Tuesday, November 19, 2019

प्रश्न : आप कहते हैं सब उसकी मर्जी पर छोड़ दें।

🔴प्रश्न : आप कहते हैं सब उसकी मर्जी पर छोड़ दें। मगर यह कैसे पता चले कि कौन—सी हमारी मर्जी है और कौन—सी उसकी मर्जी है?
खूब मजे की बात कर रहे हो! अपनी मर्जी अभी भी बचाए हुए हो! पुराने संस्कार बाधा डालते हैं। पुराने संस्कार कहते हैं कि यह तो ठीक बात है—सब उसकी मर्जी पर छोड़ दें। मगर यह कैसे पता चलेगा कि यह मर्जी हमारी है कि उसकी?
तुम हो ही नहीं, वही है; तुम्हारी मर्जी हो कैसे सकती है? तुम मेरी बात समझ नहीं पाते, क्योंकि वे सारे जाल जो तुम्हारे चित्त में बैठे हैं, उनके बीच से ही मेरी बात को गुजरना पड़ता है। वह जाल मेरी बात को विकृत कर देता है। मैं कह रहा था—उसके सिवाय और कुछ है ही नहीं; उसकी ही मर्जी है। अब तुम्हारे सामने एक नया सवाल खड़ा हो गया कि यह पक्का कैसे पता चलेगा कि यह उसकी मर्जी है कि मेरी मर्जी है? तुम हो ही नहीं, इसलिए जो भी है उसी की मर्जी है।
नए—नए सवाल उठते जाएंगे तुम्हारे भीतर, क्योंकि धारणाएं तैयार हैं, अभी गई नहीं हैं। तो सवाल उठेगा, फिर कोई बुरा काम करने का सवाल उठा, फिर मैं क्या करूंगा? जैसे कि चोरी करने का सवाल उठा, फिर मैं क्या करूंगा? जिसने सच में सब कुछ छोड़ दिया है, वह चोरी का ख्याल भी उसी पर छोड़ेगा। वह कहेगा—तेरी मर्जी, चोरी करवाना है, चोरी करवा।
इसका यह मतलब नहीं है कि चोरी में पकड़े नहीं जाओगे। क्योंकि परमात्मा ने करवाई, तो पकड़े क्यों गए? अब पकड़ाए जाना भी उसकी मर्जी है, तो पकड़े गए। इसका यह मतलब नहीं है कि मजिस्ट्रेट छोड़ देगा; कि हमने तो परमात्मा की मर्जी से किया था। मजिस्ट्रेट में भी उसी की मर्जी है।
एक सदगुरु के पास एक शिष्य वर्षों रहा, रहा होगा योग चिन्मय जैसा शिष्य! वह सुनता था कि सबमें परमात्मा है, कण—कण में उसी का वास है। एक दिन राह पर भीख मांगने गया था, एक पागल हाथी भागा उस गरीब शिष्य की तरफ। मगर उसने सोचा कि गुरु कहते हैं, आज प्रयोग ही करके देख लें कि सबमें उसी का वास है। कण—कण में है, तो इतने बड़े हाथी में तो होगा ही, निश्चित होगा, बड़ी मात्रा में होगा। गणित ऐसा ही चलता है, कि जब कण—कण में है तो इस हाथी में तो सोचो कितना नहीं होगा। एकदम लबालब भरा है! खड़ा ही रहा! डर तो लगा बहुत। भीतर से कई बार भाव भी उठा कि भाग जाऊं। उसने कहा लेकिन आज अपनी नहीं सुनना है। भीतर बहुत बार चित्त हुआ कि भाग जाऊं, यह मार डालेगा। यह चला आ रहा है बिलकुल पागल; पता नहीं रुकेगा कि नहीं रुकेगा! मगर उसने कहा, अब आज प्रयोग ही करके देख लें, जब वही है। महावत भी चिल्ला रहा है हाथी का कि भाई, रास्ता हट। भाग जा, पागल है हाथी। बच जा कहीं भी। दुकान में प्रवेश कर जा। आसपास के किसी भी मकान में छिप जा। मगर उसने कहा कि चिल्लाते रहो! महावत की कौन सुने, जब वही सब में है।
जो होना था वह हुआ, हाथी ने उसे बांधा अपनी सूंड़ में और फेंका। कोई तीस गज दूर जाकर गिरा। हड्डी—पसली चकनाचूर हो गई। बड़ा दुखी हुआ कि यह क्या मामला है? कण—कण में उसी का वास, इतने बड़े हाथी में नहीं! लंगड़ाता, टूटा—फूटा वापिस गुरु के पास पहुंचा, बोला कि सब वेदांत व्यर्थ, सब बकवास है! कण—कण में क्या, हाथी में भी उसका वास नहीं है।
गुरु ने पूछा: लेकिन महावत ने कुछ कहा था?
कहा: हां चिल्ला रहा था कि पागल है।
और तेरे हृदय में कुछ हुआ था?
कहा: हां, हृदय भी चिल्ला रहा था कि हाथी पागल है। मगर मैंने कहा, एक बार तो प्रयोग करके देख लें! उसकी मर्जी।
उस गुरु ने कहा: महावत में भी उसी की मर्जी थी, और तेरे भीतर भी वही चिल्ला रहा था। अगर तूने उसकी ही मर्जी सुनी होती, तो तू भाग गया होता। तूने उसकी नहीं सुनी। और हाथी तुझसे कह नहीं रहा था कि रास्ते पर खड़ा रह। महावत कह रहा था, भाग जा। तेरा हृदय कह रहा था, भाग जा। और हाथी कुछ कह नहीं रहा था। हाथी की तूने सुनी, जो कुछ कह ही नहीं रहा था। हाथी कह नहीं रहा था कि भाई, खड़े रहो, कहां जा रहे हो? जरा मुलाकात करनी है। कहां जाते हो, हाथ तो मिला लो, जय राम जी तो हो जाने दो। हाथी तो कुछ बोल ही नहीं रहा था। जो नहीं बोल रहा था उसकी तूने सुनी! और तेरा हृदय जोर—जोर से चिल्ला रहा था।
उसने कहा: हां, बहुत जोर—जोर से चिल्ला रहा था कि हट जाओ, भाग जाओ। जान ले लेगा यह। कहां के वेदांत में पड़े हो! फिर कभी प्रयोग कर लेना, आज ही क्या जिद्द ठानी है! और महावत भी चिल्ला रहा था। आसपास के लोग भी चिल्ला रहे थे सड़क के कि भाई, बीच में क्यों खड़ा है रास्ते के, भाग जा।
गुरु ने कहा: सारा संसार चिल्ला रहा था...!
मजिस्टे्रट सजा देगा। लेकिन तब जिसने सब उस पर छोड़ दिया है, वह सजा भी स्वीकार करेगा—उसी की सजा है। उसी ने चोरी करवाई। उसी ने चोरी की। उसी का धन था, जिसकी चोरी की गई। वही मजिस्ट्रेट में है। जिसने सब उस पर छोड़ा, उसका अर्थ यह होता है कि अब मेरी मर्जी जैसी कोई चीज ही नहीं है। अब जो होगा, जैसा होगा। यह बड़ी गहन अवस्था की बात है।
तुम हिसाब लगाते हो कि इसमें मेरी मर्जी कहां है, उसकी मर्जी कहां है? जैसे कि दो मर्जी हो सकती हैं। लहर की कोई मर्जी होती है? मर्जी तो सब सागर की होती है। क्षण—भर को लहर उठती है, नाचती है, गीत गा लेती है, शोरगुल मचा लेती है, फिर खो जाती है। मगर जब लहर नाचती है उत्तुंग, हवाओं से बात करती है, बादलों को छूने की आकांक्षा रखती है, तब भी सागर की ही मर्जी है।
ऐसा जान लेने वाला निर्विचार हो जाता है। तो फिर यह सवाल नहीं उठता कि ऐसा क्यों नहीं हो रहा है? वैसा क्यों नहीं हो रहा है? फिर जैसा हो रहा है, यही उसकी मर्जी है। अगर उसके मन में यही है कि मेरे हाथ में कंकड़—पत्थर ही रहें, हीरे—जवाहरात नहीं, तो कंकड़—पत्थर ही ठीक। तो कंकड़—पत्थर हीरे—जवाहरात हैं, क्योंकि उसकी मर्जी है। उसकी मर्जी से ज्यादा मूल्यवान थोड़े ही हीरे—जवाहरात होते हैं। उसकी मर्जी से हो, तो मौत भी जीवन है। उसकी मर्जी से हो, तो जहर भी अमृत है।
तुम्हारा कूड़ा—करकट जाने दो, आने दो मेरी बाढ़। और तुम्हारे भीतर जल्दी ही, जैसे ही समाज के द्वारा दिए गए संस्कार बह जाएंगे, ज्योति जलेगी।

No comments:

Post a Comment