Thursday, March 12, 2020

जो पूंजीवाद आज मौजूद है, इसमें इतना भ्रष्टाचार है, इतनी घूसखोरी है, इतनी रिश्वत है,

एक और मित्र ने पूछा है, एक दो छोटे-छोटे सवाल। एक मित्र ने पूछा है कि यह जो पूंजीवाद आज मौजूद है, इसमें इतना भ्रष्टाचार है, इतनी घूसखोरी है, इतनी रिश्वत है, क्या आप इसके भी समर्थक हैं?

यह घूसखोरी, भ्रष्टाचार, रिश्वत पूंजीवाद के कारण नहीं है। इसके कारण बिलकुल दूसरे हैं, उनका पूंजीवाद से कोई लेना-देना नहीं है।
जिस देश में इतनी गरीबी हो उस देश में सदाचार हो सकता है, यह चमत्कार होगा। यह संभव नहीं है। जहां जीना इतना कठिन हो, वहां आदमी ईमानदार रह सकेगा, यह मुश्किल है। हां, एकाध आदमी रह सकता है। कोई संकल्पवान रह सकता है, लेकिन इतना संकल्प सबके पास नहीं है और इसके लिए उन्हें दोषी भी नहीं ठहराया जा सकता।
जिंदगी में जहां जीने के लिए बेमानी शर्त बनाना पड़ता हो--यहां इतने बड़े कमरे में हम सारे लोग बैठे हैं और यहां बीस-पच्चीस रोटी हों और हम सब भूखे हों तो आप सोचते हैं, शिष्टाचार बचेगा? और वह शिष्टाचार, अगर नहीं बचा, तो क्या इस भवन को आप गाली देंगे कि यह भवन भ्रष्टाचार पैदा करवा रहा है? भ्रष्टाचार भवन पैदा नहीं करवा रहा है! भ्रष्टाचार! पच्चीस रोटियां और पच्चीस सौ खाने वाले भूखे हैं, इनकी वजह से भ्रष्टाचार पैदा हो रहा है। इस कमरे का कोई कसूर नहीं है, भवन का कोई कसूर नहीं, यह पूंजीवाद की व्यवस्था का कोई कसूर नहीं है कि भ्रष्टाचार है। भ्रष्टाचार का कारण दूसरा है। भ्रष्टाचार का कारण यह है कि भूख ज्यादा है, रोटी कम है। नंगे शरीर ज्यादा हैं, कपड़े कम हैं। आदमी ज्यादा हैं, मकान कम हैं। जीने की सुविधा कम है, और जीने वाले रोज बढ़ते चले जा रहे हैं। इसके बीच जो तनाव पैदा होगा, वह भ्रष्टाचार ले आएगा। इस भ्रष्टाचार को कोई नेता नहीं मिटा सकता। क्योंकि नेतागण सोचते हैं कि जैसे भ्रष्टाचार को मिटाना...वह जिस ढंग से सोचते हैं, कोई साधु-सेवक-समाज बना लेता है कि इससे हम भ्रष्टाचार मिटा देंगे।
कुछ ऐसा लगता है कि हम जिंदगी के गणित को सीधा देखने से चूक ही जाते हैं। साधु-सेवक-समाज बनाने से क्या भ्रष्टाचार मिटा दोगे? ये साधु जाकर सारे मुल्क को समझायेंगे कि भ्रष्टाचार मत करो। तो क्या भ्रष्टाचार बंद हो जाएगा? यह समझाने का मामला है कि भ्रष्टाचार मत करो!
यह समझाने की बात होती तो हम करते ही न, यह समझाने की बात नहीं है। यह जीने का--‘एक्झिस्टेंशियल’ प्रश्न है। यहां अस्तित्व खतरे में है। यह प्रवचन से हल होनेवाला नहीं है कि सारे हिंदुस्तान के साधु गांव-गांव जाकर समझाएं कि भ्रष्टाचार मत करो। तो बस भ्रष्टाचार बंद हो जाएगा। यहां कोई शिक्षा की कमी नहीं है और न प्रवचनों की कमी है। और यह न होगा कि बच्चों को गीता और रामायण कंठस्थ करवा दें तो भ्रष्टाचार मिट जाएगा कि नैतिक शिक्षा दे दें, हर स्कूल में। पढ़ लेंगे गीता को, रामायण को, भ्रष्टाचार नहीं मिट जाएगा। क्योंकि भ्रष्टाचार के होने के कारण अस्तित्व में छिपे हैं। यह कोई सिद्धांतों की बात नहीं है। और नेतागण चिल्लाते रहे हैं कि हम भ्रष्टाचार को मिटा देंगे, वे चाहे जो इंतजाम करे। वे जो भी इंतजाम करेंगे वही भ्रष्टाचारी हो जाएगा। और मजा तो यह है कि वह जो नेता जितने जोर से मंच पर चिल्लाते हैं कि भ्रष्टाचार मिटा देंगे, वे उस मंच तक बिना भ्रष्टाचार के पहुंच नहीं पाते। जहां से भ्रष्टाचार मिटाने का व्याख्यान देना पड़ता है, उस मंच तक पहुंचने के लिए भ्रष्टाचार की सीढ़ियां पार करनी पड़ती हैं।
अब यह इतना जाल है कि सिद्धांतों से होने वाला नहीं है। इस जाल की बुनियादी जड़ को पकड़ना पड़ेगा और अगर हम जड़ को पकड़ लें तो बहुत चीजें साफ हो जाएं। हमें मान लेना चाहिए कि आज के भारत में ईमानदारी की बात करना बेकार है। न नेता को करना चाहिए, न साधु को करना चाहिए। हमें मान लेना चाहिए कि बेईमानी नियम है। इसमें झंझट नहीं करनी चाहिए। इसमें झगड़ा खड़ा नहीं करना चाहिए। तब कम से कम बेईमानी सीधी साफ तो हो सकेगी। यानी मुझे आपकी जेब में हाथ डालना है तो मैं सीधा तो डाल सकूंगा। नाहक आप सोएं और रात में आपके घर मैं आऊं, जेब में हाथ डालूं और फिर सुबह मंदिर जाऊं और व्याख्यान करूं कि चोरी करना पाप है। यह सब जाल की जरूरत नहीं है। हिंदुस्तान में बेईमानी जो है आज की समाज-व्यवस्था में, अगर न हो, तो या तो समाज-व्यवस्था टूट जाए, या तो हम मर जाएं। बेईमानी इस वक्त लुब्रीकेटिंग का काम कर रही है। वह लुब्रीकेशन है। वह जरा पहिए को तेल दे देती है और चलने लायक बना देती है। अगर यह मुल्क कसम खा ले ईमानदार होने की, तो मर जाए। वह जिंदा नहीं रह सकता है और जिन लोगों ने कसम खा ली ईमानदारी की उनसे आप पूछ लो कि वे जिंदा हैं कि मर गए। उनकी आवाज शायद ही निकले, क्योंकि वे मर ही चुके होंगे।
भ्रष्टाचार हमारी इस समाज-व्यवस्था में, हमारी इस समाज की दीनता और दरिद्रता में, हमारे समाज की इस भुखमरी हालत में इस यंत्र-विहीन अनौद्योगिक संपत्ति शून्य समाज में अनिवार्यता है। इसमें चिल्लाने की कोई जरूरत नहीं है, न किसी को गाली देने की जरूरत है।
मैं जापान की छोटी सी किताब पढ़ रहा था शिष्टाचार के नियमों की। तो उसमें लिखा हुआ है कि किसी आदमी से उसकी तनख्वाह न पूछें। तब बहुत हैरान हुआ कि क्या मामला है। हमसे बड़े अविकसित मालूम होते हैं जापानी। हम तो तनख्वाह ही नहीं पूछते, यह भी पूछते हैं उससे कि कुछ ऊपर से भी मिलता है कि नहीं। यह बड़े पक्के गंवार मालूम पड़ते हैं। इनको इतना पता नहीं कि भारत जैसा सुसंस्कृत और सभ्य देश वहां आम तनख्वाह के ऊपर क्या मिलता है, यह भी पूछते हैं। न केवल पूछते हैं बल्कि बताने वाला बताता ही है कि कुछ भी नहीं मिलता है, थोड़ा ही मिलता है, कुछ ज्यादा नहीं मिलता। उस किताब में नीचे नोट लिखा हुआ है कि किसी से तनख्वाह पूछना अपमानजनक हो सकता है, क्योंकि हो सकता है उसकी तनख्वाह कम हो और उसे चार आदमियों के सामने तनख्वाह बतानी पड़े, या हो सकता है कि उसे इतना संकोच लगे कि उसे व्यर्थ झूठ बोलना पड़े, जितनी उसकी तनख्वाह न हो उतनी बतानी पड़े, इसलिए तनख्वाह नहीं पूछनी चाहिए।
इस मुल्क में हमें आज की मौजूदा हालत में भ्रष्टाचार, रिश्वत इतनी बात नहीं पूछनी चाहिए। यह अशिष्टता है, घोर अशिष्टता है। यह सीधी साफ बात है, यह स्वीकृति होनी चाहिए। इसमें कोई झगड़ा नहीं करना चाहिए। हां, रह गई बात यह कि अगर हम इसे स्वीकार कर लें तो हम इसे मिटा सकते हैं। इसे हम स्वीकार कर लें तो इसकी बुनियादी जड़ों में जा सकते हैं कि बात क्या है। कोई आदमी अपनी तरफ से बुरा नहीं होना चाहता। बुराई सदा ही मजबूरी की हालत में पैदा होती है। हां, कुछ लोग होंगे जिनको बुरा होने में मजा आता है, वे रुग्ण हैं। उनकी चिकित्सा हो सकती है। लेकिन अधिकतम लोग बुरा होने के लिए बुरा नहीं होते। जब जीना मुश्किल हो जाता है तब बुराई को साधन की तरह पकड़ते हैं।
जब इतनी बुराई है तो इस बात की यह खबर है कि मुल्क इस जगह खड़ा है जहां असंभव हो गया है। इसलिए जीने को हम कैसे संभव बनाएं? कैसे सरल बनाएं? कैसे समृद्ध बनाएं? यह सोचना चाहिए। भ्रष्टाचार कैसे मिटाएं यह सोचिए ही मत। आप सोचिए कि जीवन को कैसे समृद्ध बनाएं। जीवन को कैसे सरल बनाएं। कैसे जीवन को गतिमान करें। जीवन कैसे रोज रोज समृद्धि के नए शिखरों पर पहुंचें, इसकी फिक्र करिए। भ्रष्टाचार वगैरह की व्यर्थ बकवास में मत पड़े रहिए।
सिर्फ इंडिकेटर्स हैं। जैसे एक आदमी को बुखार आ जाए, अब घर में नासमझ हों या घर में अगर भारतीय किस्म के लोग ज्यादा हों, तो ठंडा पानी डालना इलाज होना चाहिए। क्योंकि गर्म हो गया उसका शरीर, ठंडा कर दो पानी डाल कर। लेकिन बुखार बीमारी नहीं है। बुखार सिर्फ भीतर की बीमारी की सूचना है। तो इसलिए अगर शरीर गर्म हो गया हो किसी का तो ठंडा पानी मत डालना। ठंडा पानी डालने से बीमारी मिट जाएगी क्योंकि बीमार मिट जाएगा। बुखार इस बात की खबर है कि शरीर में कहीं स्ट्रगल पैदा हो गई है, शरीर में कहीं संघर्ष खड़ा हो गया है। संघर्ष की वजह से शरीर गर्म हो गया है। शरीर में कही कोई कांफ्लिक्ट खड़ी हो गई है, शरीर का सहयोग टूट गया है, शरीर पूंजीवाद न रह कर, समाजवादी हो गया है। कुछ गड़बड़ हो गई है। हार्मनी टूट गई है, क्लास-स्ट्रगल शुरू हो गई है, दो तरह के कीटाणु इकट्ठे हो गए हैं। उस लड़ाई की वजह से शरीर गर्म हो गया है। उस लड़ाई में गर्मी आ ही जाती है। इस गर्मी को ठंडा नहीं करना है। उन कीटाणुओं को मारना है भीतर जाकर कि वह लड़ाई खत्म हो तो शरीर अपने आप ठीक टैम्परेचर पर वापस लौट आए।
भ्रष्टाचारी, रिश्वतखोरी, चोरबाजारी, स्मगलिंग सब बुखार है। शरीर का तापमान बढ़ गया है, समाज का। लेकिन असली बीमारी कहां है? असली बीमारी नहीं है यह। लेकिन हमारे सब नेता और सब ज्ञानी उन्हीं को ठीक करने में लगे हैं। भारतीय जो ठहरे, शुद्ध--हंड्रेड परसेंट भारतीय। वे उसको ठीक कर रहे हैं, और कहते हैं बिलकुल ठीक कर देंगे। लेकिन किसी को यह खयाल नहीं है कि भारत की यह बीमारी आज नहीं आ गई है। यह बीमारी भारत में बढ़ते-बढ़ते पांच हजार साल में अब पूरी तरह प्रकट हुई है। पांच हजार साल का भारत का इतिहास कहता है कि परीक्षा में पास होना हो तो हनुमानजी को रिश्वत खिला दो, एक नारियल चढ़ा दो। उनसे कहो कि पांच आने का नारियल चढ़ाएंगे, हमारे लड़के को पास करवा दो। अगर लड़के को पास करवा दिया तो पांच आने का नारियल चढ़ा देंगे। अब यह क्या है? रिश्वत नहीं है तो क्या है? आप समझते हैं, यह कौन सी चीज है?
भगवान से जाकर कह रहेे हैं, मंदिर बनवा दूंगा, अगर एक बच्चा पैदा हो जाए। यह क्या है? हां, भगवान और देवताओं को देते-देते, विकास होते-होते आदमियों तक यह बात पहुंच गई, यह दूसरी बात है।
आफिसर से कहते हैं कि नारियल चढ़ा देंगे जरा कुछ काम करवा दें। हम पहले से ही इसी तरह काम कर लेते रहे। और जब हम भगवान तक से सस्ते में काम लेते रहे तो बेचारा आफिसर किस खेत की मूली है और जब भगवान तक नारियल से राजी होते हैं, तो आफिसर न हों तो गैर भारतीय हैं। तो उसको राजी होना चाहिए, अशिष्टता मालूम होगी।
भारतीय का चित्त रिश्वतखोर है। वह रिश्वत खिला रहा है। वह खुशामदी है। वह भगवान को, देवताओं की, राजाओं की खुशामद भी करता था और अब न देवता दिखाई पड़ते, न भगवान दिखाई पड़ते हैं और राजा ही दिखाई पड़ते हैं। ये बेचारे मिनिस्टर वगैरह दिखाई पड़ते हैं। अफसर दिखाई पड़ते हैं। वह उन्हीं की खुशामद कर रहा है। वह हाथ जोड़े इन्ही के दरवाजे पर बैठा हुआ है।
स्वभावतः गरीब मुल्क है, दीन मुल्क है। जिनके हाथ में थोड़ी ताकत है वह उनके आस-पास पूंछ हिलाने लगता है। और अब तो पूंछ हिलाने तक में बड़ी मुश्किल हो गई है और उतनी समझदारी रखनी पड़ती है, जैसे आमतौर से कुत्ते रखते हैं। आपने कभी कुत्ते को पूंछ हिलाते देखा। अगर अजनबी के सामने कुत्ता आएगा तो भौंकेगा भी और पूंछ भी हिलाएगा, दोनों काम करेगा--डबल रोल एक साथ। क्योंकि अभी पक्का नहीं है कि अजनबी जो है वह मित्रता का रुख लेगा या शत्रुता का रुख लेगा। अगर शत्रुता का रुख लेगा तो पूंछ हिलाना बंद कर देगा, भौंकने को बढ़ा देगा। अगर मित्रता का रुख लेगा तो भौंकना बंद कर देगा, पूंछ की ताकत बढ़ा देगा। अब तो नेताओं के बाबत कुछ पक्का नहीं है कि कौन नेता कब तक नेता रहेगा, किस क्षण सख्त हो जाएगा, भूतपूर्व हो जाएगा, कुछ पता नहीं है। इसलिए थोड़ा आदमी भौंकता भी है, पूंछ भी हिलाता है। अगर स्थिर हो जाए तो पूंछ जोर से हिला देंगे और अगर बाहर निकल गया तो फिर जोर से भौंक कर बता देंगे। अब तो कुछ निश्चित नहीं है। लेकिन यह भारतीय लक्षण है। यह हमारे कौमी लक्षण हैं। इन कौमी लक्षणों का जिम्मा पूंजीवाद पर नहीं है। यह पूंजीवाद से बहुत प्राचीन है और इन प्राचीन लक्षणों की जड़े बहुत गहरी हैं।
और सारे उपद्रव की जड़ हमारी दीनता, दरिद्रता, हमारी गरीबी है। उस गरीबी को मिटाने की दिशा में हम जो भी करें वही कदम भ्रष्टाचारी, रिश्वतखोरी, चोरबाजारी, सबको मिटाने वाले सिद्ध हो सकते हैं।
और बहुत से प्रश्न रह गए हैं। लेकिन मैं आशा करता हूँ कि मैंने जो बातें आपसे कहीं, उन बातों को अगर आप सोचेंगे तो जिन प्रश्नों के उत्तर मैं समय की कमी से नहीं दे पाया, वे उत्तर आपके खयाल में आ सकते हैं। अंतिम निवेदन कि मेरी बातों को मान लेने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि मैं कोई नेता नहीं हूूं। और आपसे मुझे कुछ लेना-देना नहीं। आपसे कुछ लेना-देना नहीं कि आप मेरी बातें मानें तो मुझे फायदा हो, और मेरी बातें न मानें तो मुझे कोई नुकसान हो!
मेरी बातों को मानने की इसलिए भी कोई जरूरत नहीं हैं कि मैं कोई महात्मा हूं, कोई साधु हूं, कोई संत हूं कि आपको अनुयायी बनाने की मेरी इच्छा है। मैंने आपसे जो निवेदन किया, वह विचार के लिए है। आप सोचें...!
इतनी कृपा काफी होगी कि आप सोचें...! और अगर आपको कुछ ठीक दिखाई पड़े तो वह ठीक, वह आपकी जिंदगी में आपका अपना सत्य हो जाएगा। जो सत्य स्वयं के हो जाते हैं, वे सक्रिय हो जाते हैं। और सत्य थोड़ा सा भी सक्रिय हो जाए, तो उसके परिणाम दूरगामी हो जाते हैं। जैसे हम पत्थर को फेंक दें झील में, जरा सी जगह पर गिरता है, लेकिन उसके वर्तुल दूर-दूर झील के किनारों तक फैलने शुरू हो जाते हैं। तो इस आशा पर मैंने ये बातें कहीं हैं कि आपमें से शायद कुछ लोग भी अगर सोचेंगे तो जो वर्तुल पैदा होंगे वे शायद देश के कोने-कोने तक फैल जाएं! और हो सकता है कि अतीत में हमने भूलें की हों--लेकिन अतीत की भूलों से क्या प्रयोजन? हम भविष्य में भूलें करने से बच जाएं तो भी काफी है।

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