Friday, December 13, 2019

कृष्णाष्टमी आती तो मैं कृष्ण के मंदिर में जाता

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बच्चे सीधे-साफ होते हैं। तो मंदिर में ले चले, कृष्ण कन्हैया खड़े हैं, बांसुरी बजा रहे हैं, राधा मैया खड़ी हैं। पीतांबर पहने हुए हैं, मोर-मुकुट बांधे।
तुम सोचते हो वह कृष्ण में उत्सुक हो रहा है, हो सकता है मोर-मुकुट में उत्सुक हो रहा हो, कि अगर मौका मिल जाए तो मोर-मुकुट ले भागे, कि बांसुरी जंच रही है।
मैं तो अपनी जानता हूं। छोटा था तो मैं मंदिर एक ही काम के लिए जाता था। और वह काम मेरा यह था कि मंदिर में बहुत सुंदर फानूस थे और फानूसों में बड़े सुंदर कांच लटके हुए थे, प्रिज्म वाले कांच थे। बस मेरा कुल रस उन फानूसों में था।
जब भी मौका देखता, एक-आध कांच झटक कर ले आता। उस कांच में से सूरज की रोशनी को निकाल कर इंद्रधनुष बन जाते थे। मैंने बहुत-से कांच इकट्ठे कर लिए थे। धीरे-धीरे फानूस के सब कांच नदारद हो गए।
पंडित-पुजारियों को शक होने लगा कि ये कांच कहां जा रहे हैं! तब मैं पकड़ा गया, क्योंकि और किसी ने खबर दी कि कांच कहीं भी जा रहे हों...किसी ने इसको कांच ले जाते कभी देखा नहीं है। क्योंकि पहले, कांच निकालने के पहले मुझे काफी भक्ति-भाव दिखलाना पड़ता था।
एकदम ऐसा मस्त हो जाता कि जब सब चले जाते, तभी तो कांच निकाल सकता था। पुजारी भी देखता कि यह तो बड़ा धार्मिक बच्चा है, करने दो पूजा! अब पुजारी को भी रोज-रोज कब तक बैठना पड़े। जब तक पुजारी रहे तब तक मेरी पूजा भी खतम न हो। मैं तो आरती उतारता ही रहूं, उतारता ही रहूं, क्योंकि मैं तो पुजारी को हटाने के लिए उतार रहा हूं।
आखिर पुजारी को और भी काम थे। नहाना-धोना भी है, भोजन भी बनाना है, आस-पड़ोस में दूसरों की पूजा करवाने भी जाना है। और वह मुझको रोक भी नहीं सकता था कि ऐसे धार्मिक बच्चे को कैसे रोकें!
वह इधर गया कि पूजा बंद। निकाला कांच एक-दो, जितने भी हाथ लगे, और भागा। लेकिन किसी ने खबर दे दी कि पकड़ा तो यह कभी नहीं गया है, लेकिन हमने इसके पास बहुत कांच देखे हैं।
एक दिन मैं पूजा करता रहा और पुजारी भी जमा रहा। मुझे भी कुछ शक हुआ कि बात क्या है। जब पुजारी हटा ही नहीं, मैं भी थक गया पूजा करते-करते, तो मैंने भी थाली रखी और मैं घर की तरफ चलने लगा।
तो उसने कहा, क्यों? आज कांच नहीं ले जाने? कि तूने मुझे खूब धोखा दिया है, कि मैं समझा कि तू पूजा में रस लेता है और तू कांच निकाल कर ले जाता है।
मैंने कहा, अब तुमसे क्या छिपाना! अब जब बात पता ही चल गई और अब कांच बचे भी नहीं हैं, सो कल से मुझे आना भी नहीं है। अब आकर भी क्या करूंगा?
छोटे बच्चों का अपना रस होता है। क्या लेना-देना तुम्हारी मूर्ति से और तुम्हारे शास्त्र से! मगर धीरे-धीरे संस्कार इन बच्चों को पकड़ना शुरू कर देते हैं। प्रसाद बंटता है मंदिरों में, बच्चों को प्रसाद में रस होता है।
मैं कम से कम तीन-चार दफा प्रसाद तो लेता ही था। कभी टोपी लगा कर ले लूं, कभी टोपी निकाल कर ले लूं। आखिर पुजारी मुझे पहचान गया। उसने कहा, कि भैया, तू क्यों मेहनत करता है? कभी टोपी लगाता है, कभी टोपी निकालता है। पकड़ा न होता उसने; मैं एक दिन मूंछ लगा कर पहुंच गया।
उसने कहा, हद हो गई! अब बंद कर! इस उम्र में इतनी बड़ी मूंछ कहां से आ गई? उसने झटका दिया, मूंछ निकल गई। मैंने कहा, भई मुझे सिर्फ चार दफा प्रसाद चाहिए। अगर तुम वैसे ही देते हो तो मैं बंद कर दूं। और ऐसा नहीं कि मैं कोई एक ही मंदिर जाता था। गांव में सब तरह के मंदिर थे, मुझे क्या लेना-देना?
कृष्णाष्टमी आती तो मैं कृष्ण के मंदिर में जाता। उन दिनों दो पैसे का अधेला चलता था। वह बिलकुल रुपए के बराबर था। उसमें मैं चांदी का वर्क चढ़ा देता था, तो वह रुपए जैसा मालूम पड़ता था। बिजली थी नहीं गांव में। सो दीए की रोशनी में और मंदिरों में इतने पैसे चढ़ते थे, रुपए चढ़ते थे, कि ठीक मूर्ति के सामने लोग पैसे फेंकते जाते थे।
मैं भी जाता और इतने जोर से फेंकता वह नकली रुपया कि सब पुजारियों को पता चल जाए कि हां फेंका और फिर मैं कहता--आठ आने वापस! मेरा रस तो उसमें था।
जन्माष्टमी की मैं प्रतीक्षा करता था, क्योंकि मेरे गांव में कम से कम कृष्ण के तीस मंदिर थे। बस एक आधा घंटे में पंद्रह-बीस रुपए झपट लाता था। और मुझे कुछ कभी नहीं लेना-देना रहा।
मुसलमानों के ताजिए उठते, मैं हाजिर। वली साहब उठते। तो मैं इतना भक्ति-भाव दिखलाता कि मुझे धीरे-धीरे वली साहब की रस्सी भी पकड़ने का मौका मिलने लगा था। और रस्सी का मौका मुझे इतना मिलने लगा और उसका कारण था, क्योंकि जिस वली की भी मैं रस्सी पकड़ लेता था उस पर ही चढ़ौत्तरी ज्यादा आती।
लोग कहने लगे कि इस बच्चे में कुछ खूबी है! चमत्कारी है! और चमत्कार कुल इतना था कि मैं एक लंबी सुई अपने साथ रखता था, सो वली साहब को गुलकता रहता।
वह काफी उछल-कूद मचाते, दूसरे वलियों को हरा देते। स्वभावतः। और जो जितना उछले-कूदे, लगता उतने ही बड़े वली साहब आए हैं। उनको चढ़ौत्तरी भी ज्यादा होती थी।
मगर वह वली साहब, जिसकी भी रस्सी मैं पकड़ता, वही घबड़ा जाते। वह मुझसे कहने लगे, भैया आधी चढ़ौत्तरी तू ले लेना और तुझे जब उचकाना हो सिर्फ हाथ का इशारा किया कर, हम उचकेंगे, मगर यह सुई न चुभाया कर।
उस वक्त हम कुछ कह भी नहीं सकते कि सुई चुभा रहा है यह लड़का, क्योंकि अगर सुई का पता चल रहा है तो तुम वली साहब कैसे! अरे, वली साहब का तो मतलब कि तुम तो रहे ही नहीं, अब तो जिंद उतरे हुए हैं, वली उतरे हुए हैं, वे तुम्हारे ऊपर सवार हैं, तुम्हें कहां पता? अपना होश है तुम्हें तो फिर पता ही चल गया, तो फिर असलियत की बात नहीं, धोखा हो रहा है।
तो मेरे पास चढ़ौतियां आने लगीं--आधी चढ़ौती वली साहब की! कहते, बिलकुल आधी तू ले, आधी से भी ज्यादा ले लेना, मगर देख सुई न चुभाना। रास्ते भर जान ले लेता है कुदा-कुदा कर! जब भी कुदाना हो, तुझे लगे कि हां भई पैसे वालों का मामला है और ज्यादा कुदाई से फायदा होगा, हाथ का इशारा कर।
सभी धर्मों में मैं जाता था। क्योंकि धर्म से मुझे क्या लेना-देना था। आज भी कुछ लेना-देना नहीं है। तब धर्म से लेना-देना नहीं था, अब धार्मिकता से लेना-देना है।
धार्मिकता बासी नहीं होती, उधार नहीं होती, कोई दे नहीं सकता। धार्मिकता संस्कार नहीं है।
सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-08

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