Thursday, September 3, 2020

अपने जीवन में व्यवहारिक रूपसे “प्राण” शब्द का उपयोग

 



हमने बहुत बार अपने जीवन में  व्यवहारिक रूपसे  “प्राण” शब्द का उपयोग किया है

, परंतु हमे प्राण की  वास्तविकता के बारे मे शायद ही पता हो , अथवा तो हम भ्रांति
से यह मानते है की  प्राण का अर्थ जीव या जीवात्मा होता है , परंतु यह सत्य नही
है ,   प्राण वायु का एक रूप है , जब हवा आकाश में चलती है तो उसे वायु कहते है
, जब यही वायु हमारे शरीर में 10 भागों में काम करती है तो इसे “प्राण” कहते
है ,  वायु का पर्यायवाचि नाम ही प्राण है ।

मूल प्रकृति के स्पर्श गुण-वाले  वायु में  रज गुण प्रदान होने से वह चंचल ,
गतिशील और अद्रश्य है । पंच महाभूतों में प्रमुख तत्व वायु है । वात् , पित्त
कफ में वायु बलिष्ठ है ,  शरीर में हाथ-पाँव आदि कर्मेन्द्रियाँ , नेत्र –
श्रोत्र आदि ज्ञानेन्द्रियाँ तथा अन्य  सब अवयव -अंग इस प्राण से ही शक्ति पाकर
समस्त कार्यों का संपादन करते है . वह अति सूक्ष्म होने से  सूक्ष्म छिद्रों
में प्रविष्टित हो जाता है । प्राण को रुद्र और ब्रह्म भी कहते है ।

प्राण से ही भोजन का पाचन , रस , रक्त , माँस , मेद , अस्थि , मज्जा , वीर्य ,
रज , ओज , आदि धातुओं का निर्माण , फल्गु ( व्यर्थ ) पदार्थो का शरीर से बाहर
निकलना , उठना , बैठना , चलना , बोलना , चिंतन-मनन-स्मरण-ध्यान आदि समस्त स्थूल
व् सूक्ष्म क्रियाएँ होती है . प्राण की न्यूनता-निर्बलता होने पर शरीर के अवयव
( अंग-प्रत्यंग-इन्द्रियाँ आदि ) शिथिल व रुग्ण हो जाते है . प्राण के बलवान्
होने पर समस्त शरीर के अवयवों में बल , पराक्रम
आते है और पुरुषार्थ , साहस , उत्साह , धैर्य ,आशा , प्रसन्नता , तप , क्षमा
आदि की प्रवृति होती है .

शरीर के बलवान् , पुष्ट , सुगठित , सुन्दर , लावण्ययुक्त , निरोग व दीर्घायु
होने पर ही लौकिक व आध्यात्मिक लक्ष्यों की पूर्ति हो सकती है . इसलिए हमें
प्राणों की रक्षा करनी चाहिए अर्थात शुद्ध आहार , प्रगाढ़ निंद्रा , ब्रह्मचर्य
, प्राणायाम आदि के माध्यम से शरीर को प्राणवान् बनाना चाहिए .

परमपिता परमात्मा द्वारा निर्मित १६ कलाओं में एक कला प्राण भी है . ईश्वर इस
प्राण को जीवात्मा के उपयोग के लिए प्रदान करता है . ज्यों ही जीवात्मा किसी
शरीर में प्रवेश करता है , प्राण भी उसके साथ शरीर में प्रवेश कर जाता है  तथा
ज्यों ही जीवात्मा किसी शरीर से निकलता है , प्राण भी उसके साथ निकल जाता है .
श्रुष्टि की आदि में परमात्मा ने सभी जीवो को सूक्ष्म शरीर और प्राण दिया जिससे
जीवात्मा प्रकृति से संयुक्त होकर शरीर धारण  करता है । सजीव प्राणी नाक से
श्वास लेता है , तब वायु कण्ठ में जाकर विशिष्ठ रचना से वायु का
दश विभाग हो जाता है । शरीर में विशिष्ठ स्थान और कार्य से प्राण के विविध नाम
हो जाते है ।

प्रस्तुत चित्र में प्राणों के विभाग , नाम , स्थान , तथा कार्यों का वर्णन
किया गया है .

मुख्य प्राण ५ बताए गए है  जिनके नाम इस प्रकार है ,
१. प्राण ,
२. अपान,
३. समान,
४. उदान
५. व्यान

और उपप्राण भी पाँच बताये गए है ,
१. नाग
२. कुर्म
३. कृकल
४. देवदत
५. धनज्जय

मुख्य प्राण :-
१. प्राण :-      इसका स्थान नासिका से ह्रदय तक है . नेत्र , श्रोत्र , मुख आदि
अवयव इसी के सहयोग से कार्य करते है . यह सभी प्राणों का राजा है . जैसे राजा
अपने अधिकारीयों को विभिन्न स्थानों पर विभिन्न कार्यों के लिये
नियुक्त करता है , वैसे ही यह भी अन्य अपान आदि प्राणों को विभिन्न स्थानों पर
विभिन्न कार्यों के लिये नियुक्त करता है .

२. अपान :-     इसका स्थान नाभि से पाँव तक है , यह गुदा इन्द्रिय द्वारा मल व
वायु को उपस्थ ( मुत्रेन्द्रिय) द्वारा मूत्र व वीर्य को योनी द्वारा रज व गर्भ
का कार्य करता है .
३. समान :-     इसका स्थान ह्रदय से नाभि तक बताया गया है . यह खाए हुए अन्न
को पचाने तथा पचे हुए अन्न से रस , रक्त आदि धातुओं को बनाने का कार्य करता है
.

४. उदान :-     यह  कण्ठ  से सिर ( मस्तिष्क ) तक के अवयवों में रहेता है ,
शब्दों का उच्चारण , वमन ( उल्टी ) को निकालना आदि कार्यों के अतिरिक्त यह
अच्छे कर्म करने वाली जीवात्मा को अच्छे लोक ( उत्तम योनि ) में , बुरे
कर्म करने वाली जीवात्मा को बुरे लोक ( अर्थात सूअर , कुत्ते आदि की योनि )
में तथा जिस आत्मा ने पाप – पुण्य बराबर किए हों , उसे मनुष्य लोक ( मानव योनि
) में ले जाता है ।

५.  व्यान :-     यह सम्पूर्ण शरीर में रहेता है । ह्रदय से मुख्य १०१  नाड़ीयाँ
निकलती है , प्रत्येक नाड़ी की १००-१०० शाखाएँ है तथा प्रत्येक शाखा की भी
७२००० उपशाखाएँ है । इस प्रकार कुल ७२७२१०२०१ नाड़ी शाखा-        उपशाखाओं में
यह रहता है । समस्त शरीर में रक्त-संचार , प्राण-संचार का  कार्य  यही करता है
तथा अन्य प्राणों को उनके कार्यों में सहयोग भी देता है ।

उपप्राण :-
१.  नाग :-     यह कण्ठ से मुख तक रहता है ।  उदगार (डकार ) , हिचकी आदि कर्म
इसी के द्वारा होते है ।

२.  कूर्म :-      इसका स्थान मुख्य रूप से नेत्र गोलक है , यह नेत्रा गोलकों में
रहता हुआ उन्हे दाएँ -बाएँ , ऊपर-नीचे  घुमाने की तथा पलकों को खोलने बंद करने
की  किया करता है ।  आँसू भी इसी के सहयोग से निकलते है ।

३.  कूकल :-     यह मुख से ह्रदय तक के स्थान में रहता है तथा  जृम्भा ( जंभाई
=उबासी ) , भूख , प्यास आदि को उत्पन्न करने का कार्य करता है ।

४.  देवदत्त :-     यह नासिका से कण्ठ तक के स्थान में  रहता है ।  इसका कार्य
छिंक , आलस्य , तन्द्रा , निद्रा आदि को लाने का है ।

५.  धनज्जय :-     यह सम्पूर्ण शरीर में व्यापक रहता है , इसका कार्य शरीर के
अवयवों को खिचें रखना , माँसपेशियों को सुंदर बनाना आदि है । शरीर में से
जीवात्मा के निकल जाने पर यह भी बाहर निकल जाता है , फलतः इस प्राण
के अभाव में शरीर फूल जाता है ।
जब शरीर विश्राम करता है , ज्ञानेन्द्रियाँ , कर्मेन्द्रियाँ स्थिर हो जाती है
, मन शांत हो जाता है । तब प्राण और जीवात्मा जागता है । प्राण के संयोग से
जीवन और प्राण के वियोग से मृत्यु होती है ।
जीव का अंन्तिम साथी प्राण है ।
प्राण के नाम,स्थान और कार्य–विवरण को संक्षिप्त जानकारी के लिए  कृपया संलग्न

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