Friday, August 25, 2017

विद्यार्थी क्यों अनुशासनहीन हो गए?

शिक्षकों के सम्मेलन होते हैं तो वे विचार करते हैं, विद्यार्थी बड़े अनुशासनहीन हो गए, इनको डिसिप्लिन में कैसे लाया जाए! कृपा करें, इनको पूरा अनुशासनहीन हो जाने दें, क्योंकि आपके डिसिप्लिन का परिणाम क्या हुआ है, पांच हजार साल से-डिसिप्लिन में तो थे, क्या हुआ? और डिसिप्लिन सिखाने का मतलब क्या है? डिसिप्लिन सिखाने का मतलब है कि हम जो कहें उसको ठीक मानो। हम ऊपर बैठें, तुम नीचे बैठो, हम जब निकलें तो दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम करो या और ज्यादा डिसिप्लिन हो तो पैर छुओ और हम जो कहें उस पर शक मत करो, हम जिधर कहें उधर जाओ, हम कहें बैठो तो बैठो, हम कहें उठो तो उठो। यह डिसिप्लिन है? डिसिप्लिन के नाम पर आदमी को मारने की करतूतें हैं, उसके भीतर कोई चैतन्य न रह जाए, उसके भीतर कोई होश न रह जाए, उसके भीतर कोई विवेक और विचार न रह जाए।

मिलिटरी में क्या करते हैं? एक आदमी को तीन-चार साल तक कवायद करवाते हैं-लेफ्ट टर्न, राइट टर्न। कितनी बेवकूफी की बातें हैं कि आदमी से कहो कि बाएं घूमो, दाएं घूमो। घुमाते रहो तीन-चार साल तक, उसकी बुद्धि नष्ट हो जाएगी। एक आदमी को बाएं-दाएं घुमाओगे, क्या होगा? कितनी देर तक उसकी बुद्धि स्थिर रहेगी। उससे कहो बैठो, उससे कहो खड़े होओ, उससे कहो दौड़ो और जरा इनकार करे तो मारो। तीन-चार वर्ष में उसकी बुद्धि क्षीण हो जाएगी, उसकी मनुष्यता मर जाएगी। फिर उससे कहो, राइट टर्न, तो वह मशीन की तरह घूमता है। फिर उससे कहो, बंदूक चलाओ, तो वह मशीन की तरह बंदूक चलाता है। आदमी को मारो, तो वह आदमी को मारता है। वह मशीन हो गया, वह आदमी नहीं रह गया-यह डिसिप्लिन है? और यह है डिसिप्लिन, हम चाहते हैं कि बच्चों में भी हो। बच्चों में मिलिट्राइजेशन हो...उनको भी एन.सी.सी. सिखाओ, मार डालो दुनिया को, एन.सी.सी. सिखाओ, सैनिक शिक्षा दो, बंदूक पकड़वाओ, लेफ्ट-राइट टर्न करवाओ, मारो दुनिया को। पांच हजार साल में आदमी को...मैं नहीं समझता कि कोई समझ भी आई हो कि चीजों के क्या मतलब है? डिसिप्लिनड आदमी डेड होता है। जितना अनुशासित आदमी होगा उतना मुर्दा होगा।
तो क्या मैं यह कह रहा हूं कि लड़कों को कहो कि विद्रोह करो, भागो, दौड़ो, कूदो क्लास में, पढ़ने मत दो। यह नहीं कह रहा हूं। यह कह रहा हूं कि आप प्रेम करो बच्चों को। बच्चों के हित, भविष्य की मंगलकामना करो। उस प्रेम और मंगलकामना से एक डिसिप्लिन आनी शुरू होती है जो थोपी हुई नहीं है, जो बच्चे के विवेक से पैदा होती है। एक बच्चे को प्रेम करो और देखो कि वह प्रेम उसमें एक अनुशासन लाता है। वह अनुशासन लेफ्ट-राइट टर्न करने वाला अनुशासन नहीं है। वह उसकी आत्मा से जगता है, प्रेम की ध्वनि से जगता है, थोपा नहीं जाता है, उसके भीतर से आता है। उसके विवेक को जगाओ, उसके विचार को जगाओ, उसको बुद्धिहीन मत बनाओ। उससे यह मत कहो कि हम जो कहते हैं वही सत्य है।
सत्य का पता है आपको? लेकिन दंभ कहता है कि मैं जो कहता हूं वही सत्य है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आप तीस साल पैदा पहले हो गए, वह तीस साल पीछे हो गया तो आप सत्य के जानकार हो गए और वह सत्य का जानकार नहीं रहा। जितने अज्ञान में आप हो उससे शायद हो सकता है वह कम अज्ञान में हो क्योंकि अभी वह कुछ भी नहीं जानता है, और आप न मालूम कौन-कौन सी नासमझियां, न मालूम क्या-क्या नोनसेंस जानते होंगे, लेकिन आप ज्ञानी हैं क्योंकि आपकी तीस साल उम्र ज्यादा है। क्योंकि आप ज्ञानी हैं, आपके हाथ में डंडा है इसलिए आप उसको डिसिप्लिनड करना चाहते हैं। नहीं, डिसिप्लिनड कोई किसी को नहीं करना चाहिए, न कोई किसी को करे तो दुनिया बेहतर हो सकती है। प्रेम करें, प्रेम आपका हक है। आप प्रेमपूर्ण जीवन जीयें। आप मंगल कामना करें उसकी, सोचें उसके हित के लिए कि क्या हो सकता है, वैसा करें। और वह प्रेम, वह मंगल कामना असंभव है कि उसके भीतर अनुशासन न ला दे, आदर न ला दे!

आदि शंकराचार्य

आदि शंकराचार्य

मुझे आदि शंकराचार्य के बारे में एक सूंदर घटना का स्मरण आता है, वे पहले शंकराचार्य थे, जिन्होंने चार मंदिरों का निर्माण करवाया था--चारों दिशाओं में बैठे चार शंकराचार्यों के लिए चार गद्दियां। संभवत: पूरी दुनिया में वह उस वर्ग के दार्शनिको में सबसे प्रसिद्ध हैं जो कि यह सिद्ध करने में लगे हैं कि सब माया है। निसंदेह वह एक महान तार्किक थे, क्योंकि वह निरंतर दूसरे दार्शनिकों को पराजित करते आए थे उन्होंने देश भर में घूम कर बाकी सभी दर्शनशास्त्र के विद्यालयों को हरा दिया। उन्होंने अपने दर्शनशास्त्र को एकमात्र उचित दर्शन के रूप में स्थापित कर दिया। वह एकमात्र दृष्टिकोण: कि सब कुछ झूठ है, सब माया है।
 
शंकराचार्य वाराणसी में थे। एक दिन, सुबह-सुबह--अभी अंधेरा ही था, क्योंकि हिन्दू पंडित सूरज उगने से पहले ही नहा लिया करते हैं--उसने स्नान किया। और जब वो सीढ़ियों से ऊपर आ ही रहा था, एक आदमी ने उसको छू लिया और ऐसा गलती से नहीं हुआ था यह उसने जानबूझ कर किया था, "क्षमा करें मैं क्षुद्र हूं, आप को गलती से छू लिया परंतु अब आप को स्वच्छ होने के लिए दौबारा स्नान करना होगा।"
 
शंकराचार्य क्रोधित हो गए। वे बोले, "यह तुमसे गलती से नहीं हुआ, जिस तरीके से तुमने ऐसा किया; उससे साफ़ पता चलता है कि यह तुमने जान-बूझ के किया था। तुम्हे नरक भोगना होगा।"
वह व्यक्ति बोला, "जब सब-कुछ माया है, तो लगता है अवश्य ही नरक सत्य होगा।" शंकराचार्य तो यह सुन कर स्तभ्ध रह गए।
 
वह व्यक्ति बोला, "इससे पहले कि तुम स्नान करने जाओ, तुम्हे मेरे कुछ प्रश्नों का उत्तर देना होगा। यदि तुमने मेरे उत्तर नहीं दिए तो अब जब भी तुम स्नान कर के आओगे मैं तुम्हारा स्पर्श कर लूंगा।"
उस समय वहां एकांत था, सिवाय उन दोनों के कोई नही था, तो शंकराचार्य ने कहा, "तुम बड़े अजीब व्यक्ति हो। क्या हैं तुम्हारे प्रश्न?"
 
उसने कहा, "मेरा पहला प्रश्न है: क्या मेरा शरीर भ्रम है? क्या आपका शरीर भ्रम है? और यदि दो भ्रम शरीर एक दुसरे का स्पर्श कर लेते हैं तो, इसमें आपत्ति क्या है? क्यों आप एक और स्नान लेने के लिए जा रहे हो? जो उपदेश आप देते हो उसका पालन स्वयं ही नहीं करते । एक माया के जगत में, क्या एक अछूत और ब्राह्मण में कोई भेद हो सकता है?- पवित्र और अपवित्र में ?--जब दोनों ही भ्रम हैं, जब दोनों उसी एक तत्व के बने हो जिनके सपने बने होते हैं? तब कैसा उपद्रव?"
 
शंकराचार्य, जो कि बड़े-बड़े दार्शनिको को पराजित कर रहे थे, इस सरल से व्यक्ति को कोई उत्तर नहीं दे पाए क्योंकि जो भी उत्तर वे देते वो उनके खुद के दर्शन के विरुद्ध होता। यदि वे कहते हैं कि यह भ्रम है, तब इसमें क्रोधित होने जैसा कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यदि वे कहते कि ये सत्य है, तब वे इस तथ्य को स्वीकार करते कि शरीर सत्य है... पर तब एक समस्या है। यदि मनुष्य का शरीर सत्य है, तब पशुओं का शरीर, पेड़ो का शरीर, ग्रहों का शरीर, सितारों... सब सत्य है।
 
और उस व्यक्ति ने कहा, "मैं इस बात से अवगत हूं की आपको इसका उत्तर नहीं पता--यह आपके सारे दर्शनशास्त्र को नष्ट कर देगा। मैं आपसे एक और प्रश्न करता हूं: मैं एक क्षुद्र हूं, अछूत हूं, अपवित्र हूं, मेरी अपवित्रता कहां है--मेरे शरीर में या कि मेरी आत्मा में? मैंने आपको यह घोषणा करते सुना है कि आत्मा पूर्ण और शाश्वत रूप से पवित्र है, और उसे अपवित्र करने का कोई उपाय नहीं है; तो दो आत्माओं के बीच भेद कैसे हो सकता है? दोनों ही पवित्र हैं, पूर्णता, पवित्र और अपवित्रता की कोई सीमा नहीं होती--कि कोई ज्यादा पवित्र हो और कोई कम। तो हो सकता है कि मेरी आत्मा ने आपको अपवित्र कर दिया है और आपको दूसरा स्नान करना पड़ रहा है?
 
अब यह और भी कठिन था। लेकिन वह कभी भी इस तरह के परेशानी में नहीं पड़ा था-- यथार्थ, वास्तविक, एक तरह से वैज्ञानिक। बजाय शब्दों से तर्क करने के, उस क्षुद्र ने ऐसी स्तिथि खड़ी कर दी कि अदि शंकराचार्य को अपनी हार स्वीकार करनी पड़ी। और क्षुद्र ने कहा, "तो आपको दुबारा स्नान करने की आवश्यकता नहीं है, वैसे भी वहां कोई नदी नहीं है, मैं भी नहीं, आप भी नहीं; सब स्वप्न ही तो है। आप मंदिर में जाएं--और वह भी एक स्वप्न है--और परमात्मा से प्रार्थना करें, वह भी एक स्वप्न है। क्योंकि वह भी मन द्वारा खड़ा किया हुआ एक प्रक्षेपण है जो कि भ्रम है, और एक भ्रमित मन कुछ भी सत्य प्रक्षेपित नहीं कर सकता।
 

मन के दृष्टा

मन के दृष्टा

मन को देखो और देखो कि वह कहां है, वह क्या है। तुम अनुभव कर पाओगे कि विचार तैर रहे होंगे और वहां पर अंतराल भी होंगे। और यदि तुम थोड़ी देर देखो, तुम देखोगे अंतराल विचारों से अधिक हैं, क्योंकि प्रत्येक विचार दूसरे विचार से पृथक है; सच तो यह है कि प्रत्येक शब्द दूसरे से पृथक है। जितना तुम गहरे जाओगे, तुम उतने ही अधिक से अधिक अंतराल पाओगे, बड़े से बड़े अंतराल। एक विचार तैरता है और फिर अंतराल आता है जहां कोई विचार नहीं होता; तब फिर एक और विचार आता है, एक और अंतराल उसका अनुसरण करता है। 
 
यदि तुम बेहोश हो तो तुम अंतराल नहीं देख सकते; तुम एक विचार से दूसरे विचार पर छलांग लगाते हो, तुम कभी भी अंतराल नहीं देखते। यदि तुम सचेत होओ तो तुम अधिक से अधिक अंतराल देखोगे। यदि तुम पूरी तरह से सचेत हो जाओ, मीलों लंबे अंतराल तुम पर प्रकट होंगे। और इन अंतरालों में सतोरी घटती है। उन अंतरालों में सत्य तुम्हारे द्वार खटखटाता है।

जादू का कानून

मैं तुम्हें एक जीवन के गहरे कानूनों में से एक बताता हूं। तुमने इसके बारे में बिल्कुल नहीं सोचा होगा। तुमने सुना होगा कि –– और पूरा विज्ञान इस पर निर्भर करता है–– कि कारण और परिणाम आधारभूत नियम है। तुम कारण निर्मित करो और परिणाम अनुसरण करता है। जीवन एक कारण-कार्य कड़ी है। तुमने मिट्टी में बीज डाल दिया है और वह अंकुरित होगा। अगर कारण है, तो वृक्ष पीछे चले आएंगे। आग है: तुम उसमें अपना हाथ डालोगे तो जल जाएगा। कारण है तो परिणाम अनुसरण करेंगे। तुम ज़हर लो और तुम मर जाओगे। तुम कारण की व्यवस्था करो और तब परिणाम घटित होता है।
यह एक सबसे बुनियादी वैज्ञानिक कानूनों में से एक है, कि कारण और परिणाम जीवन के सभी प्रक्रियाओं की अंतरतम कड़ी है।
धर्म एक और कानून जानता है जो इससे अधिक गहरा है। लेकिन वह दूसरा कानून जो इससे गहरा है, वह बेतुका लग सकता है अगर तुम उसे नहीं जानते और इसका प्रयोग नहीं करते। धर्म कहते हैं: परिणाम पैदा करो और कारण घटेगा। यह वैज्ञानिक दृष्टि से बिल्कुल बेतुका है। विज्ञान कहता है: यदि कारण है, परिणाम घटेगा। धर्म कहता है, इससे उल्टा भी सच है: परिणाम पैदा करो और देखो, कारण घटेगा।
मान लो एक ऐसी स्थिति बनी है जिसमें तुम खुशी से भर गए हो। एक दोस्त आ गया है, या प्रेमिका का संदेसा आया है। एक स्थिति कारण बनी है – तुम खुश हो। खुशी परिणाम है। प्रेमी कारण बना है। धर्म कहता है: खुश रहो तो प्रेमी आता है। परिणाम पैदा करो और कारण पीछे चला आता है।
यह मेरा अपना अनुभव है कि दूसरा कानून पहले के बनिस्बत अधिक बुनियादी है। मैं यह करता रहा हूं और यह कारगर हो रहा है। बस खुश रहो: प्रिय आता है। बस खुश होओ: दोस्त इकट्ठे होते हैं। बस खुश होओ: सब कुछ घटता है।
जीसस वही बात अलग शब्दों में कहते हैं: पहले तुम प्रभु के राज्य को खोजो, फिर सब कुछ पीछे चला आएगा। लेकिन प्रभु का राज्य अंतिम है , परिणाम है। तुम पहले अंत की खोज करो ––अंत का मतलब है परिणाम, फल – और कारण पीछे होंगे। यह वैसा ही है जैसा कि होना चाहिए। यह ऐसा नहीं है कि तुम सिर्फ मिट्टी में एक बीज डालो और पेड़ उगेगा; एक पेड़ होने दो और करोड़ों बीज पैदा होते हैं। अगर कारण के पीछे परिणाम आता है, तो परिणाम के पीछे फिर से कारण आता है। यह श्रृंखला है! तब यह एक चक्र बन जाता है। कहीं से शुरू करो, कारण पैदा करो या परिणाम पैदा करो।
मैं तुम्हें बता दूं, परिणाम निर्मित करना आसान है क्योंकि परिणाम पूरी तरह तुम पर निर्भर करता है, कारण इतना तुम पर निर्भर नहीं हो सकता। अगर मैं कहूं कि मैं तभी खुश हो सकता हूं जब एक खास दोस्त आया हो, तो यह एक खास दोस्त पर निर्भर करता है, वह वहां हो या नहीं। अगर मैं कहूं कि मैं तब तक खुश नहीं हो सकता जब तक मैं इतना धन प्राप्त नहीं करता, तो यह पूरी दुनिया और आर्थिक स्थितियों और सब कुछ पर निर्भर करता है। यह नहीं भी हो सकता है, और फिर मैं खुश नहीं हो सकता।
कारण मेरे से परे है। परिणाम मेरे भीतर है। कारण वातावरण में है, स्थितियों में, कारण बाहर है। मैं हूं परिणाम! अगर मैं परिणाम बना सकता हूं, कारण अनुसरण करेंगे।
खुशी को चुनो – इसका मतलब है कि तुम परिणाम को चुन रहे हो – और फिर देखो क्या होता है। परमानंद चुनो और देखो क्या होता है। आनंदित होना चुनो और देखो क्या होता है। तुम्हारा पूरा जीवन तुरंत बदल सकता है और तुम चारों ओर चमत्कार होते देखोगे क्योंकि अब तुमने परिणाम पैदा किया है और कारणों को पीछे आना होगा।
यह जादुई दिखेगा, तुम इसे 'जादू का कानून' भी कह सकते हो। पहला विज्ञान का कानून है और दूसरा जादू का कानून। धर्म जादू है, और तुम जादूगर हो सकते हो। यही मैं तुम्हें सिखाता हूं: जादूगर होना, जादू का रहस्य जानना।
इसकी कोशिश करो! तुम पूरी ज़िंदगी दूसरा कानून आज़माते रहे हो, न केवल इस ज़िंदगी में लेकिन कई दूसरे जन्मों में भी। अब मेरी बात सुनो! अब यह जादू का फार्मूला इस्तेमाल करो, यह मंत्र जो मैं तुम्हें दे रहा हूं। परिणाम पैदा करो और देखो क्या होता है; कारण तुरंत तुम्हारे चारों ओर घिर आते हैं, वे अनुसरण करते हैं। कारणों के लिए इंतजार मत करो, तुमने लंबे समय तक इंतज़ार किया है। खुशी को चुनो और तुम खुश होओगे ।
समस्या क्या है? तुम चुनाव क्यों नहीं कर सकते? तुम इस कानून पर अमल क्यों नहीं कर सकते? क्योंकि तुम्हारा मन, समूचा मन वैज्ञानिक सोच से प्रशिक्षित किया गया है जो कहता है कि अगर तुम खुश नहीं हो और तुम खुश होने की कोशिश करते हो तो वह खुशी कृत्रिम होगी। अगर तुम खुश नहीं हो और तुम खुश होने की कोशिश करते हो तो वह सिर्फ अभिनय होगा, वह असली नहीं होगा। यह है वैज्ञानिक सोच, कि वह असली नहीं होगा, तुम सिर्फ अभिनय करोगे।
लेकिन तुम नहीं जानते: जीवन ऊर्जा के काम करने के अपने ही तरीके हैं। यदि तुम पूरी तरह से कार्य कर सकते हो तो वह वास्तविक हो जाएगा। बात सिर्फ इतनी है कि अभिनेता मौजूद नहीं होना चाहिए। उसमें पूरी तरह उतर जाओ तो कोई अंतर नहीं होगा। यदि तुम आधे मन से अभिनय कर रहे हो तो वह कृत्रिम रहेगा।
अगर मैं तुमसे कहूं नाचो, गाओ और आनंदित होओ, और तुम आधे मन से प्रयास करते हो, सिर्फ देखने के लिए कि क्या होता है, लेकिन तुम पीछे खड़े रहते हो, और तुम सोचे चले जाते हो कि यह तो कृत्रिम है; कि मैं कोशिश कर रहा हूं, लेकिन यह नहीं आ रहा है, यह सहज नहीं है –– तो वह अभिनय ही रहेगा, समय की बर्बादी होगी सो अलग।
अगर तुम कोशिश कर रहे हो , तो पूरे दिल से करो। पीछे बने मत रहो, अभिनय में उतरो, अभिनय ही हो जाओ ––अभिनेता को अभिनय में विलीन करो और फिर देखो क्या होता है। यह असली हो जाएगा और फिर तुम्हें लगेगा यह सहज है, यह तुमने नहीं किया है, तुम जान जाओगे कि ऐसा हुआ है। लेकिन जब तक तुम समग्र नहीं होगे, यह नहीं हो सकता। परिणाम पैदा करो, इसमें पूरी तरह से संलग्न होओ, देखो और परिणाम का निरीक्षण करो।
मैं तुम्हें राज्यों के बिना राजा बना सकता हूं , तुम सिर्फ राजाओं की तरह अभिनय करो, और इतनी समग्रता से अभिनय करो कि तुम्हारे सामने एक असली राजा भी ऐसे दिखाई देगा जैसे वह सिर्फ अभिनय कर रहा है। और जब संपूर्ण ऊर्जा उसमें उतरती है, यह वास्तविकता बन जाता है! ऊर्जा हर चीज को वास्तविक बनाती है। अगर तुम राज्यों के लिए प्रतीक्षा करोगे तो वे कभी नहीं आते हैं। एक सिकंदर या नेपोलियन के लिए भी, जिनके बड़े साम्राज्य थे, वे कभी नहीं आए। वे दुखी रहे क्योंकि वे जीवन के दूसरे, अधिक बुनियादी और मौलिक कानून का एहसास नहीं कर पाए। सिकंदर एक बड़ा राज्य बनाने की, एक बड़ा राजा बनने कोशिश कर रहा था। उसका पूरा जीवन राज्य बनाने में व्यर्थ हुआ, और फिर राजा होने के लिए कोई समय नहीं बचा। राज्य पूरा हो इससे पहले वह मर गया।
यह कइयों के साथ हुआ है। राज्य पूरा नहीं हो सका। दुनिया अनंत है, तुम्हारा राज्य आंशिक ही रहनेवाला है। एक आंशिक राज्य के साथ तुम एक समग्र राजा कैसे हो सकते हो? तुम्हारा राज्य सीमित होना स्वाभाविक है और एक सीमित राज्य के साथ तुम सम्राट कैसे हो सकते हो ? यह असंभव है। लेकिन तुम सम्राट हो सकते हो। सिर्फ परिणाम पैदा करो।
स्वामी राम, इस सदी के मनीषियों में से एक, अमेरिका गए। वे खुद को बादशाह राम, सम्राट राम कहते थे। और वे एक फकीर थे! किसी ने उनसे कहा: तुम सिर्फ एक भिखारी हो, लेकिन तुम खुद को सम्राट कहते हो। तो राम ने कहा: मेरी चीज़ों को मत देखो, मुझे देखो। और वे सही थे , क्योंकि अगर तुम चीजों को देखो तो सब लोग भिखारी हैं यहां तक कि एक सम्राट भी। वह एक बड़ा भिखारी है, बस इतना ही हो सकता है। जब राम ने कहा: मुझे देखो! उस पल में, राम सम्राट थे। यदि तुम देखते तो सम्राट को पाते।
परिणाम पैदा करो, सम्राट हो जाओ, जादूगर हो जाओ; और इसी पल से, क्योंकि इंतज़ार करने की कोई जरूरत नहीं है। इंतजार तब करना होता है जब साम्राज्य पहले आने की जरूरत होती है। अगर कारण पहले पैदा करना हो तो इंतज़ार और इंतज़ार और इंतज़ार करो और स्थगित किए जाओ। परिणाम पैदा करने के लिए इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं है। तुम इसी क्षण सम्राट हो सकते हो।
मैं, जब कहता हूं, हो जाओ ! बस सम्राट हो जाओ और देखो: राज्य चला आएगा। मैं इसे अपने अनुभव के माध्यम से जानता हूं। मैं एक सिद्धांत या थिओरी के बारे में बात नहीं कर रहा हूं। खुश रहो, और तुम खुशी के उस शिखर में देखोगे, पूरी दुनिया तुम्हारे साथ खुश है।
एक पुरानी कहावत है: हंसो और दुनिया तुम्हारे साथ हंसती है, रोओ, और तुम अकेले रोते हो। यहां तक कि पेड़, पत्थर, रेत, बादल ... अगर तुम परिणाम पैदा कर सकते हो और खुश हो सकते हो, वे सब तुम्हारे साथ नृत्य करेंगे, फिर सारा अस्तित्व एक नृत्य, एक उत्सव बन जाता है। लेकिन यह तुम पर निर्भर करता है, अगर तुम परिणाम पैदा सकते हो। और मैं तुमसे कहता हूं, तुम इसे पैदा कर सकते हो। यह सबसे आसान बात है। यह बहुत मुश्किल लगता है क्योंकि तुमने अभी तक यह कोशिश नहीं की है। कोशिश करके देखो।
माइ वै दि वै ऑफ दि वाइट क्लाउड Talk #3

Tuesday, February 28, 2017

प्रसन्नता


यदि तुम अप्रसन्न हो तो तुम्हारे पास अप्रसन्न होने का कारण है; यदि तुम प्रसन्न हो तो तुम बस प्रसन्न हो--इसके लिए कोई कारण नहीं है। तुम्हारा मन कारण ढूंढ़ने का प्रयास करता है क्योंकि यह अकारण में विश्वास नहीं कर पाता क्योंकि यह अकारण को नियंत्रित नहीं कर सकता--अकारण के साथ मन नपुसंक हो जाता है। इसी कारण मन यह या वह कारण ढूंढ़ता चला जाता है। लेकिन मैं तुम्हें कहना चाहता हूं कि जब कभी तुम प्रसन्न हो, तुम बिना किसी कारण के प्रसन्न हो, जब कभी तुम अप्रसन्न हो, अप्रसन्न होने का तुम्हारे पास कोई कारण होगा--क्योंकि प्रसन्नता ऐसी चीज है जिससे तुम बने हो। यह तुम्हारी चेतना है, यह तुम्हारी आत्यंतिक वास्तविकता है। 
 
आनंद तुम्हारा आत्यंतिक मर्म है। वृक्षों को देखो, पक्षियों को देखो, बादलों को देखो, तारों को देखो...और यदि तुम्हारे पास आंखें हैं तो तुम यह देख पाने में सक्षम होओगे कि सारा अस्तित्व आनंद से भरा है। हर चीज बस प्रसन्न है। वृक्ष प्रसन्न हैं बिना किसी कारण के; वे प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बनने वाले नहीं हैं और वे अमीर नहीं होने वाले हैं और उनके पास कभी बैंक बेलेंस नहीं होगा। फूलों को देखो--बिना किसी कारण के। बस यह अविश्वसनीय है कि फूल कितने प्रसन्न हैं। सारा अस्तित्व आनंद से बना है।

खिलावट

"स्मरण रखें, ध्यान तुम में और-और प्रज्ञा लाएगा, अनंत प्रज्ञा, दीप्तिमान प्रज्ञा। ध्यान तुम्हें और जीवंत और संवेदनशील बना देगा। तुम्हारा जीवन समृद्ध हो जाएगा।"साधु-संतो को देखो: उनका जीवन ऐसा हो गया है जैसे कि वो जीवन ही नहीं। ये लोग ध्यानी नहीं हैं। ये अपने आप को सताने वाले लोग हैं, खुद को प्रताड़ित करते हैं और उस प्रताड़ना में आनंद लेते हैं... मन बहुत ही चालाक होता है, वो कुछ भी करता चला जाता है और उसे तर्कसंगत बनाता जाता है।"आमतौर पर तुम दूसरों के प्रति हिंसक होते हो परंतु मन बहुत चालाक है-- वह अहिंसा सीख सकता है, वह अहिंसा का पाठ पढ़ा सकता है, तब वह खुद के प्रति ही हिंसक हो जाता है। और जो हिंसा तुम खुद के प्रति करते हो उसको लोग बहुत आदर देते हैं क्योंकि ये उनकी मान्यता है कि तपस्वी बहुत धार्मिक होता है। ये निपट मूढ़ता है। परमात्मा कोई सन्यासी नहीं, नहीं तो संसार में ना फूल होंगे, ना हरियाली, बस रेगिस्तान होंगे। परमात्मा कोई सन्यासी नहीं, नहीं तो जीवन में ना तो नृत्य रहेगा न संगीत, बस शमशान ही शमशान घाट होंगे। परमात्मा कोई सन्यासी नहीं है: परमात्मा जीवन का आनंद लेता है। परमात्मा तुम्हारी कल्पना से भी अधिक ‘एपिक्यूरियन’ है। यदि तुम परमात्मा के बारे में विचार करते हो तो ‘एपिक्युरस’ के संधर्भ में उसका विचार करना। परमात्मा नित नए सुख, आनंद और उन्माद की खोज है। इसे स्मरण रखें।"परंतु मन बहुत होशियार होता है। यह अपंगता को ध्यान के रूप में तर्कसंगत कर सकता है। यह जड़ता को समाधि के रूप में तर्कसंगत कर सकता है। यह निष्प्राण को त्याग के रूप में तर्कसंगत कर सकता है।" इससे सावधान रहो। हमेशा स्मरण रखो यदि तुम सही दिशा में चलते रहे, तुम एक फूल की तरह खिलते रहेगो।"

खेलपूर्ण

"ध्यान का मन से कोई लेना-देना नहीं है, यह कुछ मन के पार की बात है। इसके लिए पहला कदम है खेलपूर्ण होना। यदि तुम इसके प्रति खेलपूर्ण हो, तो मन तुम्हारे ध्यान को नष्ट नहीं कर सकता। नहीं तो यह इसको भी एक अहंकार की यात्रा बना लेगा; यह तुमको बहुत गंभीर बना देगा। तुम सोचने लगोगे कि, 'में एक महान ध्यानी हूं। मैं दूसरों से ज्यादा पवित्र हूं, और पूरी दुनिया बहुत ही सांसारिक है--मैं धार्मिक हूं, मैं पवित्र हूं।‘ बहुत से तथाकथित सन्यासियों के साथ यही हुआ है, संत, नैतिकवादी, प्योरिटन्स: यह सब बस एक अहंकार को भरने का खेल खेल रहे हैं, सूक्ष्म अहंकार के खेल।
"इसलिए मैं शुरुआत से ही इसकी जड़ें काट देना चाहता हूं। इसको लेकर खेलपूर्ण रहो। ये एक गीत है जो गाना है। ये एक नृत्य है जो नाचना है। इसे मन बहलाव के लिए करो और तुम्हे आश्चर्य होगा: यदि तुम ध्यान को लेकर खेलपूर्ण हो सकते हो तो, ध्यान तुम्हारे भीतर छलांग और उछाल बन के बढ़ने लगता है। परंतु तुम किसी गन्तव्य की लालसा में नहीं होते; तुम केवल मौन बैठने का आनंद उठा रहे हो, केवल चुपचाप बैठने की क्रिया में आन्दित हो-- ऐसा नहीं कि तुम किसी प्रकार की सिद्धियां प्राप्त करने की या चमत्कारों की आस में हो। यह सब बकवास है, वही पुरानी बकवास, वही पुराना खेल, नए शब्दों में लिपटा हुआ, नए ढंग से किया हुआ...
जीवन को एक लौकिक मजाक की तरह लेना चाहिए-- और तब तुम अनायास ही विश्रांत हो जाते हो क्योंकि तब कुछ भी तनावपूर्ण होने जैसा नहीं है। और उस विश्राम में, तुम में कुछ बदलने लगता है-- एक अकस्मात परिवर्तन, एक रूपांतरण--और जीवन की छोटी-छोटी बातें नए अर्थ प्रकट करने लगती हैं, नए महत्व रखने लगती है। तब कुछ भी छोटा नहीं होता, हर चीज एक नया स्वाद लेने लगती है, एक नई आभा; तुम्हें हर तरफ एक भगवत्ता की प्रतीति होने लगती है। तब कोई ईसाई नहीं बन जाता, तब कोई हिन्दू नहीं बन जाता, तब कोई मुसलमान नहीं बन जाता; बस वो सहज ही जीवन को प्रेम करने वाला बन जाता है। तब वह एक ही बात सीख लेता है, कैसे जीवन में आनन्द से जिया जाए।
परंतु जीवन में आनंद है परमात्मा की ओर उन्मुख होना। परमात्मा की ओर नृत्य करते हुए आगे बढ़ना, परमात्मा की ओर हंसते हुए आगे बढ़ना, परमात्मा की ओर गीत गाते हुए जाना!”
Osho, The Golden Wind

Monday, February 27, 2017

RELAXATION

"Meditation is rest, absolute rest, a full stop to all activity – physical, mental, emotional. When you are in such a deep rest that nothing stirs in you, when all action as such ceases – as if you are fast asleep yet awake – you come to know who you are. Suddenly the window opens. It cannot be opened by effort because effort creates tension – and tension is the cause of our whole misery. Hence this is something very fundamental to be understood that meditation is not effort.
"One has to be very playful about meditation, one has to learn to enjoy it as fun. One has not to be serious about it – be serious and you miss. One has to go into it very joyously. And one has to keep aware that it is falling into deeper and deeper rest. It is not concentration, just the contrary, it is relaxation. When you are utterly relaxed, for the first time you start feeling your reality; you come face to face with your being. When you are engaged in activity you are so occupied that you cannot see yourself. Activity creates much smoke around you, it raises much dust around you; hence all activity has to be dropped, at least for a few hours per day.
"That is only so in the beginning. When you have learnt the art of being at rest you can be both active and restful together, because then you know that rest is something so inner that it cannot be disturbed by anything outer. The activity goes on at the circumference, at the center you remain restful. So it is only in the beginning that activity has to be dropped for a few hours. When one has learned the art, then there is no question: for twenty-four hours a day one can be meditative and one can continue all the activities of ordinary life.
"But remember, the key word is rest, relaxation. Never go against rest and relaxation. Arrange your life in such a way, drop all futile activity because ninety per cent is futile; it is just for killing time and remaining occupied. Do only the essential and devote your energies more and more to the inner journey. Then that miracle happens when you can remain at rest and in action together, simultaneously. That is the meeting of the sacred and the mundane, the meeting of this world and that, the meeting of materialism and spiritualism."

राजनीतिक अंधापन


आणविक युद्ध क्षितिज पर है, एड्‌स जैसा घातक रोग तेज गति से फैल रहा है, और वैज्ञानिक कहते हैं कि पृथ्वी अपनी धूरी को इस सदी के अंत में बदल लेगी।
लेकिन पंडित, राजनेता और सरकारें इन तथ्यों के बारे में सचेत क्यों नहीं हैं? और क्यों वे जनता में जागरुकता पैदा करने में रुचि नहीं रखते? 
यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है जो पूछा जा सकता है, लेकिन तुम्हें कुछ गहरे आशय समझने होंगे, जिनके बारे में हो सकता है कि तुम सचेत न हो।
लोगों को भविष्य के प्रति बेखबर रखने में राजनेताओं और पंडित -पुजारियों के निहित स्वार्थ होते हैं। कारण बड़ा सरल है : यदि लोग भविष्य के प्रति, आने वाले अंधकार के प्रति, और मौत जो प्रतिपल पास आ रही है, उसके प्रति सजग हो जाते हैं तो यहां पूरी दुनिया में लोगों की चेतना में एक बड़ी क्रांति हो जाएगी। और राजनेता और पंडित -पुजारी जिन्होंने सदियों से मानवता पर शासन किया है, वे अच्छी तरह से जानते हैं कि वे कोई भी समस्या का निदान नहीं दे सकते जो मानवता भविष्य में देखने वाली है। वे पूरी तरह से नपुसंक हैं। समस्याएं बहुत बड़ी हैं और वे बड़े क्षुद्र हैं। अपने चेहरे बचाने का एक मात्र तरीका यह है कि लोगों को आने वाले कल की बातों के प्रति पूरी तरह से बेखबर रखा जाए।
मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि दुनिया भर में राजनीति सिर्फ बचकाने लोगों को आकर्षित करती है। यह अलबर्ट आइस्टींन, बर्टेंड रसल, जॉन पॉल सार्त्र, रवीन्द्रनाथ टैगोर को आकर्षित नहीं करती...नहीं, यह एक तरह के लोगों को आकर्षित करती है। मनोवैज्ञानिक इस बात को जानते हैं कि जो लोग हीनता की ग्रँथि से ग्रसित हैं वे लोग राजनीति की तरफ आकर्षित होते हैं, क्योंकि राजनीति उन्हें शक्ति दे सकती है। और शक्ति के द्वारा वे स्वयं को और दूसरों के सामने सिद्ध कर सकते हैं कि वे क्षुद्र नहीं हैं, कि वे औसत दर्जे के नहीं हैं।

जॉर्ज गुरजिएफ

गुरजिएफ कहता है, "तुम मात्र शरीर के और कुछ नहीं, और जब शरीर मरेगा तुम भी मरोगे। कभी एकाध दफा कोई व्यक्ति मृत्यु से बच पाता है--केवल वही जो अपने जीवन में आत्मा का सृजन कर लेता है मृत्यु से बचता है--सब नहीं। कोई बुद्ध; कोई जीसस, पर तुम नहीं। तुम बस मर जाओगे, तुम्हारा कोई निशान नहीं बचेगा।"
गुरजिएफ क्या करना चाह रहा था? वह तुम्हें तुम्हारी जड़ों से हिला रहा था; वह तुम्हारी हर तरह की सांत्वना और मूर्खता भरे सिद्धांत छीन लेना चाहता था जो तुम्हें खुद पर काम को स्थगित करने में सहायता करते हैं। अब यदि लोगों को यह बताना, "तुम्हारे पास कोई आत्मा नहीं है, तुम केवल भाजी तरकारी हो, फूलगोभी या फिर पत्तागोभी"-- फूलगोभी भी कॉलेज से शिक्षित एक पत्तागोभी है--" उससे अधिक कुछ भी नहीं।" वह वाकई में एक सर्वोत्कृष्ट सद्गुरु था। वह तुम्हारे पांव तले जमीन खींच रहा था। वह तुम्हें ऐसा झटके दे रहा था कि तुम्हें पूरी स्थिति के बारे में सोचना पड़ता: क्या तुम पत्तागोभी बन के रहना चाहते हो? वह तुम्हारे आस-पास ऐसी परिस्थिति खड़ी कर रहा था जिसमें तुम्हें आत्मा को पाने के लिए खोजबीन करनी पड़े, क्योंकि मरना कौन चाहता है?
और इस विचार ने कि आत्मा अमर है लोगों को बहुत सांत्वना दी है कि वे कभी मरेंगे नहीं, कि मृत्यु केवल एक झलक है, केवल एक लंबी नींद, एक शांतिप्रद नींद, और तुम फिर से जन्म लोगे। गुरजिएफ कहता है, "यह सब बकवास है, पूरी बकवास। मरे कि तुम हमेशा के लिए मरे--जब तक कि तुम आत्मा को निर्मित नहीं कर लेते..." 
अब अंतर देखें: तुम्हें कहा गया है कि पहले से ही एक आत्मा हो, और गुरजिएफ पूरी तरह से इसे बदल देता है। वह कहता है, "तुम पहले से आत्मा नहीं हो, परंतु एक संभावना मात्र हो। तुम इसका उपयोग कर सकते हो, या चूक सकते हो।"
और मैं तुम्हें बताना चाहूंगा कि गुरजिएफ केवल एक युक्ति का उपयोग कर रहा था। यह सच नहीं है। हर एक व्यक्ति आत्मा के साथ पैदा होता है। पर उन लोगों के साथ क्या किया जाए जो उसे सांत्वना की तरह प्रयोग करते आए हैं? कभी- कभी एक महान सद्गुरु को झूठ बोलना पड़ता है--और केवल एक महान सद्गुरु को ही झूठ बोलने का अधिकार है-- तुम्हें नींद से जगाने के लिए।
  
गुरजिएफ की बहुत आलोचना हुई क्योंकि वह झूठा था--और झूठ सूफियों द्वारा आया; वह एक सूफी था। उसका शिक्षण सूफी आश्रमों और स्कूलों में हुआ था। और असल में, अपने समय में, पश्चिम में उसने सूफीवाद को एक नए रूप में शुरू किया था। परंतु तब एक साधारण ईसाई मन के लिए उसे समझ पाना असंभव था क्योंकि सत्य मूल्यवान है, और कोई सोच नहीं सकता कि कोई संबुद्ध सद्गुरु झूठ बोल सकता है।
क्या तुम सोच सकते हो कि जीसस झूठ बोलेंगे? और मुझे पता है कि उन्होंने झूठ कहा--लेकिन ईसाई इसके बारे में सोच भी नहीं सकते: "जीसस झूठ कह रहे हैं? नहीं, वे सबसे सच्चे व्यक्ति थे।" लेकिन फिर तुम्हें पता नहीं--ज्ञान का प्रश्न बहुत-बहुत खतरनाक होता है। उन्होंने बहुत सी बातों के बारें में झूठ बोला--एक सद्गुरु को बोलना पड़ता है, अगर वह तुम्हारी मदद करना चाहता है। अन्यथा, वह एक संत हो सकता है, लेकिन उसके द्वारा कोई मदद संभव नहीं। और बिना मदद किये एक संत मुर्दा होता है। और यदि कोई संत मदद नहीं कर सकता, उसके यहां होने का क्या फायदा? इसमें कोई अर्थ नहीं।जो कुछ भी वह जीवन से अर्जित कर सकता था, उसने कर लिया। वह मदद के लिए यहां है। 
गुरजिएफ की बहुत आलोचना हुई क्योंकि पश्चिम उसे समझ नहीं पाया, एक साधारण ईसाई मन उसे समझ नहीं पाया। तो पश्चिम में गुरजिएफ के बारे में दो तरह की सोच है। एक सोचता है कि वह एक बहुत ही शरारती व्यक्ति था--संत तो बिल्कुल नहीं, बस शैतान का अवतार। दूसरा कि वह एक महान संत था जिसके बारे में पश्चिम को पिछली कुछ सदियों से पता चला है। यह दोनों बातें सच हैं, क्योंकि वह बिल्कुल मध्य में था। वह एक 'po' व्यक्तित्व था। ना तो तुम उसके बारे में हां कह सकते हो और ना ही ना कह सकते हो। तुम कह सकते हो कि वह एक पवित्र पापी था, या फिर पापी संत। पर तुम विभाजन नहीं कर सकते, तुम उसके बारे में सरल नहीं हो सकते। जो ज्ञान उसे था वह बहुत ही जटिल था।
  
गुरजिएफ कहता है: द्रष्टा को याद रखो--आत्म-स्मृति। बुद्ध कहते हैं: द्रष्टा को भूल जाओ बस दृश्य को देखो। यदि तुम्हें बुद्ध और गुरजिएफ में से किसी एक को चुनना पड़े, तो मैं कहूंगा बुद्ध को चुने। गुरजिएफ के साथ एक खतरा है की तुम अपने प्रति सचेत होने कि बजाय अपने प्रति संकोची हो सकते हो, तुम अहंकारी हो सकते हो। मैंने महसूस किया कि कई गुरजिएफ के शिष्यों में, वे अत्यधिक अहंकारी हो गए। ऐसा नहीं की गुरजिएफ अहंकारी था--वह अपने समय के गिने-चुने संबुद्ध व्यक्तियों में से एक था; परंतु उसकी इस विधि में एक खतरा है, स्वयं के प्रति सचेत होने में और आत्म-स्मृति में भेद करना अति कठिन है। यह इतना सूक्ष्म है कि इसमें भेद करना लगभग नामुमकिन है; अनजान लोगों के लिए यह लगभग पूरी संभावना है की उन्हें आत्म-संकोच घेर ले; यह आत्म-स्मृति नहीं होगी।
यह शब्द "आत्मा" खतरनाक है-- तुम आत्मा के विचार में ज्यादा से ज्यादा स्तिथ होने लगते हो। और आत्मा का ख्याल तुम्हें आस्तित्व से दूर कर देता है।
बुद्ध कहते हैं आत्मा को भूल जाओ, क्योंकि आत्मा है ही नहीं; आत्मा बस एक व्याकरण का शब्द है, भाषागत शब्द है--यह अस्तित्वगत नहीं है। तुम बस तत्व को गौर से देखो। तत्व को देखने पर, तत्व विलीन होने लगता है। जब तत्व विलीन हो जाता है, अपने क्रोध को देखो--और उस देखने में, तुम उसे विलीन होते हुए देखोगे--जैसे ही क्रोध विलीन होता है मौन आ जाता है। वहां कोई आत्मा नहीं होती, कोई देखने वाला नहीं बचता और ना ही कुछ देखने के लिए; तब मौन आता है। मौन विपस्सना द्वारा लाया जाता है, बुद्ध द्वारा दी गई जागरूकता की विधि।
  
एक बूढ़ी औरत आस्पेंस्की से बहुत ज्यादा प्रभावित हो गई, और फिर वह गुरजिएफ से मिलने चली गई। केवल एक सप्ताह के भीतर वह लौट आई, और उसने आस्पेंस्की से कहा, "मुझे लगता है कि गुरजिएफ महान है, पर यह मुझे पक्का नहीं है कि वह अच्छा है या बुरा, कि वह शैतान है या संत। इसका मुझे पक्का नहीं है। वह महान है - इतना तो पक्का है। लेकिन वह एक महान शैतान, या एक महान संत हो सकता है - इसका पक्का नहीं है।" और गुरजिएफ ने इस तरह से व्यवहार किया कि वह का ऐसा प्रभाव छोड़े।
एलन वाट ने गुरजिएफ के बारे में लिखा है और उसे एक बदमाश संत कहा है--क्योंकि कभी-कभी वह एक बदमाश की तरह व्यवहार करता, पर वह सब एक अभिनय होता था और जानबूझ कर किया गया था, उन सब से बचने के लिए जो अनावश्यक समय और ऊर्जा ले लेते थे। ये सब उनको वापस भेजने के लिए किया गया था जो केवल तभी काम करते थे जब उन्हें पक्का हो। केवल उन्हें ही अनुमति दी जाती जो तब भी कर सकते जब भले जिन्हें गुरु के ऊपर भरोसा ना हो लेकिन खुद पर भरोसा होता।
और गुरजिएफ के प्रति समर्पण, तुम्हें रमण महर्षि के प्रति समर्पण की तुलना में ज्यादा रूपांतरित कर देगा, क्योंकि रमण महर्षि इतने सरल और इतने सीधे हैं कि वहां समर्पण कुछ अर्थ नहीं रखता। तुम उसके सिवा कुछ कर भी नहीं सकते। वे इतने खुले हैं--बिल्कुल एक बच्चे के सामान-- इतने पवित्र कि समर्पण घट ही जाएगा। किन्तु यह समर्पण रमण महर्षि की वजह से होगा, तुम्हारी वजह से नहीं। जहां तक तुम्हारा प्रश्न है इसके कोई मायने नहीं। यदि गुरजिएफ के प्रति तुम्हारा समर्पण होता, तब यह तुम्हारे कारण हुआ, क्योंकि गुरजिएफ किसी भी प्रकार से इसका समर्थन नहीं करने वाला।
बल्कि, वह इस में सब तरह की बाधाएं खड़ी करेगा। अगर तब भी तुम समर्पण कर देते हो, यह तुम्हें रूपांतरित कर देगा। तो उसके बारे में पूरी तरह से निश्चित होने की जरुरत नहीं--और यह असंभव है--किन्तु तुम्हें खुद के बारे में निश्चित होना जरुरी है।