"ध्यान का मन से कोई लेना-देना नहीं है, यह कुछ मन के पार की बात है। इसके लिए पहला कदम है खेलपूर्ण होना। यदि तुम इसके प्रति खेलपूर्ण हो, तो मन तुम्हारे ध्यान को नष्ट नहीं कर सकता। नहीं तो यह इसको भी एक अहंकार की यात्रा बना लेगा; यह तुमको बहुत गंभीर बना देगा। तुम सोचने लगोगे कि, 'में एक महान ध्यानी हूं। मैं दूसरों से ज्यादा पवित्र हूं, और पूरी दुनिया बहुत ही सांसारिक है--मैं धार्मिक हूं, मैं पवित्र हूं।‘ बहुत से तथाकथित सन्यासियों के साथ यही हुआ है, संत, नैतिकवादी, प्योरिटन्स: यह सब बस एक अहंकार को भरने का खेल खेल रहे हैं, सूक्ष्म अहंकार के खेल।
"इसलिए मैं शुरुआत से ही इसकी जड़ें काट देना चाहता हूं। इसको लेकर खेलपूर्ण रहो। ये एक गीत है जो गाना है। ये एक नृत्य है जो नाचना है। इसे मन बहलाव के लिए करो और तुम्हे आश्चर्य होगा: यदि तुम ध्यान को लेकर खेलपूर्ण हो सकते हो तो, ध्यान तुम्हारे भीतर छलांग और उछाल बन के बढ़ने लगता है। परंतु तुम किसी गन्तव्य की लालसा में नहीं होते; तुम केवल मौन बैठने का आनंद उठा रहे हो, केवल चुपचाप बैठने की क्रिया में आन्दित हो-- ऐसा नहीं कि तुम किसी प्रकार की सिद्धियां प्राप्त करने की या चमत्कारों की आस में हो। यह सब बकवास है, वही पुरानी बकवास, वही पुराना खेल, नए शब्दों में लिपटा हुआ, नए ढंग से किया हुआ...
जीवन को एक लौकिक मजाक की तरह लेना चाहिए-- और तब तुम अनायास ही विश्रांत हो जाते हो क्योंकि तब कुछ भी तनावपूर्ण होने जैसा नहीं है। और उस विश्राम में, तुम में कुछ बदलने लगता है-- एक अकस्मात परिवर्तन, एक रूपांतरण--और जीवन की छोटी-छोटी बातें नए अर्थ प्रकट करने लगती हैं, नए महत्व रखने लगती है। तब कुछ भी छोटा नहीं होता, हर चीज एक नया स्वाद लेने लगती है, एक नई आभा; तुम्हें हर तरफ एक भगवत्ता की प्रतीति होने लगती है। तब कोई ईसाई नहीं बन जाता, तब कोई हिन्दू नहीं बन जाता, तब कोई मुसलमान नहीं बन जाता; बस वो सहज ही जीवन को प्रेम करने वाला बन जाता है। तब वह एक ही बात सीख लेता है, कैसे जीवन में आनन्द से जिया जाए।
परंतु जीवन में आनंद है परमात्मा की ओर उन्मुख होना। परमात्मा की ओर नृत्य करते हुए आगे बढ़ना, परमात्मा की ओर हंसते हुए आगे बढ़ना, परमात्मा की ओर गीत गाते हुए जाना!”
Osho, The Golden Wind
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