Thursday, March 12, 2020

साक्षी की साधना-(साधना-शिविर)-प्रवचन-03

साक्षी की साधना-(साधना-शिविर)


ओशो
तीसरा-प्रवचन
जो दिखाई पड़ जाए उसका जीवन में प्रविष्ट हो जानावह भी उतना महत्वपूर्ण नहीं हैउससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण हैजो जीवन में प्रविष्ट हो। वह आरोपितजबरदस्तीचेष्टा और प्रयास से न होबल्कि ऐसे ही सहज हो जाए--जैसे वृक्षों में फूल खिलते हैंया सूखे पत्ते हवाओं में उड़ जाते हैंया छोटे-छोटे तिनके और लकड़ी के टुकड़े नदी के प्रवाह में बह जाते हैं। उतना ही सहज जीवन में उसका आगमन हो जाए।
वह तो तीन दिनों में मैं चर्चा करूंगाउसे आप समझने और सोचने की दिशा में सहयोगी बनेंगे। अभी आज की रात तो कुछ बहुत थोड़ी सी प्राथमिक बातें मुझे कहनी हैं। लेकिन इसके पहले कि मैं वे बातें कहूंयह भी आपसे निवेदन कर दूंसाधारणतः जो लोग भी धर्म और साधना में उत्सुक होते हैंवे सोचते हैं कि बहुत बड़ी-बड़ी बातें महत्वपूर्ण हैं।

मेरी दृष्टि भिन्न है। जीवन बहुत छोटी-छोटी बातों से बनता हैबड़ी बातों से नहीं। और जो व्यक्ति भी बहुत बड़ी-बड़ी बातों की महत्ता के संबंध में गंभीर हो उठता हैवह इस तथ्य को देखने से वंचित रह जाता हैअक्सर वंचित रह जाता है। उसे यह बात नहीं दिखाई पड़ पाती है कि बहुत छोटी-छोटी चीजों से मिल कर जीवन बनता है।
परमात्मा और आत्मा और पुनर्जन्म और इस तरह की सारी बातें धार्मिक लोग विचार करते हैं। इसमें बहुत छोटे-छोटे जीवन के तथ्यदृष्टियां और हमारे सोचने और जीने के ढंग उनके खयाल में नहीं होतेऔर तब बड़ी बातें हवा में अटकी रह जाती हैं। और जीवन के पैर जिस भूमि पर खड़े हैं उस भूमि में कोई परिवर्तन नहीं हो पाता।
कुछ छोटे-छोटे थोड़ी सी बातों के संबंध में आज की रात चर्चा करना चाहूंगा। अगर उन पर थोड़ा ध्यान देंगेतो आने वाले तीन दिनों में कुछ गहरा काम भी हो सकता है।
इसके पहले कि मैं बात शुरू करूंएक छोटी सी कहानी कहूंशायद उस कहानी के आधार पर पूरी चर्चा होती चले।
दो मित्र पृथ्वी की परिक्रमा के लिए निकले। उन्होंने चाहा और आकांक्षा की कि हम सारी पृथ्वी को घूम डालें और देख डालेंऔर जीवन के विविध रूपों को अनुभव करें और जीवन में जो अनुभव की संपदा है उसे बटोरें। लेकिन एक उनमें से अंधा था। बड़ी दया की दूसरे मित्र नेवह उसका हाथ पकड़ कर उसे सारी पृथ्वी घुमाने के लिए राजी हुआ था। अंधा आदमी अपनी लकड़ी टेक कर और मित्र का सहारा लेकर यात्रा शुरू की। लेकिन थोड़े ही दिनों में अड़चनें आनी शुरू हुईं।
दूर से मित्र बने रहना एक बात है और लंबी यात्रा में सहयोगी और साथी होना बिलकुल दूसरी। बहुत सी कठिनाइयां आनी शुरू हो गईं। छोटी-छोटी बातों में उपद्रव और विरोध शुरू हो गया। कटुता आनी शुरू हो गई। पृथ्वी बड़ी थीपरिक्रमा बहुत बड़ी थी। थोड़े ही दिनों में दोनों के बीच मनमुटाव गहरा हो गया।
एक रात दोनों एक रेगिस्तान में सोएबहुत सर्द और ठंडी रात थी। सुबह जैसे ही अंधे मित्र की आंख खुलीउसने टटोल कर अपनी लकड़ी ढूंढनी चाहीजिसे वह रात रख कर सो गया था। उसके हाथ में लकड़ी आ भी गईदेख कर वह हैरान हुआजो लकड़ी उसके हाथ में आई थीवह बहुत चिकनीसाफ-सुथरीबहुत सुंदर मालूम हो रही थी। वह हैरान हुआ कि यह लकड़ी कहां से आ गईउसकी लकड़ी तो बहुत साधारण और खुरदुरी थी। उसी लकड़ी से उसने अपने आंख वाले मित्र को हिलाया और जगाया और कहा कि उठोसुबह हो गई है और पक्षी गीत गाने लगे हैं और मुर्गों ने बाग दे दी हैऔर अच्छा होगा कि हम जल्दी यात्रा पर निकल जाएंइसके पहले की सूरज चढ़े और धूप बढ़ जाए। आंख वाले मित्र ने आंख खोलीवह घबड़ा कर दूर खड़ा हो गया और उसने अपने अंधे मित्र से कहा कि मित्रतुम जो लकड़ी हाथ में लिए हो वह लकड़ी नहीं हैकृपा करके उसे जल्दी छोड़ देंवह रात मेंसर्दी में ठिठुर गया एक सर्प है और तुम उसे पकड़े हुए हो। लेकिन उस अंधे आदमी ने कहा: अब तो हद्द हो गईमेरे पास आंखें नहीं हैंयह तो मैं समझता हूंलेकिन मेरे पास हाथ हैं। तुम तो शायद अब यह भी कहने लगे कि तुम्हारे पास हाथ भी नहीं हैं। मुझे अनुभव हो रहा है कि लकड़ी हैसर्प नहीं है। और मैं तुम्हारी चालाकी भी समझ गया। शायद यह सुंदर लकड़ी तुम्हें बहुत मन को भा गई होगी और तुम चाहते हो कि मैं इसे छोड़ दूं तो तुम उठा लो। लेकिन मुझे धोखा देना इतना आसान नहीं है। उसके मित्र ने बार-बार प्रार्थना की कि तुम कृपा करो और इसे छोड़ दोवह सर्प है और लकड़ी नहीं है। लेकिन जितना वह मित्र प्रार्थना करता गयाउतना अंधे का आग्रह बढ़ता चला गया। अंततः बात यहां पहुंच गई कि उस अंधे आदमी ने कहा कि अब हमारा साथ आगे नहीं बन सकेगा। फिर दोनों मित्र अलग हो गए।
आंख वाले ने बहुत दुख से उस मित्र को विदा कियालेकिन कोई रास्ता नहीं था। थोड़ी ही दूर चलने पर जब धूप तीखी हो गईतो सर्प की सर्दी थोड़ी कम हुईउसमें प्राण वापस लौटे। और उस अंधे आदमी का जो होना था वह हुआ। उस सर्प ने उसे काटा और वह अंधा आदमी मरा। यह कहानी मैं किसी विशेष प्रयोजन से कह रहा हूं।
मनुष्य के जीवन में एक लंबी यात्रा हैहर मनुष्य के जीवन मेंलंबी परिक्रमा है पूरी पृथ्वी की। जन्म से मृत्यु के बीच लंबी यात्रा है। और हर मनुष्य के भीतर दोनों मित्र मौजूद हैं--आंख वाला भी और न आंख वाला भी। जो आंख वाली शक्तियां हैं मनुष्य के भीतरबहुत कम लोग उन्हें जगा पाते हैं और उन पर...अधिकांश लोग उन्हें ही पकड़ लेते हैं और उनके ही अनुगामी हो जाते हैं। यहां तक भी कि हम अंधी शक्तियों के साथ होकर आंख वाली शक्तियों का साथ भी छोड़ देने को तैयार हो जाते हैं। तब फिर जीवन में बहुत भटकनएक अंधापनदुख और पीड़ा शुरू होती है। और वह पूरा जीवन जीवन न रह कर मृत्यु की ही एक लंबी प्रक्रिया मात्र हो जाती है। फिर हम मरते हैंरोज मरते जाते हैंऔर एक दिन मौत आती है और समाप्त हो जाते हैं। लेकिन जीवन के अर्थ को और आनंद को नहीं जान पाते हैं। जीवन के अर्थ और आनंद को तो वही जान सकता हैजो स्वयं के भीतर आंख वाली शक्तियों का सहारा पकड़े। और जो स्वयं के भीतर अंधी शक्तियों का सहारा पकड़ता हैवह जीवन से भटक जाता है और अंधकार में खो जाता है। अंधापन अंधकार में ले जा सकता हैआंखें प्रकाश में। और प्रकाश के अतिरिक्त न जीवन का अर्थ है कोई और न जीवन में आनंद है कोई। और प्रकाश के बिना जीवन भटक जाता है।
कौन सी शक्तियां हमारे भीतर अंधी हैंउनकी मैं बात करूंगा। कौन सी शक्तियां हमारे भीतर आंख वाली हैंउनकी मैं बात करूंगा। उन तत्वों की भी बात करूंगा जो अंधी शक्तियों को प्रबल करते हैं और उनकी भी जो उन्हें निर्मल करते हैं और आंख वाली शक्तियों को जगाते हैं और चैतन्य करते हैं।
यदि आपके जीवन में दुखचिंता और पीड़ा होयदि आपने जीवन की कोई थिरक और संगीत और आनंद अनुभव न किया होतो एक बात बहुत स्पष्ट रूप से समझ लेनाजाने-अनजाने आपने जीवन की अंधी शक्तियों को ही बल दिया होगाअन्यथा यह नहीं हो सकता था। अगर रास्ते पर हम चलें और पैर बार-बार गङ्ढे में पड़ जाते हों और बार-बार किसी से टकराहट हो जाती हो और चोट लग जाती होतो हम समझेंगे कि...या आंख से अंधी हुई। लेकिन जीवन में यह रोज होता हैकि रोज बार-बार उन्हीं-उन्हीं गङ्ढों में हमारे पैर जीवन के पथ पर गिरते हैं। नये-नये गङ्ढों में भी नहींकल जो क्रोध किया थावही क्रोध आज भी किया। आज जो क्रोध किया हैकल वही क्रोध फिर भी होगा। क्रोध के बाद पछताएंगे भीदुखी भी होंगेनिर्णय भी करेंगे न करने कालेकिन फिर घड़ी दो घड़ी बाद वही भूल सामने आ जाएगीवही गङ्ढावही आदमीवही पैर और फिर वही गङ्ढे में गिरना हो जाएगा।
जीवन निरंतर कुछ थोड़ी सी भूलों को ही दोहराते हैं हम जीवन भर। यह निरंतर उन्हीं-उन्हीं भूलों का दोहरानाजिनके लिए हम पछताएदुखी हुएपीड़ित हुएकष्ट उठायानिर्णय किया नहीं करने काफिर उन्हीं को दोहराते हैंकिस बात की सूचना होगीइस बात की कि भीतर आंख या तो बंद है या हमने जीवन में जो भी दृष्टि पकड़ी है वह अत्यंत अंधकारपूर्ण और अंधी है। उन्हीं भूलों को इसके अतिरिक्त दोहराने का कोई भी कारण नहीं है। और फिर जो कुछ हम जीवन में चाहते हैंवही-वही उपलब्ध नहीं हो पाता। हर मनुष्य आनंद चाहता होगाशांति चाहता होगाएक संगीतपूर्ण व्यक्तित्व चाहता होगाफूल की तरह सुरभित आत्मा चाहता होगालेकिन यह हो नहीं पाता। और जो हम करते हैंवह सब ठीक हमेंजो हम चाहते हैं उसके विरोध में ले जाता है।
इससे किस बात की सूचना मिलती होगीएक ही बात की सूचना मिलती होगीआकांक्षाएं तो हमारी ठीक हैंलेकिन आंखें हमारी अंधी हैं। और आंखें अंधी होंतो स्मरण रखिएखुद की आंखें अंधी होंतो कोई दुनिया में किसी दूसरे की आंख आपके काम नहीं पड़ सकती हैं। कृष्ण कीया क्राइस्ट कीया बुद्ध कीया महावीर कीया किसी की भी आंख आपके काम नहीं पड़ेंगी। और आपकी आंख अंधी होंतो आपके हाथ में सूरज भी लाकर रख दिया जाएतो भी प्रकाश नहीं कर सकेगाउसमें कोई अर्थ नहीं होगा।
एक अंधा आदमीएक मित्र के घर रात विदा ले रहा था। उसके मित्र ने कहा: अंधेरी रात हैसन्नाटा हैअमावस हैरास्ते सुनसान हैंलोगों के घर बंद हैंअच्छा होगा कि तुम हाथ में एक दीया लिए जाओ। उस अंधे ने कहा कि आप बड़ी पागलपन की बातें करते हैंमैं दीया भी ले जाऊंउसका क्या अर्थमेरी आंखें तो नहीं हैं। तो मेरे हाथ में प्रकाश भी होगातो मैं क्या करूंगाफिर भी मित्र ने बहुत आग्रह कियाउसके आग्रह को मान लेकर वह अंधा आदमी एक कंदील को लेकर रास्ते पर निकला। लेकिन वह कोई दस कदम ही गया होगा कि कोई दूसरा आदमी आकर उससे टकरा गया। उस अंधे आदमी ने कहा: मेरे मित्रमुझे तो लालटेन नहीं दिखाई पड़तीलेकिन तुम्हें तो दिखाई पड़ती होगीक्या मैं किसी दूसरे अंधे आदमी से मुलाकात कर रहा हूंउस दूसरे आदमी ने कहा: नहीं भाईमुझे तो दिखाई पड़ता हैलेकिन तुम्हारी कंदील की बाती बुझ गई हैतुम बुझी हुई कंदील लिए हुए होइसलिए कैसे दिखाई पड़तातो अंधे आदमी को तो यह भी पता नहीं चल सकता कि कंदील बुझी है या जली है।
दुनिया भर के शास्त्र बुझी हुई कंदीलों की भांति हमारे हाथों में हैं। जिससे कोई अर्थ नहीं है। कोई कुरान को लिए हुए हैकोई गीता कोकोई बाइबिल कोऔर तीनों टकरा जाते हैं रास्तों पर। तीनों की कंदीलें बुझ गई हैं। लेकिन कंदील बुझी है या जली हैइससे कोई फर्क नहीं पड़ताजब तक कि खुद के पास आंख न हो। आंख के बिना प्रकाश का कोई भी अर्थ नहीं है। तो चाहे हम कितने ही प्रकाशवान लोगों को पूजेंऔरों के वचनों को आदर देंकोई उससेकोई उससे जीवन में हित होने वाला नहीं हैकोई मंगल होने वाला नहीं है। मंगल तो तब होगाजब आंख खुली हो। और मैं स्मरण दिला रहा हूं कि आंख खुली होतो अंधकार मैं भी रास्ता मिल सकता है और आंख बंद होतो प्रकाश में भी कोई रास्ता नहीं है। मैं फिर दोहराता हूंआंख बंद होतो प्रकाश में भी कोई रास्ता नहीं है और आंख खुली होतो अंधकार में भी रास्ता मिल जाता है।
जीवन में जो हमारे इतनी चिंताएंइतना संतापइतनी एंग्ज़ायटीइतनी अशांति हैक्या कभी सोचा कि ये क्यों हैंक्या कभी विचारा कि ये कैसे पैदा हो गई हैंये आसमान से नहीं बरसती हैंइसे हम पैदा करते हैं। जिस ढंग से हम रोज जीते हैंउससे हम पैदा करते हैं। हमारे जीने का ढंग गलत हैसोचने का ढंग गलत हैदेखने की दृष्टि मंद हैहाथ मेंजीवन में कोई प्रकाश नहीं है। जो भी हम करते हैंवह गलत ले जाता है। जो भी हम बनाते हैंवह गलत हो जाता है। जिस भांति भी हम चलते हैंवही रास्ता भटका देता है। तो इन सारे तथ्यों को देखने पर एक बात खयाल में आ जानी चाहिए और वह यह कि हमने अपने जीवन में आंखों वाली शक्तियों को विकसित करने में संकोच किया होगा और अंधी शक्तियों को सहारा दिया होगा। कोई भी अंधी शक्तियां हों। श्रद्धा अंधी शक्ति हैविश्वास अंधी शक्ति है। विचारविवेकआंख वाली शक्तियां हैं। लेकिन हमने श्रद्धा कोविश्वास कोइनको बल दिया है। विवेक को और विचार को नहीं।
मर्ूच्छा अंधी शक्ति है और हमने हर तरह से मर्ूच्छा खोजी है। हमने तरहत्तरह से बेहोश होने के उपाय किए हैं। न केवल हमने शराब और अफीम और गांजाऔर अभी नई दुनिया में मैक्सलीन और एल एस डीऔर इस तरह की चीजें खोजी हैंजिनसे हम मर्ूच्छित हो जाएं। बल्कि हमने भजनकीर्तनधूपनाम-जपमालाएं और न मालूम ऐसी मानसिक तरकीबें खोजी हैंजिनसे मन तंद्रा में चला जाए और सो जाए। हमने मन को जगाने और चैतन्य करने के उपाय नहीं खोजेहमने मन को सुलाने केतंद्रा में ले जाने केनींद में ले जाने केमर्ूच्छित होने के उपाय खोजे हैं। निश्चित ही मर्ूच्छा और नींद से एक तरह की शांति मिलती हैलेकिन वह शांति उसी तरह की है जिस तरह की मुर्दाओं में होती है। जीवंत वह शांति नहीं हैजो मर्ूच्छा से आती हो। जीवंत शांति तो वह हैजो परम जागरण से उत्पन्न होती हो।
इस सबकी मैं बात करूंगा कि हमने किस भांति मर्ूच्छा कोआंखें बंद करने को बल दिया हैसहारा दिया है। और उसकी भी बात करूंगा कि कैसे हम उससे मुक्त हो सकें। और जीवन-शक्तियों कोविवेक की और चैतन्य की शक्तियों को जगा सकें। इन दोंनो की इन तीन दिनों में मैं चर्चा करूंगा।
इसके पहले कि वे तीन दिन की चर्चाएं आपके सामने होंवे सारी बातें आपसे कहूंइन तीन दिनों की बातों को सम्यक रूप से समझनेविचार करनेउस तरफ आंख उठाने के लिए कुछ छोटी-छोटी बातें आपसे अपेक्षित होंगी। पहली अपेक्षा तो यह होगी कि इन तीन दिनों में--जो पीछे आप करते आए हैंसोचते रहे हैंविचार करते रहे हैंउससे थोड़ा सा दूर हट कर अगर बातों को सुनने की कोशिश करेंगेतो शायद कुछ हो सके। उससे थोड़ा तटस्थ होकर अगर सोचेंगेतो कुछ हो सकता है। आमतौर से हम उसे भूल ही जाते हैं जो हमारे मन में बैठा हुआ है।
एक फकीर के पास एक नया युवक दीक्षा लेने गया था। उस युवक ने जाकर उस फकीर के पैर पड़े और कहा कि मैं दीक्षित होने आया हूं।
तो उस फकीर ने पूछातुम किस जगह से आते हो?
उसने कहा: मैं पेकिंग से आता हूं।
उस फकीर ने पूछा कि पेकिंग में चावल के क्या भाव हैं?
वह युवक हंसा और उसने कहा: क्षमा करेंपेकिंग को मैं पीछे छोड़ आयाउसके चावल को भीउसके भाव को भीऔर जिस रास्ते से मैं गुजर जाता हूंवह मेरे लिए मिट गया हो जाता हैऔर जिस पुल पर से मैं गुजर जाता हूंउसको मैं तोड़ देता हूं। मुझे कुछ पता नहीं कि पेकिंग में चावल के क्या भाव हैं।
उस फकीर ने कहा: तब ठीक हैतब मैं तुम्हें दीक्षा देने को राजी हूं। अगर तुम बताते कि पेकिंग में चावल के क्या भाव हैंतो मेरे दरवाजे बंद हो जाते और मैं तुम्हें विदा कर देता। क्योंकि जो आदमी पेकिंग से चला आया और अब भी वहां के भाव साथ में लिए आया हैवह आदमी सत्य की खोज के लिए शांत नहीं हो सकता।
तो इन तीन दिनों में एक प्रार्थना करूंगा कि पेकिंग में चावल के क्या भाव हैंउसको छोड़ देना। पेकिंग हो या अमरावती हो या कुछ और होवहां क्या चावल के भाव हैंअगर वह तीन दिन याद रहेतो बहुत कुछ काम नहीं हो सकता। और जो कठिनाई हैयह स्मरण रहे कि जो बीत जाता हैउसका कोई भार चित्त पर नहीं होना चाहिए। यह स्मरण मात्र भीतर से विदा दे देता है।
अभी रात जब आप सोएंतो स्मरणपूर्वक यह खयाल लेकर सोएं कि जो बीत गयावह बीत गया और इन तीन दिनों में मैं बीते हुए को बार-बार मन पर नहीं लौटने दूंगा। इन तीन दिनों में जो सामने होगा उसको जीऊंगा और जो बीत गया उसको छोड़ दूंगा। अगर इस विचारपूर्वक स्मरण के साथ आप सोएसुबह आप और तरह से उठेंगेजैसा कि आप रोज उठते रहे होंगेउससे बिलकुल भिन्न उठेंगे। क्योंकि एक मन का बहुत अदभुत नियम हैहम जिस बात को लेकर सो जाते हैंठीक उसी बात पर सुबह जागना होता है। उससे भिन्न बात पर कोई कभी नहीं जागता। रात जिस चिंता को लेकर आप सो गए हैंसुबह उसी चिंता पर आप वापस जाग जाएंगे। रात भर वह चिंता आपके मस्तिष्क के द्वार पर खड़ी प्रतीक्षा करेगीजब आप जागेंगेवह हाजिर हो जाएगी। रात्रि का अंतिम विचार सुबह का प्रथम विचार होता है। और आज रात्रि का अंतिम विचार भी यही हो कि मैं जो पीछे है उसे छोड़ता हूं। कम से कम तीन दिन के लिए मैं जो सतत वर्तमान है उसमें जीऊंगाअतीत को बीच में नहीं लाऊंगा।
जो व्यक्ति अतीत को बीच में नहीं लाता चित्त केउसका चित्त बहुत निर्मल और शांत हो जाता है। क्योंकि अशांति सब अतीत से आती है। तो वर्तमान में कोई भी अशांति नहीं होती। इस तत्व पर अभी हम और विचार करेंगेतो समझ में आएगा कि तुम्हें कुछ थोड़े से सुझाव आपको दे रहा हूं। वर्तमान में वह जो प्रज्वलित मूवमेंट हैउसमें कोई अशांति नहीं होती। सब अशांति अतीत से संबंधित होती है या भविष्य से संबंधित होती हैवर्तमान में कभी कोई अशांत नहीं होता। आप खुद ही अपनी अशांति को देखेंगेतो समझ जाएंगे। या तो वह बीती हुई होगी या आने वाली होगी। ठीक क्षण में मौजूद कोई अशांति नहीं होती।
अभी हम यहां बैठे हैंअगर हमारा चित्त इसी क्षण में मौजूद हो जाएकौन सी अशांति हैअगर हम इसी क्षण में जाग जाएंकौन सी अशांति हैअगर किसी जादू से आपका सब अतीत पोंछ दिया जाएतो कौन सी अशांति है?
जीवंत क्षण में कोई अशांति नहीं होती है। पिछला भारअतीत का भार चित्त को अशांति देता है। और आने वाले दिन की कल्पना और योजना चित्त को अशांति देती है।
यहां तीन दिनों मेंसमझ लीजिएन तो कोई अतीत है और न कोई भविष्य है। तीन दिन में बस ये तीन दिन के क्षण हैंजो सामने क्षण आता हैवही है। इन तीन दिनों में इस भांति जीकर देखिएएक बिलकुल नई दृष्टि जीवन के प्रति खुल जा सकती है। और एक बार यह खयाल में आ जाए कि जीवन पर जो भार हैजो टेंशन हैजो तनाव हैवह अतीत और भविष्य का हैतो मनुष्य को एक बिलकुल नया द्वार मिल जाता है खटखटाने का। और तब फिर वह रोज घड़ी दो घड़ी को सारे अतीत और सारे भविष्य से मुक्त हो सकता है। और खयाल रखिएन तो अतीत की कोई सत्ता हैसिवाय स्मृति के और न भविष्य की कोई सत्ता हैसिवाय कल्पना केजो है वह वर्तमान है। इसलिए कि किसी भी दिन परमात्मा को या सत्य को जानना होतो वर्तमान के सिवाय और कोई द्वार नहीं है। अतीत है नहींजा चुकाभविष्य है नहींअभी आया नहीं हैजो है एग्झिसटेंसियलीजिसकी सत्ता हैवह है वर्तमान। इसी क्षण में सामने मौजूद क्षण है वही। इस मौजूद क्षण में अगर मैं पूरी तरह मौजूद हो सकूंतो शायद सत्ता में मेरा प्रवेश हो जाए। तो शायद जो सामने दरख्त खड़ा हैऊपर तारे हैंआकाश हैचारों तरफ लोग हैंइन सबके प्राणों से मेरा संबंध हो जाए। उसी संबंध में मैं जानूंगा उसको भी जो मेरे भीतर है और उसको भी जो मेरे बाहर है।
इन तीन दिनों में अगर हमने थोड़ा सा भी समझपूर्वक जीने की कोशिश की--तो क्षण-क्षण में जीने की कोशिश करेंगेयह मेरा पहला निवेदन है। जब भोजन कर रहे होंतो सिर्फ भोजन करें। भोजन के पहले की बात भूल जाएं और साथ में भोजन करें। और सारा चित्त और सारे प्राण भोजन करने में ही तल्लीन हो जाएं। वे यहां-वहां डूबते हुए न हों। अभी तो यह होता है कि हम जब भोजन करते हैंतब चित्त कहीं और होता है--घर में होता हैदुकान में होता है। जब दुकान में होते हैंतब वह भोजन कर रहा होता है। जब बाजार में होते हैंतब चित्त घर होता हैजब घर में होते हैंतब बाजार में होता है। मतलब यह कि जहां हम होते हैंवहां हम नहीं होते हैं। तो जीवन में एक विशृंखलता और एक खंडितऔर यह खंडित स्थिति बड़ी खतरनाक है। कि जब हम सोते हैं तब चित्त दिन में जो उसने किया उसका स्मरण करता हैसपने देखता है। जो हम दिन में काम करते हैंतो रात जो सपने अधूरे हैंचित्त उन सपनों को पूरा करता है। चित्त पूरे वक्त अनुपस्थित हैएब्सेंट है जहां हम हैंतो हमारा जीवन से संबंध कैसे होगा?
जब हम किसी को प्रेम कर रहे हैंतब चित्त हमारा कहीं और हैतो जीवन में प्रेम कैसे होगाऔर इसीलिए हम जीवन भर अनुभव करते हैं कि हम प्रेम चाहते हैं कि करें और हम चाहते हैं कि कोई हमें प्रेम देलेकिन न तो हम प्रेम कर पाते हैं और न कोई हमें प्रेम दे पाता है। प्रेम के लिए जरूरी है कि हम वर्तमान में हों। लेकिन जब हम प्रेम करते हैं तब चित्त कहीं और होता है। और जहां चित्त प्रेम करते वक्त होता हैजब हम वहां आ गएतो चित्त वहां होता है जहां उसे प्रेम करते वक्त होना चाहिए था। ऐसे जीवन में सारी चीज टूट गई हैं। हम कहीं हैंचित्त कहीं है। जब हम प्रार्थना करते हैंतब चित्त कहीं और हैजब हम व्यवसाय करते हैंतब चित्त कहीं और है। हम किसी काम में भी ठीक-ठीक मौजूद नहीं हैं।
इन तीन दिनों में एक छोटा सा प्रयोग करें--कि जो भी काम कर रहे हैं उसमें पूरी तरह मौजूद हो जाएं। अभी रात को यहां से जाकर सोएंतो पूरी तरह सोएं। पूरी तरह सोने का मतलब यह है कि सोते वक्त इस भांति सोएं कि सारा काम समाप्त हुआ। अब सिवाय सोने के और कोई भी काम नहीं है। अब मैं अपने पूरे प्राणों से सोने जा रहा हूं। और मेरे पूरे प्राण सिर्फ सोने भर के काम को करें और कोई भी काम नहीं है। उसी भांति सोएं। सुबह स्नान करें तो इस भांति स्नान करें कि स्नान करते वक्त आपका पूरा व्यक्तित्व स्नान कर रहा हैआपका चित्त कहीं और नहीं भागा जा रहा है। थोड़े ही दिन स्मरणपूर्वक अगर हम चित्त के साथ सजगता बरतेंतो बहुत कठिन नहीं है कि एक दिन वह घड़ी आ जाए कि हम जो काम कर रहे होंउसमें हम पूरी तरह मौजूद हो जाएं। बुहारी लगा रहे होंतो पूरी तरह मौजूद हो जाएं। और अगर बुहारी लगाते हुए भी कोई पूरी तरह मौजूद हो जाएतो उसे बुहारी लगाने में वही आनंद उपलब्ध होगाजो किसी बड़े से बड़े योगी को ध्यान करने में उपलब्ध हुआ है। कोई फर्क नहीं रह जाएगा। ध्यान का एक ही अर्थ है कि हम जो कर रहे हैंउसमें हमारा चित्त पूरी तरह मौजूद हैपूरी तरह लीन हैउससे बाहर नहीं है। कोई भी छोटा काम।
अभी यहां से उठ कर आप कमरे की तरफ जाएंगेतो चलेंगे रास्ते परतो इस भांति चलें कि चलने के सिवाय और कोई क्रिया आपके चित्त में नहीं हो रहीबस सिर्फ चल रहे हैंचलना ही रह जाए और आप मिट जाएं। अगर चलना ही रह जाए और आप मिट जाएंतो आपके कमरे तक जो सौ कदम उठाए जाएंगेवे सौ कदम परमात्मा के निकट ले जाएंगे। और उन सौ कदमों में ही आपको पता चलेगा कि चित्त तो अपूर्व रूप से शांत हो गया है।
इधर हम तीन दिनों में सतत इस बात की फिकर करेंगे। जो भी काम कर रहे होंउसे इतनी पूर्णता से करेंइतने पूरेटोटलइतने समग्ररूप से उसमें डूब जाएं कि उसके बाहर कुछ भी न रह जाएआप वही हो जाएं।
एक दफा ऐसा हुआतिब्बत में एक बादशाह को अपने राज्य की एक मोहर बनाने थी। और मोहर पर उसके किसी सलाहकार ने कहा कि एक बोलता हुआ मुर्गा उस मोहर पर खोदा जाए। उसे बात जंच गई। उसने सारे राज्य के चित्रकारों को खबर की कि कोई बोलते हुए मुर्गे का चित्र बनाए। राज्य में एक बूढ़ा चित्रकार थाउसे भी बुलायालेकिन उसने कहा कि मैं इतना बूढ़ा हो गया हूं कि अब मैं नहीं बना सकूंगा। तो राजा ने कहा कि तुम बनाते तो होचित्र तो बनाते होयह क्यों नहीं बना सकोगेउसने कहा कि कोई और बना सके तो बेहतर।
बहुत से चित्रकार मुर्गों के चित्र बना कर लाएनमूने के लिएलेकिन उस बूढ़े चित्रकार ने कहा कि सब फिजूल हैंये कुछ भी नहीं हैं। आखिर राजा परेशान हो गयाउसने कहा: तुम खुद बनाते नहींदूसरों को बनाने देते नहीं। फिर हम क्या करेंउसने कहा कि मैं बनाऊं लेकिन मेरा पक्का नहीं हैक्योंकि कम से कम तीन वर्ष लग जाएंगे।
तो राजा ने कहा: तीन वर्ष! एक मुर्गे के चित्र बनाने में?
उसने कहा: चित्र बनाना तो दो क्षण में हो जाएगालेकिन मुर्गा बनने में तीन वर्ष लग जाएंगे।
राजा ने कहा: तुम पागल हुए हो! मुर्गा तुमसे बनने को कह कौन रहा है?
उसने कहा: जब तक मैं मुर्गे को भीतर से न जानूं कि वह कैसा हैऔर जब वह बांग देता है तो उसके प्राणों में क्या होता हैजब तक यह मैं न जान लूंजब यह स्फुरणा मेरे प्राणों में न हो जाएतब तक मैं कैसे मुर्गे को बोलता हुआ बना सकूंगातीन वर्ष लगेंगे। मैं बूढ़ा आदमी हूंविश्वास नहीं दिला सकताबीच में मर भी सकता हूं। तीन वर्ष राज्य की तरफ से मेरी व्यवस्था करनी पड़ेगी भोजन कीक्योंकि उस वक्त मैं कुछ भी नहीं करूंगा।
राजा ने कहा कि ठीकहम व्यवस्था करेंगे। तीन वर्ष की व्यवस्था की गई। वह बूढ़ा कलाकार जंगलों में चला गयाजहां जंगली मुर्गे रहते थे। दोत्तीन महीने बाद राजा ने आदमी अपने देखने भेजे कि वह आदमी पागल तो नहीं हैक्योंकि एक मुर्गा बनाने के लिए तीन साल बहुत होते हैं। और एक निष्णात कलाकार हैजीवन भर उसकी प्रसिद्धि रही हैउसके हाथ में अदभुत जादू हैतुम जाकर देखो कि वह पागल क्या कर रहा हैवे मित्र देखने गएदेख कर हैरान हो गए! वह बूढ़ा तो मुर्गों के बीच छिपा हुआ बैठा हैआस-पास मुर्गे बांग दे रहे हैं। उन्होंने तो उसे देखालेकिन उस बूढ़े ने उन्हें नहीं देखा।
और तीन महीने बाद गएदेखा कि वह तो मुर्गों के साथ दौड़ रहा है चारों हाथ-पैर पर। वह तो बिलकुल पागल मालूम होता हैयह क्या कर रहा हैतीन वर्ष पूरे हुएराजा ने खबर भेजीवह आदमी वापस दरबार में आया। राजा ने कहा: चित्र बना कर लाए हो?
उसने जोर से जैसे मुर्गा आवाज देता हैवैसी आवाज दी।
राजा ने कहा: हम यह नहीं चाहते हैंहमें चित्र चाहिए। तुम मुर्गे की आवाज सीख कर आएइससे क्या होता है?
उस बूढ़े ने कहा: चित्र तो बना देना अब एक क्षण भर का काम है। सामान बुला लेंमैं यही बना दूंगा। लेकिन तीन वर्ष मैं मुर्गे के साथ एक होने की कोशिश कियावह बात हो गई। उसने चित्र बनाया। जो कहा जाता है मनुष्य-जाति के पूरे इतिहास में किसी भी पशु या पक्षी का ऐसा चित्र कभी नहीं बनाया गया। वह चित्र अदभुत है। उसने राजा से कहा कि अब इस चित्र की परीक्षा कर लो।
उसने कहा: इसकी क्या परीक्षा हैहम कैसे जानें कि यह चित्र इतना अदभुत बना?
उसने कहा: चित्र को रख दो और असली मुर्गों को ले आओ। अगर असली मुर्गा देख कर भाग जाएतो तुम समझ लेना कि चित्र बना। असली मुर्गे लाएवे मुर्गे भाग गए। मुर्गे बाहर से झांक कर देखे उस चित्र को और वापस लौट गए। वह जो मुर्गा थातो लड़ने की स्थिति में पूरी बांग देकर खड़ा हुआ था। उस चित्रकार ने कहा: आदमी नहींमुर्गा भी पहचान लेगा कि मुर्गा है।
यह जो उससे राजा ने पूछा कि कैसे यह तुमने बनाया?
उसने कहा: तीन वर्ष तक मैं मुर्गे के साथ एक होने की कोशिश किया। मैं अपने को भूल गया और मुर्गा होता चला गया। धीरे-धीरेधीरे-धीरे ऐसे क्षण आएजब मुझे यह स्मरण भी नहीं रहा कि मैं हूं। एक ही बात स्मरण रहीमुर्गा है। और उन्हीं क्षणों में मैंने मुर्गे की आत्मा को जाना।
जीवन में चौबीस घंटे जो भी हम कर रहे हैंउसके साथ इतनी आत्मलीनताइतना आत्मसात हो जाना जरूरी है कि हम मिट जाएं और वही रह जाए जो हम कर रहे हैं। चाहे वह काम कितना ही छोटा क्यों न होबड़ा क्यों न हो। जो भी काम होउसमें हम डूब सकें पूरे। यह डूबना इन तीन दिनों में एक छोटा सा प्रयोग करें। और मैं कह रहा हूंचौबीस घंटे जो भी आप कर रहे हैं उसमें उसका ध्यान रखें। इन तीन दिनों में ही एक बुनियादी फर्क अनुभव होगा। एक बात खयाल में आएगी।
आज रात सोने से ही शुरू कर दें। वह अभी दूर हैजब यहां से उठ कर जाएंतभी शुरू कर दें। वह भी थोड़ा दूर हैअभी मुझे सुन रहे हैंसुनने में ही शुरू कर दें। सुनते वक्त सिर्फ सुनने की क्रिया रह जाएआप जिसे सिर्फ सुन रहे हैं और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। मात्र सुन रहे हैंकान ही कान रह गए हैं और आप नहीं हैं। जैसे आप सिर्फ कान ही हैं जो सुन रहे हैंआंख ही हैं जो सिर्फ देख रही हैं। अगर इस सुनने की क्रिया को भी इतनी शांति से और इतनी लीनता से सुनेंतो कुछ और सुनाई पड़ेगा। तब शायद वही सुनाई पड़ जाए जो मैं आपसे कह रहा हूं। लेकिन अगर इतनी लीनता नहीं है सुनते वक्ततो आप वह नहीं सुनेंगे जो मैं कह रहा हूंआप वही सुनेंगे जो आप सुनना चाहते हैंसुन सकते हैंपहले से सुने हुए हैंपहले से सोचे हुए हैं। तब आप वही सुनेंगेतब फिर वह नहीं सुन पाएंगे जो मैं आपसे कह रहा हूं। तो यहीं से शुरू कर दें और इन तीन दिनों एक छोटे सूत्र पर काम करें कि जो भी काम कर रहे हैं--उठ रहे हैंबैठ रहे हैंसो रहे हैंउसमें पूरी तरह लीन हो जाएं।
(बच्चे जाओ। तुम जाओ।)
यह तो पहला सूत्र।
(हांतुम एकदम से ही चले जाओ।)
दूसरी बातअगर प्रत्येक कर्म में आत्मलीनता की बात पर थोड़ा खयाल कियातो चित्त बहुत गहरी शांति को अपने आप उपलब्ध होता हैउसके लिए कोई बहुत विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता। दूसरी बातचित्त इसलिए अशांत है कि हम कुछ होना चाहते हैंकुछ बनना चाहते हैंकोई दौड़ है हमारे भीतरकोई एंबीशनकोई महत्वाकांक्षा हैकोई धनी होना चाहता हैकोई बड़े पद पर होना चाहता हैकोई बड़ा त्याग करना चाहता हैकोई बड़ा साधु होना चाहता हैकोई मोक्ष जाना चाहता हैकोई समाधि उपलब्ध करना चाहता हैकोई सत्य पाना चाहता हैलेकिन कोई हमारी दौड़ है बड़ी गहरी। उस गहरी दौड़ की वजह से सारा चित्त अशांत और विकलता से भर जाता है। मैं यह निवेदन करूंजिस व्यक्ति को सच में हीसच में ही जीवन के साथ आत्मलीन होना होसच में ही जीवन के साथ एकात्मता साधनी होउसे एक बात खयाल में रखनी चाहिएउसे अपने ना-कुछ होने को स्वीकार कर लेना चाहिए। उसे कुछ होने की दौड़ से नहींबल्कि ना-कुछ होने के केंद्र को स्वीकार कर लेना चाहिए।
जो व्यक्ति भी अपने नोबडी होने को स्वीकार कर लेता हैना-कुछ होने कोउसके जीवन में अदभुत बातें होनी शुरू हो जाती हैं। और वह जो-जो होना चाहता थावह अनायास होना शुरू हो जाता है। दो बातें हैंएक तो जैसे एक आदमी पानी में तैरता हैहाथ-पैर फेंकता है और एक दूसरा आदमी है जो पानी में बहता हैहाथ-पैर फेंकता नहींपानी की धारा पर अपने को छोड़ देता है और बहा जाता है। इन तीन दिनों में तैरने की कोशिश न करेंबहने की कोशिश करें। कोई ऐसी बहुत सचेत चेष्टा न करें कि यह करना हैवह करना हैयह होना हैवह होना हैबल्कि ऐसे जैसे तीन दिन आएंगे और गुजर जाएंगे और हमें चुपचाप बहे जाना है। यह अदभुत बात है कि जो व्यक्ति बहने के अर्थ को समझ लेता हैउसके चित्त से सारा तनाव विलीन हो जाता है। जो करने की कोशिश करता हैतैरने कीउसका चित्त बहुत तनाव सेबहुत अशांति से भर जाता है। और जो अशांति से भर जाता हैवह कभी सत्य को अनुभव नहीं कर सकता और न जीवन के आनंद को उपलब्ध हो सकता है। जीवन के आनंद की अनुभूति तो अत्यंत सरल चित्त में हो सकती है। और सरल चित्त का पहला लक्षण है: बहता हुआ चित्ततैरता हुआ नहीं। तो इन तीन दिनों के लिए कह रहा हूं फिलहाल अभी तोफिर तीन दिनों में कुछ अनुभव होतो वह तो अपने आप पूरे जीवन कीअपने आप पूरे जीवन की विधि बन जाती है। अभी तो तीन दिन की ही कुल बात हैइसलिए बहुत चिंता में न पड़ें कि अगर हम बहने लगें तो फिर जिंदगी का क्या होगा और अगर हमने कुछ भी होने की फिकर छोड़ दी तो फिर जिंदगी का क्या होगाइस चिंता में न पड़ें। मैं केवल तीन दिन की ही बात कर रहा हूंइसके आगे की कोई बात नहीं कर रहा हूं। तीन दिन कुछ प्रयोग करके देखेंउसमें से कुछ अगर सार्थक होगावह अपने आप बच जाएगाआपको बचाने के लिए नहीं कहूंगा उसे। अगर कुछ होगातो वह अपने आप आपको पकड़ लेगाआप उसे पकड़ें यह निवेदन नहीं करूंगा।
अभी तो तीन दिन इस छोटी सी तीन दिन की घड़ियों के लिए सारी बात कर रहा हूं। तो तीन दिन थोड़ी बहने की कोशिश करें। ये जो आमतौर से धर्म में उत्सुक लोग होते हैंवे बहुत ज्यादा सीरियसनेस पकड़ लेते हैंबहुत गंभीरवे समझते हैं वे कि बहुत भारी गंभीर काम करने जा रहे हैं।
नहींधर्म के इस सत्य को जानने में केवल वे ही लोग सफल हो सकते हैंजो बच्चों जैसे गैर-गंभीर होंनॉन-सीरियस होंजैसे बच्चे। गंभीर चित्त तनाव से भर जाता है। तो मैं आपसे निवेदन करूंगायहां गंभीरता को धारण नहीं कर लेंगे। ज्यादा उचित होगाहंसेंगेप्रसन्न होंगे। गंभीर और उदास होकर नहीं बैठ जाएंगे। जो कौम भी परमात्मा के साथ गंभीरता और उदासी को जोड़ लेती हैउसको हमको परमात्मा तो नहीं मिलताउसको उनके जीवन का सारा आनंद भी नष्ट हो जाता है। तो प्रसन्न रहेंगेहंसेंगेऐसे ही समझेंगे जैसे घूमने चले आए हैंयहां कोई बहुत बड़ी साधनाकोई बहुत बड़ी परमात्मा की खोजकोई बड़ा योग साधने आए हैंतो बहुत गंभीर होकरनहींउस तरह से चीजें नहीं पकड़ लेंगे। उस तरह से चित्त क्षुद्र होता हैउदास होता हैउस तरह के चित्त की जो भी सरलता हैवह सब नष्ट हो जाती है। ये साधु और संन्यासी सरल नहीं रह जातेजिंदगी को इतनी गंभीरता से पकड़ते हैं। ठीक-ठीक व्यक्ति वही सरल हो सकता हैजो जिंदगी को एक खेल की भांति पकड़ता होएक गंभीर घटना की भांति नहीं--एक नाटक की भांतिएक खेल की भांति।
तीन फकीर हुए चीन में। अदभुत फकीर थे। उनके बाबतएक उन तीनों का कोई नाम पता नहीं है। उन्होंने कभी बताया भी नहीं। थ्री लॉफिंग सेंट्स ही उनको कहा जाता था। तीन हंसते हुए फकीर। वे जिस गांव में जातेउनके पहले ही उस गांव में खबर पहुंच जाती कि वे तीनों पागल आ रहे हैं। वे न तो भाषण करते थेक्योंकि भाषण कैसे भी होकुछ न कुछ गंभीर पहले ही आता है। न वे कुछ समझाते थेबस चौराहों पर खड़े होकर हंसना शुरू कर देते थे। एक हंसता था और दूसरा हंसता था और तीसरा और फिर वे तीनों हंसते थे और फिर भीड़ संक्रामक हो जातीआस-पास लोग सुनते और वे भी हंसते और वह सारा गांव हंसने लगता। जिस गांव में वे दो-चार दिन टिक जातेवह सारा गांव हंसने लगता। जिस गांव से वे गुजर जातेवह गांव कहता कि वर्षों का भारवे तीन आदमीतीन दिन रुक गए गांव में आकर वर्षों का भार चला गया है।
तो मैं इधर कहूंगा कि इस शिविर को कोई गंभीर उपक्रम नहीं समझ लेना आप। गंभीरता रुग्ण चित्त का लक्षण है। सरलता से हंसते हुए और एक नाटक की भांति जीवन को लेने में जो समर्थ हो जाता हैउसे जीवन के बहुत से रहस्य खुल जाते हैं।
तो यह निवेदन करूंगा कि तीन दिन ऐसी सरलता से जीएंगे जैसे हम यहां प्रकृति के सौंदर्य को देखने इकट्ठे हुए हों। कुछ मित्र इकट्ठे हुए होंकुछ गपशप करेंगेकुछ हंसेंगे। मौज से तीन दिन बहेंइस भांति अपने को ढीला छोड़ देंगे। आक्रामकएग्रेसिव माइंड नहीं होना चाहिए। और ये साधक जितने होते हैंतथाकथितवे सब एग्रेसिव होते हैंआक्रामक होते हैं। एकदम से आक्रमण करते हैं चीजों को पाने के लिए। जब कि सच्चाई यह है कि सत्य जैसी चीज आक्रमण करके नहीं पाई जा सकती।
एक महिला मेरे पास आती थींवह संस्कृत की बहुत बड़ी पंडित हैंउन्होंने मुझसे कहा कि मुझे ईश्वर को पाना है। मैंने कहा कि कुछ ध्यान करेंतो शायद कुछ इस दिशा में गति हो। उन्होंने एक दिन ध्यान कियालौटते में मुझसे बोलीलेकिन अभी मुझे कुछ अनुभव नहीं हुआ। मैंने कहा: कल और ईश्वर को एकाध मौका और दें। आप तो जल्दी में हैं और ईश्वर तो बड़ा सुस्त हैवह तो जल्दी में मालूम नहीं होताहजारों साल ऐसे ही गुजरते चले जाते हैं। उधर कोई जल्दी नहीं है। लाखों सालकरोड़ों साल ऐसे गुजर गए हैंजैसे कोई वहां जल्दी नहीं मालूम होती। तो आप तो जल्दी में हैं और वह जो जल्दी में नहीं। एक मौका और दें। कल और आएं। वे कल आईं। बड़ी गंभीर थींभारी गंभीर थींगीता उन्हें कंठस्थ थीबातें करतीं तो उपनिषद आतेगीता आतीवेद आतेबहुत गंभीर थीं। फिर आईंफिर लौट कर मुझसे बोलींलेकिन क्षमा करिएअभी तक मुझे कोई ईश्वर का अनुभव नहीं हो पा रहा है। मैंने उनको कहा: होगा भी नहीं कभी। और मैंने एक छोटी सी कहानी कही थीवह मैं आपको भी कहूं।
उनको मैंने कहा कहा था: एक नदी पर एक बूढ़ा संन्यासी अपने एक युवक संन्यासी के साथ नाव से उतरा। नाव से उतर कर उसने उस मांझी से पूछानाव वाले से पूछा कि यह जो पास का गांव हैक्या मैं सूरज डूबने के पहले वहां पहुंच जाऊंगासूरज डूबने को था और उस गांव का नियम थासूरज डूबते ही उस गांव के दरवाजे बंद हो जाते थेकिले केफिर कोई प्रवेश नहीं कर सकता था। फिर रात भर मुझे बाहर रुकना पड़ेगाक्या मैं पहुंच जाऊंगा सूरज डूबने के पहले?
उस मांझी ने कहा कि जरूर पहुंच जाएंगेलेकिन एक बात खयाल रखनाअगर धीरे-धीरे गए तो पहुंच जाएंगे और अगर जल्दी गए तो मुश्किल है।
उस संन्यासी ने कहा: यह पागल मालूम होता हैक्योंकि जल्दी जाऊंगा तो पहुंचूंगासमझ की बात होती है। यह कहता हैधीरे। इसकी बातों में मत पड़ो। अपने युवा साथी को कहा कि भागो! सूरज डूबने को है और अगर रात रुक गएतो रात जंगलजंगली जानवर और बाहर दीवाल के पड़े रहना पड़ेगा।
वे दोनों भागेलेकिन थोड़ी ही दूर जाकरसूरज नीचे उतरने लगाअंधेरा जंगल में घिरने लगावे और तेजी से भागे। और वह बूढ़ा संन्यासी पत्थर से चोट खाकर गिर पड़ा। उसके पैर लहूलुहान हो गए। पीछे से वह मांझी भी अपनी नाव बांध कर अपनी पतवार वगैरह लेकर आता थाउसने कहा कि देखते होमैंने कहा थाधीरे गए तो पहुंच जाओगे। जल्दी चलने वाला कभी पहुंचता ही नहीं।
और तब उस संन्यासी को दिखाई पड़ा कि ठीक कहा थावह आदमी पागल नहीं है। बड़े अनुभव से उसने यह बात कही थी।
मैं भी आपसे कहता हूंपरमात्मा के द्वार केवल उसी के लिए खुलते हैं जो इतने धीरे जाता हैइतने धीरे कि उसके धीरज का कोई अंत नहीं। और जो जल्दी करता हैउसके लिए तो द्वार बंद हो जाते हैं। द्वार इसलिए बंद हो जाते हैं कि जल्दी करने वाला मन अशांत मन हैधीरे से और अनंत धैर्य से जाने वाला मन शांत मन है। द्वार इसलिए बंद नहीं हो जाते कि परमात्मा बंद कर देता है उनकोहम बंद कर लेते हैं। वह जो अधैर्य हैवह अशांत हैवह जो गंभीरता हैवह अशांत है। वह जिंदगी पर जो आक्रमण हैवह अशांति है। कोई आक्रमण नहीं। एग्रेसिव नहींरिसेप्टिव। आक्रामक नहींग्रहणशील। जैसे सुबह हम अपना दरवाजा खोलते हैंहम सूरज पर हमला नहीं करते और रस्सी बांध कर उसको घर में नहीं लातेसिर्फ द्वार खोल कर बैठ जाते हैंफिर सूरज ऊगता हैउसकी रोशनी घर में पड़ जाती है। ऐसे ही अपने चित्त के द्वार को खुला छोड़ दें और फिर प्रतीक्षा करें। सूरज उठेगा और घर रोशनी से भर जाएगा।
आक्रमण नहीं किया जा सकताकेवल मन के द्वार खोले जा सकते हैंग्रहणशील हुआ जा सकता है। और ग्रहणशील होने के लिए तीन बातें आज की रात मैं आपसे कहता हूं।
पहली बात: प्रतिक्षण में जीने की कोशिश करें सहजता से।
दूसरी बात: अति गंभीरता से जीवन को न लें। बड़ी सरलता सेजैसे खेल को लेते होंवैसा ही चित्त को लें।
और तीसरी बात: कोई अधैर्यकोई जल्दी न करें। जितनी जल्दी करेंगेउतनी देर हो जाती है।
और जो जितनी धीर से खड़ा हो जाता हैउतनी ही जल्दी हो जाती है।
एक और कहानी और मैं चर्चा को पूरा करूंफिर तो तीन दिन हम बात करेंगे। उस कहानी को अपने साथ ही लेकर सो जाएं। बिलकुल झूठी कहानी हैलेकिन सत्य उसमें बहुत है।
एक संन्यासी वर्षों सेजन्म से प्रार्थनापूजा में लगा थाऊब गया और घबड़ा गया और बेचैन हो गया। क्योंकि पूरे वक्त जब वह प्रार्थना कर रहा थातब दृष्टि तो प्राप्ति पर लगी थी और जिस दिन उसकी प्रार्थना असफल हो गईउसी दिन दुख और मनोचिंता व्याप्त होती चली गई। एक दिन उसने देखा कि नारद वहां से निकलते हैं और उस बूढ़े संन्यासी ने कहा कि सुनते हैंमैंने सुना है कि निरंतर भगवान की तरफ आप जाते हैंकभी उनसे पूछें कि मेरी मुक्ति को और कितनी देर हैमेरे पीछे जिन्होंने शुरू किया थावे आगे निकल गए और मैं वहीं का वहीं पड़ा हूंयह कैसा अन्याय हैऔर जन्म-जन्म हो गए उनकी प्रार्थना करतेअब तक फल नहीं मिलाआखिर कब मुझ पर कृपा होगी?
नारद ने कहा: जरूर पूछ लूंगा। बगल में ही उसी दिनउसी दरख्त के पीछेबरगद का बड़ा दरख्त थाएक युवा फकीर अपना एकतारा लेकर नाचता था। नारद ने मजाक में उससे पूछा कि मित्रतुम्हें भी तो काफी देर हो गईतुम भी तो सुबह से साधु हुए होअब सांझ होने को आ रहीतुम्हें भी पूछना है परमात्मा सेतो तुम्हारे लिए भी पूछ लूंगा?
वह खूब हंसने लगाऔर उसने कहा: कृपा करनामेरा नाम वहां मत उठानाइस योग्य मेरा नाम नहीं है। और कृपा करनाकुछ पूछना मतक्योंकि जो पूछता हैवह सौदा करता है। और जो यह कहता हैकब तक मिलेगाउसे करने में कोई आनंद नहीं हैमिलने में आनंद है। मैं तो जो गीत गा रहा हूंमुझे सब मिला जा रहा है उसमें ही। और मैं जो नाच रहा हूंमैंने उसमें पा लिया। लेकिन कुछ पूछना मतमेरा नाम मत उठानामेरी बात मत उठाना।
लेकिन नारद कुछ दिनों बाद लौटेऔर उन्होंने उस बूढ़े फकीर को कहा कि मैंने पूछा थाउन्होंने कहा: तीन जन्म और लग जाएंगे।
उस फकीर ने अपनी माला नीचे पटक दी और भगवान की जो मूर्ति रखी थीतो लात मारी उसमें और कहा: हद हो गई अन्याय की! इसीलिए तो नास्तिक ठीक कहते हैं कि ऐसा भगवानवह कुछ शक की ही बात है। मैं नहीं मानता-करता ये सब बातेंबहुत हद हो गई! इतने दिन हो गएअभी तीन जन्म और लगेंगे!
और नारद ने उस फकीर से कहा: जो नाच रहा था उसी दरख्त के पीछेकि मित्रअब तुमको बताने में मुझे और भी डर लगता हैक्योंकि जिसने तीन जन्म की बात ही सुन कर लात मार दी और माला फेंक दीतुम पता नहीं क्या करोगेमैंने तुम्हारे लिए पूछ लिया थायज्ञपि तुमने तो मना किया था। लेकिन उत्सुकतावश मैं नहीं रुक सका। मैंने पूछातो परमात्मा ने कहा कि वह युवक जिस वृक्ष के नीचे नाचता हैउसमें जितने पत्ते हैंउतने ही जन्म लग जाएंगे। वह युवक और तेजी से नाचने लगाउसके एकतारे पर और भी गीत मधुर हो उठा और उसकी आंखें ज्योति सी चमक उठीं और उसने भगवान को धन्यवाद दिया कि तेरा धन्यवादजमीन पर कितने वृक्ष हैं और उन वृक्षों में कितने पत्ते हैंतेरी कृपा अनंत है कि एक ही वृक्ष के पत्तों के बराबर जन्मों में मेरी मुक्ति हो जाएगी। मैं कहां इस योग्यलेकिन जरूर तेरी कृपा होगी बड़ी। इसलिए मुझ पर जो कभी भी पात्र नहीं थायोग्य नहीं थातूने इतनी दया की है। और कथा यह है कि वह यह कहते ही उसी क्षण मुक्त हो गया।
हो ही जाएगा। ऐसा चित्त जो इतनी सरलता सेइतनी कृतज्ञता सेइतनी धन्यता सेइतनी अपनी अपात्रता से और परमात्मा की इतनी अनुकंपा के बोध से भरा हो और जिसमें इतना धैर्य हो कि वह कह सके कि जमीन पर कितने वृक्ष और कितने पत्ते और इस छोटे से वृक्ष में पत्ते ही कितने हैंइतने ही जन्मों में मैं मुक्त हो जाऊंगा। तो यह तो बड़ी जल्दी हो गईयह तो बड़ी शीघ्रता हो गई।
जिसकी इतनी पेशेंस हैइतना धैर्य हैवह तो उसी क्षणउसी क्षण मुक्त हो जाएगा। क्योंकि ऐसे चित्त को रोकने का कोई भी कारण नहीं रह गयाऐसे चित्त के द्वार बंद होने की कोई वजह नहीं रह गई।
तो यह कहूंगा अंत मेंअधैर्य से नहीं कुछ होता है इस दिशा मेंअनंत धैर्य और प्रतीक्षा में। और वह केवल उनमें ही हो सकती है जो जीवन को बड़ी सरलता से खेल की तरह लेंगेगंभीरता से नहींहंसते हुएमौन मेंशांति मेंप्रेम में और धैर्य में जो जीवन को लेंगेजीवन उनके प्रति अपने सब द्वार अनायास खोल देता है।
ये तीन छोटी सी बातें कहींइन तीन पर थोड़ा खयाल करेंगेविचार करेंगे और फिर आने वाले तीन दिनों में इस भूमिका को लेकरमन की इस भूमिका को लेकर सुनेंगेतो शायद कोई बात आपके काम की हो सके और शायद कोई बात आपके मार्ग पर प्रकाश बन सके। लेकिन निर्भर करता है आप परमुझ पर नहीं। वह आपकी चित्त की भूमिका और तैयारीउसकी दृष्टि और उसकी विराटता और उसकी सरलता पर सब कुछ निर्भर करता है।
तो पहले दिन तो परमात्मा से यही प्रार्थना करूंगा कि वह आपके चित्त को ऐसी भूमिका दे। क्योंकि बीज कुछ भी नहीं कर सकते हैं अगर भूमि तैयार न हो। और अगर भूमि तैयार होतो बीज अंकुरित हो सकते हैं और उनमें कुछ आ सकता हैउनमें कुछ पैदा हो सकता है और कोई फूल लग सकते हैं। यह प्रार्थना करूंगा इस पहले दिन की पहली सभा में।
परमात्मा आपके हृदय को ऐसी सरलताशांति और मौन दे कि वह भूमि बन सके और उसमें कोई भी बीज जाए तो अंकुरित हो सके और पल्लवित हो सके।

No comments:

Post a Comment