Tuesday, November 19, 2019

संन्यास से मिलता है सौंदर्य

संन्यासी अपूर्व सुंदर हो जाता है। संन्यास जैसा सौंदर्य देता है, मनुष्य को और कोई चीज नहीं देती। संन्यस्त होकर तुम सुंदर न हो जाओ तो समझना कि कोई भूल-चूक हो रही है। संन्यासी का कोई श्रृंगार नहीं है। संन्यास इतना बड़ा श्रृंगार है कि फिर किसी और श्रृंगार की कोई जरूरत नहीं है।तुमने देखा कि सांसारिक व्यक्ति भोगी है। जवानी में शायद सुंदर होता हो, लेकिन जैसे-जैसे बुढ़ापा आने लगता है, असुंदर होने लगता है। लेकिन उससे उलट घटना घटती है संन्यासी के जीवन में; जैसे-जैसे संन्यासी वृद्ध होने लगता है, वैसे-वैसे और सुंदर होने लगता है। क्योंकि संन्यास की कोई वृद्धावस्था होती ही नहीं, संन्यास कभी बूढ़ा होता नहीं। संन्यास तो चिर-युवा है। इसलिए तो हमने बुद्ध और महावीर की जो मूर्तियां बनाई हैं, वह उनकी युवावस्था की बनाई हैं। इस बात की खबर देने के लिए कि संन्यासी चिर-युवा है। हमने अपूर्व सौंदर्य से भरी मूर्तियां बनाई हैं महावीर और बुद्ध की। उनके पास कुछ भी नहीं है, न कोई साज है, न श्रृंगार है। कृष्ण को तो सुविधा है, कृष्ण की मूर्ति को तो हम सजा लेते हैं, मोरमुकुट बांध देते हैं, रेशम के वस्त्र पहना देते हैं, घुंघरू पहना देते हैं, हाथ में कंगन डालकर मोतियों का हार लटका देते हैं, पर बुद्ध और महावीर के पास तो कुछ भी नहीं है। बुद्ध के पास तो एक चीवर है, जिसको ओढ़ा हुआ है, महावीर के पास तो वह भी नहीं, लेकिन फिर भी अपूर्व सौंदर्य है। ऐसा सौंदर्य, जिसको किसी सजावट की कोई जरूरत नहीं। संसार तो छोड़ना है, संसार की माया-ममता भी छोड़नी है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि संन्यास कठोर बना दे तुम्हें, कृपण बना दे तुम्हें, कि तुम्हारे हृदय को पत्थर बना दे, तब तो तुम चूक गए।
अकसर ऐसा होता है। अकसर तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी और महात्मा, जिस दिन माया-मोह छोड़ते हैं, संसार का, उसी दिन दया-ममता, दया-करुणा भी छोड़ देते हैं। ये तथाकथित संन्यासी रूखे-सूखे लोग हैं। उन्होंने माया-मोह छोड़ी, उसी दिन से वे डर गए हैं। उन्होंने अपने को सुखा लिया भय के कारण। वे रसहीन हो गए हैं। उन पर न नए पत्ते लगते हैं, न नए फूल आते हैं। इसलिए तो उनके जीवन में तुम्हें सौंदर्य दिखाई न पड़ेगा। उनके जीवन में एक कुरूपता है। मरुस्थल जैसे हैं! चूक गए। रस से थोड़े ही विरोध था। पतंजलि ने कहा न- ‘रसो वै स:’, वह सत्य तो रसमय है, वह परमात्मा तो रस भरा है। संन्यासी रस से थोड़े ही विरुद्ध है! रस संसार में व्यर्थ न बहे, रस दया बनकर बहे, करुणा बन कर बहे, सेवा बन कर बहे; रस तुम्हें भिखारी न बनाए, सम्राट बनाए; याचक न बनाए, दानी बनाए; रस तुम लुटाओ, रस तुम दो। इसलिए जो संन्यास तुम्हें माया-मोह से छुड़ाकर करुणा-दया से भी छुड़ा देता हो, समझना चूक गए। तीर निशाने पर न लगा, गलत जगह लग गया। भूल हो गई। माया-ममता से छुड़ाने का प्रयोजन ही इतना है कि तुम्हारी जीवन-ऊर्जा करुणा बने। माया-ममता छूट गयी और करुणा बनी नहीं, तो संसार भी गया और सत्य भी न मिला। तुम घर के न बचे, न घाट के- तुम कहीं के न रहे। संसार छूट गया है और सत्य मिला नहीं है। बाहर का सौंदर्य छूट गया और भीतर का सौंदर्य मिला नहीं है। अटक गए। रसधार ही सूख गई। मरुस्थल हो गए।
ज्यादा से ज्यादा कुछ कांटे वाले झाड़ पैदा हो जाते हों मरुस्थल में तो हो जाते हों, बस और कुछ नहीं। न ऐसे वृक्ष पैदा होते हैं कि जिनमें किसी राहगीर को छाया मिल सके, न ऐसे वृक्ष पैदा होते हैं कि रसदार फल लगें और किसी की भूख मिट सके। ना ही किसी की क्षुधा मिटती, ना ही किसी की प्यास मिटती, रूखे-सूखे ये लोग और इनकी तुम पूजा किए चले जाते हो! इनकी पूजा खतरनाक है, क्योंकि इनको देख-देखकर धीरे-धीरे तुम भी रूखे-सूखे हो जाओगे।इस देश में यह दुर्भाग्य खूब घटा। इस देश का संन्यासी धीरे-धीरे जीवन की करुणा से ही शून्य हो गया। उसे करुणा ही नहीं आती। लोग मरते हों तो मरते रहें। लोग सड़ते हों तो सड़ते रहें। वह तो कहता, हमें क्या लेना-देना! हम तो संसार छोड़ चुके। संसार छोड़े, वह तो ठीक, लेकिन करुणा छोड़ चुके! तो फिर तुम बुद्ध की करुणा न समझोगे, महावीर की अ¨हसा न समझोगे और क्राइस्ट की सेवा न समझोगे। इसे कसौटी मानकर चलना। करुणा बननी ही चाहिए। तो ही समझना कि संन्यास ठीक दिशा में यात्र कर रहा है।    
जो संन्यास तुम्हें माया-मोह से छुड़ाकर करुणा-दया से भी दूर कर देता हो, समझना चूक गए। भूल हो गई। माया-ममता से छुड़ाने का प्रयोजन ही इतना है कि तुम्हारी जीवन-ऊर्जा करुणा बने।

No comments:

Post a Comment