैरानी की बात तो यह थी की उस स्‍थान पर 20 और लोग भी थे जो वहां से गुजर रहे थे। सभी मूक दर्शक बने यह सब देखते रहे। इन दर्शकों में एक सल्‍वाडोर रॉड्रीग्‍यूज ने बयान दिया: वो लड़के उसे सिर पर अपने जूतों से ठोकर मार रहे थे, उसे पीट रहे थे उसकी सारी चीजें लूट रहे थे। उन्‍होंने उसके सारे वस्‍त्र फाड़ दिये थे। मानों वह मनुष्‍य ही न हो। वह हिलडूल भी नहीं रही थी। मुझे लगा की वह मर चुकी है। मुझे लगता है में उसे बचाने के लिए कुछ कर सकता था। लेकिन फिर लगा जो हो रहा है। उसका उतरदायी मैं नहीं हूं।
       भीड़ में कोई उत्‍तर दायी नहीं होता क्‍योंकि भीड़ की कोई आत्‍मा नहीं है।
स्‍वामी अनिल सरस्‍वती
यस ओशो, फरवरी 2013
(विशेष—जिम जोंस की इस वीभत्स कुरूर घटना ने अमरीका को इतना भय भीत कर दिया किया वह सोचने समझने की शमता को भी खो बैठा। जो जिम जोंस कर रह था वह आदमी को सम्‍मोहन की और ले जा रहा था। इस लिए अमरीकी ही नहीं संसार के सभी बुद्धि जीवी और राजनैतिक लोग भय भीत हुए हुये थे सामूहिकता से एक भीड़ से क्‍योंकि वह देख चूके थे एडोल्फ हिटलर को, जार को, मुसोलनी को....अब वह समझ नहीं सकी ओशो के कार्य को जो इस घटना के बहुत जल्‍द यानि 1985 में अमरीका के ऑरेगान में शुरू हुआ। जिन जोंस के साथ तो केवल 1000 लोग थे। परंतु ओशो के साथ 5000 लोग पाँच साल से वो सब कर रहे थे विकास...जो इस दुनियां का नहीं लग रहा था। तीन साल ओशो के मौन के बाद ओशो जब पहली बार अपने जन्‍म दिन पर समागम आये। उस समय दुनियां भर से 10,000 लोग वह एकत्रित हुए थे। ओशो उस समय भी मौन में थे। ओशो आकर अपनी कुर्सी पर बैठे, चारों और पागल मदमस्‍त लोग। जो केवल झूम रहे थे। ओशो ने एक शब्‍द भी नहीं बोला। और तीन घंटे तक लोग पागलों की तरह मंत्र मुग्‍ध ओशो को पीते रहे। राजनैतिक और बुद्धिजीवी और मीडिया इस घटना से डर गई कि हम तो चीख-चीख कर भी बोलते है तब भी लोग इतने सम्‍मोहित नहीं सुनते जरूर ये लोग पागल हो गये है। और लगता है अब जिम जोंस की दुर्घटना फिर दोहराई जायेगी।
      परंतु जिम जोंस, हिटलर, मुसोलनी, या जार में गुणात्मक भेद था ओशो में, ओशो लोगों को सामूहिक जागरण दे रहे थे। उन्‍हे जगा रहे थे। ध्‍यान एक जागरण है। वह बेहोशी को तोड़ रहे थे। वे लोगो को बंधन में बाध नहीं रहे थे उन्‍हें मुक्‍ति दे रहे है। ये तो इसी तरह से हुआ की ध्‍यान भी एक नशा देता है। और शराब भी एक नशा। नाम ख़ुमारी नानका चढ़ी रहे दिन रात। ध्‍यान का नशा जागरण देता है। वह आपके अचेतन की पर्तों को प्रकाशित कर रहा है। और शराब क्‍या कर रही है। आपके चेतन मन को भी बेहोश कर रही है। आप के पास जो चेतन मन का एक हिस्‍सा जागा हुआ है उसे भी सुला देती है। आप एक पशु तुल्य हो जाते है।  जिस का मन सोया हुआ है। मन सक्रिय और सजग में बहुत भेद है। पशु का मन सक्रिय तो है पर सजग नहीं है। इस तरह से हमारे मन के 9 भाग अचेतन के सोये और एक हिस्‍सा ही जागा है।
      शराब इस तरह से मनुष्‍य को समरस कर जाती है। बीच में जो एक हिस्‍सा जाग है उसे सुला देती है। कोई भेद नहीं रहा। और ध्‍यान अचेतन को जगाना शुरू कर देता है, आपके अंधेरे कमरे धीरे-धीरे प्रकाशमय होने शुरू हो जाते है। ओशो लोगों को सामूहिक जागरण दे रहे थे, जिन जोंस जैसे व्‍यक्‍ति लोग को सामूहिक नींद दे रहे है। एक सम्मोहन दे रहे है। एक गुलामी दे रहे है।
      काश ध्‍यान का रस बुद्धि जीवी वर्ग ने चखा होता तो। ओशो के काम को इस तरह से विध्वंस न किया गया होता। जो न कभी होगा न किसी में वो कार्य करने का सामर्थ्य है। शायद शिव के विज्ञान भैरव तंत्र के बाद कोई अगर ध्‍यान की नई विधि  कोई व्‍यक्‍ति संसार को दे पाया तो वह मात्र ओशो है। आप इस से समझ सकते है कि ओशो किस हंसती के व्‍यक्‍तित्‍व अपने में समेटे थे। हम आने वाले 5000 साल बाद ही ओशो को समझने लायक बुद्धि विकसित कर सकेंगे। हम अभागे है बुद्ध वक्‍त से पहले आ जाते है। और कोई जब उन्‍हें देख कर उनके प्रेम में पड़ता है तो भीड़ उसे पागल समझती है। वह समझती है मुझे कुछ नहीं हो सकता तो इन्‍हें कैसे हो सकता है। ये जरूर सम्‍मोहित है..........)
स्‍वामी आनंद प्रसाद मनसा

Friday, December 27, 2019

आर्य रेवत-(ऐतिहासिक कहानी)

आर्य रेवत-कहानी-(मनसा दसघरा)      

रेवत स्‍थविर सारि पुत्र को छोटा भाई था। राजगृह के पास एक छोटे से गांव का रहने वाला था। सारि पुत्र और मौद्गल्यायन स्‍थविर बचपन से ही संग साथ खेल और बड़े हुए। दोनों ने ही राजनीति ओर धर्म में  तक्ष शिला विश्‍वविद्यालय से शिक्षा प्राप्‍त की । और एक दिन घर परिवार छोड़ कर दोनों ही बुद्ध के अनुयायी हो गये। उस समय घर में बूढ़े माता-पिता, पत्‍नी दो बच्‍चे, दो बहने और छोटा रेवत था। इस बात की परिवार को दु:ख के साथ कही गर्व भी था की उनके सपूत ने बुद्ध को गुरु माना। पर परिवार की हालत बहुत बदतर होती चली गई। कई-कई बार तो खानें तक लाले पड़ जाते। जो परिवार गांव में कभी अमीरों में गिना जाता था। खुशहाल था। अब शरीर के साथ-साथ मकान भी जरजर हो गया था।
      रेवत जब बड़ा होने लगा तो उसे तक्ष शिला नहीं भेजा गया पढ़ने के लिए। एक तो तंग हाथ दूसरा सारि पुत्र का यूं अचानक घर से छोड़ जाना। घर को बहुत बड़ा सदमा दे गया। सारी आस उसी पर टीकी थी। की घर गृहथी को सम्हाले। और जो मां बाप ने सालों धन उस पर खर्च किया था उसकी भरपाई करेंगे। बहनों का शादी विवाहा करेंगे। छोटे भाई रेवत को पढ़ाते, पर सब बर्बाद हो गया। घर की हालत दीन हीन होई।


      रेवत जब बड़ा होने लगा। तो उसके मन में रह-रह कर यहीं विचार कौंधता की वह दीक्षित हो जाये।  पर घर की तरफ देखता, भाभी और बच्‍चों को देखता, मां-पिता को देखता तो मन मार कर रह जाता। पर आज तो न जाने उसके मन को क्‍या हो गया है। शादी करने जा रहा है। बरात ससुराल पहुंचने वाली है। उसे लगा अब तो हजारों रस्‍सियों में कैद कर दिया जायेंगे। या फिर भैया सारि पुत्र की तरह उसे भी सब छोड़ कर जाना होगा। और पीछे फिर वहीं कहानी दोहराई जायेगी। और वह रास्‍ते से ही घोड़ी से उतर कर जंगल में भाग गया। भागता ही रहा। कहां जाना है इसका भी कोई पता नहीं। दुल्हे के कपड़े पहने थे। इस लिए वह जंगल-जंगल भाग रहा था। रास्‍ते में उसे चार बोध भिक्षु मिल गये। एक पेड़ के नीचे, तालाब के किनारे उसने वह कपड़े उतरे एक मंदिर में रख दिये। और वहीं उन भिक्षुओं से दीक्षित हो गया। वो भिक्षु भी देखते रहे। उन्‍होंने उसका नाम भी नहीं पूछा।

      वह वहां से दुर निकल जाना चाहता था। ताकि उसे कोई पहचान न सके। वह अपने मा-बाप की आंखों का सामना नहीं करना चाहता था। नहीं देखना चाहता था उस भाभी का प्‍यारा मुख जिस का सब कुछ छिन गया था। फिर भी कैसे खुशी-खुशी घर का सब काम करती थी। उसे तो वह मां तुल्‍य प्‍यार करती थी। पर वह नहीं बंधना चाहता था शादी के बंधन में। गहरे जंगल में चलते-चलते वह खादर बन में निकल गया। धीरे-धीरे जंगल इतना गहरा हो गया कि वहां दो-तीन दिन चलने पर भी उसे किसी मनुष्‍य के दर्शन नहीं होते। जंगल कांटों से भरा था। बेहद बीहड़ था। जंगली जानवरों की दहाड़ दिन में भी सुनाई देती थी। लेकिन न जाने क्‍यों उसे क्‍यों डर नहीं लग रहा था। रात होने पर वह एक पेड़ पर चढ़ कर सो जाता। भूख लगने पर जंगली फल खा लेता। सात दिन और सात रातें चलने के बाद एक स्‍थान उसे ऐसा दिखाई दिया जैसे उसे वह बरसों से जानता है। आपको भी कभी-कभी किसी विशेष स्‍थान को देख कर ऐसा ही लगता होगा। पास ही बरसाती झरना था। वहां पर पेड़-पौधे भी कुछ अधिक व ऊंचे हो गये थे। दिन में भी वहां पर प्रकाश कम आता था। उस स्‍थान न मानों रेवत को अपनी और खींच ही लिया। उसने दिन भर मेहनत कर के। कुछ जंगली झाड़ियों इक्कठा कर के । एक बाड़ा बनाया। ताकि रात को जंगली जानवरों से उस की रक्षा हो सके। महीने दो महीने उस ने एक सुंदर रहने का स्‍थान बना लिया। घास फुस को इक्कठा कर के एक झोपड़ी बना ली। और पास ही एक बहुत ऊंची पहाड़ी थी जिस से बहकर वह झरना आता था। झरने के पानी को रोक कर उसने पेड़-पौधों की सिचाई के लिए पानी इक्कठा कर लिया। पास ही जो जंगली फुल गर्मी की वजह से बीच बन गये थे उसने वही जंगली फूलों के बीज आस पास बिखरने लगा। पानी मिलने की वजह से सब उग गये। चारों और पहले ही हरियाली थी अब उसमे फुल भी खिलनें लगे। धीरे-धीरे रेवत ने उस पहाड़ी को ही भांति-भांति के जंगली फूलों से लाद दिया। असल में तो कोई मुसाफिर वहां कभी आता नहीं था। पर कभी कभार कोई दो चार का झुंड आ निकलता तो उस जगह को देख कर मंत्र मुग्‍ध हो जाता। क्‍योंकि कोई आधा पोना मील पर एक दम सुखा जंगल है।

      और यहां एक दम हरियाली। पहाड़ी की चोटी पर बैठ कर जब रेवत देखता तब उसे लगता यह स्‍थान भगवान ने उसी के लिए बनाया है। मुसाफिर जब रेवत को देखते तब उन्‍हें अपनी आंखों पर विश्‍वास ही नहीं आता की एक निहत्‍था साधु इस भंयकर जंगल में अकेला रहता था। रेवत को जंगली फल खाकर जीने की आदत ही पड़ गई थी। पर वहां से आते जाते मुसाफिर अपने साथ जो चना चबेना लाये होते वह रेवत के चरणों में भी रख देते। रेवत उनकी ओर देख कर केवल हंस देता। दुर जब गांव के लोगों को खबर लगी, तब कुछ साहसी लोग रेवत को देखने आए। और साथ में कुछ चावल दाल, मीठा भी ले आये।

      रेवत को उस एकान्‍त में ध्‍यान गहराने लगा। पेड़-पौधों के बीच रहते उसे लगता की वह उसके दिल की धडकन को समझते है। उसे कभी-कभी किसी पेड़ को देख कर लगता की यह कितना उदास है। वह उस के पास बैठ जाता उसमें दूर नदी से जाकर पानी डालते ओर उसे प्यार से सहलाते ओर उसे गले लगते। वहीं बैठ कर ध्‍यान करता। और देखते की दूसरे दिन उसकी उदासी कम हो जाती। आश्रम के बीचों बीच जो बहुत बड़ा शीशम का वृक्ष था करीब 300-400 साल पुराना तो अवश्‍य ही होगा। वह उसी के पास बैठ कर ध्‍यान करते थे। उसके कोमल पत्‍ते कितने मरमरी से लगते थे। वह ध्यान के बाद जमीन पर ही लेट जाते ओर उसे घण्‍टों निहारते रहते। शीशम की टहनीया कैसे ज़मीं की और झुकी लहराती रहती है। केसा साधु भाव अपने में लिए वह पृथ्वी को ओर नम्: सा लगता है, मानों उसे छूना चाहता है, शायद इसी लिए उसका नाम शीशम पड़ा होगा, नामों की भी एक लम्बी यात्रा होती है। जब उस में सफेद बारिक फुल आते तो वह इतने महक जाता की श्‍याम के बाद तो आपके नासापुट को इतना भर देता की स्‍वास भी लेने में आपको तकलीफ होती। एक रात वह उस के पास ध्‍यान में जब बेठे थे।  उसे पता ही नहीं चला की कब श्याम हुई ओर कब रात हो गई। पुरी रात वह उसी वृक्ष के नीचे ध्यान मगन बेठे रहे जब सुबह सूरज ने लाली बिखेरी उस के अंदर का सूरज भी उदय हो गया। जहां अभी अंधकार भरा था वहाँ धीरे-धीरे लालिमा फैलने लग गई थी। सुरमई रोशनी से उसके अंदर का अंगन गमकने लगा था। आज जब आंखे खोल कर उसने उस पहाड़ी, घर, नदी-नालें, पेड़-पौधों को देखा तो लगा उसने इन्‍हें पहली बार देखा है। कैसी नई निरोई जंगल सुंदर फैली थी चारों ओर। एकान्‍त था, शांति थी। पर आज तो कुछ और ही हो गया। पेड़ पौधे इतने सुंदर हो गये मानों उन्‍हें सोने से नहला दिया हो। उनके टहनों का आकार-प्रकार, जमीन का ऊँचा नीचा पन, झाड़ियों की बनावट। पहाड़ी की ढलान। इतने रमणीक और वैभव शाली लग रहे थे। की कोई चित्रकार जब उन्‍हें देखता होगा तभी वह तुलिका उठा सकता होगा। काश उसके पास तुलिका होती। पर क्‍या वह उन रंगों को उतार पायेगा। एक-एक पेड़ पौधे का रंग हरा जरूर था। हरे मैं भी हजार हरे वह इतने रंग भरने के लिए कुदरत कहा से बना लेती है। कैसा बेबुझा सा रहस्य है। आसमान का नीलापन, कितनी शांत और अपूर्व लग रहा था। लाल सुनहरी बादल उस पर दौड़ते भागते मानों विशाल नीली झील में बच्चें ने झाग के फैनो को छोड़ दिया हो। कभी आसमान रूक जाता कभी लगता आसमान रूक गया और ये पेड़ पौधे दौड़ रहे है। आज रेवत का जीवन बदल गया। उसके अंदर से अंधकार का लोप हो गया। वहां पर जो ध्‍यान का दीपक जल रहा था। वहां सुरमय प्रकाश की आभा फेल गई थी।

      सात वर्ष कब बीत गये इसका रेवत को पता ही नहीं चला। आज जब उसे पहाड़ी को खड़ा होकर देख रहा है, तब हजारों रंग के फुल खीलें है। पहाड़ी की बीच में पत्‍थरों की चट्टानें, पानी का झरना। बीच-बीच में कोई-कोई साहसी वृक्ष भी अपनी जड़ें जमाये  खड़ा था। कितना सुंदर ओर मनोहारी दृश्य लग रहा था। उसे लगा उसके भी भीतर इतने ही फूल खिल गये है। आज उस पहाड़ी को फूलों से रंगे देख कर उसके भी रंग पूर्ण हो गये है। वह अपनी पूरी शक्‍ति और लगन से साधना में लगा रहता था। उसके लिए पेड़ पौधों का पानी, खाद, उनका संग साथ। सब ध्‍यान बन गया था। वह जब तक थक नहीं जाता था। पुरी ताकत लगा कर काम में लगा रहता था। कभी-कभार कोई जंगली जानवर भी उसे दिखाई दे जाता था। वह भी उसे बड़ी अचरज भरी नजरों से झाड़ की ओट से देखने की कोशिश करता था। शायद उसके मन भी मनुष्‍य के प्रति थोड़ी बहुत जिज्ञासा होगी। उसे समझना चाहता होगा। सदियों से अपने पूर्वजों से मिले अंदरूनी ज्ञान से वह उसे तोलता होगा। शायद रेवत से उसका मिलान नहीं होता होगा। तब उसे लगता की वह तो हिंसक होता है। मार देता है। पर ये मनुष्‍य तो कुछ भिन्‍न है। पर आज सात साल से किसी भी जंगली जानवर न उस पर हमला नहीं किया। सांप खरगोश, बंदर और जंगली चिडिया तो वहां डेरा डाले ही रहते थे। शायद पशु पक्षी भी मनुष्य की चेतना की तरंगों को महसुस करते होंगे। इससे भी दूर पेड़ पोधे या पत्थर भी। परंतु मनुष्य आज अपने संवेदना की पूंजी को खो रहा है। इसी लिए प्रत्येक साधक को एकांत में ध्यान के लिए भागना होता है। जब वह पूजी को संकलित कर लेता है फिर वह चाहे बजार में रहे या जंगल में वह इतना चेतना प्रखरता को जी लेता है। जान लेता है।

      जब रेवत खादर बन में आया था तब उसने सोचा थोड़ा ध्‍यान कर लूं। थोड़ा पात्र हो जाऊँ, अभी मेरी पात्रता भगवान के चरणों को समझने की नहीं है। वह अपने को समर्पण करने की तैयारी ही कर रहा था। ताकि फिर भगवान के दर्शन करूंगा। परंतु इसी खेल-खेल में सात साल ओर गुजर गये ओर अब तो वह अर्हत हो गया। तब बड़ी मुसीबत में पडा। अब तो भगवान के दर्शन उसे अपने ह्रदय में ही हो जाते है। अब तो जहां भी देखू उसी और भगवान ही भगवान नजर आते है। अब कहां जान तब उसने भगवान के पास जाने का विचार ही त्‍याग दिया। आंखों से आंसू भी गिरते, पर वह चाह कर भी उसे झुठलाता नहीं पाया कि जिसे देखना था उसे देख लिया और अब क्‍या देखना। अब तो वह मेरे अंग संग ही हो गये। अब कोई दुरी नहीं रही। अब तो उनकी खुशबु मुझे चारों और घेरे रहती हे।

 जित देखू तित और सखी री

      सामने मेरे साँवरिया......

      जीवन भी कैसे विरोधाभासों से भरा है। हम जिस चीज के पीछे भागते है। वह हमारी पकड़ से बहार हो दस कदम दुर जा खड़ी हो जाती है। और जिस से हम मुंह फेर लेते है, रूक जाते है, ठहर जाते है, तो वह हमारे पीछे चल देती है। हमारी वासना भी हमारी परछाई की तरह से है। केवल छलती भर है, मात्र भाषता है परंतु हाथ कभी नहीं आती।

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      रेवत के अर्हत की घटना को जब भगवान ने ध्यान में देखा। तब उन्‍होनें सारिपुत्र को बुला कर कहां की,  पुत्र इस वर्षा वास के बाद हम खादर बन में चलेंगें। क्‍या तुम्‍हें पता है तुम्‍हारा छोटा भाई कहां है। एक क्षण के लिए तो सारी सारिपुत्र को लगा के ये क्‍या हो गया। वह क्षण भर उन्‍हें सालों पुराने विचारों के जाल में उलझ गया। तब वह घर छोड़ कर चला था। दो कितनी मासूम आंखें थे। रेवत की। कैसे पिता तुल्‍य मुझे तात कहता था। पंद्रह साल छोटा था रेवत। और उसके एक पुत्र और पुत्री वह भी कितने बड़े हो गये होंगे। पता नहीं कितनी यातनाऔ का जीवन जिया होगा। बूढे माता पिता। विधवा की तरह जीती उनकी पत्‍नी। ये सब बात सोच कर सारी पुत्र के चेहरे पर चित्र की भांति भाव आते रहे जाते रहे। उसका मन गिलानि से भर गया। वह सोचने लगा कि क्‍या में स्वार्थी था। केवल में अपनी और देखा। परिवार की और मेरा कोई कर्तव्‍य नहीं था। और जिस उम्‍मीद कि किरण पर एक आस थी। रेवत वह भी क्‍या घर छोड़ कर खादर बन भाग गया.......भगवान सारिपुत्र के चेहरे पर भाव आते जाते देखते रहे। और केवल इतना, ‘’ये स्‍वार्थ ही परमार्थ है। तुम अपने को हिन न समझ। मात्र पेट भरने से आदमी के कर्तव्‍य का निर्वाह नहीं होता। अंतस कि गहराई में डूब कर जो तूने पाया। उस से आने वाली पीढी के भी द्वार खुल गये। जीवन एक तपीस है, यहां सब जल रहा है। इस मत देख। ये ता सब मिट ही जाना था। परंतु इस में तुमने जो खोज लिया वह बहुमूल्य है। गिलानि मत कर।‘’ और सारी पुत्र ने भगवान के चरणों में अपना सर रख दिया। सारि पुत्र के मन में जिज्ञासा तो हुई पर प्रश्न उठे, कि ये सब कैसे हुआ, लेकिन एक धुएँ की भांति वह काफूर हो गये। और फिर क्षण में निलाम्‍बर आसमान कोरा हो गया। वह नहीं पूछ पाया कोई प्रश्‍न।

भगवान ने कहां: पता है मेरा पुत्र रेवत अर्हत हो गया है। वह खादर बन में रहता है। सारीपुत्र को तो मानों विश्‍वास ही नहीं हो रहा था। कल का छोटा सा गोल मटोल, जिस के गाल जरा से धूप में जाने से लाल हो जाते। मानों किसी ने नकली रंग लंबा दिया हो। कैसा भोला दिखाता था रेवत, बचपन का एक-एक चित्र रेवत की आंखों के सामने गुजर गया। जब कोई साधु घर पर भिक्षा के लिए आ जाता तब वह आटे से भरा कटोरा ले उसकी झोल में डालते हुए कैसे अबोध-निर्मल हो पुछता और भी लेकर के आऊं। तब मां कैसे अंदर से आवाज देती की सार कोठा ही उठ कर दे दें। पिसैगा कौन? और जब रेवत कभी कोई शरारत करता तो मां बस एक जलती लकड़ी चूल्हे से निकाल भर लेती की रेवत तो चिड़ियाँ की भाति फुर्र से उड़ जाता। आग से वह बहुत डरता था। और आज इतना बड़ा हो गया है। की रेवत स्‍थविर हो गया है। कब संन्‍यास लिया मुझे तो पता ही नहीं चला। कैसा निर्बोध-भोली सुरत बना कर मेरे सामने आ जाता था और कहता था मुझे भी दीक्षित करें आप तो कितने लोगों को दीक्षा दे चुके है। और में हंस देता...अभी तो तूने बड़ा होना है। और सब भूल-बिसरे चित्र उसकी आंखों के सामने घूम गये। उसमें कुछ उदास करने वाले थे कुछ प्रसन्नता देने वाले थे। और सारि पुत्र हाथा जोड़कर भगवान के चरणों में सर टेक दिया। आपकी महिमा अपरंपार है। ये सब कैसे और क्‍यों हुआ....

      और इतना सून कर भगवान केवल हंस दिये।

      पाँच सौ भिक्षुओं और कुछ स्‍थविर जिसमें आनंद, मौद्गल्यायन, सुभूति, सारिपुत्र, आदि भी भगवान के साथ चल दिये। श्रावस्‍ती के लोगों को भी ज्ञात हो गया की। खादर बन में उनके आर्य सारि पुत्र का छोटा भाई अर्हत हो गया है। और भगवान उन्‍हें लेने के लिए जा रहे है। अब लोग  के मन में जिज्ञासा उठी की देखे हमारे आर्य सारि पुत्र का छोटा भाई कैसा होगा। क्‍या वह भी इतना ही शांत ओर अक्रोधी होगा जैसे हमारे आर्य सारि पुत्र है।

      खदिर बन बहुत कष्ट कंटक और बीहड़ था। वहां के रास्‍तें ही कांटों भरे नहीं वह जीवन बहुत दुष्कर था। मीलों  तो पानी को नामों निशान नहीं था। और पेड़ पौधे इतने छोटे थे झाड़ीया ही समझो की आप उनके नीचे बैठ कर आराम भी नहीं कर सकते। और जंगली जानवरों की तो भरमार ही। गीदड़, भेड़िया, लक्‍कड़भग्‍गे, शेर, हाथी, हिरण, सांप बीछू की तो क्‍या बात करनी। रेवत ने ध्‍यान में भगवान को आते देखा तो उसकी खुशी का तो ठीकाना ही नहीं रहा। उसे तो उम्‍मीद भी नहीं थी भगवान यहां पर आयेंगे। अब उसे फिकर हुई की भगवान कहां पर विराजगे। कहां सोयेंगे। उसी शीशम के पेड़ के आस पास उसने कुछ पत्‍थर रोड़े इक्कट्ठे कर के भगवान के लिए एक आसन बना दिया। मिटी और गोबर से उसे लीप दिया। कुटिया को थोड़ा ठीक कर दिया। पास के गांव के लोग जब मिलने और खानें को सीधा देने के लिए नियमित महीने दो महीने में वे आते ही रहते थे। तब रेवत ने उन लोगों को बताया कि हमारे आर्य भगवान पधार रहे है। एक बार तो उन लोगों न रेवत का मुख देखा और यकीन नहीं हुआ की ऐसा कैसे हो सकता हे। इस बीहड़ में कैसे.... ओर किसने खबर दी रेवत को की भगवान आ रहे है। 

      पर वो लोग समझ गये कि बात में जरूर कुछ सच्‍चाई है इस लिए अगले दिन से 10-15 लोग आकर रेवत के रहने के स्‍थान को थोड़ा और बड़ा करने लगें की ज्‍यादा भिक्षु आ रहे तो रहने सोने को तो जगह जरूर चाहिए। धीरे-धीरे वहां की शांत और मौन गहराने लगा। जब भगवान रेवत के निवास स्‍थल के पास आने को हुए तब भिक्षुओं ने देखा तो देखते ही रह गये। इतनी छटा, इतनी हरियाली। अभी तक तो पूरे जंगल में केवल झाड़-झंकाड़ ही थे। यहां के वृक्ष इतने ऊंचे, और विशाल है जैसे हम हिमालय की तराई में आ गये हो। शीशम नीम, चीड़, के वृक्षों की भरमार थी। अभी कुछ देवदार के वृक्ष भी रेवत ने रोपे थे। देव दार का वृक्ष कम से कम पाँच हजार फीट की उच्‍चाई पर जाकर प्रसन्‍न होता है। इस लिए वह देव है। आप हिमालय पर जाओगे तो वहां जैसे-जैसे उँचाई बढ़ेगी। नीम,पीपल, शीशम जो आम वृक्ष है वहां से नदारद हो जायेंगे। बस एक वृक्ष बचेगा। चीड़ वह भी एक खास उच्‍चाई के बाद अपना आसन देवदार को दे देगा। दोनों का साथ बहुत कर दुरी तक साथ रहेगा। पर जैसे-जैसे उँचाई बढ़ेगी। केवल मात्र एक वृक्ष अपना सीना तान कर खड़ा होगा। वह है ‘’देव दार’’।

      चारों और खीलें जंगली फूलों की छटा, हजारों की तादाद में जंगली पक्षी, कोयल, मैना, चिड़िया, तोते,….का कलरव गान। सामने ऐ पहाड़ जो फूलों से लदा था। इतनी सुंदर जगह अभी तके तो किसी भिक्षु ने नहीं देखी थी। स्‍वर्ग भी उसकी आभा को देख कर शर्मा जाए। पेड़ो की सीतल छांव में धड़ी-दो धड़ी में मीलों की थकावट खतम हो गई भिक्षुओं की। भगवान वहाँ एक माह रहे। और जब वहां से विदा होने लगे तब । उन्होंने रेवत को भी चलने के लिए कहां। बेटा रेवत तुम्‍हें चलना है। रेवत इस से पहले कुछ बोले वहां जो ग्रामिण लोग आये थे वह हाथ जोड़ कर रोने लगे। भगवान आप आये आहों भाग्‍य पर हमारे रेवत को तो यही रहने दो। ये पक्षी, ये पेड़, ये पहाड़,और हम अनाथ हो जायेंगे।

      भगवान हंसे और कहां मेरा रेवत फूल बन कर बीज बनने जा रहा था। उसे अपनी सुवास तो बिखरेनी ही है। ओर भी नये पौधे अंकुरित करने है। रेवत स्‍थविर हो गया है। पर एक बात जो वहां दुःख दाई धटी वह यह थी जिस वृक्ष के नीचे भगवान का आसन था। जिस वृक्ष के नीचे रेवत ध्यान करता था वह शीशम का वृक्ष उदास हो गया। और दूसरे दिन सुख गया। अचानक ऐसा परिर्वतन। देख कर भिक्षुओं के मन में जिज्ञासा उठी। भगवान ये क्या हुआ। तब भगवान ने कहा ये वृक्ष प्रज्ञावान हो गया था। अब रेवत यहां से जा रहा है, इसे पता चल गया। तो इसने संथारा कर लिया है। यह स्‍वय ही मृत्‍यु को प्राप्‍त हो गया हे। यह मुक्‍त हो गया है, इस चोले से इसका मन विकसित हो गया है। यह पीड़ा, खुशी, आनंद को महसूस करने लग गया है। अब यह मनुष्‍य बन गया । यह प्रकृति का विकास क्रम का नियम है। हम सब इसी विकास क्रम से मनुष्‍य बन कर आये है लाखों करोड़ो वर्षो का ये परिणाम हे।

      रेवत ने वह स्‍थान छोड़ने से पहले सब स्‍थानों को एक-एक बार नमन किया। पेड़ पौधों के गले लगा। पहाड़ पर घण्टों बैठा रहा। वह न चहा कर भी भगवान को इनकार नहीं कर सका। शायद इसी में उस की भलाई है जो भगवान देख रहे है। उसका सामर्थ्य नहीं है यह सब देखने का। इसी लिए तो गुरु की महिमा हे। यही तो समर्पण है। की आपके मन में प्रश्न उठता है या नहीं। लोग खड़े हो रेवत को विदा कर के रो रहे थे। शायद पक्षी भी, जंगली जानवर भी, पेड़ पौधे भी, पर सब मौन थे, किसी के पास शब्‍द नहीं थे मनुष्‍य के पास तो आंसू भी थे पर पहाड़ों और वृक्षों के पास तो ये भी नहीं, वह केवल निरीह भाव से देख रहे थे। वह शीशम का वृक्ष जो उस स्‍थान का सबसे बड़ा ओर बूढा वृक्ष था शायद उसी के वंश के हजारों शीशम आस पा फैले हुए थे। मृत खड़ा निहार रहा था। आपने देख, पेड़ पौधे मरने के बाद भी अपना सौंदर्य नहीं खोते। उनका सुखा खड़ा ढाँचा भी आपकी आंखों बेबस कर देगा अपनी और देखने के लिए ।

      कुछ मील चलने के बाद दो भिक्षुओं की तेल की फोंफी और उपाहन वहीं पर छुट गया था। वह भगवान से उसे लाने की आज्ञा मांगने के लिए आये तब पचास और भिक्षुओं ने भगवान से आज्ञा मांगी की हम आर्य रेवत के निवास स्‍थान पर कुछ माह रह कर ध्‍यान करना चाहते हे। आर्य रेवत का निवास स्‍थल इतना सौम्य-रमणीक था । की उसे देखने से मन ही नहीं भर रहा था। एक माह में उस सौन्दर्य को वह निहार नहीं पाये। उन्‍हें ध्‍यान के साथ वह सौन्दर्य भी खींच रहा था।

      जब वह भिक्षु वास मार्ग पर चल रह थे तब उन्‍हें लगा हम कहीं मार्ग तो नहीं भटक गये है। जाते में तो यह स्‍थान इतना कष्‍ट कारक नहीं था। अब तो जहां देखो वही शूल-ही-शूल है। उबड़ खाबड़ रास्‍ते। न कहीं छांव, जंगली जानवरों का दिन में दहाड़ना सुनाई दे रहा था। वह तो डर गये की घड़ी भर पहले ही तो हम यहाँ से गूजरें थे। तब तो ये रास्‍तें फूलों से भरे लग रहे थे। कितने रम्‍य सुन्दर थे। और रेवत का निवास स्‍थल तो एक दम से बदला हुआ ही दिखाई दे रहा था। जिस आसन पर अभी भगवान बैठे थे वह तो ऐसा कुरूप और भद्दा था कि उस पर तो कोई भिखारी भी न बैठे। और जिस कुटिया में आर्य रेवत रहते थे पहले ता उसका सौन्दर्य उनकी आंखों को चुंदियाँ रहा था। और अब तो वह खंडर मालूम हो रही हे। फूलों के रंग भी गायब हो गये है। वह मन बना कर आये थे वहां निवास करने का पर वहां रूकने का उन का साहस ही नहीं हुआ। वे आपस में बात करने लगे की। इतने खतरनाक जंगल में हमारे आर्य रेवत कैसे रहते होगें। वो भी अकेले। और वो लोग वापस आ गये श्रावस्‍ती की और। यह एक प्रकार से ध्‍यान की विधि थी भगवान की। अब वे पचास भिक्षु जो अपनी आंखों से देख कर आये थे। उन के मन में आर्य रेवत को जो मान सम्‍मान, दुस्साहस बना, रेवत उन से कुछ अलग हट गया, उन के मन में रेवत के प्रति कुछ सम्‍मान, श्रद्धा का भाव जगा। अब वह रेवत के आधीन कर दिये जाएँगे। रेवत उनके स्‍थविर बना दिये जाएंगे।

      श्रावस्‍ती लौटने पर उन्‍हें महा उपासिका विशाखा मिगार ने उन्‍हें बुलाया और पूछा भिक्षुओं हमारे आर्य रेवत का निवास स्‍थल कैसा था। उन के तो माथे पर पसीने की बुंदे दिखाई देने लगी। सब एक दूसरे का मुंह देखने लगे। की कौन बोले। सब की आंखों में भय था। मानो किसी दुःख स्‍वन के विषय में पूछ लिया हो। आर्य रेवत का निवास स्‍थान तो इतना खतरनाक था आप बस पूँछों ही मत। खंडहर ही खंडहर थे, उसे निवास स्‍थान कहना ही गलत था। जंगल तो हमने बहुत देखे पर खादर बन जिस में आर्य रेवत रहते थे। ऐसा भंयकर जंगल कभी नहीं देखा। आदमी दिन में भी खो जाए। रहा ही नहीं मिले, ऐसे उबड़-खाबड़ रास्‍ते, कांटे ही कांटे, और भंयकर जंगली जानवरों की दहाड़ आपकी छाती बंद कर दे। हम तो बस बच कर ही  आ गए यहीं बहुत है हमारे आर्य रेवत वहां पर कैसे रहते है यहीं  सोच कर डर लगाता है।

      और फिर विशाखा ने और भिक्षुओं से पूछा: तब उन्‍होंने कहा: हमारे आर्य रेवत का स्‍थान स्‍वर्ग से भी सुंदर था। मानों ऋद्धि सिद्धि से बनाया गया है। चारों तरफ ऊंचे विशाल वृक्षों की छाव, दूर तक फैली हरियाली। आप वहां के जंगली फूलों को देख लो तो आपकी बगिया फीकी लगे। महल भी सुंदर हमने देखें है पर आर्य रेवत निवास स्‍थान के आगे वह कुछ भी नहीं। देवताओं को भी डाह होती होगी। इस पृथ्‍वी पर आर्य रेवत से सुंदर और मनोरम , शांत और प्रगाढ़ चारों फैली हुई जैसी जगह और दुसरी नहीं। ऐसा सन्नाटा की आप अपने अंदर के संगीत को पल में सुन लो पक्षियों का कलरव गान। मानों सो-सो सितार बज रहे हो। बहुत ही सुन्‍दर स्‍थान था आर्य रेवत का।

      विरोधाभासी विपरीत व्यिक्तत्व से विशाखा अचरज में पड़ गई। एक ही स्‍थान इन लोगों ने देखा है या दोनों भिन्‍न-भिन्‍न स्‍थान का वर्णन कर रहे हे। कोई स्‍वर्ग जैसा कोर्इ नर्क जैसा। असली बात क्‍या है?

      भगवान हंसे और बोले: उपासी के, जब तक रेवत वहां पर वास करता था। वह स्‍वर्ग था। और जैसे ही वह वहां से हटा वह नर्क तुल्‍य हो गया। जैसे दिया हटा लो तो अंधकार हो जाता है। आर्य रेवत का निवास स्‍थान भी रेवत के हटते ही अपने असली रूप में प्रकट हो गया। आप जब एक जगह को मेरे साथ देखते है तो वह जगह वह ही नहीं रहती जो में भी मेरी उर्जा भी उस में समाहित हो जाती है। और वही जगह जब आप अकेला देखे तो केवल वह जगह हे। उस में और कुछ नहीं। मेरा बेटा रेवत अर्हत हो गया है। ब्राह्मण हो गया है। उस ने ब्राह्म को जान लिया हे।

      इस लोक और परलोक और परलोक के विषय में उसकी कोई आशा नहीं रह गई। जो निराशय और असंग है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।



      जिसे आलय—तृष्‍णा—नहीं है। जो जानकर वीत संदेह हो गया है, और जिसने डुबकर अमृत पर निर्वाण को पा लिया है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।



      जिसने यहां पुण्‍य और पाप दोनों की आसक्‍ति को छोड़ दिया है, जो विगत शोक, निर्मल, और शुद्ध है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।



      मनसा आनंद ‘’मानस’’

चूलसुभद्या—(ऐतिहासिक कहानी)

चूलसुभद्या-(कहानी)-मनसा दसघरा

सूर्य के आगमन से पहले उसके पद-चिह्न, आकाश में बादलों के छिटकते टुकड़े के रूप में श्यामल से नारंगी होते दिखाई दे रहे थे। सुबह ने अल साई सी अंगड़ाई ली, पेड़-पौधों में नई जीवंतता का संचार हुआ। कली‍, फूल, पत्तों में भी सुबह के आने की सुगबुगाहट,  उन्मादी पन का अहसास होने लगा था। कोमल नवजात पत्तों ने पहली साँस के साथ नन्हीं आँखों से धरा को झाँक कर देखना चाहा, परंतु सूर्य की चमक ने उन सुकोमल नन्हे पत्तों को भय क्रांत कर फिर माँ के आँचल में दुबका दिया था। पास बड़े पत्तों न मंद्र समीर में नाच खड़खड़ाहट कर, तालियाँ बजा उनके भय को कुछ कम करना चाहा। दूर पक्षियों ने मानो उनके लिए मधुर लोरियों की झनकार छेड़ दी हो। उनका कलरव नाद सर्वस्व में कैसी मधुरता भर रहा था। तोतों ने जिन आमों को रात कुतरना छोड़ सो गए थे, सुबह फिर उन्हीं पर लदे-लटके कैसे किलकारियाँ मार-मार कर कह रहे हो,’’पा गया रात वाला फल’’ और खुशी के मारे उन्हें कुतर-कुतर कर विजय पत्ताका फहरा रहे थे। कुछ किसी अलसाए साथी को धक्के मार-मार के उठा रहे हे, चलो महाराज सूर्य सर पर चढ़ आया है, मीलों लंबा सफ़र तय करना है।

        प्रकृति में नया नित, नूतन घटता रहता है, पल-पल, छण-छण, पर वो इतना सहजता-सरलता से होता है, किसी को कानों-कान खबर तक भी नहीं होने देती। मनुष्य का मन नये पन का आदि हो गया है, या यूँ कह लीजिए नए पन ही उसका जीवन है। दूर प्रकृति उसके इस आयोजन पर मुस्कुरा ही नहीं रही होती, मूक दृष्टा बनी देखती रहती है। सुबह की नीरवता, दूर किसी घर से काँसी का बैला बजने की प्रतिध्वनि से कैसे सिहर कर काँप गई। किसी घर में फिर कोई किलकारी गूँजी, कन्या के आगमन का संदेश। माँ की प्रसव पीड़ा कैसे तिरोहित हो जाती है, बच्चे के क्रंदन से, शायद यही एक मात्र क्रंदन उसको भाता ही नहीं, उसके अन्तस प्राणों तक को सींच जाता है। अब ये रूधन-रूधन न रह कर,  माँ का उपचारक बन कैसे  एक-एक पीड़ा रूपी शूल निकाल उसके चेहरे पर मधुर मुस्कान बिखेर जाता है। एक नन्हीं कली के चटखने में भी यही नया पन रहता है,  कोमल सकुचाए पत्तों का पहला आगमन कितना भव्य, कितना निरापद लगता होगा वृक्ष को। परंतु कौन देखे उस नए होने को, कली के चटखने से भी एक मधुर ध्वनि निकला होगी, उसके पहले पर्दापण का कैसा स्वागत-सत्कार मनाया होगा इस समस्त आस्तित्व ने। लेकिन फिर भी यह यहीं हठी बन कर देखता रहता है। यही तटस्थता ही इसकी पूर्णता को दर्शाती है।
        श्रावस्ती निवासी सुदत्‍त सेठ के घर भोर के आगमन के साथ एक कन्या ने जन्म लिया। उसकी पहली किलकारी ने घर को ख़ुशियों से भर ही नहीं दिया, वो ऊन दीवार, दरवाज़ों को लांघ समस्त श्रावस्ती में फैल जाना चाहती थी। दूर गली-गली, अटालिकाऔ के भी पार,नदी, पहाड़, जंगल के उस छोर तक पहुँचना जाना चाहती थी। सुदत्त नगर श्रेष्ठी थे श्रावस्ती के, व्यापार दूर गंधार, मथुरा, कोशी,द्वारिका, विषाखापाटन तक फैला था। जलथल दोनों मार्गों से ही व्यापार करते थे, हजारों बैल गाडियों और बड़ी-बड़ी नावों  में आनाज, रुई, काँसी, पीतल के बरतन, लकडी, पत्थर, जुट के बने हस्तकारी का सामान। इनमें छोटे बड़े फानूस, मूढ़े, मूर्ति, झूले, कैन और बाँस के हाथ के बने दैनिक कार्य में इस्तेमाल होने वाली चीज़ें जो आस पास के गाँव देहात में बनती और पहुँच जाती हजारों कोस तक। वहाँ से सूखे मेवे, पटसन, लोहे-पीतल के बने लडाई के औज़ार, कच्चा चमड़ा,भेड़ की ऊन आदि के साथ सोने-चाँदी का लेन देन चलता था। शादी के सात साल बाद सुदत्त सेठ के धर ये खुशी का मौक़ा आया था। श्रावस्ती नगरी अपनी प्रसन्नता लाख छिपा कर भी कहाँ छिपा पा रहा थी। बच्ची के जन्म की बात देखते-ही-देखते पल में पूरी श्रावस्ती में फैल गई, ग्रामीणों के झुंड के झुंड इकट्ठे होने लगे नगर श्रेष्ठी के द्वार पर। गरीब की आस ही उन्हें तुम्हारे द्वार तक खींच कर ले आती है। खुशी के मौके पर जब तुम खुले हुए होते हो, या यूँ कह लीजिए खुशी में आदमी अपने बहुत से बंधन, ढँके आवरण पहनने भूल जाता है। फिर कोई सरल ह्रदय तो द्वार खोलता ही नहीं, उसके चौखटे तक उतार कर फेंक देता है। इस मौके पर सुदत्त सेठ ने प्रत्येक आने वाले को जी खोल कर घन-धान्य लुटा याँ था। इसकी गूँज श्रावस्ती नगरी से होकर दूर दराज के नगरों से टकरा कर ध्वनि-प्रतिध्वनि बनकर सालों गूँजती रही थी। फिर कब ये गूँज मंद्र से मंद्र तर होते तक सुदत्त सेठ के नाम को अनाथपिण्ड़क कर गई पता ही नहीं चला, भूल गए लोग सुदत्त सेठ नाम का कोई मनुष्य श्रावस्ती में रहता था, याद रह गया एक नाम ’’अनाथपिण्ड़क’’ जो आज हजारों सालों बाद भी इतिहास के पोर-पोर, पन्ने-पन्ने तक पर अंकित रह गया है।
        वस्त, मगध और राजग्रह के राज मार्गों को जोड़ता था श्रावस्ती नगर। इसकी सुंदर भूगोल स्थिति आने वाले आगन्तुक को अनायास ही खींच लेती थी। मणि-माणिक, जौहरी, काश्तकार, शिल्पकार, आनाज के व्यापारियों का विशेष केंद्र बनता जा रही थी श्रावस्ती नगरी। पास बहती शांत और विशाल अचर वती नदी खेती के भू भाग को ही नहीं सिंचती थी, अपने सीने पर हजारों छोटी-बड़ी नावों को माल असबाब समेत आन-जाने देती थी। लाल बजरी, ईटों के बने चौडे मार्ग, किनारे लगे पीपल, नीम, जामुन के छाया दार वृक्ष, पीने के पानी के कुएँ कोस दो कोस पर, बने विश्रामगृह  पैदल ही नहीं रथ, बैल गाडियों पर जाते मुसाफ़िरों को भी बरबस अपनी और खिंच लेती थे। श्रावस्‍ती की ऊंची बनी अटालिकाये, महल, दुमहला, शहर की शान और शौकत की कहानी कहते से प्रतीत होते थे। पथिकों के साथ पैदल चलते बोध भिक्षुओं के झुंड के झुंड, नगरी का गौरव ही नहीं बढ़ाते वहाँ अध्यात्मिक और शांति का बीज बिखेर रहे थे। कौशल कुमार जैत को तो ये नगरी इतनी भा गई वो तो यहीं के हो कर रह गए। नगरी का सौन्दर्य, गरिमा, भाग्य कह लीजिए भगवान बुद्ध ने अपने ४०वर्षा वासों में से १६वर्षा वास श्रावस्ती में गुज़ारे थे। इस विकसित होती नगरी में व्यापर के साथ-साथ शान्ति और ध्यान का सुनहरा प्रकाश फैल रहा था।
        उसी दिन अचानक इस ऊहा-पोह, भाग दौड़ और शोरशराबे के बीच नगर श्रेष्ठी को पता चला भगवान बुद्ध श्रावस्ती पधारे है। उसकी तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा। एक तो गीली मिट्टी ऊपर से विशाल पानी की लहर का टकराना, सब कुछ बह गया रेत पर कोई पद चाँप निशान भी नहीं बचे पीछे। अनाथपिण्ड़क समझ नहीं पा रहे थे, इस होने न होने को केवल आसमान की तरफ़ आँखें उठा कर देखा, एक गहरी साँस ली और आँखें बन्ध हो गई। कुछ देर ऐसे ही  बैठे रहे अविचल, थिर, अकंपन, मूर्तिवत से जैसे कोई झंझावात में थौड़ी देर के लिए कहीं अटक जाए जिसकी उसे कल्पना भी नहीं हो। आँखें खोली और भगवान बुद्ध के शिविर कि तरफ़ चल दिए जो शहर से दूर एक निर्जन भू भाग पर लगा था। भगवान ने अनाथपिण्ड़क की गौरव-गर्वित चाल जो आज उसके केंद्रीकरण होने के कारण से थी, अपनी और आते देख कैसे गद्द-गद्द हो रहे थे। कितने भिक्षु देख सके होगें उस चलने को, इसके लिए भगवान का होश उनकी जागृति चाहिये, वो कोरी निर्मल आँखें, स्फटिक शांत मन। एक शब्द बना है ’’चाल चलन’’ तुम्हारी चाल ही तुम्हारा पूरा जीवन चरित्र वर्णित करती चलती है। किसी पुरुष का सौम्यता, सौन्दर्य, साहस, पोरस या भय, या किसी नारी की गौरव गर्वित चाल, उसका कर्मीय, प्रेम, लज्जा उसकी जीवन ऊर्जा कदम-कदम बिखेरती चलती है। चाहो तो तुम उसे पग-पग पर छिटकते चरित्र को सुकेर-समेट कर विश्लेषण तक कर सकते हो।
        अनाथपिण्ड़क भगवान के सामने दोनों हाथ जोड़ आँखें बंद कर बैठ गए। भगवान ने भी अपनी आँखें ऐसे बंध कर जैसे कोई सालों भूला धर आ जाये। दोनो तरफ से बहारी द्वार बंध हो गये। मानो किसी राज प्रसाद मे गहन मंत्रणा हो रही हो, पलकों पर द्वार पाल का विशेष पहरा लग गया हो। पास बैठे आनन्द, संभूति, मौद्गल्यायन, सारी पुत्र.......और अनेक भिक्षु बहार कितनी देर बैठते, जब ध्यान की वर्षा हो रही हो, वो भी आंखे बंध कर अपने पाल खोल दिये। चारो तरफ़ निशब्दता छा गई, शायद हवा भी इस निशब्दता को देखे आवक हो किसी विशाल वृक्ष की औट ले खड़ी रह गयी थी। हवा के हठात रूक जाने से पत्ते भी अपना झूमना-इठलाना भूल गये, पक्षी भी कुछ देर अपने मधुर कंठ पर इतराते रहे, फिर अचानक चारों तरफ़ फैली इस शान्ति से अछूते नहीं रह सके और मौन हो गये, जैसे अवाकता उनके कंठों पर आकर बैठ गई हो।
         घण्टों बाद सन्नाटा टूटा कोई कुछ बोलना नहीं चहा रहा था। शायद शब्द मौन पर ब्रज आघात करते प्रतीत हो रहे थे। वहीं जगह कुछ क्षणों के लिए कोई और ही लोक और ही आयाम बन गई थी। अनाथपिण्ड़क ने दोनों हाथ जोड़ कर भगवान के आगे माथ जमीन पर टेक दिया, भगवान ने अपना दाया हाथ अनाथपिण्ड़क के सर पर इतने प्रेम और वात्सल्यपूर्ण रख दिया जैसे वो हाथ सर पर न रह कर उसकी सम्पूर्णता मे ही समा गया हो, उसमें एक शीतलता, शून्यता, मधुमास की मादकता सी फेल गई। आंखे खोल अनाथपिण्ड़क केवल इतना ही बोल पाये ’’भगवान’’ और गला धूलि गया, जैसे अन्दर शब्द ही न बचे हो, जब वाणी जवाब दे गई, आँखों की भाषा अवरूढ हो गयी तब आंसुओं ने सारे तटबंध तोड़ दिये। उन्हीं आंसुओं के तूफ़ान मे अनाथपिण्ड़क का वो द्वार क्षणों मे खोल दिया, जो साधना करने से हजारों लाखों जन्म मे भी नहीं खुलता। ’’मणिपूर’’ अध्यात्मिक जगत का वो सोपान जहाँ तक की यात्रा के लिए प्रयास करना पड़ता है, फिर यात्रा प्रयास रहित, छोड़ना एक धारा मे ’’श्रोत्तापति’’ शायद यहीं गुरू की महिमा,यह समर्पण, श्रद्धा, खुलापन माँगता है। इसके बाद साधक की साधना जगत का सम्पूर्ण आयाम ही बदल जाता है। अनाथपिण्ड़क कब उठे कब घर पहुँचें इसका उन्हें भान ही नहीं रहा। उस मदहोशी मे भी कैसी होने की प्रगाढता थी, सम्पूर्ण जेसे सुकूड़-सिमिट सब केन्द्रित हो गया हो। घर मे अभी तक नौकर-चाकरों की चिल्ल-पो, मची थी। अनाथपिण्‍ड़क  को  देखते ही लाखों कम निकल आये, ये खत्म हो गया, वो मंगाना है,.. अनाथपिण्ड़क हां हूं करते रहे कुछ बोलने की स्थिति मे नहीं थे, मुनीम उनकी ये दशा देख समझ उन्हें विश्रामकक्ष की तरफ़ भेज कर हालात फिर आपने नियन्त्रण मे ले लिये।
      श्याम का धुंधलका छा रहा था,  सूर्य भगवान धीरे-धीरे अपना प्रकाश पेड़, पत्तों, की फुलबगिया से समेट पहाड़ी चोट पर बैठ क्षण भर विश्राम की स्वास ले रहा लगता था,   एक बार फिर घर लौटने की तैयारी कर रहा था। जैसे एक माँ दिन भर की धूल-धमास के बाद बच्चे को अपने स्तनों का दूध मुँह से लगा कैसे आँचल से ढक लेती है। बच्चे की आंखे तो दूध के सुखद स्वाद से पहले ही बन्द होने को थी। प्रकृति ने अन्धकार की चादर औड ली, चारो तरफ़ अन्धकार ने छदम रूप धर धरा को अपने अन्दर छुपा लिया था। अनाथपिण्ड़क की नींद मे प्रकाश की किरण अन्दर ऊन अछूते तलों मे उतरती चली गई, एक अनूठी यात्रा सोपान रहित, निभ्रर्म नीले आसमान मे सफेद स्फटिक बादलों की तरह जो चल ही नहीं रहे आपके भीतर भी साथ चलने का भ्रम पैदा कर दे रहे थे। न वो सोने जैसा था, न जागने जैसा, भला जब तुम्हे अपने होने का पता है, तुम कैसे सोये हुए मानो गे, फिर कैसे तुम्हारी दिन भर की थकावट मिट गई, कैसा श्यामल सुनहरी प्रकाश जो शब्दों और कल्पना के परे की बात है। पुर्ण तन-मन जैसे सब निर् झरा सा सुकोमल, गत्यात्मक हो गया था। सुबह पक्षियों के कलरव की पहली ध्वनि ने कैसे महीन-मन्द्र घण्टियों की सरस अव छिन्न गुंज कानों भर दी। आंखे खुली तो यकीन ही नहीं हुआ, क्या ये सब मैं पहली बार देख रहा हुँ, या वहीं पुराना जिसे हजारों बार पहले भी देखा है, वहीं दीवालें, खिड़की, पेड़, पक्षियों की चहचहाहट, जो कल तक थी, उसका ड़ाल-ड़ाल ही नहीं पोर-पोर तक बदल गया है। रंग, रूप, आकार-प्रकार, वह सोन्द्रय आज जो आंखे देखा वह कल तक क्यों नहीं देख पाती थी।
         जीवन आज जीवन बना, आज ही उसमें प्राणों का स्पन्दन हुआ, कल तक जो रंग हीन रूखा-सूखा था, उसमें रंग भरे, सूखे रेगिस्तान मे आषाढ़ का पहला दोगंड़ा कैसे उसमें जीविन्तता ला देता हे, आज जीवन के होने का पता चला था। मनुष्य की मनुष्य बनने की यात्रा पेट से ऊपर गति करने मे ही है।  पेट तो एक प्राकृतय केन्द्र है, उसमें जीवित दिखने वाले प्राणी ही नहीं दूर क्षितिज पे मंदाकिनी,काल सूर्य, नक्षत्र, स्थूल से दिखने वाला दृश्य-अदृष्य भी उससे अछूते नहीं है। प्रकृति और पारलौकिक का विभाजन यहीं से शुरु होता है, विकास अब विकास न रह कर क्रांति बन गया हैं। सृष्टि की पकड़ मनुष्य तक ले जाने तक ही है, चाहो तो पंख लगा अनन्त नभ मे ऊड़ों या चिपके रहो इस गुरूत्व के फेर मे। गुरू ही काटे गा गुरूत्वा शक्ति के परिधि को । नहाते हुऐ पानी ने शरीर को स्‍पर्श किया कैसा स्पन्दन, नीलाभ सी तरूणाई फैल गई रोए-रोए मे, अपनी ही छुअन कैसे रोमान्चित कर गई थी। खाने का पहला कोर मुहँ मे ड़ाला,  भरोसा ही नहीं आया स्वाद, गन्ध, मे कैसा माधुर्य भर गया। चलना तो ऐसा मानों शरीर निर्भार हो गया पृथ्वी पर चलना न रह कर उत्तुंग आकाश मे फैलना भर हो, एक पाखी की तरह। दिमाग मे चलते विचार कैसे आते ही, क्षण मे फुर्र से उड़ जाते पक्षी की तरह, खाली टहनी झूमती रह जाती। विचारों की भीड़ कैसे अटक कर चल रही उसकी लय, गति छिटक के टुट-टुट जाती थी। एक चित्र थिर हुआ क्षण भर के लिए फिर चल पड़ा। जैसे-जैसे साधक का होश बढ़ेगा वह अटकन भी बढ़ती जायेगी, फिर एक दिन सब गायब, रह जायेगा केवल खाली पर्दा... न चित्र,न दर्शक,मात्र दृष्टा नितान्त होना केवल अपनी सम्पूर्णता मै।
         मील भर का चलना अनाथपिण्ड़क को लगा मानों फरलांग भर का ही रास्ता तय किया है। भगवान नियम से सुबह और श्याम धर्म उपदेश दिया करते थे, यहीं घटता है गुरू और शिष्‍य का मिलन, सत्य के संग होना। शब्द तो तुम्हारे मन को उलझाने मात्र के लिए है, क्योंकि निशब्द की हमे आदत नहीं है। जब तुम शब्दों मे उलझे होगें, नितान्त होने का भाव होगा तुम्हारे अन्दर, निश्चित हो तुम खोल दोगे अपने अन्तस को, तब घटेगा सत्संग, तब होगी बरसात, तब बहेगा आनन्द का झरना। प्रकृति या गुरू बलात कुछ नहीं करते, वो केवल होते हे, वहाँ करता भाव नहीं होता, घटना घटती है, सूर्य मात्र हे, बर्फ पिघलती, नये पत्तों का अंकुरण होगा, प्रकृति मे विकास होगा और विज्ञान विकास करेगा उसमे कर्ता भाव होगा। यही भेद है प्रकृति और विज्ञान के काम करने के तरीके में। अनाथपिण्ड़क खाली जगह देख बैठ गया, भगवान के एक-एक शब्द मे कैसा माधुर्य अन्दर भर रहा था। चारो तरफ गहन सन्नाटा छाया था। दस हजार भि‍क्षूओं का होना न होन जैसा लग रहा था। भगवान जब बोलते तो ऐसे लगता शब्द कोई सुनने के लिए न होकर, पिये जा रहे हो अंग-अंग, रोए-रोए से। जिधर भी आपकी नजर जायेगी आंखे बनी होगी तालतलि‍याँ, टुट रहे होगें तटबन्ध न कोई उन्हे सम्हालना  चाहता होगा, न किसी को इसकी जरूरत होगी। धुल गया अन्तस का धुल धमास निर्मल कोमल स्फटिक मन कैसा न होने का भ्रम देता है, इतना पारदर्शी की मन लगेगा है ही नहीं। हमने तो मन को जब भी देख जाना हे, ठुसा भरा वसनाओं के बोझ तले, ऐसा निर्भार कैसा लगता है शब्दातीत, शायद नहीं कह पायेंगे शब्द। उपदेश खत्म होने पर अनाथपिण्ड़क हाथ जोड़ कर खड़े हो गये, शब्द नहीं निकले या शायद कुछ क्षणों के लिए थे ही नहीं।
        भगवान ने अनाथपिण्ड़क की दुविधा समझ ली, बात को अपनी तरफ़ से पूरा करते हुऐ पूछा--’’हाँ पुत्र अनाथपिण्ड़क कहो कुछ कहना चाहते हो।’’
              ’’भगवान लक्ष्मी का घर आगमन हुआ है, चार दिन बाद छटी का मुहूरत निकला है, उसी दिन नामकरण संस्‍कार भी हो जायेगा, इस खुशी के पावन अवसर पर आप श्रावस्ती पधारे मानो सब नियोजित तरीके से किया गया आयोजन है, आप के साथ सभी भिक्षु संध को भोजन का निमन्त्रण है, स्वीकार कीजिए।’’
         भगवान ने हंस कर ’हाँ’ भर गर्दन हिला दी, चेहरे पर प्रसन्नता छाई नहीं छिटक रही थी, जैसे उतंग पर्वत की चोटियों पर छिटकी बर्फ समस्त कुरूपता को ढ़क केवल सोन्द्रय बिखेर देना चाहती है।
         छ: दिन बाद नाम करण संस्कार मे भगवान ने बालिका को अपनी गोद मे ले दोनो आंखे बन्द कर उसका नाम रखा’’चुलसुभद्दा’’ । भगवान ने जब आंखे खोल उसके आज्ञा चक्र को छुआ तो कैसे निर्भ्रम भाव से सुकोमल नीली आँखो से देख ही नहीं रही उसके होठ, नन्हे हाथ, शरीर ही मानो कुछ कहना चह रहे हो। समय के चक्र के साथ कब चुलसुभद्दा का गुड़लियाँ चलना गुड्डे-गुड़ियों को गोद में लेकर दौड़नें में बदला, इसका पता ही नहीं चला। मानों समय चल ही नहीं रहा उड़ रहा है हंस की पर पर बैठ कर, उसकी किलकारियाँ दीवारों को छूती ही नहीं थी, यहाँ पूरे घर में रौनक बिखर रही थी। इस घर में रौनक मेला, बसंत बनकर ऐसे आया जाने का नाम ही नहीं ले रहा। अनाथपिण्ड़क का व्यापार भी पहले की बनिस्बत दुगना चौगुना हो कर फल फूल रहा था। काम करने में जो पहले थकावट महसूस होती थी, अब अचानक एक खुशी उसे घेरे रहती है। काम करने में एक खास तरह का भी आनन्द आने लगा, मानो काम न रह कर खेल बन गया है। उसे लगा क्या काम के प्रति वो ला परवाह होता जा रहा है। परन्तु पहले से भी ज्यादा चौकन्ना और सतर्क महसूस करता था अपने आप को। काम में कभी नफ़ा नुकसान हो भी जाता तो न पहले की तरह बेचैनी होती, न ही झुंझलाहट, अन्दर शान्ति सी छाई रहती। अगर किसी गाड़ी वान, पल्‍लेदार, छौलदार से कोई नुकसान जाने अनजाने हो भी जाता, मुनीम, उन्हे डाटता फटकारता, पैसे काटन की धमकी देता तब बड़े शान्त भाव से कहते आगे से ध्यान से करगे, इस बार छोड़ दो। घर बहार, व्यापार, सब बदल रहा था अनाथपिण्ड़क का भगवान बुद्ध के सान्निध्य का चमत्कार सब को आकर्षित और प्रभावित कर रहा था। दिन भर होश से काम करने की कोशिश करते, लाख भूलते, फिर वही से शुरु कर देता, ये भगवान की बात उसने अपने मन में ही नहीं हड्डी, माँस, मज्जा मे बसा  गई थी।’’भूलोगे तुम बार-बार लाखों जन्मों का अभ्यास है हमे भूलने का, फिर-फिर याद करो होश को, मेरे साथ भी यहीं हुआ था मैं भी भूलों से ही सिखा है। परन्तु मैं हारा नहीं अपने संकल्प पै अड़िग रहा, उसका परिणाम आज तुम देख रहे हो। भुलोगे परन्तु अपने संकल्प को याद करो, यहीं साधक थक हार कर टुट जाता हे। अन्दर बहुत बेहोशी है अति धीर-धीर टुटेगी, जैसे-जैसे होश बढ़ेगा और होश को बढ़ाएँगे, फिर पहली बार होश के रस से जब तुम सराबोर होने लगो गे, फिर साधना साध्य बन जायेगी।’’
         कुमार जैत का एक बड़ा भू-भाग दक्षिण में शहर से जरा दूर अचरवती के किनारे-किनारे खाली और निर्जन पड़ा था। ये भूमि नदी के अति निकट होने से खेती बाड़ी के काबिल नहीं थी, फिर बरसों से पड़ी निर्जन भूमि पर प्रकृति ने अपना कब्जा जमा लिया जिससे जंगली बनसपतियाँ, झाड़ीयाँ, जंगली बबूल, रोझ, शीशम, नीम मस्त सीना ताने झूमते इठलाते रहते थे। बीच-बीच में बरसाती तालाब भी बन गये थे, जो आस पास के ग्वालों को अपनी गायें भैंसे, भेड़-बकरीयाँ चराने के लिए आमन्त्रित करते थे। भैंसे तालाब के किचड़ में मस्त लेट जुगाली करती, गायें,भैड़, बकरीयाँ पेड़ो की छाँव में ग्वालों के साथ ऊँघती बैठी होती। अनाथपिण्ड़क ने जब ये जगह देखी जो शहर के पास है, साथ ही जंगल जैसी शान्ति है, और अचरवती के किनारे भी है। खेती बाड़ी भी नहीं होती वीरान, निर्जन पड़ी हे, ये भगवान के वर्षा वास के लिए उपयुक्त रहेगी। पता कर कुमार जैत के महल मिलने के लिए चल दिये, डयोढी दार ने जैसे ही अनाथपिण्ड़क का रथ देखा,दोनो हाथ जोड़ नमन कर द्वार खोल दिये। पहरे दार को आवाज दे अतिथि ग्रह खुलवा  अनाथपिण्ड़क को आदर पूर्व बैठा कुमार जैत को सुचित करने अन्दर चला गया। कुछ ही देर में कुमार जैत पधारे, नगर श्रेष्ठी सम्मान भाव से खड़े हो नमन किया, कुमार जैत ने दोनों हाथ जोड़ ’’पधारे नगर श्रेष्ठी बैठे, सुना हे घर कन्या का आगमन हुआ है, कहो कैसे आना हुआ।’’
       अनाथपिण्ड़क--’’ दक्षिण में नदी के किनारे आपका जो भू-भाग खाली पड़ा हैं, वहाँ भगवान के वर्षा वास के ठहरने के उपवन बनवाना चाहता हुँ, इस लिए वो भूखण्ड की टुकडा आपसे माँगने आया हुँ।’’
       कुमार जैत--’’नगर श्रेष्ठी वो भू-भाग तो बिक्री के लिए नहीं है।’’(उनके चेहरे पर शरारत भरी मुस्कान थी )
       अनाथपिण्ड़क--’’वो भू-भाग खेती बाड़ी के काम का भी नहीं, आप जो चाहे कीमत ले लो।’’
       कुमार जैत--’’ तो फिर एक करोड स्वर्ण मुद्रा दे दो।’’
       अनाथपिण्ड़क--’’ दी महाराज एक करोड स्वर्ण मुद्रा, आपकी हुई।’’    
       कुमार जैत--’’हंसे, अवाक, विषमय विमुग्ध हो कुछ क्षण को देखते रह गये, उन्होंने कभी सोचा भी न था बात इतनी गहरे तक चली जायेगी। अन्दर उन्हे अपने छोटे पन का अहसास हुआ, अपने को सम्हालते हुऐ कहने लगे।
’’नगर श्रेष्ठी आपका भगवान के प्रति लगाव, त्याग स्थूल-भौतिक वस्तुऔं से कहीं अधिक है। मैने तो केवल मजाक किया था, जमीन आपकी वो स्वर्ण मुद्रा उसके विकास कार्य के लिए खर्च कर दो। सुन्दर साधना स्थली बनवाईए फिर भी किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो राज आज्ञा आपके साथ है।’’  
अनाथपिण्ड़क ने दोनों हाथ जोड़, कर केवल खड़े भर रह गए उनके मुख मूँड़न से कोई शब्‍द नहीं निकला। कुमार जैत के व्‍यवहार, आभार और स-ह्रदय ता पूर्ण व्यवहार ने उन्हें गदगद कर दिया, धन्य है कुमार ’’जैत’’ जितना सूना उससे कहीं हजार गुण प्रेम है आपके ह्रदय में भगवान के प्रति।  आप जब पढेगे भगवन जैत वन में विहरे, कितनी कथाएं आती है,’ धम्म पद’ में, ’’जेत वन कुमार जैत और अनाथपिण्ड़क की साँझी विरासत है, जो श्रावस्ती को मिली।
    भू-भाग की अच्छी तरह से निरीक्षण कर करवाया गया, अनाथपिण्ड़क ने खुद भी काम छोड़ उसके साथ माथा कितनी पच्ची करनी पड़ी, ताकी जो प्राकृतिक सम्पदा है, वृक्षों की उनको काटे बीना, उसी को विकास का हिस्सा बना लिया जाए, तो कुदरती सौंद्रिय बना रहे और सालों पहले से प्रकृति जो उनके उगाने में श्रम और समय व्यय कर रही थी उसका सदुपयोग होना चाहिए, भू शस्त्री और राजमिस्तरी इन बातों को सुन ही चकरा गया, उसे तो अटालिकाये, महल दुमहला बनाने का अनुभव था, वो ध्यान और प्रकृति प्रेम को भी अपनी बाधा ही समझता आया था। सबसे पहले भू-भाग के चारो तरफ़ कांटे ओर मेहँदी की झाड़ी यों की बाढ़ नुमा लगाव शुरू करवा दिया ताकी आवारा जानवरों का प्रवेश बन्द हो जाये। और दूसरा विकास कार्य में बहार से अवरोध पैदा न हो। और इसके साथ-साथ आम, अमरूद, नाशपाती, के पौधे भी बाढ़ के साथ-साथ रूपवा दिए गए। इसके साथ ही एक ईटों की पक्की नाली भी बनानी शुरू करवा दी, जो सिचाई के साथ बरसाती पानी की निकासी का काम आये। इसी के साथ-साथ चारो तरफ़ लाल बजरी बिछा कर मार्ग बनवाया, बीच से  गुजरता हुआ एक सो फिट का सीध मार्ग जो बीच से काटते हुए आर पार गुजर गया। उस को जोड़ने के लिए सह मार्ग बनवाया जो उपवन को इस कोने से उसे कोने को जोड़ती चलते थे। सुन्दर बांस और खपरैलों के ओसार, कुटिया, एक बड़ा सत्संग भवन और पक्का चुने, ईटों का एक स्तूप भगवान के ठहरने के लिए बनवाया गया। जो पुराने वृक्ष थे उनके चारो ओर पक्का चबूतरे पत्थर चुने से चिनाई करवा कर उस में मिटटी से भर दिया गया।  जो छाव में आराम के अलावा ध्यान के लिए भी बहुत उपयोगी थे।
      वो वीरान सी दिखने वाली जगह छ: साल में सज सवार कर एक नव यौवना सी इठलाता दिखाई देने लगी थी मानों उसकी तो काया ही पलट गई, कल तक  जिसमें रेत मिट्टी के अन्धड़़ चलते थे, अब कितनी लूह  की गर्मी में भी सीतल समीर चलने लगी  थी। एक बिकल ओर बेकार सी पड़ी प्रकृति मनुष्य के हाथों कैसी सुशील और सत्य सी दिखने लगती है । पेड़ पौधों ने पक्षियों को भी निमन्त्रण भेज बुलाना शुरू कर दिया। मार्च महीने मे तो हिमालय पार से हजारों मील से उड़ कर विदेशी मेहमान पक्षियों का आगमन के स्‍वागत में मानों जैत बन पलकें बिछाए खड़ा था। देखते ही देखते जहाँ देखो वहीं उन विदशी सफ़ेद पक्षियों के झुंड के झुंड ऊंचे पेड़ो की फुनगियों पे बैठे ऐसे लगते मानो विशाल वृक्ष पे भी सफेद फूलों के गुच्छे निकल आये हो। उन्हीं पेड़ो पर घोसले बनाने का काम जोरों से चलने लगा, महीने भर में घोसलों में बच्चे अपने माँ-बाप की चोंचों से दान चुगा खा रहे होते, कहीं कोई बच्चा माँ-बाप की अनुपस्थित में उडने की अभ्यास कर रहा होता, ताकी माँ-बाप जब खाना लेकर घर आये तो उन्हें अपने उडने का कौतुक दिखा कर प्रसन्न कर दे। दुर दराज से लोग-बाग बैलगाड़ियों में अपने पूरे परिवार के साथ इन विदेशी मेहमानों को देखने आते, औरतें, बच्चे, बड़े-बूढे भी खडीय मिट्टी से भी सफेद पक्षियों को देख आंखे झपकना तक भूल जाते थे। अप्रैल-मई आते तक सब मेहमान अपने बच्चों सहित वापिस हिमालय पार चले जाते, रह जाते कुछ बूढे कमजोर पक्षी जो पेड़ो के झुंडों में संथारा कर मरने का इन्तजार कर रहे होते। बड़ा ही पीड़ादायक लगता वो दृश्य।
      भगवान जब श्रावस्‍ती पधारे ओर जैत वन को देखा तो गद्द गद्द हो गये। कुमार जैत और अनाथपिण्‍ड़क ने उन का स्‍वागत किया। भिक्षुओं को तो भरोसा ही नहीं आ रहा था उस जगह को देख कर जो सालों पहले कैसी वीरान सी दिखती थी आज वो उपवन बन महक रही थी। पेड़ो की छाव के साथ-साथ उन कुटिया में अंदर महीन मुलायम सुखी घास बिछावन की तरह बिछा दी थी। जिससे जमीन की नमी से साधकों कोई शारीरक बीमारी न हो इस साथ-साथ कीड़ा मकोड़ों से भी उनके शरीर को कोई हानि न पहुँचे ये बारीक बातें केवल साधना करने वाला ही समझ सकता था।
      भगवान ने अनाथपिण्‍ड़क की और देख कर कहा-‘’चमत्‍कार कर दिया पुत्र अनाथपिण्‍ड़क तुमने जिस कोशल और चतुरता से तुमने जैत वन का निर्माण किया है वहीं तुम्‍हारी ध्‍यान की गति को दर्श रहा है। कुमार जैत तुमने जो मोका इस भूभाग को अनाथपिण्‍ड़क को दे कर दिया है। अब हम इस का नाम तुम्‍हारे ही नाम से करेंगे लोग इसे जैत वन के नाम से जानेंगे। कुमार जैत की आँख से टप-टप आंसू बहते रहे जबान तो मानें एक दर्शक सी बन कर रह गई।
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      चूल सुभद्रा अब तक छ: साल की बातुनी और चंचल हो गई थी। पिता के साथ कभी-कभी जब संध में आ जाती तो उसे बड़ी जिज्ञासा होती। इतने सारे बोध भिक्षुओं को मूर्तिवत बैठे देख कर उन पास चली जाती और देखने की कोशिश करती क्‍या कोई मूर्ति है। बौध भिक्षु भी उसकी उस हरकत को देख कर कैसे बाल हो हंसने लग जाते थे। उनका प्रेम मीठी हंसी बन उनके होठों पर ही नहीं पूर्ण शरीर पर फेल जाता था। चूल सुभद्रा ने भगवान को देख कर पिता के कहने से नमन किया, भगवान ने उसे अपनी गोद में बिठा लिया, पहले तो थोड़ा झिझकी फिर तो उस की तुतलाती रस पूर्ण बातों ने सब को हंसा-हंसा कर लोट पोट कर दिया। क्‍या भगवान क्‍या मौद्गल्यायन क्‍या सारीपूत्र सभी का मन मोह लिया चुल सुभेद्य ने।
      जब घर पर मां से चुल सुभेद्य मां से बार-बार पूछती की वो सब भिक्षु वहां पर रहते है, उन का कोई घर नहीं है। उन की मां भी नहीं दिखाई दे रही थी....इतने प्रश्न पुछती की मां का सर चकरा जाता और वह बात को टाल मटोल कर जाती। इसी बीच अनाथपीड़क के घर एक पुत्र रतन ने जन्‍म लिया जिस का नाम अनाथपिण्ड़क ने ‘’काल’’ रखा काल समय का भी नाम हो और मोत को भी काल कहते है। कितना विचित्र शब्‍द है। और ऐसा नाम कोई अनाथपिण्‍ड़क जैसा साधक ही रख सकता था। धीरे-धीरे दोनों भाई बहन बुद्ध की हवा में बड़े होने लगे। बच्‍चों के ह्रदय सुकोमल होते है आप जैसी पर्त चढ़ाना चाहों वही चढ़ जाती है। आज आप को समाज में आदर्श नैतिकता चरित्र क्यों नहीं दिखाई देता। मां बाप ऊंची से ऊंची शिक्षा देते है। फिर भी बच्‍चों में कोई नैतिकता दिखाई नहीं देती। क्‍या चुक रह गई , कोई न कोई कारण तो जरूर होगा। हमारी शिक्षा तुम्‍हारे आचरण को नहीं बदल सकती। संस्‍कारों में वो गहरे नहीं जाती। न तो मां बाप के पास संस्‍कार और ध्‍यान है। और न ऐसा माहौल हम निर्मित कर पाते है। की बच्‍चे को संग मिले और वो स्‍वय को जान सके। न मां बाप के पास संस्‍कार है और न शिक्षक के पास। बच्‍चा पाये भी तो कहां से पाए। सौभाग्यशाली थे, धन्य भागी थे जिन्‍हें बचपन में बुद्धो का संग मिल जाए।
      समय ने मानों पंख लगा लिए देखते ही देखते चुलसूभद्या जवान हो गई शादी के लायक। शादी की बात पास ही उग्र नगर में उग्‍गत सेठ के बेटे चित्रगंध के चल रही थी। शादी की बात सून कर चुलसूभद्या उदास हो गई। और बिना किसी के कुछ बोले भगवान के पास जा गंध कुटी में उनके सामने हाथ जोड कर बैठ गई। उसने कहां’’ भगवान हमें भी सन्‍यास दे दीजिए हम शादी नहीं करना चाहते है।‘’
      अभी तक भगवान स्‍त्री जाती को सन्‍यास नहीं देते थे। अचानक उठे इस प्रश्न के लिए मानों वो तैयार नहीं थे। ये सब ऐसे हुआ जैसे नियति अपूर्णता को दर्शाना चाहती हो। जिसे भगवान पूर्ण समझ रहे थे वो अपूर्ण था। अभी उसे पूर्ण होने में बहुत आयाम और रंग चाहिए थे। प्रकृति अपनी पूर्णता का घूंघट कभी किसी को  नहीं खोलने देती है। यही तो उसका रहस्‍य है। इसी लिए वो शाश्वत है जो पूरी कभी नहीं जानी जा सकती है। यही मानव की भयंकर भूलों में से एक भूल है वो जानता है एक हिस्‍से को मान लेता है पूर्ण।
      भगवान ने चुलसूभद्या की तरफ़ देखा और मौन हो गये। जैसे बहता कल-कल झरन अचानक सुख गया। कभी किसी के सामने निरुत्तर नहीं होने वाले भगवान एक साधारण सी चूलसुभद्या के सामने नतमस्तक हो गय। कहां गया वो सीतलता भी प्रपात वो जल धारा और भगवान ने अपनी दोनों आंखे बंध कर ली। बिना किसी उत्‍तर की प्रतीक्षा किये चूलसुभद्या भारी कदमों से घर की और चल दी। शायद ये आखरी बार आना था उसका संध में वो कभी नहीं आ सकेगें। कभी नहीं। फिर शादी के लिए उसने कोई ना नच नहीं किया। ये सब देख कर काल को भी अधिक ठेस लगी। जो सालों संग लड़ते खेलते रहे अचानक क्‍यों चली गई उसकी बहन किसी दूसरे के संग। क्‍यों बिना शादी के नहीं रह सकती है। संध में भी तो हजारों भिक्षु बिना शादी के रहते है। फिर औरत के लिए ये बंधन क्‍यों।
      शादी कर के चूल सुभद्रा अपनी ससुराल उग्र नगर चली गई। घर खाली हो गया। बड़े लाड प्‍यास से पाला था अनाथपिण्‍ड़क ने चूल सुभद्रा को। सबसे ज्‍यादा तो खाली पन लगा बाल मन काल को,इस के बाद उसकी दिन चर्या ही बदल गई। वो सार दिन घर से गायब रहता। पिता के साथ कभी भी प्रवचन सुनने नहीं जाता। अजीब चिड़चिड़ा स्‍वभाव हो गया था। काल का। इसी बीच एक घटना और घटी चूल सुभद्रा के यू उठ कर चले जाने के बाद अगले दिन ही भगवान ने घोषणा कर दी इस वर्षा वास में वो सत्‍त मौन और समाधि में रहेगें। किसी से मिलेंगे भी नहीं। जो सालों पुरानी दिनचर्या थी वह बदल गई। प्रवचन हाल खाली पडा रहने लगा। भगवान की अनुपस्थित सबक़ों चुभनें लगी। ऐसा आज से पहले कभी नहीं हुआ था। क्‍या हो गया भगवान को कहीं उन का स्‍वास्‍थ तो खराब नहीं हो गया है। तीन माह अपने में ही डूबे रहे।
      ‘’ये ज्ञान पसुता धीरा, नकखम्‍मूपसये रता।
      देवापि तेसं पिहंति सं  बुद्धा नं  सतीमता।।
( जो धीर ध्‍यान में लीन है, परम शांत है, निर्वाण कार्य में रत है, उन स्‍मृतिवान संबुद्धों की स्‍पृहा देवता भी करते है।)
      चूलसुभद्या का उग्‍गत सेठ के घर जानें से उस का घर तो ख़ुशियों से भर गया। शांत और  सुशील स्‍वभाव की मधुरभाषिणी चूलसुभद्या नें सब का मन मोह लिए। क्‍या घर के नौकर चाकर सब के साथ उस का व्‍यवहार अपनत्‍व लिए रहता था। कभी सास-ससुर को टोकने तक का मोका ही नहीं देती थी। प्रत्‍येक काम किस सुचारु रूप से करती थी। ये सब देख कर दंग रह जाते थे। थोड़े दिनों में ही वह सब की चहेती बन गई। परन्‍तु धीरे-धीरे वही चाहत और शांति उग्‍गत सेठ के अशांति बन गई। जब कोई शांत और गहरा आदमी तुम्‍हारे अंग संग हो तो तुम बाहरी आडम्बर और दिखावा ज्यादा देर नहीं कर सकते वह तुम्‍हें अंदर तक बेचैन कर जाएगा और तुम्हारे दिखावे का वो पर्दा ज्‍यादा देर तुम्हारे दिखावे को ढक नहीं सकेगा। ये बेचैनी शाब्‍दिक नहीं होगी वो मौन तुम्‍हें घेरने लग जायेगा। पर हम शांत होना ही नहीं चाहते केवल चाहते करते है शांति और मौन की। जब उस शांति और मौन में खड़े होते है। हम तत्काल बेचैन है जाते है। जब तो कोई बुद्ध जब पृथ्‍वी पर होता है हम कितने बेचैन हो उस के विरोध में खड़े हो जाते है। भाग्‍य शाली है जो उस मौन और ध्यान  की शीतल छाया में बैठ सत्संग करते है। धन्य भागी है वे लोग।
      पूजा पाठ के जो घर के रिति रिवाज थे, श्‍याम को घर में धी का दीपक जलना। मंदिर में फूल सब बड़े आदर भाव से करती थी। जब भी कोई धर्म गुरु आता उसका आशीर्वाद लेना, व्रत उपवास करना, माथे पर सुहाग का टीका लगाना। छोटे बड़े आडम्‍बर जो हम उपरी आडम्बर की तरह करते है। हालाकि उसे भगवान के संग कर के इन बातों में केवल दिखावा ओर प्रपंच ही लगता था। फिर भी वो इन बातों के लिए किसी का दिल दुखाना नहीं चाहती थी। पूरा समाज इन्‍हीं आडम्बर की लहरों पर टीका है। शायद इसका कारण भय है। जो धर्म गुरूओं ने हमारे ह्रदय में भर रखा है। परन्‍तु एक दिन तूफान आ ही गया। जो चिंगारी सालों दबी रही वह एक दिन जल उठी। हुआ ये की एक दिन कुछ साधु जन घर पर आये चूलसुभद्या ने उनके लिए भोजन बनाया खिलाया। पर एक काम जो सालों करती थी शायद मन मार कर । उनके पैर नहीं छुए। जब किसी ने बुद्ध के पैर छू लिए फिर वो किसी के चरणों में सर नहीं रख सकता। बुद्ध की हवा,उनका होश उनका आनंद मानसरोवर के जल के जैसा है। फिर वो किसी भी नदी पोखरे के जल को गृहण नहीं कर सकता है। यह तूफान का करण बन गया। उग्‍गत सेठ तो मानों तैयार ही थे, इस मोके के लिए जो सालों से उन्‍हें नहीं मिल पा रहा था। वो एक दम से आग बबूला हो गए, ‘’तुम हमारे साधुओं का अपमान करती है। में जानता हुं इस सब का कारण वो ढोंगी गोतम बुद्ध है, तुम क्‍या समझती हो  हम कुछ नहीं पता हम सब जानते है। तुम्‍हारे पिता को मुर्ख बना कर करोड़ों स्‍वर्ण मुद्राओं की जमीन को हड़प गया। क्‍या शक्‍ति है उस क्‍या रिद्धि सिद्धि है, क्‍या चमत्‍कार है उसमें हम भी तो सुने।‘’
      चूलसुभद्या—‘’आप उनसे एक बार मिल को देख, तब आप किसी बात का निचोड़ निकाल सकते है। आप तो उनसे अभी मिले ही नहीं। फिर उन्‍हें भला-बुरा कहना शोभा दायक नहीं लगता।‘’
      उग्‍गत सेठ—में सब जानता हुं, इन ढोंगी यों को ये सब बातों के चमत्‍कारी है। तुम्हारे पिता को मुर्ख बना दिया मेरे सामने एक बार आ जाए तो उन्‍हें वो खरी-खरी सूनाऊगां की उनके कानों के कली लें झड़ जाए। मेरे सामने एक बार आए तो सही......
      चूलसुभद्या—‘’(मुंह नीचा की एक शरारती हंस उनके चेहरे पर फेल गई) आप अगर आज्ञा दे तो में भगवान को निमन्त्रण भेज दूँ।‘’
      उग्‍गत सेठ—‘’ हां देखे तुम्‍हारा चमत्‍कारी बाबा को। भेजों निमन्त्रण और बुला उस गोतम को देखे क्‍या चमत्कार दिखाता है।‘’
      चूलसुभद्या ने ससुर के पैर छुए, ससुर गुस्‍से में दो कदम पीछे हट गया। पूजा की थाली से जूही के दो मुट्ठी फूल ले, पूर्व की और मुहँ कर दोनें आंखें बंद कर फूल हवा में फेंक दिये। और कहां—‘’भंते कल के लिए पाँच सौ भिक्षुओं के साथ मेरा निमंत्रण‍ स्वीकार करे। भुला तो नहीं दिया अपनी चूलसुभद्या को।‘’
      दूरे संतो पकासेंति ‘हिमवंतों’ व  पब्‍बता।
      असंतेत्‍थ न दिस्‍संति रितखिता यथससरा।।
      एकासनं एक सेय्य: एको  चरमतंदितो ।
      एको दममत्‍तानं  वंतने  रमतो  सिया ।।
(संत दूर होने पर भी हिमालय पर्वत की भाति प्रकाशित है। और असंत पास होने पर भी रात में फेंके गये बाण की तरह दिखाई नहीं देता)
      परिवार के साथ वहां उपस्‍थित साधु जन भी उसकी इस मूर्खता पर खिलखिला कर हंस दिये। परन्‍तु उन्‍हें लगा अब इस पागलपन के बाद कभी यह हमारे साधुओं का अपमान नहीं करेगी। अपमान तो क्‍या करती थी बेचारी। परन्‍तु उग्‍गत सेठ का परिवार मिथ्‍या दृष्टि था, मिथ्‍या यानि चमत्‍कार, रिद्धि-सिद्धि, जिस के जाल में ये समाज फंसा है। शायद लालच भी इसका एक कारण है। इस सब के कारण समाज का ये ढोंगी शो क्षण करते है। यानि हम तुम्‍हें ताकत देंगे, वैभव देंगे, नाम यश देंगे......पूँछों क्‍या तुमने उसे पा लिया, खुद तो हासिल नहीं कर सके खुद के पास है नहीं बांटने चले रेवडीयां....। वही दुसरी और सम्‍यक दृष्‍टि शांति चाहता है। ध्‍यान चाहता है। और मिथ्‍या दृष्‍टि—शक्ति। यहीं भेद है।
      आज भी आप जहीं देखो जगह-जगह धर्म की दुकानें खुली है। भीड़ की भीड़ आडम्‍बर , दिखावा, चमत्‍कार....जब तुम शक्ति खोजते हो तो तुम्‍हारा शोषण होता है। न उनके पास शक्‍ति है जो तुम्‍हें दे हां तुम्‍हारे पास धन है जिसे वो हड़प लेते है। अगर तुम शांति खोजने निकले तो एक दम अलग ही बात है। कोई करोड़ों में एक चाहता है शांति। तब क्‍या होता है, ये एक विरोधाभास है। शान्‍त की छाया है शक्ति वो उसकी दासी  बन पीछे-पीछे चली आती है। पर हम पकड़ना चाहते है छाया को....
      बुद्धत्‍व एक रिद्धि-सिद्धियों के पार की अवस्‍था है वह तो खुद एक चलता फिरता चमत्‍कार है। उसका बैठना, चलना, खाना, सोना भी इस संसार के बड़े से बड़े चमत्‍कारों के पार है। यहीं तो सत्संग हे। उसके अंग –संग रहना, सत्‍य कैसे चलता है, कैसे बोलता है....
      उधर भगवान बुद्ध अचानक बोलते हुए चुप हो गए...चारों और भगवान का उपस्थिति का मौन गहरा गया। इससे पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था। हवा भी मानों कुछ क्षण के लिए उसी मौन में ठहर गई।
      ‘’भिक्षुओं जुही के फूलों की गन्‍ध आती है।‘’
      परन्‍तु शायद किसी को आई हो, भगवान के अविचार मन ने चूलसुभद्या की वो तरंगें पकड ली हो। ये एक विज्ञान है। कोई चमत्‍कार नहीं। हम आज इतने विचार शोर,ध्‍वनि, हवा, विचारों से भरे धूसती माहौल में जीते है। हम इस की कल्‍पना भी नहीं कर सकते। कभी हिन्दूओ ने शस्‍त्रीय संगीत की खोज समय की निश्शब्दता को समझ कर राग रागनिया बनाई थी। सालों बाद भी आप देखते है, इस परम्‍परा को ढोया जा रहा है। कि राग मालकोस को गानें के लिए साय का पहला पहर या यमन, राग श्री, या भैरवी....इन सब के  सुरों के हिसाब से समय निर्धारित किया गया है। आज भी आप शाम के समय राग भैरवी किसी महफिल में नहीं सुन सकते। आज रेडियों, टी वी पर कोन राग या सुरों की महफिल सज रही है। कोई नहीं जानता। ये ध्‍वनि प्रदूषित है। कभी विज्ञान गहरे जाएगा तो दुबारा इसे खोजेगा कैसे हम अपने विचारों को एक जगह से दुसरी जगह हस्तांतरित कर सकते है। कैसे अपने विचार लाखों मील के फासले पर किसी दूसरे व्‍यक्‍ति के मस्तिष्क में प्रवेश करा सकते है। वो ये भी नहीं जान पायेंगे की ये विचार उसके नहीं है। उस के लिए होश चाहिए.....ओर भगवान ने आंखों बंद कर उस निमंत्रण को स्वीकार कर लिया। इसे शायद और कोई नहीं देख सका।
      इसी बीच अनाथ पिंडक ने खड़े होकर कहां—‘’भगवान कल के भोजन लिए मेरा निमंत्रण स्वीकार कीजिए।‘’
      भगवान—‘’ गृह स्‍वामी, कल के भोजन के लिए तो हमने अपनी पुत्री चूलसुभद्या का निमंत्रण स्वीकार कर लिया है।‘’
      अनाथपीड़क—‘’परन्‍तु भगवान चूलसुभद्या तो यहां दिखाई नहीं देती। न ही उसके परिवार को कोई सदस्‍य ही यहां पर उपस्‍थित है। वो तो यहाँ से कोसों दुर है, फिर आपने कैसे उस का निमंत्रण स्‍वीकार कर लिया।‘’
      ‘’अभी-अभी तो जहीं के फूलों के साथ, उसने निमंत्रण भेजा है। दूर रहते हुए भी सत्पुरुष सामने खड़ा होता है। दूरी और काल इसमें भेद नहीं करती। असल में श्रद्धा के आयाम में समय और स्‍थान कोई आस्‍तित्‍व नहीं रखते है। अश्रद्धालु पास रह कर भी पार नहीं रहता।‘’
             ***               ***              ***
      उधर चूलसुभद्या ने तो मह मानों के आव भगत कि तैयारी शुरू कर दी घर के लोगों की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। ये क्‍या मामला है। न किसी को भेजा, न किसी ने आने का कोई संदेश दिया फिर भी ये सब उन की समझ के बहार कि बात थी। ज्‍यादा बात को न बढा कर उन्‍होंने सोचा करने दो इसे जो करना है कल तक की तो बात ही है। सुबह सब दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा। दालान साफ करवा कर वहां पर भटिया बना दी, बैठक  को सज़ा दिया गया। भोजन बनाने के ठहरने के लिए सभी इंतजाम तो करने थे। समय है कि भागा जा रहा है। फिर भी उसके चेहरे पर उल्‍लास था। उसके पेर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। सारे नौकर-चाकरों को काम पर लगा दिया गया। धी, तेल, आटा, खुद खड़ी होकर भंडार ग्रह से निकलवाए चूल सुभद्या ने, रसोइयों को बुलाकर क्‍या–क्‍या पकवान बनवाने है। कोन काम किस को करना है। और कहां भगवान हमारी नगरी में पहली बार आ रहे है। इतना सुस्‍वाद भोजन बनाओ की सालों कोई याद करे कि गये थे उग्र नगर में, हम सब के भाग्‍य खुल गये है। रात भर खाना बनता रहा, पास ही जो बड़ी सी जैन धर्म शाला थी उसे भी खोल दिया गया, वो शादी या भोज आदि के लिए काम आती थी। पानी छिड़काव दिया। दरियाँ बिछा दी। भिक्षु संग वहीं पर भोजन आदि करेंगें। ये धर्म शाला जैन समुदय ने बनवाई थी। कभी शायद दस वर्ष पहले महावीर भगवन आये थे। उसके बाद तो यह केवल किस उत्‍सव आदि के ही काम आती है। पंचायत घर के बड़े-बड़े वर्तन, परात, टंकी, कढाइयां, कलसे....जब भी कोई उन्‍हें इस्‍तेमाल करता, उस के बाद दान के रूप में जो चाहे चंदा जमा कर सकता था। जो उनकी टुट फूट और रख रखाव के काम आता था।
      अभी भोर का तारा यौवन पर चमक रहा था, इसकी भी चाल कितनी वक्र है, गर्मियों में सुबह और शरद ऋतु में श्‍याम को दिखाई देता है। सप्‍तऋषि मंडल भी जैसे रात भर चलने के बाद बूढ़ा हो झुक गया था। सुर्य के आगमन का कहीं नामों निशान नहीं था। भगवान और पाँच सौ भिक्षुओं का दल चल दिया उग्र नगर की और। रात अभी धनी थी। फिर भी तारें अपना प्रकाश बिखेर रहे थे। उनकी मंद रोशनी भी उस भिक्षु दल को राह दिखाने के लिए काफी थी। सफेद पगडंडी दुर तक चमकती दिखाई दे रही थी। इतना बड़ा काफिला फिर इतना घना मौन की पक्षियों तक को भान नहीं होता था की कोई प्राणी दल चला जा रहा है। कदम मानों जमीन पर चल नहीं रहे थे। उन्‍हें छू रहे थे। फिर भी झींगुर अपनी लम्‍बी-लम्‍बी तान लगाये चला जा रहा था। उसकी तान भिक्षु दल की तरह उतनी ही लंबी चली जा रही थी। मानों बेंड बाजे से उस का स्‍वगत सत्‍कार कर रहा हो। दुर कभी किस मोर की कर्णभेदी पुकार अवश्‍य सुनाई दे जाती थी। शायद कोई ध्‍वनि उसको अचानक भयभीत कर गई हो। उसके कानों की संवेदन सिलता इस पुकार की गवाह थी। गीदड़ों के झुण्ड जरूर घर जाने से पहले अपनी चीख पुकार की हाऊ- हाऊ कर रहा था।
      एक तो सुबह की जगती प्रकृति उपर से शान्‍त और निशब्‍द चलता भिक्षु संध का चलना, मानों रेत पर चलना न हो कोई कवि अपनी कविता उरेर रहा हो। कैसा इतिहास वक्‍त ने उस रेत पर उकेरा जो हजारों सालों बाद भी आप उसे महसूस कर सकते है। सब भिक्षु अपने चलने में इतने तल्लीन थे एक दूसरे के पास होने पर भी मानों एक दूसरे से लाखों मील दुर चल रहे हो।
      संघ जब उग्र नगर पहुंचा सूर्य आपने यौवन पर चढ़ चुका था। हवा जो सुबह ठंडी थी आब गर्म हो चुकी थी। सब भिक्षुओं के सर और माथे पर पसीने कि बुंदे चमक रही थी पर चेहरे पर ताजगी वैसे ही थी।  थकान का तो कोई नामों निशान तक नहीं था, शांत सौम्य चेहरे अभी भी मूर्तिवत लग रहे थे।
      इतनी देर में एक बच्‍चा भागा हुआ घर के अंदर प्रवेश किया साथ में दो तीन बच्‍चें और भी भागे आ रहे थे। मुहँ से शब्‍दों ये ज्यादा उसकी उखड़ी साँसे निकल रही थी। किसी तरह से अपनी सांसों पर काबू पा कर कह पाया,’’भिक्षु संध नाला पार कर, तालाब के पास बरगद के वृक्ष के नीचे पहुंच गया है।‘’
      शहर ने कब इतने बड़े दल देखे थे, कभी कहते है एक बार भगवान महावीर आए थे, या एक बार कुमार जेठ का काफिला  डाकू अंगुलि मार को पकड़ने के लिए यहां से गुजरा था। बड़े-बूढ़े,औरतें कितने मंत्रमुग्ध से होकर ये सब देख रहे थे। जो शहर कर तक सुन सान था अचानक न जाने को उस में रोनक लोट आई। आज हम किसी चीज को देख कर आह्लादित नहीं हो सकते, किसी पीड़ा को गहरे से महसूस नहीं कर सकते। आपके पड़ोस में मृत्‍यु शोक भी आपकी संवेदना को छू तक नहीं पाता। क्‍या हमारी संवेदन खतम होती जा रही है। ये मनुष्‍य के लिए सबसे बड़ी घातकता है। उगत सेठ ने अपने को लाख बचाने की कोशिश की परन्तु  जैसे ही भगवान के आने का समाचार चार मिला। उसके सारे चमत्‍कार, सारे गिले शिकवे न जाने कहां काफूर हो गए। और वो  भगवान के स्‍वागत सत्‍कार के लिए चल पड़े उन्‍हें यकीन नहीं हो रहा था। जो घट रहा था। लेकिन मानने को मजबूर था जो कुछ कल और आज में हुआ था उस का वो गवाह था। कोई कहानी कलपना नहीं थी। मानों हमारा मन हमें बचा रहा था। बो कोई न कोई बचने का मार्ग ढ़ूँढ़ लेता है। पर अब तो उसे बचने को कोई बहाना नहीं मिला। शायद वो बचना भी नहीं चाहता हो केवल बहाने ढूँढ रहा हो। आपने मित्र बंधुओं और पुत्र के साथ भगवान के स्वागत सत्कार के लिए निकल पडा  उगत सेठ, हम चाहते सभी सत्‍य को है, उसी विशाल समुद्र को, परन्‍तु हमारा मन अपने पोखरे को ही सर्व सब मान कर बैठ जाते हे।
      दल बल सहित भगवान का स्‍वागत सत्कार पूरे उग्र नगर ने किया। जहां देखो चूल सुभद्या की चर्चा हो रही थी। कैसी भाग्‍यवान कुल बधू आई है। आज हमारे शहर में भगवान का आगमन इसी के कारण हुआ है। वरना हमारे ऐसे भाग्‍य कहा थे। भगवान का आना ही चमत्‍कार साबित हो रहा था, न कोई बुलाने गया, केवल मुट्ठी भर जूही के फूल हवा में फेंके थे वो भी कल और आज सुबह ही भगवान पधार गये। फिर ताबीज निकालना, भभूती निकलना मानों मदारी गीरी जैसी बात हो गई। ये तो दो कोड़ी के मदारी भी चौराहों पर कर देते है। तो क्‍या वो संत हो जाते हे। अब तो साक्षात हिमालय ही हमारे आँगन आ कर खड़ा हो गया है। उग्‍गत सेठ ने भगवान के पैर पकड़ कर माफी मांगी, ‘’भगवान मुझ बुद्धि हीन को बालक समझ कर माफ कर दो।‘’
      भगवान—‘’नहीं पुत्र तुम श्रेष्‍ठ हो तुम केवल किनारे पर खड़े थे, बस जरा सा हवा का झोंका ही चाहिए था, वो काम चुलसूभद्या ने कर दिया। ये तो नियति है, उस का खेल है। वो आपके घर, गांव में इसी लिए आई थी। ये तो इस का प्रणाम है। बीज तो हमे दिखाई नहीं देता। संत कितनी भी दुर हो हिमालय की तरह प्रकाशित होता है। समय और काल को वह नहीं मानता। बस तुम्‍हारी श्रद्धा उस द्वार कि कुंजी है।‘’
      इतना अच्‍छा इंतजाम देख कर भिक्षु संध भी दंग  रह गया। क्‍योंकि जब भगवान ने चूल सुभद्रा का निमंत्रण सब के सामने ग्रहण किया था। वहां कोई नहीं था। इस चमत्‍कार से भिक्षु दल भी उतना ही अभिभूत था जितना उग्र नगर, काम जैसे किसी एक व्‍यक्‍ति का न हो कर पूरे उग्र नगर का हो गया था। सब भिक्षु संध के हाथ पेर धुलवाएं गए। पीने को ठंडा जल दिया गया। भगवान को उगत सेठ ने अपने बैठक खाने में ठहराया। बाकी भिक्षु संध धर्मशाला और दालानों मे ठहर गये।
      भोजन के समय भिक्षु संध का भोजन करना देख गांव वाले दंग रह गये थे। कोई अराजकता नहीं, बड़े प्रेम से सब भोजन कर रहे थे। इस से पहले भोजन कराने वालों ने ऐसा दृश्य कभी नहीं देखा था। इससे अधो लोग भी भोजन करे तो मारा मारी हो जाती थी। लेकिन भिक्षु संध तो ऐसे भोजन कर रहा था कि लोगों को अपनी आंखों पर यकीन नहीं आ रहा है। मनुष्‍य नहीं आज वो साधकों को जीवित देवताओं को प्रसाद दे रहे थे। भगवान यह तो चाहते थे लोग देखें दोनों में भेद क्‍यों हो जाता है। परिर्वतन साधक और आम आदमी के जीवन चर्या में।
      श्‍याम को बड़े से मदान में भगवान के अमृत वचन का सत्‍संग पूरे अग्र नगर ने पिया। एक युवक ने खड़े होकर भगवान से पूछा भगवान क्‍या बात इससे पहले हमने अपने गांव में आज से पहले इतनी शांति कभी नहीं जानी थी। न हमारे ह्रदय में ऐसी गुद-गुदा हट पहले कभी उठी थी। न ऐसा कभी महसूस किया था,चलना खाना ये सब क्‍या है, हमारी समझ के बहार की बात है। आज अपना गांव भी हमें अपना नहीं लगता, जैसे कोई देव लोक ही बन गया है। आप लोगो के आने से।
      भगवान—‘’ये सब होश का कमाल है, हमारी जीवन से जैसे तमस कम होती है, वैसे-वैसे हमारे विचार कम होने लग जाते है। दिन में जो विचार है वहीं आँख बद कर लेने से रात स्वप्न बन जाते है। दोनों गुणात्मक भेद नहीं है। जितना हमारा होश बढ़ेगा, उस के साथ-साथ,हमारे स्वप्न,कम होते चले जाएँगे। साथ ही साथ, हमार क्रोध, भय, वासन का अँधेरा कम हात चला जाएगा फिर एक दिन उस अंधेरी अमावस में पूर्णिमा का चाँद चमक उठेगा। फिर तुम्‍हारे पास होगी आंखे तुम सही गलत को देख सकोगे। अभी तो हमारे पास जो आंखें हे, हम देख सकेगें सत्‍य को.....आज इस संध का होश का समुद्र पूरे गांव में भरा है। जड़ चेतन में,जो सालों आप को महसूस होता रहेगा।‘’
      ऐसे बदलते थे मनुष्‍य गांव के गांव जहां भी बुद्ध जाते बुद्धत्‍व की संभावना के सभी तार पीछे छूटते चले जाते थे। आज हजारों साल बाद भी वो तार वो प्रेम इतना अटूट और अदृष्य है। उसे हम तोड़ नहीं पा रहे। बस समय और स्‍थान की दूरी ही मनुष्‍य को कचोटती है। लेकिन प्रेम और ध्‍यान के लिए इस का भी कोई महत्‍व नहीं है। आज भगवान की दूरी 2500वर्ष दूर है या चूलसुभद्या के लिए 25मील यह केवल समय पर ही दिखती है दूरी। समय और स्‍थान प्रेम में तिरोहित हो जाता है। कृष्‍ण और मीरा क्‍या इसी समय और काल के बंधन को लांघ नहीं गये। वही है शाश्‍वत, और तभी हम जीते है अनंत में, वहीं है सत्‍य जो समय और काल जहां पर विलीन हो जाता है। वहीं सनातन-शाश्‍वत है।
      इसके बाद श्रावस्‍ती में एक घटना और घटी ‘’काल’’ जो चूलसुभद्या को छोटा भाई था और अनाथपीड़क का एक मात्र पुत्र था वह कभी भी भगवान के संध या सत्संग में नहीं जाता था। उसने सोचा कि भगवान ने मेरी बहन के साथ न्‍याय नहीं किया। इस लिए वह लाख समझाने बुझाने के बाद भी बात नहीं मानता था। जब चुलसूभद्या की घटना का उसको पता चला तो उसे यकीन ही नहीं हुआ। इस बीच अचानक अनाथ पिंडक ने एक दिन उसे बुला कर कहा की तुम अगर भगवान के सत्संग में जाओगे तो तुम्‍हे एक हजार सवर्ण मुद्रा दी जाएगी। काल प्रवचन में चला गया। और आकर एक हजार स्‍वर्ण मुद्रा ये ले ली दूसरी बार अनाथ पिंडक ने कहा ऐसे नहीं  तूम गए तो जरूर पर केवल तुम्‍हारा शरीर ही वहां गया तुम्‍हारा मन वहां नहीं गया। मन तो तुम्‍हारा एक हजार स्‍वर्ण मुद्रा गिन रहा था। ये जाना भी कोई जाना होता है। आप कल जब जाओं और भगवान ने क्‍या कहां वह तो आकर मुझे  सुनाओ तभी तो  तुम जाना सार्थक होगा कि भगवान ने जो अमृत वचन बोले मेंरे कानों में उनका माधुर्य अगर वो सब मुझे एक-एक बात सतसंग की कहों  की भगवान ने क्‍या कहा था। जभी आपका जाना होगा। काल गया और बह गया उस काल के प्रवाहा में फिर नहीं लोटा घर पर अपनी स्‍वर्ण मुद्रायेलेने के लिए भी। और ले ली दिक्षा बेठ गया भगवान के चरणों में.......ऐसे थे वे लोग।
--मनसा दसघरा